सवाल:- जब मुसलमान लोगो में ही कई लोग बुरे काम करते हैं झूठ चोरी आदि तो दुसरो को इस्लाम की अच्छी बातें बताने से पहले उन्हें क्यो नही समझाया जाता?

जवाब:-  यह कहना ग़लत होगा कि मुसलमानों को क्यो नहीं समझाया जाता।

क्योंकि इस्लाम के सभी अरकान और ख़ुद क़ुरान में बार-बार इसकी सीख मिलती है। इसके अलावा हर जुमआ, ईद के मौके और अन्य कई मौकों पर ख़ुत्बे सिर्फ़ मुलसमानों की समझाइश और प्रेरणा के लिए ही होते हैं। कई जमाअते हैं जो मुसलसल यही काम करती हैं। जैसे क़ुरआन की आयत में खुला निर्देश है :

तथा तुममें एक समुदाय ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो भली बातों की ओर बुलाये, भलाई का आदेश देता रहे, बुराई से रोकता रहे और वही सफल होंगे।*
(क़ुरआन 3:104)

इसके बाद भी अगर कोई बाज़ नहीं आता सही अमल नहीं करता तो वह सज़ा का भागी होगा। क्योंकि इस्लाम का यह कहना नहीं कि सिर्फ़ मुसलमान हो जाओ और उसके बाद जो मर्ज़ी चाहे करो। बल्कि अगर इंसान आख़िरत (परलोक) की कामयाबी चाहता है तो उसे ज़िंदगी भर अल्लाह के आदेश पर अमल करना होगा।

अल्लाह तआला सिर्फ़ मुसलमानों का ईश्वर नहीं है बल्कि वह तमाम इंसानो और संसारो का रब है।👇

सब प्रशंसायें अल्लाह के लिए हैं, जो सारे संसारों का पालनहार है।
(क़ुरआन 1:1)

और उसका पैगाम भी सभी इंसानो के लिए समान रूप से स्पष्ट है :-👇

ये अल्लाह की (निर्धारित) सीमाएं हैं और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञाकारी रहेगा, तो वह उसे ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी। उनमें वे सदावासी होंगे तथा यही बड़ी सफलता है और जो अल्लाह तथा उसके रसूल की अवज्ञा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, उसे नरक में प्रवेश देगा। जिसमें वह सदावासी होगा और उसी के लिए अपमानकारी यातना है।
(क़ुरआन 4:13-14)

साथ ही हमारी यह जिम्मेदारी है कि अल्लाह के हुक्म को सभी तक पहुँचा दे। लेकिन उसके बाद भी अगर वे अनुसरण नहीं करते तो यह उनकी मर्ज़ी है इस पर हमारा कोई ज़ोर नहीं है।

फिर यदि वे विमुख हों, तो आप पर बस प्रत्यक्ष (खुला) उपदेश पहुँचा देना है।
(क़ुरआन 16:82)

अतः हमारा कार्य तो सभी को बता देना है। ना तो यह हमारे लिये सम्भव है ना ही इसकी जिम्मेदारी ईश्वर ने हम पर डाली है कि सभी को सही और सुधार कर दें।

बल्कि यह तो व्यक्ति विशेष पर है कि वह अल्लाह के आदेशों पर कितना अमल करता है फिर चाहे वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम हो सभी को अपना हिसाब देना है सभी के सामने अल्लाह का आदेश है। सभी को अपनी फ़िक्र करना चाहिए, इसमें कोई समझदारी नहीं की पहले वह सही काम करे फिर मैं करूंगा या वह जब मुस्लिम होकर ईश्वर के बताए हुक्म पर अमल नहीं कर रहा तो मैं क्यों करूं? उसकी सज़ा वह भुगतेगा आप अपने बारे में फ़िक्र करें।

क्योंकि यह दुनिया तो सिर्फ़ परीक्षा की जगह है असल ज़िदगी तो आख़िरत (मरणोपरांत परलोक) की ही है।

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