सवाल:-कोरोना महामारी ने सभी धर्मों को अतार्किक साबित कर दिया है मंदिर, मस्जिद हज सब बन्द हो गए? तर्क यही कहता है कि धर्मों के पाखण्ड से बाहर निकल कर धर्म को छोड़ने का सबसे सही समय यही है।*

जवाब:- असली तार्किकता यह नहीं है कि किसी चीज को जाने बिना ही और पढ़े बिना ही बाहर से ही उसे अतार्किक घोषित कर दिया जाए। बल्कि असली एवं ईमानदार तार्किकता तो यह है कि पहले उस चीज को पढ़ा जाए उसके बारे में पूरा ज्ञान हासिल किया जाए और यदि वह सत्य पाई जाए तो उसे कबूल करने का साहस दिखाया जाए।

 

अतः जब हम इस बारे में इस्लाम का अध्ययन करने पर पता चलता है कि मज़हब इस्लाम तर्क का ना सिर्फ़ स्वागत करता है बल्कि, तर्क करने और सोचने एवं बुद्धि से काम लेने के लिए आमंत्रित करता है।

 

फरमाया क़ुरआन में –

और उसने तुम्हारे लिए रात और दिन को और सूर्य और चन्द्रमा को कार्यरत कर रखा है और तारे भी उसी की आज्ञा से कार्यरत है-निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ है जो बुद्धि से काम लेते है।

(सूरहः अल नहल 16:12)

कई निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए, जो सोच-विचार करते हैं।

(सुरः अर-रुम 30:21)

और वे कहेंगे, “यदि हम सुनते या बुद्धि से काम लेते तो हम दहकती आग में पड़ने वालों में सम्मिलित न होते।”

(सूरहः अल मुल्क 67:10)

 

इसके अलावा सूरहः अल बकरह 2:44, 2:164, सूरहः अल अम्बिया 21:30, सूरहः अल मा’ईदा 5:58 आदि एवं हदीसों में बार-बार मनुष्य को बुद्धि से काम लेने और तर्क करने का कहा गया है।

ताकि इंसान अंधकार से निकले और सत्य की तरफ़ आए। इसीलिए फिर चाहे वह वैज्ञानिक विषय हो या तार्किक विषय हो या फलसफी, इस्लाम हर विषय में मनुष्य का सही मार्गदर्शन करता है एवं सत्य की ओर लेकर जाता है।

अब जैसे हम इस कोरोना महामारी को ही क्यों ना ले लें, जो लोग इस्लाम और क़ुरआन की थोड़ी-सी भी जानकारी ना होने की वज़ह से आज आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं अगर वह इस्लाम और क़ुरआन के बारे में थोड़ा-सा भी पढ़ लेते तो जान लेते कि उनके यह आरोप कितने आधारहीन हैं।

बल्कि पहले से ही क़ुरआन और इस्लाम में इनका जवाब मौजूद है। किस तरह इस महामारी ने अनुयायियों का क़ुरआन और इस्लाम पर विश्वास और ज़्यादा मज़बूत और प्रमाणित किया है एवं किस तरह वह इस दौरान भी उनका मार्गदर्शन कर रहा है।

आज विश्व में सभी अचंभित इसलिए है क्योंकि कोरोना महामारी में बने हालात उनके लिए बिल्कुल नए है और उनके पास इस बारे में कोई मार्गदर्शन या जानकारी ही नहीं है।

जबकि इस्लाम में तो अनुयायियों को इस बारे में पहले ही बता दिया गया है यहाँ तक कि यह भी बता दिया गया कि इस तरह के हालात क्यों आते हैं और इस दौरान क्या करना चाहिए।

आगे बढ़ने से पहले इस्लाम की थोड़ी जानकारी देना आवश्यक है ताकि बात समझ आए।

 

फरमाया क़ुरआन में-

*जिसने पैदा किया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुम में कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है।*

(सूरहः अल मुल्क 67:2)

अल्लाह फरमाता है कि उसी ने जीवन और मृत्यु बनाएँ ताकि तुम्हारी परीक्षा करे और इसी के माध्यम से वह तुम्हारी परीक्षा करता है। इस्लाम के अनुसार यह जीवन तो मात्र एक परीक्षा का स्थान है। जबकि असल जीवन तो मृत्यु के बाद का है जो कभी ख़त्म नहीं होने वाला है।

यहाँ पर वह व्यक्ति जो ईश्वर के बताए कार्यों को करेगा और ईश्वर के मना किए गए कार्यों से बचेगा और उसके संदेष्टा का पालन करेगा वह इस परीक्षा में सफल होगा और मृत्यु के बाद हमेशा-हमेशा स्वर्ग में रहेगा।

जबकि जो व्यक्ति इसके उलट करेगा वह अपने कर्मों की वज़ह से ईश्वर के दंड का भागी बनेगा और मृत्यु के बाद नरक में दंड भोगेगा।

अतः असल दंड और सुख तो मृत्यु के बाद का ही है लेकिन इस जीवन में भी जब दुष्ट अपनी दुष्टता की हदें पार कर देते हैं और निर्दोषों व निर्बलों पर अत्याचार के पहाड़ तोड़ देते हैं और ईश्वर के संदेश का पूर्ण बहिष्कार कर देते हैं। *तो ईश्वर इस जीवन में भी उन पर इस तरह की महामारी एवं प्राकृतिक आपदा भेज कर उनको दंडित करता है और उनको ईश्वर की तरफ़ लौटने की याद दिलाता है।*

वैसे ही जैसे उसने अपने पवित्र ग्रंथ क़ुरआन में कई कौमों का उल्लेख किया जिन पर उसने ऐसा अज़ाब भेजा :-

*तब हमने उन पर (पानी को) तूफान और टिड्डियां और जुएं और मेंढकों और खून का अज़ाब भेजा कि सब जुदा-जुदा (हमारी कुदरत की) निशानियाँ थी उस पर भी वह लोग तकब्बुर ही करते रहें और वह लोग गुनेहगार तो थे ही।*

(क़ुरआन 7:133)

और इसी तरह दूसरी जगह अलग-अलग तरह के आजाब और महामारियों का ज़िक्र मौजूद है।

तो आज जब हमने देखा कि चीन से लेकर सीरिया, फिलिस्तीन हो या अफगानिस्तान बल्कि पूरे विश्व में ही मासूमों और लाचारों का नरसंहार हो रहा है और कोई उनके पक्ष में बोलने वाला नहीं है, ऐसे हालात में इस तरह का अज़ाब आना लाज़मी है।

लेकिन जैसा कि पहले कहा गया असल अज़ाब तो आखिरत यानी मरने के बाद का ही है और यह जो दुनिया में अज़ाब आता है वह मनुष्य को यह याद भी दिलाता है कि वह अपने अत्याचारों से बाज आ जाए और ईश्वर की तरफ़ लौट चले और अपने पापों की क्षमा याचना करे ताकि ईश्वर उन्हें माफ़ करे जैसा कि इस आयत में कहा गया है।

और हम यक़ीनी (क़यामत के) बड़े अज़ाब से पहले दुनिया के (मामूली) अज़ाब का मज़ा चखाएँगें जो अनक़रीब होगा ताकि ये लोग अब भी (मेरी तरफ़) रुज़ू करें”

(क़ुरआन 32:21)

 

साथ ही यह भी बता दिया गया कि ऐसे हालातों में और दूसरी परिस्थितियों में भी सिर्फ़ दुष्ट ही प्रभावित नहीं होते *बल्कि आम अनुयायियों* को भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है ऐसे समय में ही उनके संयम और आस्था की परीक्षा होती है जिसमें उन्हें खरा उतरना होता है जैसा कि इस आयत में कहा गया :-

*और हम तुम्हें कुछ खौफ़ और भूख से और मालों और जानों और फलों की कमी से ज़रुर आज़माएगें और (ऐ रसूल) ऐसे सब्र करने वालों को ख़ुशख़बरी दे दो।*

(क़ुरआन 2:155)

तो हमने देखा आज की हालत कोई नई नहीं है पहले भी गुजर चुकी है और उसके बारे में क़ुरआन में पहले ही आगाह कर दिया गया है।

तर्क यह कहता है कि चलो मान लिया कि क़ुरआन में पहले ही इसके बारे में बता दिया गया है परंतु अगर ऐसा है तो इस समय क्या करना है वह भी बताया होगा?

इसका जवाब है-हाँ बिलकुल।

वैसे तो अल्लाह के रसूल ने इन हालातों में करने वाली बातों को विस्तार से बताया है जिनमें से कुछ यहाँ पर बताते चलते हैं जो कि आज विश्व भर के लीडर और साइंसदान बताने में लगे हुए हैं।

हैरानी वाली बात है कि यह बातें सिर्फ़ हाथ धोने और साफ-सफाई जैसी आम बातों तक ही सीमित नहीं है बल्कि क्वारंटाइन, ऑप्टिमिज़्म, वैक्सीन डिस्कवरी की भी बातें करती है।

आज जो विश्व भर के साइंटिस्ट को क्वॉरेंटाइन के अलावा और कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा है और विश्व के तमाम बड़े लीडर लोगों को जिस जगह पर और जिस शहर में है वही रुके रहने का आग्रह कर रहे हैं, यह बात तो 1450 वर्ष पूर्व ही हमारे रसूल सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम बता गए।

फरमाया जिसका की तर्जुमा यह है

*अगर तुम किसी जगह के बारे में सुनो कि वहाँ महामारी फैली हुई है तो उसके अंदर ना जाओ और अगर तुम ऐसी जगह हो जहाँ कोई महामारी फैली हुई है तो वहीं रुको और बाहर ना जाओ।*

(सही मुस्लिम 2218)

 

दूसरे धर्मों के भ्रम में लोग इस्लाम के बारे में भी यही मन बना लेते हैं कि इसका साइंस एवं चिकित्सा से लेना देना नहीं है। जबकि इस्लाम एक वैज्ञानिक (साइंटिफिक) मज़हब है और इसमें इलाज़ करने एवं इलाज़ ढूँढने को बहुत प्रोत्साहित किया गया है। कम ही लोगों को मालूम होगा की अल्लाह के रसूल के जीवन में एक पूरी शिक्षा का विभाग *तिब्बे नबवी* रहा है जिसमें पूर्ण रूप से इलाज़ और चिकित्सा पर ही ध्यान दिया गया है। साथ ही हदीस में बताया गया की-

*ईश्वर ऐसी कोई बीमारी धरती पर नाज़िल नहीं करता जिसका इलाज़ भी उसने धरती पर ना भेजा हो।*

यह हदीस हमें कोरोना का वैक्सीन ढूँढने के लिए ना केवल प्रोत्साहित करती है बल्कि आशान्वित भी करती है कि निश्चित ही हम उसका इलाज़ ढूँढने में सक्षम होंगे। ( यह पोस्ट २०१९ में लिखी गई थी उस समय वैक्सीन के बारे में भी संशय था की क्या कोरोना की वैक्सीन और इलाज बन पायेगा भी या नहीं )

यही वह *ऑप्टिमिज़्म (आशावाद)* है जिसकी आज हम सबको ज़रूरत है और जिसको समझाने में जागरूक लोग लगे हुए हैं।

इसके अलावा कई हदीसे हैं जिसमें खाने-पीने से लेकर रहन-सहन तक कई बातें बताई गई जो आज हमें महामारी के संकट में मार्गदर्शन कर रही हैं।

यही नहीं, हमें तो यहाँ तक बता दिया गया कि जब ऐसी महामारी की हालत हो तो किस स्थिति पर पहुँच जाने के बाद मस्जिद में होने वाली अज़ान के अल्फाजों को बदल दिया जाए और घर में ही नमाज पढ़ने का एलान किया जाए यहाँ तक कि यह *अल्फाज़ भी बता दिए गए।*

 

इसीलिए आज जो कहा जा रहा है कि इमाम लोगों को मस्जिद में आकर दुआ करने के लिए नहीं कह रहे हैं वह इसलिए नहीं है कि उन्हें पता नहीं कि क्या करना है परंतु वह इसलिए है कि *“उन्हें पहले से ही मार्गदर्शन प्राप्त है और वह उसका अनुसरण कर रहे हैं”*। जो कि इस परिस्थिति के लिए आदर्श है।

 

*एक तार्किक बुद्धि समझ सकती है कि इससे ज़्यादा उसे और कितना स्पष्ट तर्क चाहिए यह मानने के लिए कि इस्लाम में इसका इतना स्पष्ट उल्लेख और मार्गदर्शन मौजूद है?*

तो जब आप इस्लाम का ज्ञान ना होने की वज़ह से यह तर्क देते हैं कि मस्जिद बंद हो गई आप ख़ुद ही यह नहीं जानते कि रसूल ने इसकी ख़बर पहले से ही दे दी है और किस समय और किन अल्फाजों के साथ यह काम करना है यह तक इस्लाम की किताबों में पहले से मौजूद है। तो आप का यह तर्क इस्लाम के प्रति आस्था कमजोर करने की बजाय इस्लाम की सच्चाई को प्रमाणित करता है।

अंत में एक आक्षेप लगाया जा रहा है कि काबा का तवाफ बंद हो गया और हज भी बंद कर दिया जाएगा और इसको ऐसा दर्शाया जा रहा है मानो इससे यह साबित होता है कि ऐसा होना मतलब इस्लाम का ग़लत होना।

एक बार फिर यही कहा जाएगा कि इस तरह की बातें इस्लाम का बिल्कुल भी ज्ञान ना होने की वज़ह से कही जाती है। इस्लाम धर्म में कभी भी यह नहीं कहा गया कि काबे का तवाफ कभी बंद नहीं होगा और ना ही कभी हज बंद होगी। अपितु हदीस में क़यामत की निशानियां में से एक निशानी बताई गई है कि *”क़यामत (प्रलय) तब तक नहीं आएगा जब तक कि हज ना रोक दिया जाएगा।”*

(सही बुखारी)

 

इसका मतलब यह नहीं है कि हज रुकते ही अगले दिन क़यामत आ जाएगी या फिर हज का रुकना तय हो चुका है। बल्कि यह बताना है कि अगर कोरोना की वज़ह से हज रुकती भी है तो यह क़यामत की कई निशानियों में से एक होगी, जिनमें से कई पहले ही पूरी हो चुकी है और कई का होना बाक़ी है।

अतः हमने देखा कि यह घटना भी इस्लाम में उल्लेखित भविष्यवाणियों को पूरा करती है और इस्लाम की सत्यता को प्रमाणित करती है और उस पर विश्वास को मज़बूत करती है।

काफी संक्षेप में इससे ज़्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता। जबकि बताने के लिए बहुत कुछ है।

अतः मैं अपने भाइयों से यही अनुरोध करूँगा कि वह खुले मन एवं बुद्धि से इस्लाम का अध्ययन करें और फिर अपना मन बनाएँ और तर्क यही कहता है कि उसी ईश्वर और धर्म की तरफ़ आएं जिसमे सम्पूर्ण मार्गदर्शन मौजूद है।

 

Share on WhatsApp