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  • मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    जवाब:- यह कहना बिल्कुल ही निराधार और झूठ है कि किसी भी हिन्दू संस्थान को सरकार से पैसा नहीं मिलता। ऐसे सैकड़ों हिंदू संस्थान है जिन्हें सरकार से पैसा और अनुदान मिलता है। सिर्फ़ पिछले साल ही ऐसे 736 संस्थान सरकारी मदद (पैसो) के लिये रजिस्टर किये गए जिन्होने ख़ुद को संघ की विचारधारा से प्रेरित बताया। ऐसे सभी संस्थाओं की लिस्ट भारत सरकार की नीति आयोग की अधिकृत वेबसाइट पर जाकर देखी जा सकती है।

    इन संस्थाओं के अलावा बात करें तो कुंभ, सिंहस्थ व अन्य धार्मिक मेलों के आयोजन एवं अमरनाथ, वैष्णो देवी आदि यात्रा के प्रबंध व स्टाफ आदि में हज़ारों करोड़ रुपये सरकार ही ख़र्च करती है। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है क्योंकि सरकार का काम ही जनकल्याण होता है। लेकिन इन सभी तथ्यों को छुपा कर मात्र मुसलमानो के खिलाफ जो प्रोपेगेंडा किया जाता है वह ग़लत है।

    अब बात करें मदरसों की तो आज हम देखे की किस तरह शब्दो की हेराफेरी कर झूठ फैलाया जाता है। जहाँ क्षेत्रीय भाषा के सरकारी स्कूलों को उनकी भाषा के नाम से जाना जाता है जैसे मराठी, संस्कृत, गुजराती स्कूल आदि वहीं उर्दू भाषा वाले सरकारी स्कूलों को उर्दू स्कूल की जगह जानबूझ कर मदरसा कह दिया जाता है। इसी तरह उर्दू बोर्ड को मदरसा बोर्ड कह दिया जाता है और ऐसा बताया जाता है कि सरकार मदरसों को पैसे दे रही है या मदरसा-शिक्षको को तनख्वाह दे रही है। जबकि इन स्कूलों में कई शिक्षक तो हिन्दू या दूसरे धर्म के होते हैं जैसे अन्य दूसरे सरकारी स्कूलों में होते है।

     

    जबकि मदरसे जिनसे धार्मिक शिक्षा स्थानों का मतलब लिया जाता है वह सभी स्वायत्तशासी (Autonomous) ही होते हैं और समाज के ज़कात औऱ सदकों से चलते हैं। जिनमें ज़्यादातर ग़रीब-बच्चे पढ़ते हैं जिनके रहने खाने की व्यवस्था भी ख़ुद मदरसे वाले करते हैं और ऐसा कर वह सरकार का सहयोग ही करते हैं क्योंकि हर गरीब बच्चे की शिक्षा और पोषण की ज़िम्मेदारी सरकार की भी होती है।

    धार्मिक शिक्षा के अलावा कई मदरसों में स्कूली और प्राथमिक (Primary) शिक्षा भी दी जाती है। जिसके ख़र्च भी अधिकांशतः मदरसे ख़ुद ही उठाते हैं और आम शिक्षा के लिए सरकार से दी जा रही मदद को भी नहीं लेते। जैसे दारुल उलूम देवबंद से जुड़े 3000 मदरसों ने प्राइमरी शिक्षा के लिए भी सरकार से किसी तरह की मदद लेने से इनकार कर दिया। ऐसा ही अधिकांश मदरसों ने किया।

    अतः मालूम हुआ कि मदरसे न केवल ख़ुद मुस्लिमो के ख़र्च से चलते हैं बल्कि गरीब बच्चो की आम शिक्षा के लिए जो सरकार प्रावधान करती है उसे भी छोड़ कर देश हित में योगदान करते हैं।

    अब अंत में वक्फ बोर्ड और उस से जुड़े कर्मचारियों की तनख्वाह के बारे में जानते हैं। यह जानना तो खुद मुस्लिमो के लिए बड़ा रोचक है कि पूरे भारत में रेलवे के बाद अगर किसी संस्था के पास ज़मीन है तो वह *वक्फ* के पास है यानी मुसलिम कौम की ज़मीन है। आज देश में ज़मीन सबसे महंगा सरमाया है और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में होने के बावजूद मुस्लिमो की आर्थिक हालात देश में सबसे खराब है।

    बड़े ताज्जुब की बात है कि देश भर के प्राइम लोकेशन पर ज़मीनों की मालिक कौम के लोगों के पास ही रहने के लिए घर नहीं है ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इस ज़मीन से मुसलिम समाज को कोई फायदा ही नहीं मिल रहा। बल्कि अक्सर लोगों को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। देश भर की प्राइम लोकेशन वाली वक्फ की जमीनों पर ज़्यादातर कब्ज़ा हो चुका है। यह ज़मीन आपसी रज़ामन्दी से सरकारी बिल्डिंगे बन चुकी हैं और रजामंदी किसकी? यह इन्हीं कुछ लोगों की जिन्हें ख़ुद सरकार ने वक्फ की ज़मीन की देखभाल के नाम पर नियुक्त (Appoint) कर रखा है।

     

    ऐसे ही जहाँ भी किसी समाज की ज़मीन है और उस के संचालन के लिए सरकार ने कुछ लोगों को नियुक्त कर उन्हें तनख्वाह देती है दरअसल इससे समाज का नहीं बल्कि नेताओ और सरकारों का ही भला होता है।

     

    जबकि कुछ लोगों को नियुक्त कर तनख्वाह देने की बजाय अगर पारदर्शिता से इस वक्फ की ज़मीन का सही उपयोग किया जाए तो वह सही मायनों में मुस्लिम समाज की मदद एवं न्याय होगा।

  • क्या मदरसों में गैर मुस्लिमों को मारने की ट्रेनिंग दी जाती है ?

    क्या मदरसों में गैर मुस्लिमों को मारने की ट्रेनिंग दी जाती है ?

    जवाब:-मदरसों में आतंकवाद की तालीम देने का इल्ज़ाम नया नहीं है। पिछले 15-20 सालों में शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा हो जब नफ़रत फैलाने वाले किसी भी छोटे और बड़े लीडर ने मदरसों पर इस तरह के इल्ज़ाम न लगाए हो। कभी मदरसों को आतंकवाद का अड्डा क़रार दिया जाता है। कभी उनको दकियानूसी और कट्टरता का ताना दिया जाता है। कभी यह कहा जाता है कि भारत के मदरसे विदेशी फंड से चल रहे हैं। तो कभी यह कहा जाता है कि इन मदरसों में गैर मुस्लिमों को मारने की ट्रेनिंग दी जाती है।

    और हम इस ब्रेन वाशिंग और झूठ में इतने अंधे हो जाते हैं कि अपनी सामान्य तर्क (Common sense) और बुद्धि का भी इस्तेमाल नहीं कर पाते।

     

    ज़रा सोचिये क्या हमारी इंटेलिजेंस, सुरक्षा बल, RAW, खुफिया एजेंसी जो दुनियाँ भर की आतंकवाद और देश विरोधी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए जानी जाती हैं वे इतनी अक्षम और अपंग हो गई हैं कि देश के अंदर ही चल रहे हज़ारों मदरसों में खुले तौर पर आतंकवाद और गैर मुस्लिमों को मारने की ट्रेनिंग चलाई जा रही है और वह उन्हें ना नज़र आ रही है और ना ही वे इस पर कोई कार्यवाही कर रहे हैं? जब कि मदरसे तो हर वक़्त जाँच पड़ताल के लिए खुले होते हैं।

    और इस से भी आश्चर्य की बात यह कि जो बात हमारी इंटेलिजेंस और सुरक्षा बल पता नहीं कर पा रही हैं वह इन व्हाट्सअप ज्ञाताओं और नेताओँ ने पता लगा ली है?

    इतनी सामान्य बुद्धि (Common sense) की बात भी लोग नफ़रत फैलाने के एजेंडे में पड़ कर ध्यान नहीं दे पाते।

     

    तो चलिए तर्क छोड़ अब आंकड़ों और तथ्यों की नज़र से भी देख लें। इस पूरे मामले का महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आज तक इस तरह का कोई भी इल्ज़ाम अदालत में या अदालत से बाहर साबित नहीं किया जा सका, ना किसी मदरसे से कोई आतंकवादी गिरफ्तार किया गया, ना किसी मदरसे से बम बनाने की फैक्ट्री पकड़ी गई। ना ही गैर मुस्लिमों को मारने की ट्रेनिंग देता कोई पकड़ा गया। यह सब जानते हैं कि मदरसे अमन शांति और अच्छे अखलाक की तालीम देते हैं। यहाँ आतंकवादी नहीं बल्कि अमन पसंद इंसान बनाया जाता है।

    साथ ही ऐसा कहना भी पूर्ण ग़लत है कि मदरसे हिंदुओं के टैक्स के पैसों से चलते हैं।

    क्योंकि अधिकांश मदरसे पूर्ण रूप से स्वचालित ही होते हैं और मुस्लिमों के दान से ही चलते हैं जिनमें ना कोई सरकार के अनुदान का दखल होता है और ना ही किसी और का। मदरसों में ज़्यादातर गरीब या आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चे पढ़ते हैं। इस तरह से आर्थिक रूप से पिछड़ी एक बड़ी जनसंख्या को प्राथमिक शिक्षा, भोजन और आवास प्रदान कर मदरसे देश की सरकार को एक बहुत बड़ा योगदान भी करते हैं, क्योंकि देश भर के गरीब और आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों को शिक्षा, भोजन और आवास देना तो पूर्ण रूप से सरकार की ज़िम्मेदारी होता है।

     

    देश भर के छोटे बड़े सभी मदरसों ने समय-समय पर हर स्तर पर आतंकवाद का विरोध किया है। बार-बार इस इल्ज़ाम से तंग आकर 2007 में दारुल उलूम देवबंद में आतंकवाद के ख़िलाफ एक बहुत बड़ी कॉन्फ्रेंस की थी, जिसमें हर रंग और हर शक्ल के आतंकवाद की खुलकर निंदा की गई और यह ऐलान किया गया कि जिन लोगों को मदरसों के ताल्लुक से कोई शक है वह मदरसों में आए और अपनी आंखों से मदरसों की गतिविधियों को देखें। मदरसे खुली किताब की तरह है जिसे हर शख़्स पढ़ सकता है।

     

    2008 में आतंकवाद के ख़िलाफ तफ्सीली फतवा भी जारी किया था जिसको मीडिया ने बड़े पैमाने पर कवरेज दिया। इसी तरह मुसलमानों की सभी बड़े संगठनों ने अलग-अलग प्लेटफार्म से आतंकवाद और आतंकवादियों की कड़ी निंदा की और इस्लाम के नाम पर होने वाली हर प्रकार की आतंकवादी घटनाओं को इस्लाम के ख़िलाफ बताया और जैसे पहले भी कहा गया इन में से कोई भी मदरसे कभी भी किसी ग़लत गतिविधि में संलिप्त नहीं पाया गया।

     

    जबकि इस के उलट NIA कि वेबसाइट (Website) पर अगर आतंक सम्बंधित मामलों के लिए मोस्ट वांटेड की लिस्ट सेक्शन है उस पर नज़र दौड़ाई जाए तो उसमें मुस्लिम कम बल्कि दूसरे धर्म और उनसे जुड़े संगठनों से जुड़े लोग अधिक हैं जिनमें पूर्व राजदूत माधुरी गुप्ता, आमनंदलाल उर्फ नंदू महाराज और इन जैसे प्रमुख हैं।

     

    इन सभी के बावजूद नफ़रत फैलाने वालों की सोच में कोई तब्दीली नहीं आ सकी। ‌जो कि स्वभाविक है क्योंकि इसी में इनके राजनीतिक हित छुपे हुए हैं, लेकिन आम जनता को तो अब तर्क और बुध्दि से काम लेना चाहिए और इस तरह के बहकावे में नहीं आना चाहिए।