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  • क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    जवाब:-  नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष क़ाफ़िर (गैर-मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता है।

    क़ुरआन [5:32] में इसका खुला आदेश है। 👇
    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया”

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर-मुस्लिम (क़ाफ़िर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता। यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर-मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

    क़ुरआन की जिन आयातः में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान के सम्बंध में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है और इन्हीं आयातः को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी क़ाफ़िर को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

     

    कुरआन सूरह 2:191 का हवाला देकर अकसर यह कहा जाता है कि इसमे लिखा है “जहाँ तुम बहुसंख्यक हो जाओ वहाँ गैर मुस्लिमों को क़त्ल करो।” बिलकुल झूठ है। ऐसा इस आयत तो क्या पूरे कुरआन में कहीं भी नहीं लिखा है।

    झूठा प्रोपेगेंडा कर नफ़रत फैलाने वालो लोगों को चैलेंज है कि सूरह 2:191 तो क्या पूरे कुरआन में कहीं कोई आयात बता दे जिसमे यह बात लिखी हो। जो कि वे नहीं बता पाएंगे अतः इनसे निवेदन है कि झूठ की बुनियाद पर नफ़रतें फ़ैलाना बन्द कर दें।

    अब हम कुरआन सूरह 2:191 के बारे में बात करें तो इसका सन्दर्भ क्या है और उसमे क्या लिखा है यह सिर्फ़ उसकी पहले की आयत यानी की 2:190 पढ़ लेने से ही स्पष्ट हो जाता है।

    और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़े, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
    (कुरआन 2:190)

    यानी कि यह स्पष्ट है कि यहाँ युद्ध के हालात के बारे में ज़िक्र है और अंततः अल्लाह ने उन लोगों से लड़ने की अनुमति दी है जो ख़ुद तुमसे लड़ते हैं और तुम्हें क़त्ल करने के लिए आते हैं और अल्लाह की रहमत देखिए कि इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया की जो तुमसे लड़े उन्ही से लड़ने की अनुमति है और इसके अलावा किसी तरह की ज़्यादती की अनुमति नहीं है।

    दरअसल जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का में लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने लगे तो मक्का के सारे लोग आपके दुश्मन बन गए। जो कोई भी इस्लाम स्वीकार करता उसको तरह-तरह की तकलीफ दी जाती थी। उन पर इतने भयानक अत्याचार किए गए कि उसको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    इस्लाम स्वीकार करने वालो पर मक्का के लोगों की तरफ़ से यह अत्याचार 13 वर्षों तक चलते रहे इन लोगों का कसूर सिर्फ़ इतना था कि इन्होंने इस बात को स्वीकारा था कि सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत की जाए, उसके साथ किसी को शरीक ना किया जाए उसके बताए आदेशों का पालन किया जाए, गरीब और यतीमो पर अत्याचार ना करें, हराम का माल ना खाएँ, ब्याज के ज़रिए गरीबों पर ज़ुल्म ना किया जाए, झूठ ना बोलें, रिश्वत ना लें, लड़कियों को ज़िंदा दफन ना करें, शराब और किसी भी तरह का नशा ना करें।

    लेकिन मक्का के सरदारों को यह बात कबूल ना थी और उन्होंने मुस्लिमो पर 13 साल तक कठोर अत्याचार किये और जब वे इस्लाम को बढ़ने से ना रोक पाए तो हथियार और ताकत के दम पर मुस्लिमो को ख़त्म कर देने की ठानी यहाँ तक मुस्लिमो को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया कि उन्हें अपने जीवन भर की कमाई, घर-बार और अपना वतन छोड़ कर मदीना में जाना पड़ा।

    गौरतलब रहे कि इस पूरे अरसे (13 वर्षो) तक अल्लाह ने मुस्लिमो को अपने ऊपर अत्याचार करने वालो को किसी तरह का जवाब देने की अनुमति नहीं दी यहाँ तक अपने बचाव / आत्मरक्षा (Self defense) में भी हाथ उठाने की अनुमति नहीं थी। कई मुस्लिमो ने इस बात की इजाज़त माँगी लेकिन उन्हें सिर्फ़ सब्र करने का ही कहा गया और इजाज़त नहीं दी गई। यहाँ तक कि कितने ही मुस्लिम इन अत्याचारों को सहते हुए स्वर्ग सिधार गए।

    अंततः जब 13 वर्षों के अंतराल के बाद मुस्लिम अपने घरों से निकाल दिए गए और मदीना में जाकर शरण लेने को मजबूर हुए इसके बाद भी मक्का के काफिरों को चैन नहीं मिला और वे मुस्लिमो को ख़त्म करने में लगे रहे कभी पूरा लश्कर लेकर हमला करने आते तो कभी कुछ कभी कुछ और। 14-15 साल का अंतराल गुज़र जाने के बाद अल्लाह ने मुस्लिमो को ऐसे ज़ालिमों को जवाब देने और जो जंग करने आए उनसे युद्ध करने की इजाज़त दी। ऐसा ही ज़िक्र कुरआन सूरह 2:190 में है,

    इसके आगे फिर आयात 2:191 आती है👇

    और जहाँ कहीं उन पर क़ाबू पाओ, क़त्ल करो और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना (उत्पीड़न) क़त्ल से भी बढ़कर गम्भीर है। लेकिन मस्जिदे हराम (काबा) के निकट तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे स्वयं तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अतः यदि वे तुमसे युद्ध करें तो उन्हें क़त्ल करो-ऐसे इनकारियों का ऐसा ही बदला है।
    (कुरआन 2:191)

    ज़ाहिर है जंग के मैदान में जब अंततः लड़ने की अनुमति दी गई तो यही कहा जायेगा कि जब वे तुमसे लड़ने आएँ तो उन्हें जहाँ पाओ वहाँ क़त्ल करो, यह तो नहीं कहा जायेगा कि जब वे लड़ने आएँ तो पीठ फेर कर भाग जाना या खुद ही क़त्ल हो जाना। इस आयत के ही शब्दों से यह भी साफ़ हो जाता है कि उन्हें उस जगह से निकालने के लिए कहा जा रहा है जहाँ से इन्होंने ख़ुद मुसलमानो को बाहर निकाला था और उस पर अब कब्ज़ा किये हुए बैठे हैं। फिर इस आयत में एक बार फिर खबरदार कर दिया गया की तुम उनसे ना लड़ो जब तक कि वे तुमसे ना लड़े।

    अतः इस आयत का सन्दर्भ स्पष्ट हुआ, तथा यह भी मालूम चला कि इस आयत का हवाला देकर जो बताया गया था वह झूठ था और यह भी मालूम हुआ कि कुरआन में जो लड़ने की आयतें हैं वे अत्याचार और अत्याचारियों के विरुद्ध ही है। ना कि आम हालात में और आम लोगों के बारे में।

    जिन्हें नफ़रत फैलाने वाले अपने प्रोपेगेंडा के लिए तोड़ मरोड़ के इस्तेमाल करते हैं।

     

    इसी विषय को विस्तार में जाने के लिए वीडियो देखें।👇https://www.facebook.com/Aimimyakuthpura.hyd/videos/1669457576569984/

  • क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    जवाब:- नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष काफ़िर (गैर मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता।

     

    क़ुरआन 5:32 में इसका खुला आदेश है:-

    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया..”

     

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर मुस्लिम (काफिर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता।

    यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

     

    क़ुरआन की जिन आयात में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है। और इन्हीं आयात को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी काफिरो को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

  • सवाल:- एक मुसलमान किसी गैर मुस्लिम के साथ भाईचारा कैसे रख सकता है, जबकि क़ुरआन में उसे काफ़िर यानी गैर मुस्लिम से दोस्ती ना करने का और उससे जिहाद करने का आदेश मिला है?

    सवाल:- एक मुसलमान किसी गैर मुस्लिम के साथ भाईचारा कैसे रख सकता है, जबकि क़ुरआन में उसे काफ़िर यानी गैर मुस्लिम से दोस्ती ना करने का और उससे जिहाद करने का आदेश मिला है?

    *जवाब*:-दोस्तों, जो गैर मुस्लिम ईश्वर भक्त मुसलमानों से नहीं लड़ते, उनके लिए बुरी युक्तियाँ नहीं करते, परन्तु उनके साथ शांति से रहना चाहते हैं, उन गैर मुस्लिमों के लिए क़ुरआन का साफ़ आदेश देखें-

    *“जो लोग तुमसे तुम्हारे धर्म के बारे में नहीं लड़ते और न तुम्हें घरों से निकालते, उन लोगों (गैर मुस्लिमों) के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता, बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है।”*

    (सुरः मुमतहीना 60:8)

     

    दोस्तों, क़ुरआन की यह एक आयत ही आपत्ति करने वालों के जवाब में बहुत है। लेकिन आपत्ति करने वाले कह सकते है कि-

     

    *”क्या पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) और उनके सहाबा (अनुयायियों) ने इस आयत का पालन किया है?”*

     जी हाँ, नबी और उनके अनुयायियों की तो पूरी ज़िंदगी ही ग़ैर मुस्लिमों के साथ भलाई करते बीती है। युद्ध तो उन्होंने सिर्फ़ अत्याचारियों से किए हैं और अधिकतर तो उन्हें भी माफ़ ही किया है। आइये इसके कुछ चंद नमूने आम आपके सामने रखते हैं।

     

    *”एक दिन नबी ने देखा कि एक गैर मुस्लिम गुलाम आटा पीस रहा है और दर्द से कराह रहा है, आप उसके पास गए तो पता चला कि वह बहुत बीमार है और उसका मालिक उसको छुट्टी नहीं देता। नबी ने उसको आराम से लिटा दिया और सारा आटा स्वयं पीस दिया और कहा, “जब तुम्हें आटा पीसना हो तो मुझे बुला लिया करो।”*

    (सहीह अब्दुल मुफ़रद 1425)

     

    *”एक देहाती ने मस्जिद में पेशाब कर दिया, लोग उसे पीटने के लिए दौड़े, तो नबी ने उनको रोक कर कहा-” इसे छोड़ दो और इसके पेशाब पर पानी डाल दो इसलिए कि तुम सख्ती करने वाले नहीं, आसानी करने वाले बनाकर भेजे गए हो।”*

    (सहीह बुखारी, किताबुल वुजू)

    *”एक बार नबी के एक अनुयायी किसी बात पर अपने गैर मुस्लिम गुलाम को मार रहे थे, संयोग से नबी ने देखा तो दुखी होकर कहा: “जितना अधिकार तुम्हें इस गुलाम पर है, अल्लाह को तुम पर इससे ज़्यादा अधिकार है।” इतना सुन कर वे डर कर बोले, ऐ नबी, मैं इस गुलाम को आज़ाद कर देता हूँ, तो नबी ने कहा: “यदि तुम ऐसा ना करते तो नर्क की आग तुमको ज़रूर छूती।”*

    (अबू दाऊद, किताबुल अदब)

    नबी ने कभी किसी गैर मुस्लिम पर ज़ुल्म नहीं होने दिया, हमेशा न्याय से काम लेते।

    *”एक बार एक गैर मुस्लिम का एक मुसलमान से झगड़ा हो गया, तो फैसले के लिए दोनों पक्ष नबी के पास आये, दोनों के बयान सुनकर नबी ने फ़ैसला गैर मुस्लिम के हक़ में दिया।”*

    *”पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) गैर मुस्लिमों के तोहफे भी कुबूल करते थे और उनको तोहफे भी देते थे। ऐला के हाकिम ने आपको एक सफेद खच्चर तोहफे में दिया, आपने उसे कुबूल किया और उसकी तरफ़ एक चादर भिजवाई।”*

    (सहीह बुखारी, किताबुज़्ज़कात)

     

    *”ईसाईयों का एक प्रतिनिधि मंडल मदीना आया तो नबी ने उनकी ख़ूब मेहमानदारी की और उनको मस्जिद में ठहराया और साथ ही मस्जिद में उन्हें उनके अपने तरीके पर इबादत करने की अनुमति भी दी।”*

    (सहीह मुस्लिम, किताबुल अदब)

    (अलबिदाया वन्निहाया, भाग-3, पेज नंबर 105)

     

    नबी का आदेश था कि *“वह मुस्लिम नहीं हो सकता जो ख़ुद पेट भर कर खाये और उसका पड़ोसी (मुस्लिम या गैर मुस्लिम) भूखा रहे।”*

    (सहीह अदबुल मुफ़रद 82)

    इस्लामिक देशों में रहने वाले गैर मुस्लिमों को इस्लाम की परिभाषा में “ज़िम्मी” कहा जाता है और मुसलमानों को नबी का साफ़ आदेश है-

    *”जिसने किसी ज़िम्मी (ग़ैर मुस्लिम) पर अत्याचार किया, उसका हक़ मारा, उसकी ताक़त से ज़्यादा उस पर बोझ डाला या उसकी इच्छा के बिना उसकी कोई चीज़ ले ली तो मैं क़यामत के दिन उसकी और से दावा करूँगा।”*

    (अबू दाऊद, बैहक़ी भाग-5, पेज नंबर 205)

     

    *”एक मुसलमान ने एक ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को क़त्ल कर दिया, तो हज़रत उमर ने अपने एक गवर्नर को आदेश दिया कि उस मुसलमान को उस ज़िम्मी के करीबी रिश्तेदार के सामने ले जाओ फिर चाहे तो वह उसे माफ़ कर दे या जान से मार दे और उस रिश्तेदार ने उस मुसलमान की गर्दन काट दी।”*

     

    दोस्तों, ये था न्याय और पैग़म्बर मुहम्मद की मृत्युपरान्त आपके सहाबा भी ज़िम्मी (गैर मुस्लिमों) की इज़्ज़त, आबरू, माल, दौलत और धार्मिक स्वतंत्रता का बड़ा ध्यान रखते थे-

     

    *”हज़रत उमर (रज़ि.) विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले प्रतिनिधि मंडल से पूछा करते थे कि किसी मुसलमान की वज़ह से किसी ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को कष्ट तो नहीं दिया जा रहा।”*

    (तारीखे तबरी, भाग-4, पेज 218)

     

    हज़रत खालिद बिन वलीद (रज़ि.) ने आनात के वासियों के साथ जो समझौता किया उसमें ये वाक्य शामिल था-

    *”नमाज़ के समयों के अतिरिक्त वे रात दिन जब चाहे नाकूस (शंख) बजा सकते है और जश्न के दिनों में सलीबें गश्त करा सकते हैं।”*

    (किताबुल खिराज़ पेज नंबर 146)

     

    ये चंद उदाहरण है कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर मुस्लिम भाई बहनों के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने का आदेश है।

     

    अब आपत्ति करने वाले कह सकते है कि,

    *”इस्लाम में गैर मुस्लिम को दोस्त बनाने से मना किया है और मुस्लिम सिर्फ़ मुस्लिमों से दोस्ती कर सकते है!”* (क़ुरआन 3:28, 9:23, 3:118)

     

    गैर मुस्लिम में से सिर्फ़ उन लोगों से दोस्ती करने को मना किया गया है जो मुसलमानों का नुक़सान चाहते है और इस्लाम का मज़ाक उड़ाते है, देखें-

     

    *”ऐ ईमानवालों, जिसने तुम्हारे धर्म को हँसी खेल बना लिया है, उन्हें मित्र ना बनाओ।”*

    (सुरः माइदा 5:57)

     

    *”अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हें निकालने में अत्याचारियों की मदद की।”*

    (सुरः मुमतहीना 60:9)

     

    👉 दोस्तों, यदि कोई व्यक्ति आपके धर्म को बुरा कहे, आपके भगवानों को गालियाँ दे और आपकी बर्बादी के लिए कोशिशें करें तो क्या ऐसे व्यक्ति से आप दोस्ती करोगे?

     

    साथ ही एक मंशा के तहत यह बताने की कोशिश की जाती है कि मुस्लिम विश्व में कभी किसी के साथ शान्ति से नहीं रहा, जो कि पूर्ण असत्य और निराधार बात है, ज़्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं बल्कि आज भी एक निरपेक्ष व्यक्ति यह जानता है कि विश्व में कई मुस्लिम देश है जिनमें सदियों से गैर मुस्लिम बड़ी शांति और आराम से रह रहे हैं, बल्कि आंकड़े बताते हैं कि हर साल इन देशों में जाने और वहीं बस जाने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। क़तर, कुवैत, ओमान, दुबई ऐसी कई जगह हैं। खाड़ी देशों को छोड़ भी दे तो मलेशिया में 61.3% मुस्लिम है जो बाक़ी 39% गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं यही स्थिति इंडोनेशिया की है, सिंगापुर आदि ऐसे कई मुल्क हैं जहाँ इस्लाम दूसरा या तीसरा प्रमुख धर्म है और इन सभी जगह सदियों से मुस्लिम-गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं।

     

    और आख़िर में अंतिम ऋषि मुहम्मद (स.अ.व.) की ये आम शिक्षा हर मुस्लिम गैर मुस्लिम के लिए है कि,

    *”तुम ज़मीन वालों पर दया, मेहरबानी करो, आसमान वाला तुम पर दया, मेहरबानी करेगा।”*

    (अबू दाऊद, किताबुल अदब)