Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    जवाब:- नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष काफ़िर (गैर मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता।

     

    क़ुरआन 5:32 में इसका खुला आदेश है:-

    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया..”

     

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर मुस्लिम (काफिर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता।

    यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

     

    क़ुरआन की जिन आयात में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है। और इन्हीं आयात को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी काफिरो को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

  • ईद पर क़ुर्बानी पर आपत्ती।

    ईद पर क़ुर्बानी पर आपत्ती।

    जवाब :-  मैं भी जीव हूँ, माँस नही।

    इस तरह के पोस्टर सिर्फ़ ईद-उल-अज़हा के मौके पर ही क्यों लगाए जाते हैं? या इस तरह की बातें ईद के बारे में ही क्यों चलाई जाती हैं ?

     भारत की कुल 71% जनता मांसाहारी है। जबकि मुस्लिमो की संख्या मुश्किल से 16% मात्र है।

    यानी मुस्लिमो से 3.5 गुना ज़्यादा माँस का उपभोग तो सिर्फ़ भारत में ही दूसरे धर्मों के लोग कर रहे हैं।

    अतः साल भर इन पोस्टर वाले महानुभावों का पशु प्रेम सिर्फ़ ईद-उल-अज़हा के मौके पर ही क्यों जागता है?

    क्या इसके पीछे वाकई पशु प्रेम है या इस्लाम और मुस्लिमो के खिलाफ नफ़रत और ज़हर फैलाने का एजेंडा है?

    क्या आपने विभिन्न धर्मो के त्योहारों, उत्सवों के मौके पर कभी यह पोस्टर देखा है?

    जबकि कई समुदायों में बलि की प्रथा है और कई त्योहारों पर बलि दी जाती है!

    या कभी अपने McDonald, KFC , जैसी जगहों पर जहाँ साल भर मज़े से चिकन उड़ाया जाता है के सामने मुर्गा लगा कोई पोस्टर देखा की मैं भी जीव हूँ, भोजन नहीं?

    तो क्या ये समझा जाये कि मुर्गा जीव नहीं है? या सिर्फ़ मुस्लिमो के माँसाहार से दिक्कत है बाकियो से नहीं?

    भारत में प्रमुखता से लगभग 10 धर्मो के लोग रहते हैं इसमें सिर्फ़ जैन मत को छोड़ कर किसी भी धर्म में माँस खाना निषेध नहीं है।

    वेदों में बलि के कई उल्लेख मिलते हैं, कई राज्यों में बलि जतरा, दशहरा आदि मौकों पर पशु बलि प्रथा है।

    पशु बलि छोड़ भी दें तो यूँ ही उपभोग और एक्सपोर्ट के लिए हमारे देश में भारी मात्रा में माँस का उत्पादन होता है।

    यही कारण है भारत मांस निर्यात के मामले में 2015 में विश्व में नंबर 1, 2016 में नम्बर 3 और 2017 में नम्बर 2 पर और 2018 में 3 नम्बर रहा है।

    और इन कंपनियों के प्रमुख मुस्लिम नहीं बल्कि दूसरे धर्मो के लोग है।

    अतः यह स्पष्ट है कि इस तरह के पोस्टरों के औऱ खबरों के पीछे असली एजेंडा देश में नफ़रत, घृणा और समाज में ज़हर फ़ैलाना है।

    माँस का उपभोग तो साल भर जारी रहता है। यह तथ्य तो सिर्फ़ भारत के दिये गए है जबकि विश्व की बात की जाए तो  90 प्रतिशत जनता मांसाहारी है।

    अपितु ईद-उल-अज़हा के मामले में यह विशेषता है कि यह सीधे तौर पर गरीब केंद्रित है। जहाँ गरीबो को माँस वितरण से सीधा लाभ पहुँचता है वही पशु पालन से हर धर्म के कई गरीब किसानों की आय का एकमात्र साधन कुर्बानी के जानवर को तैयार करना और बेचना होता है।

    इसीलिए यह पोस्टर देखकर, पोस्टर लगाने वाले के झांसे में आने से पहले एक बार पोस्टर लगाने वाले कि असली मंशा पर ज़रूर ध्यान दें।

  • इस्लाम में नारी का पूर्ण दर्जा /बराबरी और सम्मानजनक स्थान

     

    जवाब:- इस्लाम में औरतों कि वह इज़्ज़त और एहतराम है जिसका और कहीं तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं किया जा सकता इस्लाम ने जहाँ औरतों का मकाम बहुत बुलन्द किया है वहीं कुछ मामलों में उन्हें पुरूषों से भी ज़्यादा तरजीह दी है। यही वज़ह है कि आज सबसे मॉडर्न तरीन समझें जाने वाले यूरोप और अमेरिका में इस्लाम कबूल करने वालों में मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतें हैं। इनमें कई जानीमानी हस्तियाँ भी हैं। अगर इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ कमतर होते तो क्या यह सम्भव था?

    इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ और ऊँचे दर्जे की इतनी बातें हैं कि उन सभी का उल्लेख किसी एक पोस्ट में किया जाना असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जा रहा है।

    शुरुआत करते हैं आर्थिक पहलू से अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम औरतों को कमाने और काम काज करने का अधिकार नहीं देता और इसी के ज़रिये सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है।

    तो सबसे पहले तो यह जान लें कि इस्लाम में औरतों को कमाने की मनाही नहीं है बल्कि इस्लाम में औरतों को कमाने की ज़रूरत ही नहीं है।

    इस्लाम औरतों को यह विशेषाधिकार (Privilege) देता है कि उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी हर हाल में पुरुषों (पिता / पति / भाई) के ज़िम्मे है। यह उनका अधिकार है।

    इसके बावजूद अगर वे कमाना चाहें तो इस्लाम के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कोई भी जाइज़ कार्य कर सकती है बिल्कुल जैसे मर्द कर सकता है और उनकी उस कमाई में उनका पूर्ण अधिकार है, उसे वे जैसे चाहें ख़र्च करें । जबकि इसके उलट पुरुष अपनी कमाई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य है।

    दरअसल बच्चों का 9 महीने अपने गर्भ में रखना और उन्हें जन्म देना एक महान कार्य है जो सिर्फ़ महिलाएँ ही करती हैं और इस्लाम में इसे पूर्ण महत्त्व दिया गया है।

    …उसकी माँ ने दुःख पर दुःख सहकर पेट में रखा (इसके अलावा) दो बरस में (जाकर) उसकी दूध बढ़ाई की (अपने और) उसके माँ बाप के बारे में ताक़ीद की कि मेरा भी शुक्रिया अदा करो और अपने वालदैन का….

    (सुरः लुक़मान: 14)

    इसलिए शादी के मौके पर आदमी को महेर (तोहफे के तौर पर पैसे या कुछ और) भी चुकानी होती है साथ ही उसका व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है। महेर की रक़म औरत की इच्छा पर होती है वह कितनी भी माँग कर सकती है। अतः सीधे तौर पर आर्थिक मामलों में औरतों को मर्दो पर फ़ज़ीलत है।

    यह इतना अहम पहलू है कि इसी के इर्दगिर्द ही औरतों की पूरी सामाजिक स्थिति घूमती है। देखते हैं कैसे?

    स्वयं को औरतों की आज़ादी का पैरोकार कहने वाले मर्द प्रधान समाज ने पहले तो औरतों के इस विशेष योगदान को भुला ही दिया और आज़ादी और काम करने के नाम पर उसके ऊपर आर्थिक बोझ भी डाल कर उसे आदमियों के बीच घुमाने और शोषण करने के लिए उपलब्ध करा दिया।

    और यह तथ्य सभी के सामने है सभी इसे जानते हैं और जान बूझ कर अनदेखा कर देते हैं ज़्यादा पुरानी बात नहीं है मैं भी #Metoo आंदोलन में दुनियाँ भर में छोटे से लेकर बड़े से बड़े स्तर पर हर जगह काम करने वाली औरतों ने कार्यस्थल पर अपने साथ हुए पुरुषों द्वारा ग़लत कृत्यों का खुला बयान किया था। कईयों ने यहाँ तक कहा कि आर्थिक स्थिति के बोझ में दबे होने पर जीवन भर हम शोषण सहते रहे पर कुछ कर ना सके क्योंकि ना कोई सुनने वाला था ना कोई सज़ा देने वाला।

    कुछ ही दिनों में पुरुष प्रधान शोषण केन्द्रित व्यवस्था ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल कर भुला भी दिया। लेकिन सच्चाई और इस पश्चिमी कार्य संस्कृति (Western work culture) आधारित व्यवस्था की हक़ीक़त सभी के सामने है। यह औरतों की आज़ादी की व्यवस्था नहीं बल्कि शोषण की सुविधा और व्यवस्था है।

    और ऐसा भी नहीं है कि कोई इसे समझ नहीं पा रहा। ऊपर बताए तथ्य की यूरोप और अमेरिका जैसे मॉडर्न मुल्कों में औरतों के तेज़ी से इस्लाम कबुल करने का यह भी एक अहम कारण है कि वे इस बात को समझ रहे हैं कि इस्लाम में औरतों को पैसों की तरह मर्दो के हाथों में घूमने जैसा नहीं बल्कि उसे तिजोरी में रखे कीमती हीरे की तरह बनाया है।

    ऐसे ही हर मामले में इस्लाम उच्च अधिकार देता है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं –

    वंशानुक्रम (विरासत) का अधिकार:-

    कुछ धर्मों के अनुसार, एक महिला को विरासत में कोई अधिकार नहीं है। लेकिन इन धर्मों और समाजों के विपरीत, इस्लाम में महिलाओं को विरासत में हिस्से का अधिकार है।

    अपनी पसंद के मुताबिक शादी का अधिकार:-

    पति की पसंद:- इस्लाम ने अपने पति को चुनने में महिलाओं को बहुत स्वतंत्रता दी है। शादी के सम्बंध में लड़कियों की इच्छा और उनकी अनुमति सभी मामलों में आवश्यक घोषित की गई है।

    तलाक का अधिकार:-

    इस्लाम ने औरत को खुलअ का हक़ दिया है कि अगर उसके पास ज़ालिम और अक्षम पति है तो पत्नी निकाह को ख़त्म करने का ऐलान कर सकती है और ये अधिकार अदालत के ज़रिए लागू होते है।

    अभिव्यक्ति और अपनी राय रखने का अधिकार:-

    एक अवसर पर, हज़रत उमर (रजि॰) ने कहा: “तुम लोगों को चेतावनी दी जाती है औरतों की महेर ज़्यादा ना रखो।….

    हजरत उमर (रजि॰) को इस तकरीर पर एक औरत ने भरी मजलिस में टोका और कहा कि आप यह कैसे कह सकते हो? हालांकि अल्लाह तआला का इरशाद है

    और तुम औरतों को ढेर सारा माल (महेर) दो तो उससे कुछ भी वापस ना लो।

    (सुरः निसा: 20)

    जब अल्लाह तआला ने जाईज़ रखा है कि शौहर महेर में ढेर सारा माल दे सकता है तो तुम उसको मना करने वाले कौन होते हो? हजरत उमर (रजि॰) ने यह सुनकर फरमाया :”तुम में से हर एक उमर से ज़्यादा जानकार है”। उस औरत की बात का सम्मान किया गया। हालांकि हजरत उमर (रजि॰) उस वक़्त के खलीफा और बादशाह थे।

    इससे पता चलता है कि महिलाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लाम में कितना अधिकार है।

    इसके अलावा भी कई अधिकार हैं जैसे सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार एवं बहुत से।

    यही नहीं औरतों को और भी कई तरह से इस्लाम में मुकद्दस मकाम दिया गया है। जैसे कई धर्म और मान्यताओं के अनुसार औरतों से दूरी बनाना, औऱ कुँवारा रहना ईश्वर के पास उच्च दर्जा प्राप्त करने का ज़रिया समझा जाता है। जबकि इस्लाम में इस तरह की भावना को कोई जगह नहीं दी गई और विवाह के लिए प्रेरित किया गया।

    इस सम्बंध में, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :

    शादी मेरी सुन्नत है। जो मेरी सुन्नत से भटकता है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।

    (इब्ने माजा 1919)

    और सिर्फ़ शादी ही नहीं बल्कि इससे आगे बीवियों से अच्छे व्यवहार को अनिवार्य किया गया:- आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:

    आप में से सबसे अच्छा वही है जो अपनी पत्नियों के लिए सबसे अच्छा है और मैं अपने घर वालों के लिए सबसे बेहतर हूँ।

    (तिर्मिज़ी 3895)

    इसके अलावा भी औरतों से अच्छे सुलूक की कई आदेश दिए गए यहाँ तक कि क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया

    और औरतों के साथ भलाई से ज़िदगी बसर करो। अगर वह तुमको पसंद ना हो तो हो सकता है तुम एक चीज पसंद ना करते हो और अल्लाह तआला उसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दे।

    (सुरः निसा)

    और यह सब हुक़ूक़ भी इस्लाम ने आज नहीं बल्कि 1400 साल पहले ही दे दिए गए जब औरतों को तो जीने तक का अधिकार नहीं दिया जाता था और ज़िंदा दफ़न तक कर दिया जाता था (आज भी महिला भ्रूण हत्या कई जगह की जाती है)। जिसे इस्लाम ने सख्त तरीन अपराध बताया और ऐसा करने वालों को क़यामत के दिन सख्त सज़ा से आगाह किया।

    “और जब ज़िन्दा दफ़न की हुई लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस गुनाह की वज़ह से क़त्ल की गई।”

    (सूरः तकवीर 81:8,9)

    उस दौर में ही इस्लाम ने औरतों को ना केवल ऐसे हालात से निकाला बल्कि ता क़यामत तक के लिए उनके मर्तबे को उच्च कर दिया।

    जहाँ माँ के कदमो के नीचे जन्नत बताया गया तो वहीं बेटियों को मर्तबा इतना अहम बताया गया उनकी परवरिश पर जन्नत की बशारत दी गई।

    मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है-

    जिसके 3 लड़कियाँ हो फिर तंगदस्ती, ग़रीबी, मुहताजी और खुशहाली व बदहाली में इन्तेहाई सब्र और बर्दाश्त के साथ उनका लालन पालन और देखरेख करें तो अल्लाह उसको सिर्फ़ इसलिए जन्नत में दाखिल फरमाएगा कि उसने उनके साथ रहमों करम का मामला किया है। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! जिसके दो बेटियाँ हों? आप ने फरमाया- जिसके दो बेटियाँ हों वह भी। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि जिसके एक बेटी हों? आपने फरमाया- और एक बेटी वाला भी।”

    (मुसनद अहमद 8425)

    जैसा कि पहले कहा गया कि इतनी बातें हैं कि एक पोस्ट में कही ही नहीं जा सकती, चुनाव करना तक मुश्किल है। अतः इस से यह अंदाज़ तो हो ही जाता है कि इस्लाम में औरतों को क्या मुकाम है और इस्लाम पर औरतों के बारे में झूठे आक्षेप लगाने वालों की सच्चाई पता चलती है।

  • क्या इस्लाम में ऊँच-नीच भेदभाव है?

    क्या इस्लाम में ऊँच-नीच भेदभाव है?

    जवाब:- इस्लाम में रंग, जात-पात, नस्ल आदि के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव की कोई जगह नहीं है। अल्लाह की नज़र में सभी मनुष्य इस आधार पर एक समान हैं।

     

    क़ुरआन में अल्लाह तआला फरमाते हैं: “ऐ लोगो! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बीलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहाँ तुम में सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुम में सबसे अधिक डर रखता है। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जानने वाला, ख़बर रखने वाला है।

    (क़ुरआन 49:13)

     

    पैगम्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने अपने आखरी हज के मौके पर फ़रमाया: किसी अरब वाले को दूसरे मुल्क वाले पर और ना दूसरे मुल्क वालों को अरबों पर कोई फजीलत और बरतरी (महत्व / विशेष अधिकार) है इसी तरह किसी गोरे को काले पर और काले को गोरे पर कोई फजीलत नहीं है, फजीलत सिर्फ़ तक्वा यानी अल्लाह से डरने की वज़ह से है

     

    इस से हमे मालूम हुआ कि इस्लाम में नस्ल, वतन ,रंग, बिरादरी को कोई अहमियत (महत्व) नहीं है, यह सिर्फ़ इसलिए बनाई गई है कि लोग एक दूसरे को पहचान सकें जैसे रंग-रूप, बोल-चाल देख कर पहचाना जा सकता है कि यह व्यक्ति किस जगह का है, किस जगह से ताल्लुक रखता है। लेकिन यह चीज़ किसी को छोटा या बड़ा नहीं बनाती बल्कि अल्लाह के नज़दीक जो चीज़ किसी का दर्जा बढ़ाती है और किसी को दूसरे से बेहतर बनाती है तो वह है “तक्वा” यानी कि अल्लाह से डर, धर्म-परायणता।

     

    इस्लाम की विशेषता यह है कि यह सिर्फ़ उपदेश, कहने भर पर नहीं रुकता बल्कि इस से आगे बढ़कर इस पर अमल (अभ्यास) करवा कर आदर्श स्थापित करवाता है।

     

    जैसे दिन में पांच वक़्त नमाज़ का हुक्म अल्लाह ने दिया जिसमें सभी को एक सफ़ (लाइन) में कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ अदा करनी होती है। फिर चाहे कोई अमीर हो या ग़रीब, किसी बिरादरी का हो, मालिक हो या कर्मचारी, बादशाह हो या ग़ुलाम किसी तरह का भेदभाव नहीं रह जाता और हज के मौके पर यही चीज़ आलमी (वैश्विक) तौर पर देखने को मिलती है कि एक जैसे से कपड़े में काले, गोरे चाहे किसी मुल्क के हो सब कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं और साफ़ जाहिर होता है कि अल्लाह के सामने सब बराबर हैं। इस्लाम के कई और अर्कानो (Devotional duties of Islam / इस्लाम के भक्ति संबंधी कर्तव्य) में इस तरह की मिसाल देखी जा सकती है।

     

    स्पष्ट हुआ कि इस्लाम में जात-पात का कोई आधार नहीं है ना किसी बिरादरी की किसी दूसरे पर श्रेष्ठता है। सय्यदों के मामले में यह अवश्य है कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) के रिश्तेदार होने के नाते सभी मुस्लिमो द्वारा उन्हें विशेष सम्मान और प्रेम प्राप्त है लेकिन यह भी उन्हें किसी तरह की क़ानूनन या व्यवहारिक विशेषता प्रदान नहीं करता।

    और इस बात के अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) से ही कई सय्यद कानूनी मामलों में अदालत में सामान्य व्यक्ति के रूप में पेश होते आएँ हैं, दूसरे मुस्लिमो में विवाह / रिश्ते आदि करते आएँ हैं और कई सय्यद मौजूद होने पर भी किसी गैर सय्यद को तक़वे और काबिलियत के आधार पर अमीर (सरदार) नियुक्त किया जाता रहा है।

     

    क्या मुसलमानों को सिर्फ़ अपनी बिरादरी / जाति / समाज में शादी करने का हुक्म है?

     ऐसा बिल्कुल नहीं है, क़ुरान में जिन रिश्तों (खूनी रिश्तों) में शादी करना मना है उसके अलावा एक मुस्लिम दुनिया के किसी भी मुल्क, नस्ल, बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले मुस्लिम से शादी कर सकता है इसमें किसी तरह की बंदिश नहीं है।

    इसे इस्लाम ने व्यक्ति की अपनी पसंद (Choice) पर छोड़ दिया है। फिर चाहे वह अपनी आपसी रिश्तेदारों में करे या बाहर करे । कई लोग आपस में सिर्फ़ इसलिये रिश्ते करते हैं क्योंकि लोग जाने पहचाने होते हैं अतः निबाह की संभावना काफ़ी अधिक होती है। इस्लाम इसे भी मना नहीं करता ।

    हाँ इस बात की सलाह अवश्य देता है कि अपनी बच्चों का रिश्ता सोच-समझकर और हर चीज़ पर विचार करके करे ताकि आगे कोई समस्या ना आए और वे एक अच्छा वैवाहिक जीवन व्यतीत करें ।

    लेकिन कोई व्यक्ति अगर सिर्फ़ इन चीज़ों (नस्ल, बिरादरी) के आधार पर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझे अपनी बिरादरी से बाहर रिश्ता करना हराम / पाप समझे और इस वज़ह से बाहर रिश्ता ना करे तो यह बिल्कुल ग़लत बात है और वह अल्लाह की हलाल की हुई शय (चीज़) को हराम क़रार कर बहुत बड़ा गुनाह कर रहा है।

    अंत में सवाल आता है कि इतना प्रावधान होने के बाद भी कुछ मुसलमान जाति के नाम पर भेदभाव क्यों करते हैं?

    इसकी सीधी-सी वज़ह इस्लामिक ज्ञान ना होना और इस्लाम की शिक्षा से दूरी होना है। जब कोई व्यक्ति इन चीज़ों से दूर होता है तो समाज में व्याप्त बुराइयों में वह भी लिप्त हो जाता है और फिर उन बुराइयों को अपना लेता है, जिनको उसने या उसके पूर्वजों ने इस्लाम अपनाने पर त्याग कर दिया था।

    जैसा भारत में इस्लाम के आने से पहले ही जातिवाद, ऊँच नीच और एक ही ख़ानदान में शादी की रीत चली आ रही है तो किसी दूसरे मुल्कों में काले गोरे के भेदभाव का इतिहास रहा। ऐसी और भी कई सामाजिक बुराइयाँ हैं जिनकी इस्लाम में कोई जगह नहीं, पर कई मुस्लिमों ने उसको आत्मसात कर लिया है जिसका कारण ऊपर बताई गई बात है जो कि इस्लाम की नहीं बल्कि उनकी ख़ुद की और समाज, सोसाइटी (मआशरे) की ग़लती है। जिसका उन्हें त्याग करना चाहिए और इस्लाम की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए।

  • लवजिहाद की हक़ीक़त।

    लवजिहाद की हक़ीक़त।

    जवाब :- इस झूठ की व्याख्या वे यूं करते हैं कि- लव जिहाद मतलब गैर मुस्लिम लड़की को मुस्लिम लड़के द्वारा प्यार में फंसा कर धर्म परिवर्तन कराना और मुस्लिम बनाना, फिर शादी करना और ना माने तो बलात्कार बलात्कार करना और फिर हत्या कर देना।

     

    साथ ही इस में यह भी जोड़ देते हैं कि यह काम बड़े तरीके से हो रहा है और इस काम के लिए मुस्लिमों को 3 से 5 लाख मिलते हैं। IT सेल द्वारा चलाये जाली (Fake) मैसेज में इस के लिए कांटेक्ट नम्बर और पता (Contact number & address)  भी दिया जाता है।

     

    अब जरा सोचें, तर्क यह कहता है की-

     

    इतनी पुख्ता जानकारी होने के बावजूद किसी भी क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही?  देश की पुलिस,सूचना-सतर्कता विभाग या न्यायालय द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जा रही?  आज से देश आजाद होने तक, और इससे पहले के रिकॉर्ड में कहीं भी इस तरह की किसी घटना का सबूत नहीं है।

     

    इसके बावजूद अक्सर लोग लव जिहाद के नाम पर जाली पोस्ट (fake post)  के चंगुल में फँसकर अपने सोचने समझने की शक्ति का प्रयोग नहीं करते है और इनके बनाये प्रोपेगेंडा का शिकार होते हैं।

     

    लव जिहाद जैसा कुछ भी नहीं है।

    पवित्र क़ुरान गैर-औरतों के बारे में कहता है।

     

    (ऐ रसूल) ईमान वालो से कह दो के अपनी नज़रे नीची रखे और अपनी शर्मगाहो (शरीर के खास अंग) की हिफ़ाज़त करें यही उनके लिये ज़्यादा अच्छी बात हैं। ये लोग जो कुछ करते हैं अल्लाह उससे यकीनन वाकिफ़ हैं और ऐ रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ईमान वाली औरतों से कह दो कि वह भी अपनी नज़रे नीची रखे और अपनी शर्मगाहो की हिफ़ाज़त करे।

    [सूरह नूर 24:30-31]

     

    हदीस पैगम्बर ऐ इस्लाम, अंतिम संदेष्टा ने कहा। कि अगर किसी गैर-महरम / गैर-औरत पर अचानक नज़रे पड़ जाए तो अपनी नज़रे फेर लो।

     

    इस के साथ इस्लाम में व्यभिचार / बलात्कार की सज़ा तो सज़ा ए मौत है।

     

    तो कैसे कोई मुसलमान इस तरह का काम जो इस्लाम की नज़र में इतना बड़ा अपराध है, ख़ुद इस्लाम के नाम पर कर सकता है??

     

    कुछ और तर्क और सामान्य बुद्धि (common sense) के तथ्य –

     

    1. भारतीय समाज में तो अंतरजातीय विवाह ही बड़ी बात हो जाती है कई आनर किलिंग के केस मिल जाते हैं तो क्या इस तरह के अंतर्धार्मिक विवाह पर कुछ प्रतिक्रिया नहीं होती? लेकिन ऐसा एक केस भी हमें देखने में नहीं आता है..

     

    ऐसा नहीं है की अंतर्धार्मिक विवाह होते ही नहीं है….. बिल्कुल होते है.. लेकिन इन केसो में परिवार को पता होता है की लड़का – लड़की अपनी मर्जी से शादी की है उन पर कोई दबाव नहीं है। इसलिए अगर परिवार केस करता भी है तो लड़का लड़की शपथ पत्र पुलिस के समक्ष न्यायालय में देती है और केस खत्म हो जाता है और इस तरह के केस को उंगलियो पर गिना जा सकता है।

     

    और इस तरह के केसों में धर्म का कोई लेना देना नहीं, अधिकांश मामलों में तो लड़का हिन्दू और लड़की मुस्लिम होती है। तो क्या ये कहा जाए कि हिन्दू लव युद्ध कर रहे हैं?

     

    1. फिर भी अगर फासीवादी नफरती संगठनों द्वारा फैलाये जा रहे झूठ को सही माना जाये तो सवाल उठता है कि अगर लव जिहाद के नाम पर मुस्लिम लड़के हिन्दू लड़की से शादी कर रहे है तो मुस्लिम लड़कियो से कौन शादी कर रहा है..?

     

    1. इस सवाल का जवाब ना होने पर और झूठ उजागर होते देख वे सीधे आपको 4 शादियों में उलझा देते हैं। औऱ आम आदमी धार्मिक आवरण में इतना उत्तेजित हो जाता है की दिमाग लगाने की ताक़त ही नहीं बचती।

     

    4 आइए इसे भी देख लेते हैं,

    *2011 की जनसंख्या report के मुताबिक हिंदुओं में 1000 पुरुषों पर जहाँ 939 महिलाएँ हैं, वहीं मुस्लिमों में 1000 पुरुषों पर 951 महिलाएँ हैं।*

     

    इस report से तो इन संगठनों के सारे आरोप पूर्ण रूप से निराधार और बकवास साबित हो जाते हैं ।

     

    आसान सा गणित है:-

     

    आंकड़ों के मुताबिक तो हमारे देश में 1000 पुरुष (हिन्दू मुस्लिम) पर 951+939÷2= 945 महिलाएँ हैं।

    पर 4 शादी के लिए 1000 पुरुष पर 4 हज़ार महिलाये चाहिए। अतः यह असंभव है।

     

    अगर 2 शादी भी जोड़े 2000 महिलाये चाहिए…. तो बाकी महिलाये लव जिहाद से आती है……?

     

    अगर हाँ तो इसका मतलब तो यह हुआ कि हिन्दू पुरुषों की शादी ही नहीं हो रही है….! साथ ही कुछ मुस्लिम भी अविवाहित ही बच रहे है।!!

     

    (1000 x 2 = 2000),

    जबकि 2000 हिन्दू, मुस्लिम पर मात्र 1890 महिलाएँ मौजूद)

     

    तो ये है लव जिहाद और 4 शादी की सच्चाई

     

    अब बात सोचने वाली है की फिर ये झूठ क्यो सच बन कर घूम रहा है….?  किन लोगो का फायदा है…? इस झूठ को फैलाने से..? क्या मकसद है? सिर्फ़ यह कि एक डर और दुश्मनी खड़ी कर कुछ राजनैतिक लाभ उठाया जा सके..?

     

    अगर ये नहीं सोचा गया तो… फिर यकीन माने आप IT cell के झूठ के चक्रव्यूह में फँसकर आप कभी बाहर नहीं आ पाएंगे और इनकी कठपुतली बन अपना और देश का नुकसान करेंगे।।

     

    झूठ हमेशा हानिकारक होता है।

  • लड़कियाँ जनाज़े को कंधा दे सकती हैं ?

    *जवाब:* वैसे तो औरत को जनाज़े में कंधा ना दिलाकर शारीरिक और मानसिक श्रम से बचाना ही तार्किक और अक्ल के करीब बात है, लेकिन फिर भी यहाँ सवाल होने पर चंद वजहें बताई जा रही हैं:-

     

    (1) इस्लाम में औरतो को ऐसे कामो की ज़िम्मेदारी में नहीं डाला गया है जिसमे जिस्मानी कुव्वत (शारीरिक श्रम) की ज़्यादा ज़रूरत हो।

     

    (2) इस्लाम औरतो की हिफाज़त के लिए अलग-अलग जिन्सों को अलग-अलग रखना (Segregation of sexes) यानी के औरत और मर्द के दरमियान शारीरिक दूरी का हुक्म देता है। यहाँ तक इस्लाम के अहम हिस्से नमाज़ में भी इसका ख़्याल रखा गया है कि औरत और आदमी कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ अदा नहीं करते। अगर औरत को कंधा देने में शामिल किया जाए तो वहाँ यह दूरी मुमकिन नहीं रहेगी। यह सर्वसम्मत है कि जहाँ भी भीड़ हो यह दूरी ख़त्म हो जाती है तब औरतो के लिए किसी अप्रिय घटना की संभावना बहुत अधिक होती है।

     

    (3) औरतो में भावनात्मक पहलू बहुत अधिक होता है। औरत माँ का फ़र्ज़ अदा करती है इसलिए उनमें भावनात्मक लगाव, पीड़ा, किसी के दूर हो जाने का दु:ख / ग़म मर्दो के मुकाबले कहीं अधिक होता है। अगर उन्हें यह हुक्म दिया जाए कि वह अपने बाप, भाई या बेटे को कंधा दे और उसे कबर में दफनाए तो यह उन पर बहुत बड़ा ज़ुल्म होगा और उनके लिए भयँकर अवसाद का कारण होगा।

     

    (4) इस्लाम में ऐसी कोई रस्म नहीं है कि कफ़न-दफन / अन्तिम संस्कार के वक़्त उसे बड़ा बेटा ही अदा करेगा और बेटा नहीं है तो बेटी नहीं कर सकती, जिससे किसी तरह के भेद भाव की शक्ल बने। बल्कि इस्लाम में यह काम तो कोई भी मुस्लिम कर सकता है। अतः जब इतने सारे मर्द मौजूद हैं तो फ़िर औरत पर ज़बरदस्ती यह ज़िम्मेदारी डालने की ना कोई ज़रूरत है और ना ही यह कोई समझदारी की बात है।

  • अल्लाह ने सभी को मुस्लिम क्यों नहीं बनाया ?

    अल्लाह ने सभी को मुस्लिम क्यों नहीं बनाया ?

    जवाब:- हदीस में आता है कि तमाम इंसान मुसलमान ही पैदा होते है फिर उनके माँ बाप उन्हें यहूदी, मजूसी बनाते हैं।
     
    यानी अल्लाह को “एक मानना और इस्लाम” इंसान की फ़ितरत है जो कि माँ-बाप के अक़ीदे के प्रभाव से बदल जाती है।
     
    अब सवाल यह होता है के फिर अल्लाह ने सभी को मुस्लिम माँ-बाप के यहाँ क्यो पैदा नहीं किया? या जबरिया मुस्लिम क्यो नहीं बनाया?
     
    तो बेशक अगर अल्लाह चाहता तो सभी को मुस्लिम और फरमाबरदार बना सकता था। लेकिन अल्लाह को किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं करना थी।
     
    …यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है।… (क़ुरआन 5:48) 
     
    चूंकि यह दुनिया सभी के लिए इम्तिहान है और परीक्षा की जगह है तो अगर सब को ज़बरदस्ती फरमाबरदार बना दिया जाता तो फिर परीक्षा का मतलब ही क्या रह जाता?
     
    जिसने उत्पन्न किया है मृत्यु तथा जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा ले कि तुममें किसका कर्म अधिक अच्छा है? तथा वह प्रभुत्वशाली, अति क्षमावान् है। (क़ुरआन 67:2) 
     
    साथ ही यह बात ग़ौर करने की है कि मुसलमान घर में पैदा होना या पैदाइश से मुसलमान होना इस बात की गारंटी नहीं है कि वह व्यक्ति जन्नत में जायेगा। बल्कि एक व्यक्ति मुस्लिम घर में पैदा हो कर भी अंत में जहन्नम को नसीब हो सकता है तो वही एक व्यक्ति भले गैर मुस्लिम पैदा हुआ हो वह अल्लाह के बताए हुए आदेश पर पालन कर जन्नत में जा सकता है।
     
    दरअसल इस दुनिया में सभी अपनी-अपनी परीक्षा दे रहे हैं सभी को अपना हिसाब देना है। फिर चाहे वह अमीर हो गरीब हो, मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम हो।
     
    इसको हम आज आसानी से इस तरह समझ सकते है जैसे आजकल बोर्ड परीक्षा में प्रश्न पत्र (Question paper) सेट में आते हैं। हर सेट में सवाल अलग होते हैं किसी को A सेट मिलता है किसी को B सेट मिलता है। बहरहाल सभी को अलग-अलग सवाल मिलते हैं। सभी सेटों में कुछ सवाल सरल होते हैं तो कुछ मुश्किल भी होते है और मुश्किल सवालों के नम्बर भी अधिक होते हैं।
     
    ऐसे ही हम सभी को अलग-अलग तरह की ज़िंदगी और परिस्थिति मिली है जिसमे हमे परीक्षा देना है। किसी के लिए कुछ मामलों में आसानी है तो किसी दूसरे मामले में मुश्किल और जितनी बड़ी मुश्किल उतना बड़ा बदला भी है।
     
    ऐसे ही हम जब उन लोगों की बात करे जो मुस्लिम पैदा हुए तो उनके लिए आसानी यह है कि उन्हें इस्लाम कबूल करने में मशक्कत नहीं करना पड़ी बल्कि माँ बाप के ज़रिए आसानी से मिल गया। लेकिन परेशानी यह है कि जिस को जो चीज़ जितनी आसानी से मिलती है उसकी उतनी कम क़द्र करता है। यही वज़ह है कि कई मुस्लिम इस्लाम के बुनियादी अमल ही पूरे नहीं करते और हो सकता है कि वह इस दुनिया रूपी परीक्षा में फैल हो जाये।
     
    जबकि जो मुस्लिम घर में पैदा नहीं होते उन्हे भले इस्लाम कबुल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हो लेकिन चूंकि उन्हें इसकी अहमियत पता होती है वे मुस्लिम होने पर इस्लाम के पालन में कोताही नहीं करते और सफलता प्राप्त करते हैं।
     
    ऐसे ही यह भी है कि पैदाइश से मुसलमानों को अपना हिसाब किताब बालिग होने की उम्र से ही देना है यानी कितनी नमाज़ अदा की, कितने रोज़े छोड़े वगैरह। जबकि जो मुस्लिम घरों में पैदा नहीं हुए उनके इस्लाम से पहले की ज़िंदगी के सभी अमल और गुनाह माफ़ होते है और हिसाब उसी दिन के बाद से देना होता हैं जिस दिन वे इस्लाम अपनाते है।
     
    ऐसी और भी कई बातें है। जिस से पता लग जाता है कि दोनों ही सूरत बहरहाल बराबर है और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यक्ति पर है कि वह कैसा अनुसरण करता है और इस परीक्षा में पास होता है या असफल होता है। इसमें उसके मुस्लिम और गैर मुस्लिम घर में पैदा होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
     
    क्योंकि अल्लाह सिर्फ़ एक है और उसकी ही इबादत करना चाहिए और उसके आदेशो का पालन करना चाहिए यह बात अल्लाह तआला जीवन में कभी ना कभी हर व्यक्ति के दिल में डाल ही देता है। परन्तु इसके बाद भी इंसान उसे दूसरे प्रभावों में दबा देता है या उसको क़बूल करने का साहस नहीं दिखता और उसका ज़िम्मेदार वह ख़ुद ही होता है चाहे फिर वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम।
     
    जैसा कि फ़रमाया क़ुरान में:-
     
    हम शीघ्र ही दिखा देंगे उन्हें अपनी निशानियाँ संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर। यहाँ तक कि खुल जायेगी उनके लिए ये बात कि यही सच है और क्या ये बात पर्याप्त नहीं कि आपका पालनहार ही प्रत्येक वस्तु का साक्षी (गवाह) है?
    (क़ुरआन 41:53)
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  • पुष्पेंद्र की विडिओ का जवाब।

    पुष्पेंद्र की विडिओ का जवाब।

    *जवाब:-* पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ की हर विडियो की तरह यह विडियो  https://youtu.be/P18rVzeRNKg भी ब्रेनवाशिंग (Brain washing) का एक नायाब नमूना है।

     

    जिसमे बड़ी चालाकी से देखने वाले को अपने एजेंडे अनुसार व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया जाता है जिसमे सारे झूठे तथ्यों को, जज़बाती बातों में लपेट कर परोसा जाता है और सामने वाले को परोक्ष रूप से (Indirectly) अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के लिए उकसाया जाता है ।

     

    आप सभी ने इस विडियो को तो देखा। अब ज़रा एक बार फिर दिमाग खोल इस मैसेज को पढ़ने के बाद एक  बार फिर इस विडियो का विश्लेषण ज़रूर कीजिएगा ताकि आपको इनकी हर विडियो की रणनीति (Strategy) और एजेंडा समझ आये।

     

    इस विडियो का गुप्त एजेंडा (Hidden agenda):- अहम मुद्दों से ध्यान हटा कर लोगों को सीएए (CAA) के समर्थन में सड़कों पर उतारना।

     

    स्ट्रेटजी:- झूठ, डर, आदि से जज़बाती शोषण कर भड़काना।

     

    सबसे पहले उन झूठ को पकड़ते हैं जो यह श्री मान ने अपने हिडन एजेंडा के लिए इस विडियो में प्रयोग किये।

     

    *झूठ नम्बर 1*

    यह कहते हैं कि

    “1. मुसलमान को सरकारी नौकरी नहीं चाहिए?!!”

     

    ज़रा सोचिए ये किस आधार पर कहा जा सकता है?

    महाशय, कृपया यह बताने का कष्ट करेंगे कि उनकी इस तसव्वुर / कल्पना (Assumption) का आधार क्या है ??

     

    यह निराधार झूठ तो और उजागर होता है तब, जब मुस्लिम बच्चों में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और हाल ही में बड़ी मात्रा में मुस्लिम बच्चे IAS IPS में चयनित हुए।

     

    हाँ यह बात ज़रूर है कि अब इस में भी पुष्पेंद्र या इस जैसे कुछ दूसरे एजेंट नफरत का एंगल निकालने की ज़रूर कोशिश करेंगे।

     

    झूठ नंबर 2

    आगे विडियो में यह कहते हैं

    ” _मुस्लिम इंजीनियर डॉक्टर सीधे ISIS में भर्ती होने चले जाते हैं_।”

     

    एक बार फिर मनगढ़ंत झूठा आरोप? ज़रा बताइये 20 करोड़ मुसलमानों के इस देश में कितने डॉक्टर, इंजीनियर ISIS में भर्ती होने चले गए ??

     

    मेरा आप सभी से सवाल है कि आप में से जो डॉक्टर, इंजीनियर है आप की बैच में ज़रूर कोई मुस्लिम रहा होगा, या अगर आप डॉक्टर इंजीनियर नहीं भी हैं तब भी आपके नेटवर्क में कोई ना कोई मुस्लिम बच्चे तो होंगे ही। तो ज़रा आप बताएँगे की आपका कोई सहपाठी (बैचमेट) या परिचित मुस्लिम डॉक्टर, इंजीनियर आपको ISIS में जाते दिखा या ख़बर मिली ???

     

    झूठ नम्बर 3

     

    लव जिहाद

     

    पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी तो अपने आप को इस्लाम धर्म का बहुत बड़ा ज्ञाता बताते हैं। तो वह इतनी बड़ी बात बिना संदर्भ (रेफरेंस) के कैसे कह रहे हैं?

     

    ज़रा बताइये की लव जिहाद जैसी चीज इस्लाम के किस ग्रंथ में लिखी है? है कोई रेफरेंस?

     

    *दुनिया जानती है जिस धर्म में पराई स्त्री को देखना तक हराम है,व्यभिचार की सज़ा, सज़ा-ए-मौत है। उस धर्म पर आप यह आरोप लगा रहे हैं?*

     

    बताइए यह तो झूठ की इंतिहा है!

     

    खैर ये पैटर्न आप को हर जगह दिखेगा जिहाद शब्द को किसी भी चीज़ से जोड़ कर हर बार एक नया मसाला तैयार।

     

    कोई अचंभा नहीं अगर कल तक मुस्लिम को सरकारी नौकरी नहीं चाहिए ऐसा कहने वाले पुष्पेंद्र जी आज झूठे साबित होने पर IAS, IPS परीक्षा के नतीजे को ही अब शिक्षा जिहाद का नाम दे दें।

     

    यह तो थे कुछ झूठ!

     

    अब देखिए डर का प्रयोग।

     

    डर नंबर 1

    मुसलमानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है

     

    यह झूठ तो कई बार उजागर हो चुका है आज़ादी के बाद से ही नफरत फैलाने वालों का यह एक प्रोपेगेंडा रहा है ।

     

    इस मैसेज के अंत में न्यूज़ रिपोर्ट की लिंक भेजी जा रही है आप ख़ुद इस झूठे डर की हकीकत जान लें।

     

    https://youtu.be/YfVBsbkAGco

    डर नंबर 2

    _”आज नहीं तो कल लड़ना ही होगा।”_

     

    खुले दिमाग से सोचिए ये आदमी खुले आम ना केवल देश में गृह युद्ध की बात कर रहा है, बल्कि उसके लिए लोगों को उकसा रहा है। बल्कि यहाँ तक कह रहा है कि बच्चों को पढ़ने लिखने की बजाय लड़ना सिखाने पर ध्यान देना चाहिए ।

     

    इसके अलावा भी कई डर इस्तेमाल किये जैसे सभी मुसलमानों का एक हो जाना आदि बातें।

     

    झुठ, डर के बाद अब नोटिस कीजिए जज़बाती / भावनात्मक खेल यानी की इमोशनल हथकंडा।

     

    इतनी ब्रेनवाशिंग कर लेने के बाद श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी इस नतीजे पर पहुँचते हैं, या लोगों को इस नतीजे पर पहुँचाते हैं कि:- “इसका हल यही है कि समाज को आगे आना होगा ।”

     

    और कमाल की बात यह है आगे क्यों आना होगा ? आगे इसलिए नहीं आना होगा कि एक साथ मिल कर देश को आगे ले जाएँ। मॉब लिंचिंग, रेप जैसे जघन्य अपराधों को रोका जाए।

     

    नहीं इस के बजाए *”उनका कहना”* है कि आगे आकर यह करना होगा की मुसलमानों के खिलाफ खड़े होना है। यहाँ आकर इनका जो एजेंडा है वह एकदम से उजागर होता है। वह यह कि सब बातों का निष्कर्ष यह है कि आप आइए CAA NRC के समर्थन में मैदान में उतरिये बाकी मुद्दे कुछ है ही नहीं बस आप मुस्लिमो को अपना दुश्मन समझे और सिर्फ इस तरफ ध्यान दें। जो कि बिल्कुल उजागर हो जाता है और यहीं इनका भांडा फूट जाता है।

     

    इसके अलावा विडियो में बार-बार यह कहना कि क्या बीजेपी ने ही ठेका लिया है? क्या कानून का ही ठेका है? आदि बातें जो इनकी मंशा को साफ तरीके से उजागर कर देती है कि यह किस के हक़ में या किस के समर्थन में यह पूरा प्रोपेगेंडा कर रहे हैं ।

     

    लेकिन तब तक पढ़ने सुनने वाला इनकी रणनीति में ऐसा उलझ चुका होता है कि वह इनकी बातों में आ जाता है।

     

    फिर भी इस विडियो की एक बात से हम सहमत हैं कि वह यह कि “बिल्कुल आज देश भेड़चाल में चल रहा है और इस भेड़चाल को राजनीतिक पार्टियाँ, पुष्पेंद्र जी जैसे लोगों द्वारा ही ब्रेन वाश कर चला रही हैं। “

     

    नहीं तो सामान्य स्थिति में तो एक आम व्यक्ति ऐसे आदमी को सुनने जो कि खुले तौर पर गृह युद्ध उकसा रहा है सिर्फ नफ़रत फैला कर आपको प्रेरित कर रहा है कि आप अपने बच्चों को हिंसात्मक बनाये और करियर की जगह लड़ने के बारे में उन्हें आगे करें। इसके बजाय वह उसकी मानसिकता पर क्रोधित हो रहा होता या उस के खिलाफ शिकायत कर रहा होता ।

     

    परन्तु हम जज़बाती लोग उसकी बातों में आकर ऐसा करना तो दूर इसके उलट उसकी बातों में ब्रेन वाश होकर उसके मोहरे बन उसी की बातों का प्रचार कर रहे हैं।

     

    एक बार सोचियेगा ज़रूर।

  • इस्लाम में मांसाहार ज़रूरी है ?

    इस्लाम में मांसाहार ज़रूरी है ?

    जवाब:- मांसाहार इस्लाम में अनिवार्य (फ़र्ज़) नहीं है। एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी होने के बावजूद एक अच्छा मुसलमान हो सकता है। मांसाहारी होना एक मुसलमान के लिए ज़रूरी नहीं है।

     

    यह भी एक भ्रांति है कि सिर्फ़ मुस्लिम ही मांसाहार करते हैं। जबकि तथ्य यह है कि विश्व की लगभग 90% जनता और ख़ुद हमारे देश भारत की 70% जनता मांसाहारी है।

    विश्व के किसी भी प्रमुख धर्म में मांसाहार को वर्जित नहीं बताया गया है।

    🍃 मुस्लिमों और क़ुरआन की बात करें तो पवित्र क़ुरआन मुसलमानों को मांसाहार की अनुमति देता है। निम्न कुरआनी आयातः इस बात की सुबूत हैं-

     

    ऐ ईमान वालों! प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो। तुम्हारे लिए चौपाए जानवर जायज़ हैं केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है।…..

    (क़ुरआन 5:1)

    “और उसने चौपायों को बनाया उन में तुम्हारे लिए पोशाक भी है और ख़ूराक भी और दूसरे फ़ायदे भी और उन में से तुम खाते भी हो।”

    (क़ुरआन 16:5)

     

    ”और वास्तव में, तुम्हारे लिए पशुओं में एक शिक्षा है, हम तुम्हें पिलाते हैं, उसमें से, जो उनके पेटों में है तथा तुम्हारे लिए उन में अन्य बहुत-से लाभ हैं और उन में से कुछ को तुम खाते हो।”

    (क़ुरआन 23:21)

     

    मांस पौष्टिक आहार है और प्रोटीन से भरपूर है, मांस उत्तम प्रोटीन का अच्छा स्रोत है। इसमें आठों आवश्यक अमीनो एसिड पाए जाते हैं जो शरीर के भीतर नहीं बनते और जिसकी पूर्ति आहार द्वारा की जाना ज़रूरी है। मांस में लोह, विटामिन बी-1 और नियासिन भी पाए जाते हैं।

    प्रकृति में हमें भोजन के आधार पर 3 तरह के जीव देखने को मिलते हैं।

    1. शाकाहारी (Herbivorous),
    2. मांसाहारी (Carnivorous),
    3. मांस और शाक दोनों खाने वाले (Omnivorous).

     

    अब अगर हम मनुष्य की प्राकृतिक रचना की तरफ़ ध्यान दें तो पता लगता है कि इंसान के दाँतों में दो प्रकार की क्षमता है यदि आप घास-फूस खाने वाले जानवरों यानी शाकाहारी (Herbivorous) जैसे भेड़, बकरी अथवा गाय के दाँत देखें तो आप उन सभी में समानता पाएँगे। इन सभी जानवरों के चपटे दाँत होते हैं अर्थात जो घास-फूस खाने के लिए उचित हैं और यदि आप मांसाहारी (carnivorous) जानवरों जैसे शेर, चीता अथवा बाघ इत्यादि के दाँत देखें तो आप उन में नुकीले दाँत भी पाएँगे जो कि मांस को खाने में मदद करते हैं।

     

    यदि मनुष्य के दाँतों का अध्ययन किया जाए तो आप पाएँगे उनके दाँत नुकीले और चपटे दोनों प्रकार के हैं। इस प्रकार वे वनस्पति और मांस खाने में सक्षम होते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि सर्वशक्तिमान परमेश्वर मनुष्य को केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता तो उसे नुकीले दाँत क्यों देता? यह इस बात का प्रमाण है कि उसने हमें मांस एवं सब्जियां दोनों को खाने की इजाज़त दी है। यानी के इन्सान प्राकृतिक रूप से सर्वभक्षी (Omnivorous) जीव है।

     

    ऐसे ही इंसान मांस अथवा सब्जियां दोनों पचा सकता है शाकाहारी जानवरों के पाचन-तंत्र केवल सब्जियां ही पचा सकते हैं और मांसाहारी जानवरों का पाचन-तंत्र केवल मांस पचाने में सक्षम है, परंतु इंसान का पाचन-तंत्र सब्जियां और मांस दोनों पचा सकता है। यदि सर्वशक्तिमान ईश्वर हमें केवल सब्जियां ही खिलाना चाहता है तो वह हमें ऐसा पाचन-तंत्र क्यों देता जो मांस एवं सब्ज़ी दोनों को पचा सके।

     

    🍃 पेड़-पौधों में भी जीवन:-

    कुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार को अपना लिया क्योंकि वे पूर्ण रूप से जीव-हत्या के विरूद्ध हैं। अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता। आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है। अत: जीव-हत्या के संबंध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता।

     

    ➡️ पौधों को भी पीड़ा होती है:-

    मांसाहार के विरोधी आगे यह तर्क देते हैं कि पौधे पीड़ा महसूस नहीं करते, अत: पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है। जो कि आज ग़लत साबित हो चुका है।

     

    आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा अनुभव करते हैं परंतु उनकी चीख मनुष्य के द्वारा नहीं सुनी जा सकती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य में आवाज़ सुनने की क्षमता, जो श्रुत सीमा में नहीं आते अर्थात 20 हर्टज़ से 20,000 हर्टज़ तक इस सीमा के नीचे या ऊपर पड़ने वाली किसी भी वस्तु की आवाज़ मनुष्य नहीं सुन सकता है।

     

    एक कुत्ते में 40,000 हर्टज़ तक सुनने की क्षमता है। इसी प्रकार ख़ामोश कुत्ते की ध्वनि की लहर संख्या 20,000 से अधिक और 40,000 हर्टज़ से कम होती है। इन ध्वनियों को केवल कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं।

     

    अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का आविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है। जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को इसका तुरंत ज्ञान हो जाता। वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते हैं कि पौधे भी पीड़ा, दुःख और सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं।

     

    ➡️ दो इंद्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहीँ है।

    अक्सर शाकाहारी अपने पक्ष में यह तर्क देते हैं कि पौधों में दो अथवा तीन इंद्रियाँ होती हैं जबकि जानवरों में पांच होती हैं। अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुकाबले में छोटा अपराध है।

     

    आप कल्पना करें कि अगर किसी का भाई पैदाइशी गूंगा और बहरा है और दूसरे मनुष्य के मुकाबले उसके दो इंद्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायाधीश से कहेंगे कि वह दोषी को कम दंड दे क्योंकि उसके भाई की दो इंद्रियाँ कम हैं? बल्कि वह तो यह कहेगा कि उस अपराधी ने एक लाचार गूंगे-बहरे की हत्या की है और न्यायाधीश को उसे कड़ी-से-कड़ी सज़ा देनी चाहिए।

     

    क्या लोग नहीं जानते कि खेती के दौरान कई तरह के कीटनाशक (पेस्टीसाइड) का इस्तेमाल कर फसल पर छिड़काव करके फल सब्जियों को खराब करने वाले कीड़े, जीव जंतुओं को मारा जाता है इनमें छोटे भी होते हैं और बड़े भी। पिछले दिनों टिड्डी दल के बारे में सभी ने सुना है। इन जीवों में तो सभी इंद्रियाँ होती हैं तो क्या यह जीव हत्या नहीं हुई? मांसाहार को ग़लत कहने वाले इस पर क्या कहेंगे। अगर यह ना किया जाए तो फसल ही नष्ट हो जाएगी और खाने को कुछ बचेगा ही नहीं। अगर सिर्फ़ बहस के लिए मान भी लिया जाए कि किसी तरह बिना किसी जीव को मारे कोई फल या सब्जी तैयार हो भी गई तब भी यह बात तो रहेगी ही कि फल सब्ज़ी में भी जान होती है और आप उन्हें खा कर उनकी हत्या कर रहे हैं।

     

    अतः इस से इंसान बच ही नहीं सकता यानी आज के दौर में मांसाहार / कुर्बानी को ग़लत कहना बहुत बड़ी अज्ञानता और अंध विश्वास की बात है।

     

    पवित्र क़ुरआन में कहा गया है- “ऐ लोगों ! खाओ जो पृथ्वी पर है परंतु पवित्र और जायज़।”……

    (क़ुरआन 2:168)

     

  • क्या कुरआन पढ़कर लोग आतंकी बनते हैं ?

    क्या कुरआन पढ़कर लोग आतंकी बनते हैं ?

     जवाब:- सर्वप्रथम तो यह सवाल / इल्ज़ाम ही ग़लत है कि क़ुरआन पढ़ कर लोग आतंकवादी बन जाते हैं। आप की जानकारी के लिए बता दे कि दुनिया में निःसंदेह सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली किताब क़ुरआन ही है। विश्व में 180 करोड़ (1.8 Billion) मुस्लिम हैं और अगर क़ुरआन पढ़ कर लोग आतंकवादी बन रहे होते तो आज दुनिया की क्या हालत हुई होती उसका आप अनुमान लगा सकते हैं।

    तमाम कुप्रचारो के बाद भी आज विश्व में सबसे ज़्यादा तेज़ी से कबूल किया जाने वाला धर्म इस्लाम ही है, लाखों लोग इस किताब को पढ़ कर इस्लाम अपना रहे हैं और अगर इस बात का ज़रा-सा भी आधार होता कि क़ुरआन पढ़ लोग आतंकवादी बन रहे हैं तो क्या यह होना संभव था ?

    इस्लाम की बढ़ती लोकप्रियता को रोकने के लिए हमेशा से ही कुप्रयास किए गए (जैसे इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला) उन्ही में से एक प्रयास आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल करना है, जो 2001 से शुरू हुआ। इस से पहले कभी यह शब्द मुसलमानों के लिए प्रयोग नहीं किया गया जिस से इसका कुप्रचार और षड्यंत्र होना साबित होता है।

    यह बात तो जग जाहिर है और कई बार इसका जवाब दिया जा चूका है की कुरआन अमन और शान्ति का पैग़ाम देता है। साथ ही यह भी कई बार साबित किया जा चुका है की इस्लाम को बदनाम करने के इसी षडयंत्र का प्रोपेगेंडा करने के लिए मीडिया आतंकवाद  शब्द का प्रयोग इस्लाम और मुस्लिमों के लिए कर, अपना एजेंडा सिद्ध करती है, सभी ने देखा देश विदेश में हुई जघन्य आतंकवादी घटनाओं (जैसे मॉबलिंचिंग, न्यूज़ीलैंड अटैक) जिन को करने वाले मुस्लिम नहीं थे उन घटनाओं के लिए आतंकवाद शब्द प्रयोग ही नहीं किया गया ना करने वालो को उनके धर्म से जोड़ा गया जैसे मुस्लिमों के बारे में किया जाता है। बल्कि कुछ और तरीके से उल्लेखित किया गया ।

     

    लेकिन यहाँ हम आज इस षडयंत्र के दूसरे पहलू को उजागर करेंगे जिस पर कम ही चर्चा हुई है। वह यह कि अक्सर आतंकवादी घटना बता कर कई लोगों की गिरफ्तारी की जाती है। उन का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सालों बाद उन पर आरोप सिद्ध ही नहीं हुए और वे रिहा हो गए और ये पता ही नहीं चल पाया कि असल में घटना के पीछे था कौन? या यह जान बूझ कर छुपा दिया जाता है? क्या यह आतंकी घटना थी या सोची समझी साज़िश।

     

    देखें :-

    ▪देश में नक्सली और आतंकी हमले और उनका विश्लेषण

    1980 से 2019 तक देश में नक्सली और आतंकी हमले 110 से ज़्यादा है, इन हमलों में 3870 से ज़्यादा नागरिक मारे गए, 6683 से ज़्यादा घायल हुए।

    इन 110 हमलों में से मात्र 11 केस पर फ़ैसला आया और अपराधियों को सजा हुई। बचे 100 से ज़्यादा नक्सली / आतंकी हमलों में गिरफ्तार किए गये लोग बेगुनाह साबित हुए औऱ 5-साल, 10-साल और 20-सालों के लम्बे मुकदमों के बाद बाइज़्ज़त बरी हुए।

     

    हर हमले के बाद पकड़े जाने वाले, जिनको इस दावे के साथ पकड़ा जाता था, की ये आतंकी है और इनके खिलाफ पुख्ता सबूत है। पर सरकार यह कभी साबित ही नहीं कर पाई और आंकड़े बताते है, की जिनको आतंकवाद के इल्ज़ाम में पकड़ा है, वे सब तो निर्दोष थे।

    •  अक्षरधाम मंदिर हमले में जिनको पकड़ा था, वे बाइज्ज़त बरी हुए…? मतलब जिनको आतंकी कह कर पकड़ा था, वे सब बेगुनाह थे..?

     

    तो फिर सवाल उठता है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमला किसने करवाया था और इसके पीछे किस लाभ का मकसद था?

    •  संसद हमले के समय 4 लोगों को आरोपी बनाया गया था। एक को फाँसी दी गई (जिसको फाँसी दी थी, उसने कहा था कि मुझे देवेंद्र सिंह ने फँसाया है, उस समय किसी ने भी नहीं सुना, लेकिन अब देवेंद्र सिंह ख़ुद पकड़ा गया) 2 को बाद में बरी कर दिया चौथा जिसको मास्टर माइंड बताया गया था, 3 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से बाइज्ज़त बरी हो गया।

     

    फिर सवाल ये है? संसद / अक्षरधाम औऱ दूसरे हमले किसने करवाये? जिनको आरोपी बनाया वे बरी हो गए तो असली आरोपी कौन थे? उनको बचाने में किस की भूमिका है?

     

    ▪️ क्यों आज तक हमले के असली मुज़रिम पकड़े नहीं गये…?

     

    ▪️ किन लोगों को बचाने के लिए किन लोगों ने निर्दोषों को झूठे मुकदमे में फँसाया…?

     

    ▪️ क्या आतंकी और नक्सली हमले राजनीतिक हित साधने के लिए होते है..?

     

    ▪️ कब तक हम झूठे प्रोपेगेंडा में आकर सच्चाई को अन देखा करते रहेंगे..?

     

    ▪️ कब तक हमारे देश के वीर सैनिक और आम जनता बलि चढ़ते रहेंगे…?

     

    अक्सर ये घटनाएँ चुनाव के आस पास या कोई बड़ा मुद्दा खड़ा हो जाने पर ही क्यों होते हैं? क्या ये सिर्फ़ बार-बार होने वाला इत्तेफ़ाक (Coincidence) है ? या कुछ और?

     

    • यह वे कुछ सवाल हैं जो आपको ख़ुद से पूछने होंगे।