Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब
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कोरोना में मुस्लिमो की जनसेवा
अपने ख़िलाफ़ फैलाई गई नफरतों और झूठ से बेपरवाह मुस्लिम कौम एक बार फ़िर जनसेवा और देश हित मे जुटी है।देश भर में कई मस्जिदों में जहाँ ऑक्सीजन सिलेंडर बट रहे हैं तो कई मस्जिदों से मरीज़ों और मुसीबत ज़दाओ को तरह-तरह से मदद मिल रही है। खास तौर पर मुम्बई मे कई मस्जिदों में मुफ्त में ऑक्सीजन सिलेंडर (Oxygen cylinder) के साथ ऐसे किट भी दिए जा रहे हैं जिन्हें घर मे फिट किया जा सके।इस काम मे जुटी रेड क्रिसेंट सोसाइटी के चेयरमैन अरशद सिद्दीकी बताते है कि “चूंकि सभी कोविड-19 रोगियों को अस्पतालों में बेड नहीं मिल रहे हैं और कई का इलाज घर पर किया जा रहा है, इसलिए हमने उन लोगों को ऑक्सीजन उपलब्ध कराने के बारे में सोचा जिन्हें इसकी आवश्यकता है। यह लोगों को मुफ्त में दिया जा रहा है फिर चाहे मरीज़ किसी भी धर्म, जाति या पंथ का हो। यह महामारी के खिलाफ हमारी एकजुट लड़ाई है और हम जरूरतमंदों की मदद करेंगे जितना हमारा सामर्थ्य है।”ऐसे ही ऑक्सीजन (Oxygen) वितरण से जुड़े डॉ अज़ीमऊद्दीन ने बताया कि अब तक 1000 ऑक्सीजन सिलेंडर (Oxygen cylinder) मुफ्त बांट चुके हैं।मुंबई की निकहत मोहम्मदी ने “फूड एक छोटी सी आशा” की शुरुआत की जो आज 25,000 गरीब और ज़रूरतमंद लोगों के खाने का ज़रिया है।निकहत इस बारे में कहती हैं की “मुस्लिम होने के नाते वे यह मानती हैं कि सभी लोग एक ही माँ-बाप (आदम और हव्वा) की संतान है औऱ आपस में भाई-बहन हैं।” उन्होंने यह भी कहा की “मुस्लिमों के खिलाफ फैलाई जा रही नफ़रत और पूर्वाग्रह उन्हें इस बात से नहीं रोक सकती कि वे विपदा से प्रभावित हो रहे लोगों की मदद ना करे चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हो।”इसी तरह हेल्पिंग हेंड फाउंडेशन (Helping Hand foundation) की 100 लोगों की टीम जिसमें एम्बुलेंस, ड्राइवर, नर्स, Paramedic स्टाफ, काउन्सलर, पेशेंट केअर और वर्करो के साथ देश स्तर पर प्रभावितों को हर सम्भव मदद पहुँचाने में जुटी है।संगठन के संस्थापक और ट्रस्टी, मुजतबा अस्करी कहते हैं :-“हम कोविड-19 (COVID-19) से पहले भी अपने साथी नागरिकों की सेवा करने के मिशन में लगे हुए हैं। हमारे देश के सामने भयावह चुनौती और ज़रूरत से ज़्यादा लोगों की दुर्दशा ने ही हमारे और अधिक करने के संकल्प को मजबूत किया है।”इसी कड़ी मे आगे, गुजरात में अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीज़ों के लिए बेड की कमी को देखते हुए वडोदरा में जहांगीरपुरा मस्जिद को एक कोविड सेंटर में तब्दील कर दिया गया और उस मे 50 से अधिक बेड लगाए गए।जहांगीरपुरा मस्जिद के अलावा दारूल उलूम में भी संस्था के संचालकों ने प्रशासन के साथ मिलकर 120 बेड की व्यवस्था की।इसके अलावा भी कई मस्जिदों और मदरसों के ज़रिए महामारी में लोगों की मदद की जा रही है।यह पहली बार नहीं है जब ज़रूरत पढ़ने पर मुस्लिमों ने देश और देश वासियों के लिए अपने जी-जान लगाए हैं बल्कि हर बार ज़रूरत के समय देश का मुसलमान अपनी जान और माल के साथ हाज़िर रहा है। इसी का आभार मानते हुए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा था कि महामारी के इस काल में मुस्लिमों का उपकार देश कभी नहीं भूलेगा।हमारे हिन्दू भाइयों से यह अपील है कि इस वक़्त है खुद से सवाल करने का कि अगर मुस्लिमों के खिलाफ उन प्रोपेगंडे जिनमे उन्हें देश विरोधी, देश और देशवासियों की बर्बादी के लिए कार्यरत बताया जाता है, उसमे अगर रत्ती भर भी सच्चाई होती तो फिर मुस्लिम अपनी जान पर खेल कर अपने देश की सेवा और देशवासियों की जान बचाने में क्यों लगे हुए हैं?यह तो ऐसा समय है कि अगर वाकई वे देश को बर्बाद करना चाहते तो उन्हें कुछ करने की आवश्यकता ही नही थी बल्कि वे चुपचाप ही बैठे रहते। जैसे नफरत फैलाने वाले बैठ गए हैं (जो देश की इस आपदा में तो कुछ काम नही आ रहे बल्कि उस मौके के इंतज़ार में है की कैसे कुछ मिले और मुस्लिमों की इस सेवा को भी ऑक्सीजन (Oxygen) जिहाद या कुछ और बोल कर ज़हर घोला जाए।)लेकिन नहीं। 100 झूठ एक तरफ और सच्चाई एक तरफ। मुस्लिम अपने जी जान से देश हित मे लगें हुए हैं और *रमज़ान के उपवास* के इस महीने में ही भूखे-प्यासे इस काम मे दौड़ रहे हैं।यहीं नही नफरत फैलाने वाले अपनी मनगढ़ंत कहानियों से देश के मुस्लिम ही नहीं बल्कि मुस्लिम देशों को भी अपनी कोरी कल्पना से देश को बर्बाद करने के मिशन पर बताते हैं। जबकि आज ज़रूरत पढ़ने पर जो सबसे पहले अगर कोई आगे आया है तो वह भारत का दोस्त और कोई नही बल्कि मुस्लिम देश सऊदी अरब ही है। जिसने 80 मीट्रिक टन लिक्विड ऑक्सीजन (Liquid Oxygen) भारत के लिए भेजी है।यह कुछ बाते तो देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर थी। जबकि व्यक्तिगत स्तर पर भी मुस्लिम हर शहर हर राज्य में अपना योगदान दे रहे हैं।महाराष्ट्र के नागपुर में एक ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक प्यारे खान ने एक हफ्ते के अंदर 85 लाख रुपये की ऑक्सीजन अस्पतालों को दान की।
मुंबई के शाहनवाज़ शेख़, जिन्होंने कोविड की पहली लहर में अपने दोस्त की बहन को ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते देखा था। उन्होंने अपनी लग्ज़री गाड़ी तक बेच दी और पैसों से 60 ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदे 40 किराए पर लिए। पिछले साल 300 लोगों को सिलेंडर पहुंचा कर जान बचाई। इस बार रोज़ के 500 फोन रिसीव कर रहे है। हर संभव मदद कर रहे हैं। एकदम मुफ़्त ऑक्सीजन सिलेंडर, वेंटिलेटर, बेड की उपलब्धता के लिये शाहनवाज भाई ने अपना वार रूम बना रखा है। नंबर सोशल मीडिया पर घूम रहा है। मदद के लिये दिन रात लगे हुए हैं। एकदम निःस्वार्थ। सिर्फ़ कोशिश कि ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाई जा सके।
मुफ़्ती ताहिर, लखनऊ में आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष के संरक्षण में मुफ्त ऑक्सीजन बांटी जा रही है।
लखनऊ के चाँद कुरेशी हो या दिल्ली के वसीम मलिक ऐसे देश भर में कई नाम हैं जो ऐसे ही कामों के ज़रिए खबरों में छाए हुए हैं।
ऐसे समय मे जब लोग दवाइयों की कालाबाज़ारी पर मुनाफ़ा कमा रहे है। वही दूसरी तरफ इंदौर के जफ़र मंसूरी मिसाल बने जिन्हे जब इंदौर नगर निगम से उनकी फ़ैक्ट्री किराए पर देने का आग्रह हुआ तो उन्होंने अपनी पूरी फैक्ट्री ही फ्री कर दी और साथ मे इंजेक्शन भी दान किये।
महामारी के डर से लोग अरथी को कंधा देने नही आ रहे तब कई मुस्लिम उनका दाह संस्कार कर रहे हैं। भोपाल नगर निगम के सद्दाम कुरैशी और दानिश सिद्दीकी हों या दिल्ली तुर्कमान गेट के नावेद चौधरी इस सेवा में निस्वार्थ लगे हुए हैं।
सूरत के कादर शेख़ ने कोविड से ठीक होने के बाद श्रेयम कॉम्प्लेक्स में स्थित अपने 30,000 स्क्वायर फिट के ऑफ़िस को 85 बेड वाले कोविड सेंटर में बदलवा दिया। सभी बेड में ऑक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था सुनिश्चित की गई। ग़रीबों के लिये बिल्कुल मुफ़्त इलाज मुहैया कराने वाला यह कोविड अस्पताल जुलाई 2020 से चालू है और हज़ारों लोगों की जान बचा चुका है।
जनसंख्या प्रतिशत के हिसाब से आप सभी ने नोटिस किया होगा। भले ही हमारे फ़्रेंडलिस्ट में मुस्लिम नाम कम दिखते हों लेकिन कोरोना मदद वाले ग्रूप्स में इन्फ़र्मेशन शेयर करते हुए और मदद करने वालों की लिस्ट में मुस्लिमों के नाम ज़रूर दिखेंगे इनमें वे नाम नहीं होंगे जो साल भर नफरत भरे मैसेज फॉरवर्ड कर मुस्लिमों के खिलाफ लोगों को भड़का रहे होते हैं।
कोई रोज़े में प्लाज़्मा डोनेट कर रहा है तो कोई भोजन बाँट रहा है तो कोई बाइक से ही ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर दौड़ रहा है। ऊपर दिये नाम तो सिर्फ कुछ एक है जबकि ज़मीनी स्तर पर हजारों ऐसे फ्रंटलाइन मुस्लिम वर्कर है जो दिन रात इसी काम में लगे हैं।
संकट की इस घड़ी में सभी साथ है ऐसा नही है कि सिर्फ मुस्लिम ही सेवा कर रहे हैं, बल्कि हर समाज हर वर्ग के लोग जुड़े हैं।दरअसल देश की हर आपदा में आगे खड़े होने वाले लोग आज मैदान में है। पीछे सिर्फ नफ़रत फैलाने वाले गद्दार हैं जो मुँह छुपाते फिर रहे हैं और नफरत फैलाने के मौके की तलाश में है जैसा उन्होंने हमेशा से ही किया है।लेकिन यहाँ मुस्लिमों के प्रति झूठ का पर्दाफाश करने लिए यह ज़रूरी था कि लोगों का इस तरफ ध्यान दिलाया जाए। अगर हम नफ़रत फैलाने वाले इन देश के दुश्मनों के बहकावे में नही आते और अपने ही देशवासियों से द्वेष रखने और धर्म की राजनीति में उलझने की जगह असल मुद्दों और स्वास्थ्य व्यवस्थाओ पर माँग कर रहे होते तो आज इस आपदा का सामना नही कर रहे होते। आशा है की ईश्वर जल्द ही हमे इस आपदा पर विजय देगा।लेकिन याद रहे मौका मिलते ही यह नफ़रत फैलाने और देश तोड़ने वाले फिर उठेंगे फिर आपको मुस्लिमों के खिलाफ झूठ की बुनियाद पर गुमराह करेंगे लेकिन अगर आप मानवता में थोड़ा-सा भी विश्वास और देश से थोड़ा भी प्यार रखते हैं तो आपको यह निश्चित करना होगा की ऐसी हर कोशिश को सफल नही होने देंगे। अगर इसके बाद भी यह लोग आपके मन मे मुस्लिमों के लिए द्वेष जगाने में कामयाब होते हैं और आप इन सारी हक़ीक़तों और योगदान को अनदेखा कर देते हैं तो यह आपका मानवता और अच्छे कर्मों का बदला गाली देने के समान ही होगा। -
अज़ान के अर्थ का कुप्रचार।
जवाब:- इस पोस्ट में बड़ी ही चालाकी से सिलेक्टिव एप्रोच (Selective Approach) का उपयोग करते हुए पाठक को गुमराह किया जा रहा है।
यहाँ आपका ध्यान इस तरफ़ तो खींचा जा रहा है कि मस्जिद में लाउडस्पीकर में अज़ान देते हैं, और उसका क्या मतलब होता है, लेकिन इस बात से ध्यान हटाया जा रहा है कि मंदिर, गुरुद्वारे, बौद्ध मठ, चर्च, जैन मंदिर, सिंधी मंदिरों आदि में लाउडस्पीकर पर क्या कहा जाता है।
आइये हम इस पर थोड़ा विचार करते हैं।
जिस तरह इस पोस्ट में कहा गया है कि हिन्दू अपनी आस्था के अनुसार बहुत से भगवानो को पूजा के योग्य समझते हैं, पर अज़ान में मुसलमान कहता है कि सिर्फ़ *अल्लाह* ही इबादत के योग्य है अतः इस से हिन्दूओ की भावना आहत होती है इसलिए अज़ान पर Ban (प्रतिबंध) लगा देना चाहिए।
अब अगर इसका उल्टा (Vice versa) मैं कहूँ, यानी कि “एक मुसलमान होने के नाते, मेरी ये आस्था है कि सिर्फ़ अल्लाह ही पूजा के योग्य है, लेकिन सभी हिन्दू मंदिरों में अल्लाह के अलावा बहुत सारे भगवानो की पूजा, भजन, आरती होती है और लाउडस्पीकर पर सुनाई जाती है। इससे मुसलमानों की भावना आहत होती है अतः इन पर बेन लगा देना चाहिए..??
तो आप क्या कहेंगे..?
आप जो भी कहें….
वही बात अज़ान पर सवाल उठाने वाले के बारे में भी लागू होती है अतः *कुतर्क (illogic) तो यहीं उजागर हो गया।*
फिर भी हम आगे और विचार करते हैं।
बात सिर्फ़ हिन्दू-मुस्लिम तक ही सीमित नहीं है बल्कि हर धर्म और आस्था पर लागू होती है।
जब आप लाउडस्पीकर में *विष्णु* आरती करते हैं
*ओम जय जगदीश हरे…*
*तुम पूरण परमात्मा,*
*स्वामी तुम अन्तर्यामी।*
*पारब्रह्म परमेश्वर,*
*तुम सब के स्वामी॥*
*॥ ॐ जय जगदीश हरे…॥*
तो आप कह रहे होते हैं के विष्णु / जगदीश सबके स्वामी हैं, अंतर्यामी हैं, परमात्मा हैं आदि।
तो क्या इस संदर्भ में यह कहा जाए कि आप सिख, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध आदि सभी धर्म के लोगों की भावना आहत कर रहे हैं? क्योंकि एक सिख के अनुसार जग के स्वामी तो वाहेगुरु हैं, मुस्लिम के अनुसार परमात्मा, जग का स्वामी तो अल्लाह है। ईसाई के अनुसार तो जग का स्वामी/परमात्मा गॉड या जीसस है।
जब आप पूजा करते हैं *श्री गणेश* की।
*जयदेव जयदेव जय मंगलमूर्ति*
*सुखकर्ता दुःखहर्ता वार्ता विघ्नाची।*
अर्थात सुख के देने वाले, दुःख को हरने वाले, विघ्न को दूर करने वाले गणेश जी हैं।
तो यह बात हिन्दू धर्मावलंबियों को छोड़ कर बाकी सभी धर्मो कि आस्था के विरुद्ध हैं क्योंकि उनके अनुसार सुख देने वाला, दुःख हरने वाला विघ्न दूर करने वाला उनके धर्म के अनुसार “गणेश जी” नहीं बल्कि कोई और होगा फिर चाहे वो वाहेगुरु हो, झूलेलाल हो, ईसा मसीह हो, गौतम बुद्ध हो या यहोवा हो।
*तो क्या इस संदर्भ में फिर यही कहा जाए कि आप यह आरती बजाकर सबकी भावनाओं को आहत कर रहे हैं..?*
इसी तरह अनेक उदाहरण हैं।
और सोचिए:
यह बात सिर्फ़ *इस्लाम और हिन्दू* धर्म के उद्घोष पर ही लागू नहीं है बल्कि सभी धर्मों का उद्घोष एक दूसरे के विरुद्ध जाता है, आइए देखते हैं मंदिर, मस्जिद के अलावा बाकी धर्म स्थलों में लाऊडस्पीकर पर क्या बजाया जाता है और उसका मतलब क्या है।
*गुरुद्वारा की गुरबानी के:-*
*इक्क औंकार वाहेगुरु की फतेह।*
*….,अजूनी सैभं गुर प्रसाद ॥….*
ईश्वर (वाहेगुरु) सिर्फ़ एक है, उसी की विजय है, और गुरु कृपा से प्रसाद मिलता है।
*बुद्ध मठ में होने वाली वंदना*
भगवान का श्रावक संघ सन्मार्ग पर चल रहा हैं,
भगवान का श्रावक संघ सीधे मार्ग पर चल रहा हैं,
भगवान का श्रावक संघ ज्ञान के मार्ग पर चल रहा हैं,
भगवान का श्रावक संघ उत्तम मार्ग पर चल रहा हैं॥
*चर्च में होने वाला मास:*
“Blessed be God: Father, Son and Holy spirit. And blessed be his kingdom, now and forever. Amen”…
“Jesus the only begotten son”…..
*आदि*
तो अब क्या यूँ कहा जाए कि बौद्ध मठ में कहा जा रहा है कि उनका मार्ग ही ज्ञान मार्ग और उत्तम मार्ग है, मतलब बाकी सब धर्म वाले अज्ञान के मार्ग पर चल रहे हैं? और क्या उनका मार्ग खराब है? जहाँ चर्च में कहा जा रहा है कि सिर्फ़ येशु ईश्वर की सन्तान है तो वहाँ मंदिर में कहा जा रहा है गणेश जी भगवान की सन्तान है।
जहाँ मुस्लिम कह रहे हैं ईश्वर सिर्फ़ एक है तो वहीं सिख कह रहे हैं कि वह सिर्फ़ एक है लेकिन सिर्फ़ गुरु कृपा से मिलता है। तो इसका मतलब क्या यह निकाला जाए कि ईश्वर बाकियों को नहीं मिलेगा। अगर सिर्फ़ वाहेगुरु की फतह है तो क्या ये कहा जाए बाकियो की हार है??
तो क्या इसका मतलब यह है कि सब एक दूसरे की भावनाओं को आहत कर रहे हैं?
बल्कि कुछ और धर्मो को जोड़ लिया जाए तो विरोधाभास और लंबा हो जाएगा।
अतः क्या सब धर्म स्थलों को बंद कर देना चाहिए क्योंकि सेक्युलर देश इसकी इजाज़त नहीं देता??
*बिल्कुल नहीं, बल्कि अगर कोई यह कहता है तो उसे बहुत बड़ा ना समझ ही कहा जायेगा क्योंकि ये संदर्भ ही ग़लत है।*
बल्कि इसका संदर्भ तो यह है कि सभी अपनी अपनी आस्था अनुसार अपने धर्म का उद्घोष कर रहे हैं।
सेक्युलर का मतलब यह नहीं होता कि कोई आस्था रखे ही ना या सब एक आस्था को मानने को मजबूर कर दिए जाएं और अगर उसके विपरीत कोई आस्था जाती है तो उसको बेन करने की मांग की जाए, बल्कि *यह Secular शब्द की आड़ में कट्टरवाद है जिसका पाठ आपको पढ़ाने की कोशिश की गई।*
बल्कि सेक्युलर (Secular) का मतलब तो यह होता है कि सभी को अपनी अपनी आस्था रखने और उस का उद्घोष करने कि आजादी हो और इससे समस्या सिर्फ़ उस कट्टरवादी सोच को हो सकती है जो कट्टरवाद लाना चाहता हो और लोगों को किसी तरह धर्म विशेष के प्रति भड़काना चाह रहा हो।
अंत में यही कहूँगा की समझदार को इशारा काफी होता है, जैसा आपने देखा किस तरह चालाकी के साथ “Selective approach” (चयनात्मक दृष्टिकोण) के ज़रिए आपके Perception (धारणा) को चेंज कर आपका इस्लाम धर्म के प्रति ब्रेन वॉश करने की कोशिश की गई।
कोशिशे और भी होंगी क्योंकि मकसद एक ही है इस्लाम को और मुसलमानों को आपका दुश्मन दिखाना।
लेकिन अगर आप चालाकी भरी हर कोशिश पर विवेक से एक बार पुनः दृष्टि/नज़र डालेंगे और थोड़ा सोचेंगे तो पूरी आशा है कि आप हर प्रकार की चालाकी से बचे रहेंगे और किसी के बहकावे में नहीं आएंगे।
धन्यवाद।
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कोरोना ने इस्लाम को अतार्किक साबित कर दिया ?
जवाब:- असली तार्किकता यह नहीं है कि किसी चीज को जाने बिना ही और पढ़े बिना ही बाहर से ही उसे अतार्किक घोषित कर दिया जाए। बल्कि असली एवं ईमानदार तार्किकता तो यह है कि पहले उस चीज को पढ़ा जाए उसके बारे में पूरा ज्ञान हासिल किया जाए और यदि वह सत्य पाई जाए तो उसे कबूल करने का साहस दिखाया जाए।
अतः जब हम इस बारे में इस्लाम का अध्ययन करने पर पता चलता है कि मज़हब इस्लाम तर्क का ना सिर्फ़ स्वागत करता है बल्कि, तर्क करने और सोचने एवं बुद्धि से काम लेने के लिए आमंत्रित करता है।
फरमाया क़ुरआन में –
और उसने तुम्हारे लिए रात और दिन को और सूर्य और चन्द्रमा को कार्यरत कर रखा है और तारे भी उसी की आज्ञा से कार्यरत है-निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ है जो बुद्धि से काम लेते है।
(सूरहः अल नहल 16:12)
…कई निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए, जो सोच-विचार करते हैं।
(सुरः अर-रुम 30:21)
और वे कहेंगे, “यदि हम सुनते या बुद्धि से काम लेते तो हम दहकती आग में पड़ने वालों में सम्मिलित न होते।”
(सूरहः अल मुल्क 67:10)
इसके अलावा सूरहः अल बकरह 2:44, 2:164, सूरहः अल अम्बिया 21:30, सूरहः अल मा’ईदा 5:58 आदि एवं हदीसों में बार-बार मनुष्य को बुद्धि से काम लेने और तर्क करने का कहा गया है।
ताकि इंसान अंधकार से निकले और सत्य की तरफ़ आए। इसीलिए फिर चाहे वह वैज्ञानिक विषय हो या तार्किक विषय हो या फलसफी, इस्लाम हर विषय में मनुष्य का सही मार्गदर्शन करता है एवं सत्य की ओर लेकर जाता है।
अब जैसे हम इस कोरोना महामारी को ही क्यों ना ले लें, जो लोग इस्लाम और क़ुरआन की थोड़ी-सी भी जानकारी ना होने की वज़ह से आज आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं अगर वह इस्लाम और क़ुरआन के बारे में थोड़ा-सा भी पढ़ लेते तो जान लेते कि उनके यह आरोप कितने आधारहीन हैं।
बल्कि पहले से ही क़ुरआन और इस्लाम में इनका जवाब मौजूद है। किस तरह इस महामारी ने अनुयायियों का क़ुरआन और इस्लाम पर विश्वास और ज़्यादा मज़बूत और प्रमाणित किया है एवं किस तरह वह इस दौरान भी उनका मार्गदर्शन कर रहा है।
आज विश्व में सभी अचंभित इसलिए है क्योंकि कोरोना महामारी में बने हालात उनके लिए बिल्कुल नए है और उनके पास इस बारे में कोई मार्गदर्शन या जानकारी ही नहीं है।
जबकि इस्लाम में तो अनुयायियों को इस बारे में पहले ही बता दिया गया है यहाँ तक कि यह भी बता दिया गया कि इस तरह के हालात क्यों आते हैं और इस दौरान क्या करना चाहिए।
आगे बढ़ने से पहले इस्लाम की थोड़ी जानकारी देना आवश्यक है ताकि बात समझ आए।
फरमाया क़ुरआन में-
*जिसने पैदा किया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुम में कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है।*
(सूरहः अल मुल्क 67:2)
अल्लाह फरमाता है कि उसी ने जीवन और मृत्यु बनाएँ ताकि तुम्हारी परीक्षा करे और इसी के माध्यम से वह तुम्हारी परीक्षा करता है। इस्लाम के अनुसार यह जीवन तो मात्र एक परीक्षा का स्थान है। जबकि असल जीवन तो मृत्यु के बाद का है जो कभी ख़त्म नहीं होने वाला है।
यहाँ पर वह व्यक्ति जो ईश्वर के बताए कार्यों को करेगा और ईश्वर के मना किए गए कार्यों से बचेगा और उसके संदेष्टा का पालन करेगा वह इस परीक्षा में सफल होगा और मृत्यु के बाद हमेशा-हमेशा स्वर्ग में रहेगा।
जबकि जो व्यक्ति इसके उलट करेगा वह अपने कर्मों की वज़ह से ईश्वर के दंड का भागी बनेगा और मृत्यु के बाद नरक में दंड भोगेगा।
अतः असल दंड और सुख तो मृत्यु के बाद का ही है लेकिन इस जीवन में भी जब दुष्ट अपनी दुष्टता की हदें पार कर देते हैं और निर्दोषों व निर्बलों पर अत्याचार के पहाड़ तोड़ देते हैं और ईश्वर के संदेश का पूर्ण बहिष्कार कर देते हैं। *तो ईश्वर इस जीवन में भी उन पर इस तरह की महामारी एवं प्राकृतिक आपदा भेज कर उनको दंडित करता है और उनको ईश्वर की तरफ़ लौटने की याद दिलाता है।*
वैसे ही जैसे उसने अपने पवित्र ग्रंथ क़ुरआन में कई कौमों का उल्लेख किया जिन पर उसने ऐसा अज़ाब भेजा :-
*तब हमने उन पर (पानी को) तूफान और टिड्डियां और जुएं और मेंढकों और खून का अज़ाब भेजा कि सब जुदा-जुदा (हमारी कुदरत की) निशानियाँ थी उस पर भी वह लोग तकब्बुर ही करते रहें और वह लोग गुनेहगार तो थे ही।*
(क़ुरआन 7:133)
और इसी तरह दूसरी जगह अलग-अलग तरह के आजाब और महामारियों का ज़िक्र मौजूद है।
तो आज जब हमने देखा कि चीन से लेकर सीरिया, फिलिस्तीन हो या अफगानिस्तान बल्कि पूरे विश्व में ही मासूमों और लाचारों का नरसंहार हो रहा है और कोई उनके पक्ष में बोलने वाला नहीं है, ऐसे हालात में इस तरह का अज़ाब आना लाज़मी है।
लेकिन जैसा कि पहले कहा गया असल अज़ाब तो आखिरत यानी मरने के बाद का ही है और यह जो दुनिया में अज़ाब आता है वह मनुष्य को यह याद भी दिलाता है कि वह अपने अत्याचारों से बाज आ जाए और ईश्वर की तरफ़ लौट चले और अपने पापों की क्षमा याचना करे ताकि ईश्वर उन्हें माफ़ करे जैसा कि इस आयत में कहा गया है।
और हम यक़ीनी (क़यामत के) बड़े अज़ाब से पहले दुनिया के (मामूली) अज़ाब का मज़ा चखाएँगें जो अनक़रीब होगा ताकि ये लोग अब भी (मेरी तरफ़) रुज़ू करें”
(क़ुरआन 32:21)
साथ ही यह भी बता दिया गया कि ऐसे हालातों में और दूसरी परिस्थितियों में भी सिर्फ़ दुष्ट ही प्रभावित नहीं होते *बल्कि आम अनुयायियों* को भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है ऐसे समय में ही उनके संयम और आस्था की परीक्षा होती है जिसमें उन्हें खरा उतरना होता है जैसा कि इस आयत में कहा गया :-
*और हम तुम्हें कुछ खौफ़ और भूख से और मालों और जानों और फलों की कमी से ज़रुर आज़माएगें और (ऐ रसूल) ऐसे सब्र करने वालों को ख़ुशख़बरी दे दो।*
(क़ुरआन 2:155)
तो हमने देखा आज की हालत कोई नई नहीं है पहले भी गुजर चुकी है और उसके बारे में क़ुरआन में पहले ही आगाह कर दिया गया है।
तर्क यह कहता है कि चलो मान लिया कि क़ुरआन में पहले ही इसके बारे में बता दिया गया है परंतु अगर ऐसा है तो इस समय क्या करना है वह भी बताया होगा?
इसका जवाब है-हाँ बिलकुल।
वैसे तो अल्लाह के रसूल ने इन हालातों में करने वाली बातों को विस्तार से बताया है जिनमें से कुछ यहाँ पर बताते चलते हैं जो कि आज विश्व भर के लीडर और साइंसदान बताने में लगे हुए हैं।
हैरानी वाली बात है कि यह बातें सिर्फ़ हाथ धोने और साफ-सफाई जैसी आम बातों तक ही सीमित नहीं है बल्कि क्वारंटाइन, ऑप्टिमिज़्म, वैक्सीन डिस्कवरी की भी बातें करती है।
आज जो विश्व भर के साइंटिस्ट को क्वॉरेंटाइन के अलावा और कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा है और विश्व के तमाम बड़े लीडर लोगों को जिस जगह पर और जिस शहर में है वही रुके रहने का आग्रह कर रहे हैं, यह बात तो 1450 वर्ष पूर्व ही हमारे रसूल सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम बता गए।
फरमाया जिसका की तर्जुमा यह है
*अगर तुम किसी जगह के बारे में सुनो कि वहाँ महामारी फैली हुई है तो उसके अंदर ना जाओ और अगर तुम ऐसी जगह हो जहाँ कोई महामारी फैली हुई है तो वहीं रुको और बाहर ना जाओ।*
(सही मुस्लिम 2218)
दूसरे धर्मों के भ्रम में लोग इस्लाम के बारे में भी यही मन बना लेते हैं कि इसका साइंस एवं चिकित्सा से लेना देना नहीं है। जबकि इस्लाम एक वैज्ञानिक (साइंटिफिक) मज़हब है और इसमें इलाज़ करने एवं इलाज़ ढूँढने को बहुत प्रोत्साहित किया गया है। कम ही लोगों को मालूम होगा की अल्लाह के रसूल के जीवन में एक पूरी शिक्षा का विभाग *तिब्बे नबवी* रहा है जिसमें पूर्ण रूप से इलाज़ और चिकित्सा पर ही ध्यान दिया गया है। साथ ही हदीस में बताया गया की-
*ईश्वर ऐसी कोई बीमारी धरती पर नाज़िल नहीं करता जिसका इलाज़ भी उसने धरती पर ना भेजा हो।*
यह हदीस हमें कोरोना का वैक्सीन ढूँढने के लिए ना केवल प्रोत्साहित करती है बल्कि आशान्वित भी करती है कि निश्चित ही हम उसका इलाज़ ढूँढने में सक्षम होंगे। ( यह पोस्ट २०१९ में लिखी गई थी उस समय वैक्सीन के बारे में भी संशय था की क्या कोरोना की वैक्सीन और इलाज बन पायेगा भी या नहीं )
यही वह *ऑप्टिमिज़्म (आशावाद)* है जिसकी आज हम सबको ज़रूरत है और जिसको समझाने में जागरूक लोग लगे हुए हैं।
इसके अलावा कई हदीसे हैं जिसमें खाने-पीने से लेकर रहन-सहन तक कई बातें बताई गई जो आज हमें महामारी के संकट में मार्गदर्शन कर रही हैं।
यही नहीं, हमें तो यहाँ तक बता दिया गया कि जब ऐसी महामारी की हालत हो तो किस स्थिति पर पहुँच जाने के बाद मस्जिद में होने वाली अज़ान के अल्फाजों को बदल दिया जाए और घर में ही नमाज पढ़ने का एलान किया जाए यहाँ तक कि यह *अल्फाज़ भी बता दिए गए।*
इसीलिए आज जो कहा जा रहा है कि इमाम लोगों को मस्जिद में आकर दुआ करने के लिए नहीं कह रहे हैं वह इसलिए नहीं है कि उन्हें पता नहीं कि क्या करना है परंतु वह इसलिए है कि *“उन्हें पहले से ही मार्गदर्शन प्राप्त है और वह उसका अनुसरण कर रहे हैं”*। जो कि इस परिस्थिति के लिए आदर्श है।
*एक तार्किक बुद्धि समझ सकती है कि इससे ज़्यादा उसे और कितना स्पष्ट तर्क चाहिए यह मानने के लिए कि इस्लाम में इसका इतना स्पष्ट उल्लेख और मार्गदर्शन मौजूद है?*
तो जब आप इस्लाम का ज्ञान ना होने की वज़ह से यह तर्क देते हैं कि मस्जिद बंद हो गई आप ख़ुद ही यह नहीं जानते कि रसूल ने इसकी ख़बर पहले से ही दे दी है और किस समय और किन अल्फाजों के साथ यह काम करना है यह तक इस्लाम की किताबों में पहले से मौजूद है। तो आप का यह तर्क इस्लाम के प्रति आस्था कमजोर करने की बजाय इस्लाम की सच्चाई को प्रमाणित करता है।
अंत में एक आक्षेप लगाया जा रहा है कि काबा का तवाफ बंद हो गया और हज भी बंद कर दिया जाएगा और इसको ऐसा दर्शाया जा रहा है मानो इससे यह साबित होता है कि ऐसा होना मतलब इस्लाम का ग़लत होना।
एक बार फिर यही कहा जाएगा कि इस तरह की बातें इस्लाम का बिल्कुल भी ज्ञान ना होने की वज़ह से कही जाती है। इस्लाम धर्म में कभी भी यह नहीं कहा गया कि काबे का तवाफ कभी बंद नहीं होगा और ना ही कभी हज बंद होगी। अपितु हदीस में क़यामत की निशानियां में से एक निशानी बताई गई है कि *”क़यामत (प्रलय) तब तक नहीं आएगा जब तक कि हज ना रोक दिया जाएगा।”*
(सही बुखारी)
इसका मतलब यह नहीं है कि हज रुकते ही अगले दिन क़यामत आ जाएगी या फिर हज का रुकना तय हो चुका है। बल्कि यह बताना है कि अगर कोरोना की वज़ह से हज रुकती भी है तो यह क़यामत की कई निशानियों में से एक होगी, जिनमें से कई पहले ही पूरी हो चुकी है और कई का होना बाक़ी है।
अतः हमने देखा कि यह घटना भी इस्लाम में उल्लेखित भविष्यवाणियों को पूरा करती है और इस्लाम की सत्यता को प्रमाणित करती है और उस पर विश्वास को मज़बूत करती है।
काफी संक्षेप में इससे ज़्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता। जबकि बताने के लिए बहुत कुछ है।
अतः मैं अपने भाइयों से यही अनुरोध करूँगा कि वह खुले मन एवं बुद्धि से इस्लाम का अध्ययन करें और फिर अपना मन बनाएँ और तर्क यही कहता है कि उसी ईश्वर और धर्म की तरफ़ आएं जिसमे सम्पूर्ण मार्गदर्शन मौजूद है।
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हलाला क्या है और क्यों होता है?
*जवाब:-* इस्लाम में हर मसले को बड़ी तफसील से बयान किया गया है। जिस तरह शादी और निकाह करने के इस्लामी कायदे कानून है इसी तरह अगर किसी वज़ह से मियाँ-बीवी में निबाह ना हो सके और वह शादी के बंधन से निकलना चाहे तो तलाक के लिए भी कुछ नियम और तरीके हैं।
बुनियादी तौर पर इस्लाम में निकाह / शादी एक पवित्र रिश्ता है। इसीलिए हदीस में आया है कि अल्लाह तआला के नज़दीक हलाल चीजों में सबसे ज़्यादा नापसंदीदा चीज तलाक है।
फिर भी कभी मियाँ-बीवी में बिगाड़ और रिश्ता टूटने की नौबत आये तो इस बारे में क़ुरआन लोगों को उन दोनों के बीच सुलह की कोशिश का हुक्म देता है :-
*और यदि तुम्हें दोनों के बीच वियोग (जुदाई) का डर हो, तो एक मध्यस्थ उस (पति) के घराने से तथा एक मध्यस्थ उस (पत्नी) के घराने से नियुक्त करो, यदि वे दोनों संधि कराना चाहेंगे, तो अल्लाह उन दोनों के बीच संधि (समझौता) करा देगा। वास्तव में, अल्लाह अति ज्ञानी सर्वसूचित है।*
(क़ुरआन 4:35)
तलाक के इस पूरे प्रोसेस (प्रक्रिया) को संक्षिप्त में इन 6 पॉइंट में समझते हैं:-
अगर कोशिश करने पर भी सुलह ना हो सके और फिर भी तलाक चाहें तो उसका सही तरीक़ा यह है कि वह शख़्स अपनी बीवी को एक बार तलाक दे दे।
अब इसके बाद 3 माह (3 Menstrual Cycle) इद्दत का वक़्त है इस दौरान भी अगर पति पत्नी में बात बनती है उनका मन बदलता है तो वह फिर रूजू (साथ रहना) कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ़ गवाहों को इत्तेला (सूचित) करना होगा कि हमारा निबाह हो गया है।
लेकिन 3 माह गुज़र जाने पर भी उनका तलाक का इरादा क़ायम रहा तो अब तलाक हो गई और वह दोनों एक दूसरे के निकाह से निकल गए।
इस के बाद भी अगर भविष्य में वे फ़िर से एक साथ रहना चाहे तो रह सकते हैं। पर इसके लिए उन्हें दोबारा से निकाह करना होगा और इसमें कोई रोक नहीं।
मान लीजिये अगर दोबारा निकाह हुआ और फिर से उनके बीच तलाक की नौबत होती है तो फिर वही प्रक्रिया है, पहले सुलह कि कोशिश फिर ऊपर बताई प्रक्रिया 1-4 अनुसार।
ऐसा ही दूसरी बार भी हो सकता है यह दूसरा तलाक होगा। अब अगर उसके बाद फिर निकाह हो गया लेकिन फिर तीसरी बार यही नौबत आ गई तो अब तीसरी बार के बाद यह प्रक्रिया और नहीं दोहराई जा सकती।
ऐसा इसलिए है क्योंकि शादी, सुलह की कोशिशें और तलाक कोई मज़ाक और खेल नहीं है जो जीवन भर दोहराया जाता रहे। इसलिये इसकी हद क़ायम करना ज़रूरी है ताकि इसकी अहमियत बनी रहे। लिहाज़ा अगर 3 बार यह तलाक की प्रक्रिया हो गई तो अब उस आदमी के लिए वह औरत हराम (वर्जित) हो गई अब वह उससे निकाह नहीं कर सकता।
तलाक की यह हद (3 बार) इसलिए भी मुक़र्रर की गई ताकि औरत को ऐसे ज़ालिम से छुटकारा मिल सके जो उसे बार-बार निकाह में लेकर तलाक दे रहा हो और उसे क़ैद में रख उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा हो। जैसा इस्लाम आने से पहले किया जाता था क्योंकि तब तलाक की कोई हद मुक़र्रर नहीं थी।
अब यह तलाक हो जाने के बाद औरत किसी और व्यक्ति से शादी करें और अपना जीवन बसर करें। इस्लाम में तलाक औरत के लिए ज़िंदगी का खात्मा (End of Life) नहीं है कि तलाक शुदा औरत अब समाज से कटकर अकेली और दुःख भरी ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हो। बल्कि इस्लाम तो यह हुक्म देता है कि “तलाकशुदा औरत के निकाह में जल्दी करो” ताकि वह एक सामान्य जीवन जी सके।
अगर कभी जीवन में फिर उस औरत के दूसरे पति का देहाँत हो जाता है या उस पति से स्वभाविक रुप से तलाक हो जाता है। तब वह अपने पहले पति से फिर निकाह कर सकती है क्योंकि अब वह अब अपने पहले शौहर के लिए हराम नहीं रही।
इस पूरी तफसील से यह बात समझ में आ गई होगी कि हलाला कोई कानून और प्रक्रिया (Procedure) नहीं है बल्कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया (Natural Process) है।
जिस की सम्भवतः कभी नौबत ही ना आए क्योंकि यह ज़रूरी नहीं कि औरत के दूसरे पति का देहाँत हो जाएगा या उस से भी तलाक होगा। चूंकि वह अब अपने पहले शौहर के लिए हलाल (शादी जाइज़) हो गई इसलिए इस प्रोसेस को हलाला कह दिया जाता है।
इस कि मिसाल यह है कि अगर किसी को ठंड के मौसम में बताया जाए कि फलाँ काम बारिश का मौसम आने पर करना है। अब स्वाभाविक है कि ठंड का मौसम गुजरेगा, फिर गर्मी का मौसम आएगा फिर 8 माह गुज़रने पर बारिश में यह काम करने का वक़्त आएगा। अब वह व्यक्ति यह करें कि ठंड में ही शॉवर चालू कर के कहने लगे कि बारिश आ गई और उक्त काम कर ले। तो ना तो वह काम होगा साथ ही ऐसे व्यक्ति को नासमझ ही कहा जायेगा।
यही बात हलाला के मामले में है यह कोई प्रक्रिया (Procedure) नहीं जिसे योजनाबद्ध (प्लान) कर के किया जा सके।
जैसे अगर कोई आदमी तीन तलाक के बाद अपनी बीवी का जानबूझकर किसी दूसरे आदमी से निकाह करवाता है ताकि बाद में वह उसको तलाक दे-दे और वह फिर से निकाह कर ले तो ऐसे लोगों पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सख्त लानत (भर्त्सना) की है। हजरत उमर ने एक बार मीमबर से यह ऐलान किया कि अगर मेरे पास कोई हलाला करने वाला लाया गया तो मैं उसे कोड़े लगाऊंगा। क्योंकि यह हराम काम है और एक तरह का ज़िना (व्यभिचार) है। इसकी इस्लाम में हरगिज़ कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।
मीडिया ने तीन तलाक और हलाले का इस तरह दुष्प्रचार किया है कि उसको देख कर लगता है जैसे हर मुसलमान आदमी अपनी बीवी को तीन तलाक देता है और उसका हलाला करवाता है। हालांकि इसे इस्लाम की खूबी कहिए कि मुसलमानों में तलाक की दर सबसे कम है। अगर तलाक की कहीं ज़रूरत पड़ती भी है तो उसका भी बहुत बेहतर तरीक़ा इस्लाम में है और औरत के हक़ की हिफाज़त कर, तलाक के ज़रिये ज़ुल्म से निजात का रास्ता देता है। जबकि कई धर्मों में तो तलाक का कोई प्रावधान ही नहीं है एक बार शादी हो गई तो जीवन भर पति की दासी बनी रहे फिर चाहे पति कुछ भी करें।
हलाला जैसा इस्लाम में ना कोई कानून है ना कोई प्रावधान। जानबूझकर हलाला करने जैसी गंदी चीज का मुसलमानों से कोई ताल्लुक नहीं है। फिर भी इस्लाम का दुष्प्रचार करने के लिए इस तरह की बातें की जाती हैं।
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जब पत्थर का भगवान नहीं हो सकता तो पत्थर का शैतान कैसे हो सकता है?
जवाब:- यह सवाल हज़ के दौरान कि जाने वाली रस्म पर किया जाता है जिसमे सवाल करने वाले शायद यह समझते है कि जिस तरह भारत में हिन्दू धर्म में मूर्तियाँ बनाई जाती है वैसे ही हज़ के मुकाम पर शैतान (Devil) कि कोई मूर्ति बनाई हुई है जो एक पूर्ण गलतफहमी है।
दरअसल वहाँ शैतान की मूर्ति जैसी कोई चीज़ नहीं है बल्कि वहाँ जो पिलर बने हैं वह तो सिर्फ़ लोकेशन बताने के लिए हैं। यानी कि वह जगह बताने के लिए जहाँ कंकर मारने की रस्म अदा की जानी होती है। जो लोग मूर्ति पूजा करते हैं वह मूर्तियों को ही भगवान या उसका रूप समझते हैं। मगर कंकरी मारने वाले, उन पिलरों को ना शैतान समझते हैं और ना उसको शैतान का रूप / मूर्ति समझते हैं और ना ही कोई ऐसी धारणा है कि इसके अंदर शैतान क़ैद है या मौजूद है।
अतः यह समझ लेना चाहिए कि इस्लाम में किसी की भी मूर्ति / तस्वीर बनाने की सख्त मनाही है। इस्लाम में तो ईश दूत हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहि व सल्लम की कोई तस्वीर या मूर्ति है और ना ही हज़रत इब्राहीम (अब्राहम) अलैहिस्सलाम की कोई मूर्ति है, जिनके जीवन की एक अहम घटना की याद में कंकरी मारने की रस्म अदा की जाती है और ना ही शैतान की कोई मूर्ति है।
हज़ में शैतान को कंकरिया मारने की रस्म क्यों अदा की जाती है?
यह रस्म हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना की याद में अदा की जाती है। जो कि मानव जाति के इतिहास में एक ऐसी महान दुर्लभ घटना है, जिसमे ईश दूत ने मानव जाति के लिए एक ऐसा उदाहरण पेश किया जो कि बहुत प्रेरणादायक है।
हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने ख़्वाब में अपने बेटे को कुर्बान करते हुए देखा और इसे हुक्म-ए-इलाही समझ कर वह उन्हें कुर्बान करने के लिए जाने लगे। उनके इस फैसले में सिर्फ़ वह अकेले नहीं थे बल्कि अन्य सहयोगी उनके बेटे जिन्हें कुर्बान किया जाना था और उनकी बीवी भी थी।
जब बाप और बेटे इस आदेश का पालन करने के लिए जाने लगे तो शैतान बिल्कुल नहीं चाहता था कि वे दोनों इस इम्तिहान में कामयाब हो इसलिये वह उन्हें भटकाने आ गया और बहकाने लगा कि तुम क्यों अपने बेटे को कुर्बान करने जा रहे हो? और ऐसे ही दूसरे मुकाम पर फिर उनके बेटे और उनको बहकाने आया ऐसा कुल तीन मकामों / जगहों पर हुआ। इस पर बाप बेटे दोनों अपने फैसले में अडिग रहे और शैतान और उसके विचारों को धुतकारते हुए कंकरिया मारी और अल्लाह का हुक्म अदा करने के लिए आगे बढ़ते रहे और इम्तिहान में कामयाब हुए।
अल्लाह तआला को यह अदा इतनी पसंद आई कि कंकरिया मारने को हज़ का एक हिस्सा (रुक्न) बना दिया ताकि क़यामत तक इसकी याद ताजा होती रहे। जिन जगहों पर यह वाकया हुआ वहाँ निशानदेही कर दी गई। उस जगह लोग कंकर मारकर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के उस अमल को दोहराते हैं, इससे सीख लेते हैं और अल्लाह की बड़ाई बयान करते हैं। ताकि जिस तरह इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) सत्य मार्ग से नहीं भटके हम भी कभी सत्य मार्ग छोड़कर असत्य मार्ग नहीं अपनाएंगे। अल्लाह के हुक्म पर अमल करेगें और शैतान के बहकावे में आकर उसे पूरा करने से नहीं रुकेंगे।
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मौत देना अगर अल्लाह का काम है तो इसे इंसान कैसे कर लेते हैं.?
जवाब:- अल्लाह (ईश्वर) ने फरमाया क़ुरआन में:-
*जिसने पैदा किया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुम में कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है।*
(सूरह अल मुल्क 67:2)
मतलब यह दुनिया तो कर्म एवं परीक्षा की जगह है और असल ज़िंदगी तो आख़िरत की है। तो जो यहाँ जैसे कार्य करेगा उस को वैसा ही फल मरने के बाद मिलेगा।
अतः अच्छे बुरे कर्मो का चयन करना और उन्हें कर गुज़रना अल्लाह ने बंदे के ऊपर छोड़ दिया है। यानी उसके पास आजाद मर्जी (free will) से चुनाव करने का अधिकार है।
और
सूरह अल बक़रह आयत: 256 में
दीन (धर्म) में किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं….”
मतलब अगर अल्लाह चाहता तो वह किसी को दुनिया में अच्छा बुरा चयन करने का अधिकार ही नहीं देता, फिर सब अच्छे ही काम करते चाहते हुए भी और ना चाहते हुए भी। फिर इस हालत में ज़िंदगी का इम्तिहान होने का कोई मतलब नहीं रहता।
इसलिए जिस तरह से जब कोई व्यक्ति कुछ ग़लत करने का इरादा कर लेता है और कुछ ग़लत करने लगता है तो अल्लाह उसे कोई चमत्कारी तरीक़े से नहीं रोकता।
मिसाल के तौर पर किसी ने किसी का मर्डर करने का इरादा किया और गोली चला दी, अब वह गोली उसे लगेगी और दुनिया के कानून के हिसाब से गोली लगने से जो होता है वह होगा।
अल्लाह ऐसा नहीं करता कि गोली को चलने ही ना दे। या वह इधर उधर चली जाए, या लगे ही नहीं। क्योंकि अगर ऐसा होता तो फिर इसका मतलब यह हुआ कि आदमी जो इरादा कर रहा है उसका उसे करने का अधिकार ही नहीं है। तो जब अधिकार ही नहीं है तो फिर ये कोई परीक्षा हुई ही नहीं।
अतः यकीनन दुनिया का हर काम अल्लाह की अनुमति से ही होता है और अल्लाह ने दुनिया में मनुष्य को यह अनुमति दी है कि वह अपनी मर्ज़ी अनुसार चीज़ों का इस्तेमाल कर अपना उद्देश्य पूरा करे फिर चाहे वह किसी चीज़ का इस्तेमाल करते हुए किसी को नुक़सान पहुँचाये या फायदा। जान बचाये या जान ले-ले ताकि आख़िरत में उसे बदला और उसकी सज़ा या इनाम दिया जा सके।
क्योंकि यकीनन असल ज़िंदगी तो आख़िरत की ही है ।
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अल्लाह ने इंसान को ख़तना किया हुआ ही पैदा क्यों नहीं किया ?
*जवाब*:- आज ख़तना (Circumcision) करने के कई लाभ साबित हो चुके हैं जैसे यह यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन (UTI) से बचाता है, पीनस केंसर से बचाव करता है, HIV एड्स के संक्रमण के खतरे को कम करता है आदि। इसीलिए आज अमेरिका जैसे देश में 50% से अधिक पुरुष की तादाद ख़तना (Circumcised) किए हुए है जब कि वहाँ मुस्लिमो की आबादी सिर्फ़ 1.1% है।
ख़तना ना होने की वज़ह से हर वक़्त पेशाब के कुछ कतरे लिंग के आस पास रह जाते हैं जिससे गंदगी बनी रहती है और इंसान पूरी तरह से पाक नहीं हो पाता। पाकी (स्वच्छता) इस्लाम का अभिन्न अंग है। इसके और भी कई लाभ है चूंकि अभी यह विषय नहीं इसलिये विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं।
अब मुख्य बिंदु पर आते हैं कि यदि इसके इतने लाभ हैं और अल्लाह ने इसका हुक्म दिया तो फिर उसने यह हिस्सा (Prepuce) बनाया ही क्यों और बच्चे को पैदा ही इसके बिना क्यों ना किया?
गौर करने वाली बात यह है कि अल्लाह ने इंसानी जिस्म में कई ऐसी चीजें बनाई हैं जिनको काटा या हटा दिया जाता है, कुछ को जन्म के समय तो कुछ को जीवन भर निरन्तर क्रम में। जैसे जन्म उपरांत गर्भनाल (Umbilical cord) काट दी जाती है। बाल और नाखून भी काटे जाते हैं। इंसान जीवन भर अपने बदन से गंदगी मल, कफ आदि हटाता रहता है।
इन सब के अपने फायदे हैं और कोई चीज़ हिकमत (बुद्धिमत्ता) से खाली नहीं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि वह किस तरह फ़ायदेमंद हैं, गर्भावस्था में प्रसव के दौरान, पैदाइश के शुरुआती सालों में या फिर जीवन में किस समय उनका हटा देना फ़ायदेमंद है।
वैसे ही ख़तना कर हटा दी जाने वाली चमड़ी के बारे में हमे आज मेडिकल साइंस बताती है कि यह शिश्न की अतिरिक्त त्वचा (Prepuce) का हिस्सा जन्म के समय बच्चे के शिश्न की रक्षा (Protection) करता है।
इसमे कोई शक नहीं कि अगर अल्लाह चाहता तो वह उपर्युक्त बताई सभी चीज़ों के बिना भी इंसान को बना सकता था। लेकिन यह उसकी इच्छा है कि वह इन चीज़ों के द्वारा इंसानों की आज़माइश (परीक्षा) करता है कि आप उस के हुक्म (आदेश) का पालन करते हैं कि नहीं?
उदाहरण के तौर पर इस्लाम में शराब पीना हराम है। तो क्या आप कहेंगे कि शराब पीना अगर हराम है तो फिर अल्लाह ने शराब बनाई ही क्यों? स्वाभाविक-सी बात है अगर शराब होती ही नहीं तो यह परीक्षा होती ही कैसे? उसी तरह शिश्न की अतिरिक्त त्वचा (Prepuce) का हटाना यानी ख़तना करने के बारे में भी है कि अगर यह होता ही नहीं तो इसकी आज़माइश कैसे होती?
ऐसे ही कई और उदाहरण दिए जा सकते हैं। निश्चित ही यह जीवन तो परीक्षा का स्थान है और क़ुरआन में कई जगह इसका ज़िक्र है कि अल्लाह अपने बंदों की अलग-अलग तरीकों से आज़माइश करता है और उसका कोई काम हिकमत से खाली नहीं।
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रिश्तेदार cousin से शादी।
जवाब:- इस तरह के सवाल अज्ञानता के कारण होते है और अज्ञानता सिर्फ़ इस्लाम के प्रति ही नहीं बल्कि ख़ुद के धर्म के प्रति भी होती है। पहले हम यहाँ अपनी ग़लतफ़हमी दूर करे।
- इस्लाम में कज़िन (करीबी रिश्ते) से शादी करने की इजाज़त है ना कि अनिवार्यता।
- करीबी रिश्ते और हक़ीक़ी रिश्ते अलग-अलग हैं। करीबी कुछ रिश्तों में शादी मान्य/जायज़ है। हक़ीक़ी / Real / सगे खून के रिश्तों में शादी करना हराम है यानी कि वर्जित है।
इस्लाम एक व्यवहारिक और तार्किक मज़हब है और अल्लाह की तरफ़ से सीधा मार्गदर्शन है जिसमे सभी बातें खोल-खोल कर बता दी गयी। सिवाए इस्लाम के दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीँ है जिसमे शादी के बारे में इतने विस्तार से जानकारी दी गई हो।
जीवन के हर पहलू की तरह इस्लाम ने इस मामले में भी शादी किन से की जा सकती और किन से नहीं की जा सकती उसका स्पष्ट उल्लेख हमें दिया है।
क़ुरआन कहता है:–
*”तुम पर हराम (अवैध) कर दी गयी हैं; तुम्हारी मातायें, तुम्हारी पुत्रियाँ, तुम्हारी बहनें, तुम्हारी फूफियाँ, तुम्हारी मौसियाँ और भतीजियाँ, भाँजियाँ, तुम्हारी वे मातायें जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो तथा दूध पीने से संबंधित बहनें, तुम्हारी पत्नियों की मातायें, तुम्हारी पत्नियों की पुत्रियाँ जिनका पालन पोषण तुम्हारी गोद में हुआ हो और उन पत्नियों से तुमने संभोग किया हो, यदि उनसे संभोग न किया हो, तो तुम पर कोई दोष नहीं, तुम्हारे सगे पुत्रों की पत्नियाँ और ये कि तुम दो बहनों को एकत्र करो*
(क़ुरआन 4:23)
*और उन औरतों से शादी मत करो, जिनसे तुम्हारे बाप दादा शादी कर चुके हो।*
(क़ुरआन 4:22)
इस पूरी लिस्ट के अलावा किसी और औरत से इस कारण शादी ना करना कि वह कज़िन (Cousin) है, ये बिल्कुल ही बेबुनियाद और नासमझी होगी और कई समस्याओं की वज़ह भी, क्योंकि पूरी मानव जाति ही एक ही माँ-बाप आदम और हव्वा से पैदा हुए हैं, अतः फिर तो सभी आपस में भाई बहन हुए। हिन्दू धर्म के अनुसार सभी ब्रह्मा से पैदा हुए तो सभी भाई बहन हो गए।
इसके अलावा अल्लाह के इस आदेश में भी कई हिकमते (उत्तम युक्ति) छुपी हैं जिनमे से एक यह है कि:-
करीबी रिश्तेदारों जैसे मामा, मौसी, बुआ के परिवारों का आपस में मेल मिलन बहुत ज़्यादा होता है। चूंकि इस्लाम में इन रिश्तेदारों में शादी की जा सकती है इसलिए की वह ना महरम की श्रेणी में आते हैं। (ना महरम यानी कि जिन से परदा करना ज़रूरी है, अकेले में मिलना, बातें करना आदि वर्जित होता है।)
जबकि जिन धर्मों में लोग इन कज़िन से विवाह वर्जित मानते हैं वहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती बिना किसी पर्दे और नज़र के ख़ूब मेल मिलाप, देखना बातें करना आदि होती हैं जिस से आकर्षण की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है जो कि प्राकृतिक बात है। चूंकि इस केस में वहाँ विवाह की कोई संभावना ही नहीं होती इसलिए अक्सर ऐसे आकर्षण अनैतिक सम्बन्ध (Illegal relationship) में बदल जाते हैं जो कुछ मामलों में यौन अपराध (Sexual crime), रेप वगैरह का कारण बनते हैं।
इसके उलट इस्लाम पहले तो “ना-महरम” की श्रेणी होने की वज़ह से इस तरह के आकर्षण की ही रोकथाम करता है। फिर विवाह का विकल्प उपलब्ध होने पर इसका उचित हल भी देता है। जिस से समाज अनैतिकता और अपराध से बचता है।
इस्लाम के अलावा भी हर धर्म में करीबी रिश्तों में विवाह के साक्ष्य मिलते है।
महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा उनके सगे मामा और सगी बुआ की बेटी थीं।
स्वयं श्री कृष्ण जी ने अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अपनी सगी बुआ के पुत्र अर्जुन से करवाया था! अर्जुन सुभद्रा के सगे फुफेरे भाई थे और सुभद्रा अर्जुन की सगी ममेरी बहन थीं,
श्रीमद् भागवत स्कंध 9:24:28,29 पेज 534-535
विराट् नरेश की एक बेटी थी, जिसका नाम उत्तरा था और एक बेटा था जिसका नाम उत्तर था. अर्जुन के बेटे अभिमन्यु का विवाह उत्तरा से हुआ जिससे उनके यहाँ एक बेटा पैदा हुआ जिसका नाम परिक्षित रखा गया परिक्षित ने अपने मामा उत्तर की बेटी इरावती से विवाह किया।
श्रीमद् भागवत स्कंध 1:16:2 Page- 63, महाभारत, विराटपर्व पेज 449
वैसे इस तरह कि प्रथा (मामा का अपनी सगी भांजी से विवाह) दक्षिण भारत में व्यापक ही नहीं बल्कि अधिकार समझी जाती है।
जैन धर्म में *श्वेतांबर परम्परा* के अनुसार महावीर जी की शादी यशोदा जी के साथ हुई थी। उनकी एक लड़की हुई जिसका नाम प्रियदर्शिनी रखा। जिसकी शादी राजकुमार जमाली के साथ हुई। राजकुमार जमाली उनकी बहन के पुत्र थे।
(चम्पतराय जैन-The Change of Heart page 97)
अतः करीबी रिश्तेदारों में विवाह करना हर प्रकार से उचित है।
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इस्लाम आत्महत्या के बारे में क्या कहता है?
*जवाब*:- इस्लाम में आत्महत्या करना बिल्कुल मना है और इसे बहुत बड़ा गुनाह (पाप) बताया गया है।
फ़रमाया क़ुरआन में
*हे ईमान वालो! आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ, परन्तु यह कि लेन-देन तुम्हारी आपस की स्वीकृति से (धर्म विधानुसार) हो और आत्म हत्या न करो। वास्तव में अल्लाह तुम्हारे लिए अति दयावान् है।*
(क़ुरआन 4:29)
अल्लाह ने ना केवल आत्महत्या को वर्जित किया बल्कि इस दौरान या इन परिस्थितियों से गुज़र रहे मनुष्य का बहुत ही उचित मार्गदर्शन भी किया है जिससे आत्महत्या करना बिल्कुल निरर्थक साबित हो जाता है और मनुष्य को इन परिस्थितियों का सामना करने की दृढ़ता मिलती है।
अक्सर व्यक्ति आत्महत्या इन कारणों से करता है :-
*1. जीवन का उद्देश्य खत्म हो जाना / जीने की इच्छा खत्म हो जाना।*
अधिकांश आत्महत्या इसी वजह से होती हैं कि मनुष्य इस दुनिया को ही सब कुछ समझ लेता है और किसी समय उसे ऐसा लगने लगता है कि अब जीने का कोई मतलब ही नहीं रहा है। कुछ को ऐसा दुनिया में कुछ प्राप्त ना होने पर लगता है तो कुछ को बहुत कुछ प्राप्त हो जाने पर लगने लगता है जो प्रायः अमीरों और सफल व्यक्तियों की आत्महत्या का कारण होता है।
इस पर क़ुरआन *(क़ुरआन 67:2)* और इस्लामी अक़ीदे (अवधारणा) सीधा मार्गदर्शन देते है जिसमें स्पष्ट बता दिया गया है कि यह जीवन तो आख़िरत का सिर्फ एक इम्तिहान (परीक्षा) भर है और असल जीवन तो मृत्यु के बाद का ही है।
*और (यह) दुनियावी ज़िदगी तो खेल तमाशे के सिवा कुछ भी नहीं जबकि आख़िरत का घर परहेज़गारो (डरने वालो) के लिए, उसके बदल वहाँ (कई गुना) बेहतर है तो क्या तुम (इतना भी) नहीं समझते*
(क़ुरआन 6:32)
मतलब यह जीवन तो थोड़े समय की परिस्थिति है, कोई फर्क नहीं पड़ता आप अमीर हैं या ग़रीब। आपने जीवन में क्या पाया और किस से वंचित रह गए। असल जीवन तो आख़िरत का ही है और हमेशा रहने वाला है। अगर यह उद्देश्य मनुष्य के सामने हो तो आत्महत्या करना बिल्कुल निरर्थक हो जाता है ।
*2. समस्याओं में टूट जाना, अवसाद, दुःख, निराशा, कोई उम्मीद बाकी नहीं रहना।*
यह भी आत्महत्या का प्रमुख कारण होता है। ऊपर कही बातें तो इसमें भी मार्गदर्शन करती हैं। परंतु इसके अलावा भी क़ुरआन इंसान को आशावान रहने और सब्र करने को कहता है।
*….जो ईमान रखता हो अल्लाह तथा अन्त-दिवस (प्रलय) पर और जो कोई डरता हो अल्लाह से, तो वह बना देगा उसके लिए कोई निकलने का उपाय।*
*और उसे जीविका प्रदान करेगा, उस स्थान से, जिसका उसे अनुमान (भी) न हो तथा जो अल्लाह पर निर्भर रहेगा, तो वही उसे पर्याप्त है।…*
(क़ुरआन 65:2-3)
कितने ही प्रिय और दृढ़ वचन हैं यह जिन पर विश्वास करने वाला कभी निराश नहीं हो सकता।
*3. आत्मग्लानि आदि -*
कई बार इंसान पूर्व में किए गए कार्यो पर आत्मग्लानि में ही अपनी जान दे देता है । इस के बारे में भी फ़रमाया के आत्महत्या करने (जिस से कोई लाभ नहीं) कि बजाय वह व्यक्ति अल्लाह से माफी मांगे और अपने किए को सही करे या किसी और तरीके से पश्चाताप करे।
*उसके सिवा, जिसने क्षमा याचना कर ली और ईमान लाया तथा कर्म किया अच्छा कर्म, तो वही हैं, बदल देगा अल्लाह, जिनके पापों को पुण्य से तथा अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।*
(क़ुरआन 25:70)
लेकिन इन सब के बाद भी जो व्यक्ति कायरता का परिचय देते हैं, अपने ईश्वर पर विश्वास और भरोसा नहीं करते हैं, उसके आदेश की अवहेलना करते हुए अपने परिवार वालों के जीवन में दुःख दर्द उत्पन्न करते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागते हुए आत्महत्या करते हैं। वे फिर अल्लाह तआला की सख्त नाराज़ी के भागी बन कर उसकी सज़ा के भागी बनते हैं जैसा आत्महत्या को वर्जित करते हुए दंड के प्रावधान में अगली आयात में फ़रमाया गया।
*और जो शख्स जोरो ज़ुल्म से नाहक़ ऐसा करेगा (ख़ुदकुशी करेगा) तो (याद रहे कि) हम बहुत जल्द उसको जहन्नुम की आग में झोंक देंगे यह ख़ुदा के लिये आसान है*
(क़ुरआन 4:30)
साथ ही हदीस में मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने आत्महत्या करने वालो को सख्त अंजाम से आगाह किया है। देखें :
(सही बुखारीः 5442 व मुस्लिमः 109)।
*अतः मालूम हुआ इस्लाम आत्महत्या करने से मना फरमाता है, उसके बाद खुद को और दूसरों को तकलीफ में डाल कर यह कृत्य करने वालो को कठोर सज़ा के लिए सचेत भी करता है।*
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सवाल:- एक मुसलमान किसी गैर मुस्लिम के साथ भाईचारा कैसे रख सकता है, जबकि क़ुरआन में उसे काफ़िर यानी गैर मुस्लिम से दोस्ती ना करने का और उससे जिहाद करने का आदेश मिला है?
*जवाब*:-दोस्तों, जो गैर मुस्लिम ईश्वर भक्त मुसलमानों से नहीं लड़ते, उनके लिए बुरी युक्तियाँ नहीं करते, परन्तु उनके साथ शांति से रहना चाहते हैं, उन गैर मुस्लिमों के लिए क़ुरआन का साफ़ आदेश देखें-
*“जो लोग तुमसे तुम्हारे धर्म के बारे में नहीं लड़ते और न तुम्हें घरों से निकालते, उन लोगों (गैर मुस्लिमों) के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता, बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है।”*
(सुरः मुमतहीना 60:8)
दोस्तों, क़ुरआन की यह एक आयत ही आपत्ति करने वालों के जवाब में बहुत है। लेकिन आपत्ति करने वाले कह सकते है कि-
*”क्या पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) और उनके सहाबा (अनुयायियों) ने इस आयत का पालन किया है?”*
जी हाँ, नबी और उनके अनुयायियों की तो पूरी ज़िंदगी ही ग़ैर मुस्लिमों के साथ भलाई करते बीती है। युद्ध तो उन्होंने सिर्फ़ अत्याचारियों से किए हैं और अधिकतर तो उन्हें भी माफ़ ही किया है। आइये इसके कुछ चंद नमूने आम आपके सामने रखते हैं।
*”एक दिन नबी ने देखा कि एक गैर मुस्लिम गुलाम आटा पीस रहा है और दर्द से कराह रहा है, आप उसके पास गए तो पता चला कि वह बहुत बीमार है और उसका मालिक उसको छुट्टी नहीं देता। नबी ने उसको आराम से लिटा दिया और सारा आटा स्वयं पीस दिया और कहा, “जब तुम्हें आटा पीसना हो तो मुझे बुला लिया करो।”*
(सहीह अब्दुल मुफ़रद 1425)
*”एक देहाती ने मस्जिद में पेशाब कर दिया, लोग उसे पीटने के लिए दौड़े, तो नबी ने उनको रोक कर कहा-” इसे छोड़ दो और इसके पेशाब पर पानी डाल दो इसलिए कि तुम सख्ती करने वाले नहीं, आसानी करने वाले बनाकर भेजे गए हो।”*
(सहीह बुखारी, किताबुल वुजू)
*”एक बार नबी के एक अनुयायी किसी बात पर अपने गैर मुस्लिम गुलाम को मार रहे थे, संयोग से नबी ने देखा तो दुखी होकर कहा: “जितना अधिकार तुम्हें इस गुलाम पर है, अल्लाह को तुम पर इससे ज़्यादा अधिकार है।” इतना सुन कर वे डर कर बोले, ऐ नबी, मैं इस गुलाम को आज़ाद कर देता हूँ, तो नबी ने कहा: “यदि तुम ऐसा ना करते तो नर्क की आग तुमको ज़रूर छूती।”*
(अबू दाऊद, किताबुल अदब)
नबी ने कभी किसी गैर मुस्लिम पर ज़ुल्म नहीं होने दिया, हमेशा न्याय से काम लेते।
*”एक बार एक गैर मुस्लिम का एक मुसलमान से झगड़ा हो गया, तो फैसले के लिए दोनों पक्ष नबी के पास आये, दोनों के बयान सुनकर नबी ने फ़ैसला गैर मुस्लिम के हक़ में दिया।”*
*”पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) गैर मुस्लिमों के तोहफे भी कुबूल करते थे और उनको तोहफे भी देते थे। ऐला के हाकिम ने आपको एक सफेद खच्चर तोहफे में दिया, आपने उसे कुबूल किया और उसकी तरफ़ एक चादर भिजवाई।”*
(सहीह बुखारी, किताबुज़्ज़कात)
*”ईसाईयों का एक प्रतिनिधि मंडल मदीना आया तो नबी ने उनकी ख़ूब मेहमानदारी की और उनको मस्जिद में ठहराया और साथ ही मस्जिद में उन्हें उनके अपने तरीके पर इबादत करने की अनुमति भी दी।”*
(सहीह मुस्लिम, किताबुल अदब)
(अलबिदाया वन्निहाया, भाग-3, पेज नंबर 105)
नबी का आदेश था कि *“वह मुस्लिम नहीं हो सकता जो ख़ुद पेट भर कर खाये और उसका पड़ोसी (मुस्लिम या गैर मुस्लिम) भूखा रहे।”*
(सहीह अदबुल मुफ़रद 82)
इस्लामिक देशों में रहने वाले गैर मुस्लिमों को इस्लाम की परिभाषा में “ज़िम्मी” कहा जाता है और मुसलमानों को नबी का साफ़ आदेश है-
*”जिसने किसी ज़िम्मी (ग़ैर मुस्लिम) पर अत्याचार किया, उसका हक़ मारा, उसकी ताक़त से ज़्यादा उस पर बोझ डाला या उसकी इच्छा के बिना उसकी कोई चीज़ ले ली तो मैं क़यामत के दिन उसकी और से दावा करूँगा।”*
(अबू दाऊद, बैहक़ी भाग-5, पेज नंबर 205)
*”एक मुसलमान ने एक ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को क़त्ल कर दिया, तो हज़रत उमर ने अपने एक गवर्नर को आदेश दिया कि उस मुसलमान को उस ज़िम्मी के करीबी रिश्तेदार के सामने ले जाओ फिर चाहे तो वह उसे माफ़ कर दे या जान से मार दे और उस रिश्तेदार ने उस मुसलमान की गर्दन काट दी।”*
दोस्तों, ये था न्याय और पैग़म्बर मुहम्मद की मृत्युपरान्त आपके सहाबा भी ज़िम्मी (गैर मुस्लिमों) की इज़्ज़त, आबरू, माल, दौलत और धार्मिक स्वतंत्रता का बड़ा ध्यान रखते थे-
*”हज़रत उमर (रज़ि.) विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले प्रतिनिधि मंडल से पूछा करते थे कि किसी मुसलमान की वज़ह से किसी ज़िम्मी (गैर मुस्लिम) को कष्ट तो नहीं दिया जा रहा।”*
(तारीखे तबरी, भाग-4, पेज 218)
हज़रत खालिद बिन वलीद (रज़ि.) ने आनात के वासियों के साथ जो समझौता किया उसमें ये वाक्य शामिल था-
*”नमाज़ के समयों के अतिरिक्त वे रात दिन जब चाहे नाकूस (शंख) बजा सकते है और जश्न के दिनों में सलीबें गश्त करा सकते हैं।”*
(किताबुल खिराज़ पेज नंबर 146)
ये चंद उदाहरण है कि इस्लाम के अनुसार मुसलमानों को गैर मुस्लिम भाई बहनों के साथ सद व्यवहार करने और उनके साथ न्याय से पेश आने का आदेश है।
अब आपत्ति करने वाले कह सकते है कि,
*”इस्लाम में गैर मुस्लिम को दोस्त बनाने से मना किया है और मुस्लिम सिर्फ़ मुस्लिमों से दोस्ती कर सकते है!”* (क़ुरआन 3:28, 9:23, 3:118)
गैर मुस्लिम में से सिर्फ़ उन लोगों से दोस्ती करने को मना किया गया है जो मुसलमानों का नुक़सान चाहते है और इस्लाम का मज़ाक उड़ाते है, देखें-
*”ऐ ईमानवालों, जिसने तुम्हारे धर्म को हँसी खेल बना लिया है, उन्हें मित्र ना बनाओ।”*
(सुरः माइदा 5:57)
*”अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हें निकालने में अत्याचारियों की मदद की।”*
(सुरः मुमतहीना 60:9)
दोस्तों, यदि कोई व्यक्ति आपके धर्म को बुरा कहे, आपके भगवानों को गालियाँ दे और आपकी बर्बादी के लिए कोशिशें करें तो क्या ऐसे व्यक्ति से आप दोस्ती करोगे?
साथ ही एक मंशा के तहत यह बताने की कोशिश की जाती है कि मुस्लिम विश्व में कभी किसी के साथ शान्ति से नहीं रहा, जो कि पूर्ण असत्य और निराधार बात है, ज़्यादा पीछे जाने की आवश्यकता नहीं बल्कि आज भी एक निरपेक्ष व्यक्ति यह जानता है कि विश्व में कई मुस्लिम देश है जिनमें सदियों से गैर मुस्लिम बड़ी शांति और आराम से रह रहे हैं, बल्कि आंकड़े बताते हैं कि हर साल इन देशों में जाने और वहीं बस जाने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। क़तर, कुवैत, ओमान, दुबई ऐसी कई जगह हैं। खाड़ी देशों को छोड़ भी दे तो मलेशिया में 61.3% मुस्लिम है जो बाक़ी 39% गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं यही स्थिति इंडोनेशिया की है, सिंगापुर आदि ऐसे कई मुल्क हैं जहाँ इस्लाम दूसरा या तीसरा प्रमुख धर्म है और इन सभी जगह सदियों से मुस्लिम-गैर मुस्लिमों के साथ शांति से रह रहे हैं।
और आख़िर में अंतिम ऋषि मुहम्मद (स.अ.व.) की ये आम शिक्षा हर मुस्लिम गैर मुस्लिम के लिए है कि,
*”तुम ज़मीन वालों पर दया, मेहरबानी करो, आसमान वाला तुम पर दया, मेहरबानी करेगा।”*
(अबू दाऊद, किताबुल अदब)