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  • इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम में औरतों कि वह इज़्ज़त और एहतराम है जिसका और कहीं तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं किया जा सकता इस्लाम ने जहाँ औरतों का मकाम बहुत बुलन्द किया है वहीं कुछ मामलों में उन्हें पुरूषों से भी ज़्यादा तरजीह दी है। यही वज़ह है कि आज सबसे मॉडर्न तरीन समझें जाने वाले यूरोप और अमेरिका में इस्लाम कबूल करने वालों में मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतें हैं। इनमें कई जानीमानी हस्तियाँ भी हैं। अगर इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ कमतर होते तो क्या यह सम्भव था?

     

    इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ और ऊँचे दर्जे की इतनी बातें हैं कि उन सभी का उल्लेख किसी एक पोस्ट में किया जाना असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जा रहा है।

     

    शुरुआत करते हैं आर्थिक पहलू से अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम औरतों को कमाने और काम काज करने का अधिकार नहीं देता और इसी के ज़रिये सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है।

     

    तो सबसे पहले तो यह जान लें कि इस्लाम में औरतों को कमाने की मनाही नहीं है बल्कि इस्लाम में औरतों को कमाने की ज़रूरत ही नहीं है।

     

    इस्लाम औरतों को यह विशेषाधिकार (Privilege) देता है कि उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी हर हाल में पुरुषों (पिता / पति / भाई) के ज़िम्मे है। यह उनका अधिकार है।

     

    इसके बावजूद अगर वे कमाना चाहें तो इस्लाम के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कोई भी जाइज़ कार्य कर सकती है बिल्कुल जैसे मर्द कर सकता है और उनकी उस कमाई में उनका पूर्ण अधिकार है, उसे वे जैसे चाहें ख़र्च करें । जबकि इसके उलट पुरुष अपनी कमाई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य है।

     

    दरअसल बच्चों का 9 महीने अपने गर्भ में रखना और उन्हें जन्म देना एक महान कार्य है जो सिर्फ़ महिलाएँ ही करती हैं और इस्लाम में इसे पूर्ण महत्त्व दिया गया है।

     

    *…उसकी माँ ने दुःख पर दुःख सहकर पेट में रखा (इसके अलावा) दो बरस में (जाकर) उसकी दूध बढ़ाई की (अपने और) उसके माँ बाप के बारे में ताक़ीद की कि मेरा भी शुक्रिया अदा करो और अपने वालदैन का….*

    (सुरः लुक़मान: 14)

     

    इसलिए शादी के मौके पर आदमी को महेर (तोहफे के तौर पर पैसे या कुछ और) भी चुकानी होती है साथ ही उसका व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है। महेर की रक़म औरत की इच्छा पर होती है वह कितनी भी माँग कर सकती है। अतः सीधे तौर पर आर्थिक मामलों में औरतों को मर्दो पर फ़ज़ीलत है।

     

    यह इतना अहम पहलू है कि इसी के इर्दगिर्द ही औरतों की पूरी सामाजिक स्थिति घूमती है। देखते हैं कैसे?

    स्वयं को औरतों की आज़ादी का पैरोकार कहने वाले मर्द प्रधान समाज ने पहले तो औरतों के इस विशेष योगदान को भुला ही दिया और आज़ादी और काम करने के नाम पर उसके ऊपर आर्थिक बोझ भी डाल कर उसे आदमियों के बीच घुमाने और शोषण करने के लिए उपलब्ध करा दिया।

     

    और यह तथ्य सभी के सामने है सभी इसे जानते हैं और जान बूझ कर अनदेखा कर देते हैं ज़्यादा पुरानी बात नहीं है  #Metoo “मी टू “आंदोलन में दुनियाँ भर में छोटे से लेकर बड़े से बड़े स्तर पर हर जगह काम करने वाली औरतों ने कार्यस्थल पर अपने साथ हुए पुरुषों द्वारा ग़लत कृत्यों का खुला बयान किया था। कईयों ने यहाँ तक कहा कि आर्थिक स्थिति के बोझ में दबे होने पर जीवन भर हम शोषण सहते रहे पर कुछ कर ना सके क्योंकि ना कोई सुनने वाला था ना कोई सज़ा देने वाला।

     

    कुछ ही दिनों में पुरुष प्रधान शोषण केन्द्रित व्यवस्था ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल कर भुला भी दिया। लेकिन सच्चाई और इस पश्चिमी कार्य संस्कृति (Western work culture) आधारित व्यवस्था की हक़ीक़त सभी के सामने है। यह औरतों की आज़ादी की व्यवस्था नहीं बल्कि शोषण की सुविधा और व्यवस्था है।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि कोई इसे समझ नहीं पा रहा। ऊपर बताए तथ्य की यूरोप और अमेरिका जैसे मॉडर्न मुल्कों में औरतों के तेज़ी से इस्लाम कबुल करने का यह भी एक अहम कारण है कि वे इस बात को समझ रहे हैं कि इस्लाम में औरतों को पैसों की तरह मर्दो के हाथों में घूमने जैसा नहीं बल्कि उसे तिजोरी में रखे कीमती हीरे की तरह बनाया है।

     

    ऐसे ही हर मामले में इस्लाम उच्च अधिकार देता है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं –

     

    ❇ वंशानुक्रम (विरासत) का अधिकार:-

     

    कुछ धर्मों के अनुसार, एक महिला को विरासत में कोई अधिकार नहीं है। लेकिन इन धर्मों और समाजों के विपरीत, इस्लाम में महिलाओं को विरासत में हिस्से का अधिकार है।

     

    ❇ अपनी पसंद के मुताबिक शादी का अधिकार:-

     

    पति की पसंद:- इस्लाम ने अपने पति को चुनने में महिलाओं को बहुत स्वतंत्रता दी है। शादी के सम्बंध में लड़कियों की इच्छा और उनकी अनुमति सभी मामलों में आवश्यक घोषित की गई है।

     

    ❇ तलाक का अधिकार:-

    इस्लाम ने औरत को खुलअ का हक़ दिया है कि अगर उसके पास ज़ालिम और अक्षम पति है तो पत्नी निकाह को ख़त्म करने का ऐलान कर सकती है और ये अधिकार अदालत के ज़रिए लागू होते हैं।

     

    ❇ अभिव्यक्ति और अपनी राय रखने का अधिकार:-

    एक अवसर पर, हज़रत उमर (रजि॰) ने कहा: “तुम लोगों को चेतावनी दी जाती है औरतों की महेर ज़्यादा ना रखो।….

    हजरत उमर (रजि॰) को इस तकरीर पर एक औरत ने भरी मजलिस में टोका और कहा कि आप यह कैसे कह सकते हो? हालांकि अल्लाह तआला का इरशाद है

     

    और तुम औरतों को ढेर सारा माल (महेर) दो तो उससे कुछ भी वापस ना लो।

    (सुरः निसा: 20)

     

    जब अल्लाह तआला ने जाईज़ रखा है कि शौहर महेर में ढेर सारा माल दे सकता है तो तुम उसको मना करने वाले कौन होते हो? हजरत उमर (रजि॰) ने यह सुनकर फरमाया :”तुम में से हर एक उमर से ज़्यादा जानकार है”। उस औरत की बात का सम्मान किया गया। हालांकि हजरत उमर (रजि॰) उस वक़्त के खलीफा और बादशाह थे।

     

    इससे पता चलता है कि महिलाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लाम में कितना अधिकार है।

     

    इसके अलावा भी कई अधिकार हैं जैसे सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार एवं बहुत से।

    यही नहीं औरतों को और भी कई तरह से इस्लाम में मुकद्दस मकाम दिया गया है। जैसे कई धर्म और मान्यताओं के अनुसार औरतों से दूरी बनाना, औऱ कुँवारा रहना ईश्वर के पास उच्च दर्जा प्राप्त करने का ज़रिया समझा जाता है। जबकि इस्लाम में इस तरह की भावना को कोई जगह नहीं दी गई और विवाह के लिए प्रेरित किया गया।

    इस सम्बंध में, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :

     

    शादी मेरी सुन्नत है। जो मेरी सुन्नत से भटकता है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।

    (इब्ने माजा 1919)

     

    और सिर्फ़ शादी ही नहीं बल्कि इससे आगे बीवियों से अच्छे व्यवहार को अनिवार्य किया गया:- आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:

     

    आप में से सबसे अच्छा वही है जो अपनी पत्नियों के लिए सबसे अच्छा है और मैं अपने घर वालों के लिए सबसे बेहतर हूँ।

    (तिर्मिज़ी 3895)

     

    इसके अलावा भी औरतों से अच्छे सुलूक की कई आदेश दिए गए यहाँ तक कि क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया

     

    *और औरतों के साथ भलाई से ज़िदगी बसर करो। अगर वह तुमको पसंद ना हो तो हो सकता है तुम एक चीज पसंद ना करते हो और अल्लाह तआला उसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दे।

    (सुरः निसा)

     

    और यह सब हुक़ूक़ भी इस्लाम ने आज नहीं बल्कि 1400 साल पहले ही दे दिए गए जब औरतों को तो जीने तक का अधिकार नहीं दिया जाता था और ज़िंदा दफ़न तक कर दिया जाता था (आज भी महिला भ्रूण हत्या कई जगह की जाती है)। जिसे इस्लाम ने सख्त तरीन अपराध बताया और ऐसा करने वालों को क़यामत के दिन सख्त सज़ा से आगाह किया।

     

    “और जब ज़िन्दा दफ़न की हुई लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस गुनाह की वज़ह से क़त्ल की गई।”

    (सूरः तकवीर 81:8,9)

     

    उस दौर में ही इस्लाम ने औरतों को ना केवल ऐसे हालात से निकाला बल्कि ता क़यामत तक के लिए उनके मर्तबे को उच्च कर दिया।

     

    जहाँ माँ के कदमो के नीचे जन्नत बताया गया तो वहीं बेटियों को मर्तबा इतना अहम बताया गया उनकी परवरिश पर जन्नत की बशारत दी गई।

     

    मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है-

     

    जिसके 3 लड़कियाँ हो फिर तंगदस्ती, ग़रीबी, मुहताजी और खुशहाली व बदहाली में इन्तेहाई सब्र और बर्दाश्त के साथ उनका लालन पालन और देखरेख करें तो अल्लाह उसको सिर्फ़ इसलिए जन्नत में दाखिल फरमाएगा कि उसने उनके साथ रहमों करम का मामला किया है। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! जिसके दो बेटियाँ हों? आप ने फरमाया- जिसके दो बेटियाँ हों वह भी। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि जिसके एक बेटी हों? आपने फरमाया- और एक बेटी वाला भी।”

    (मुसनद अहमद 8425)

     

    जैसा कि पहले कहा गया कि इतनी बातें हैं कि एक पोस्ट में कही ही नहीं जा सकती, चुनाव करना तक मुश्किल है। अतः इस से यह अंदाज़ तो हो ही जाता है कि इस्लाम में औरतों को क्या मुकाम है और इस्लाम पर औरतों के बारे में झूठे आक्षेप लगाने वालों की सच्चाई पता चलती है।

     

  • तलाक़ के बारे में सवाल ?

    तलाक़ के बारे में सवाल ?

    बिल्कुल नहीं। तलाक हो जाने पर बच्चों की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी उनके पिता की है। उनकी हर आर्थिक और दूसरी ज़रूरतों को पूरा करना पूर्ण रूप से उनके बाप के ज़िम्मे है।

    इस्लाम में इस तरह की कोई चीज़ नहीं है। यह पूर्ण रूप से निराधार और झूठ है। लोग यह सवाल हलाला के नाम से फैलाये जा रहे झूठ और गलतफहमी में पढ़कर करते हैं। जिसके बारे में लेख हलाला” पर पहले भी शेयर किया जा चुका है। उस का अध्ययन करें।

    https://islamconnect.in/2021/04/23/3234/

  • औरतों को परदा क्यों? मर्दो को क्यों नहीं?

    औरतों को परदा क्यों? मर्दो को क्यों नहीं?

    जवाब:-इस्लाम की विशेषता यह है कि यह ना केवल महिला सुरक्षा-मुक्त, व्यभिचार-मुक्त, अश्लीलता-मुक्त, बलात्कार-मुक्त समाज बनाने की बात करता है बल्कि वह कैसे बनेगा उसकी पूरी दिशा निर्देश (Guideline) देता है।

     

    इसी गाइडलाइन के अंतर्गत जहाँ एक तरफ़ सख्त कानूनी सज़ा का प्रावधान हैं तो इसकी रोकथाम के लिए दूसरी तरफ़ विवरण आता है हिजाब का। जिसके अंतर्गत ना केवल पहनावा आता है बल्कि व्यवहार और आचरण की पूरी व्याख्या मौजूद है।

     

    यह एक भ्रम पूर्ण एवं असत्य है कि इस्लाम हिजाब हेतु सिर्फ़ महिलाओं को ही आदेश देता है। जबकि क़ुरआन में पुरूषों को भी हिजाब का आदेश और पूर्ण दिशा निर्देश है।

    इस संदर्भ में क़ुरआन में जब बात कही गई, तो हम पाते है कि पहले पुरुषों को निर्देश दिया गया है और फिर औरतों को।

    अल्लाह तआला ने क़ुरआन में फरमाया:-

    (ऐ रसूल) ईमानदारों से कह दो कि अपनी नज़रों को नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें यही उनके वास्ते ज़्यादा सफ़ाई की बात है ये लोग जो कुछ करते हैं ख़ुदा उससे यक़ीनन ख़ूब वाक़िफ है।

    (क़ुरआन: 24:30)

     

    अतः इस्लामी शिक्षा में प्रत्येक मुसलमान को यह निर्देश दिया गया है कि जब वह किसी स्त्री को देखे और सम्भवतः उसके मन में कोई बुरा विचार आ जाए अतः उसे चाहिए कि वह तुरंत अपनी नज़रे नीची कर ले।

    इसके बाद फिर अगली आयत में क़ुरआन में महिलाओं को दिए निर्देश का ज़िक्र किया है।

    अक्सर काले वस्त्र को हिजाब समझा जाता है या काले बुर्के को महिलाओं पर अनिवार्य समझा जाता है। जबकि हिजाब यही नहीं हैं, हिजाब में वस्त्रों के अंतर्गत किस तरह के वस्त्र पहनना चाहिए उसकी गाइडलाइन दी गयी है और जो कपड़े उन गाइडलाइन पर पूरे उतरते हैं उन्हें हिजाब कहा जाता है। फिर चाहे वे कैसे भी हों।

    स्पष्ट हो कि यह गाइडलाइन भी सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पुरषों के लिए भी समान रूप से है।

    प्रमुख रूप से कपड़े के 6 मापदंड है जिन्हें हिजाब की कसौटी कहा जाता है। अगर कोई वस्र इन 6 कसौटियों पर पूरा उतरता है तो उसे हिजाब कहा जायेगा ।

     

    वह 6 कसौटी हैं :-

    1. शरीर का उतना भाग पूरा ढकना जितना कि हुक्म है।
    2. कपड़े इतने तंग (Tight) ना हो कि उनसे अंग प्रदर्शन हो।
    3. वस्त्र पारदर्शी ना हों।
    4. वस्त्र इतने चटक या भड़काऊ ना हो जो विपरित लिंग को उत्तेजित करे।
    5. पुरुष और स्त्रियों के लिबास भिन्न प्रकार के हों।
    6. वस्त्र ऐसे ना हो जिसमें दूसरे धर्मो के चिन्ह वगैरह बने हो या दूसरे धर्मो की विशेष पहचान जुड़ी हो।

    विचार करने योग्य बात है कि पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए यह 6 कसौटी एक जैसी ही है और दोनों को समान रूप से अनुपालन (Compliance) करना होता है।

     

    सिर्फ़ पहली शर्त की व्याख्या में भिन्नता यह है कि जहाँ पुरुषों का सतर (शरीर का वह अनिवार्य हिस्सा जिसे ढकना आवश्यक होता है) वह नाभी से लेकर घुटनों तक है।

     

    जबकि महिलाओं का सतर अधिकांश पूर्ण काया है।

    अतः यह स्पष्ट हुआ कि इस्लाम में हिजाब सिर्फ़ महिलाओं के लिये ही नहीं बल्कि महिला-पुरुष दोनों के लिए है और आदर्श समाज बनाना दोनों की ज़िम्मेदारी है।

    अब यह सवाल ज़रुर उठ सकता है कि इस्लाम में हिजाब दोनों के लिए तो है परन्तु पुरुषों और महिलाओं का सतर अलग-अलग क्यों है?

    तो स्वभाविक-सी बात है कि पुरूष और महिलाओं की शारीरिक बनावट भिन्न है, दोनों के अंग भिन्न-भिन्न है, दोनों के शरीर की आकर्षण क्षमता अलग है।

    और दोनों की मनोविज्ञान (Psychology) और एक दूसरे के शरीर के प्रति आकर्षण-कारक (Attraction factor) अलग-अलग हैं।

    इसीलिए दोनों का सतर अलग होना भी तार्किक (लॉजिकल) और न्यायपूर्ण है।

     

    इसके प्रमाण स्वरूप एक नहीं बल्कि सैकड़ों शोध, सर्वे और तथ्य, देश और दुनियाँ दोनों स्तर पर मौजूद हैं। ज़रा-सा सर्च करने पर आपको यह जानकारी मिल जाएगी। यह बात तो वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हो चुकी है ।

     

    यदि आप इन शोध और तथ्यों को ढूँढने में असमर्थ हैं तो हमें सूचित करें आप को उपलब्ध करा दिए जाएंगे।