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  • रमज़ान विशेष

    रमज़ान विशेष

    रोज़ा एक इबादत है। जो कि रमज़ान (हिजरी कैलन्डर के महीने) में 1 माह के लिए रखे जाते है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।

    इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल अल्लाह (ईश्वर) के लिए और उसके हुक़्म से भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों से स्वयं को रोके रखना। “अनिवार्य रोज़े” जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं। इनके अलावा व्यक्ति पूरे साल में कभी भी (कुछ दिनों को छोड़कर) रोज़े रख सकता है।

    •  रोज़ा को एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स कह सकते है, जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके. वह हर उस बात को करने से रुके जिसे अल्लाह ने मना किया और हर उस काम को करे जिसका उसको हुक़्म हो।

     

    •  रोज़े का 1 मकसद ये भी है कि भूख-प्यास की तकलीफ़ का अहसास हो ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हम दर्द बन सके।

     

    •  इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है!

     

    क्या रोज़े अन्य धर्म में भी है..?

     

    ♥ अल-कुरान:- ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ (क़ुरआन, 2:183)

     

    क़ुरआन जो कि आखरी ईश्वरीय ग्रन्थ है, में साफ़ तौर से लिखा है कि जैसे तुम से पहले के लोगों पर अनिवार्य किये गए थे… अब हम देखते है,👇

     

    1. वेद:- सनातन धर्म में रोज़े को व्रत या उपवास कहते हैं। व्रत का आदेश करते हुए वेद कहते हैं ‘‘व्रत के संकल्प से वह पवित्रता को प्राप्त होता है। पवित्रता से दीक्षा को प्राप्त होता है, दीक्षा से श्रद्धा को और श्रद्धा से सद्ज्ञान को प्राप्त होता है।‘‘          (यजुर्वेद, 19:30)
    2. ‘‘सावधान चित्त, चार ग्रास प्रातः काल तथा चार ग्रास सूर्यास्त होने पर एक मास तक प्रतिदिन भोजन करे तो यह शिशु चन्द्रायण व्रत कहा गया है। इस व्रत को महर्षियों ने सब पापों के नाश के लिए किया था।‘‘                                                  (मनु. 11:219,221)

    शिशु चन्द्रायण व्रत निरन्तर एक मास तक ऐसे रखा जाता है कि शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष से आरंभ करके एक मास तक केवल प्रातः काल और सूर्यास्त पर थोड़ा खाने की अनुमति होती है। यह व्रत रमज़ान के रोज़ों से समानता में निकटतम हैं।

    बाइबिल:- बाइबिल के नये नियम (New Testament) के अनुसार ईसाईयों के लिए 40 दिनों के लगातार रोज़े अनिवार्य किए गए थे।

    ‘‘जब यीशु चालीस दिन और चालीस रात उपवास कर चुके तब उन्हें भूख लगी।‘‘ 

    (मत्ती 4:2)

     

    परन्तु उन्होंने अपने तीन वर्षीय प्रचार काल में चूंकि अपने सहसंगियों के साथ निरन्तर मुसाफ़िर के तुल्य कठोर जीवन व्यतीत किया, इसलिए उस अवधि में उन्होंने अपने सहसंगियों को रोज़े से मुक्त कर दिया था परन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह छूट केवल उतने दिनों की है, जब तक वे उनके मध्य हैं।

     

    यहूदी:- लम्बी अवधि के लगातार रोज़ों का उल्लेख यहूदियों के धर्म ग्रंथों Old Testament (बाइबिल के पुराने नियम की पुस्तकों) में मिलता है।

     

    ‘‘समस्त देशवासियों और पुरोहितों से यह कह: जो उपवास और शोक पिछले सत्तर वर्षों से वर्ष के पांचवें और सातवें महीने में तुम करते आ रहे हो, क्या तुम यह मेरे लिए करते हो?” 

    (ज़कर्याह 7:5)

     

    रोज़ा और विज्ञान

    सन्‌ 1994 में मोरक्को में ‘रमज़ान व सेहत’ पर पहली अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस) हुई जिसमें पूरी दुनिया से आये पचास रिसर्च पेपर पढ़े गये। सभी में एक बात उभरकर आयी कि रोजे से किसी भी तरह का सेहत को कोई नुक़सान नहीं होता। जबकि बहुत से हालात में रोज़ा पूरी तरह फायदेमन्द साबित होता है।

    डाइजेस्टिव सिस्टम:- सबसे पहले बात करते हैं पाचन तंत्र (डाईजेस्टिव सिस्टम) पर। इस सिस्टम में शामिल हैं दाँत, जबान, गला, खाने की नली, मेदा यानी आमाशय, छोटी आँत और बड़ी आँत। जब हम खाना शुरू करते हैं या खाने का इरादा करते हैं तो दिमाग़ इस पूरे सिस्टम को हरकत में ला देता है और ये पूरा सिस्टम तब तक एक्टिव रहता है जब तक कि खाना पूरी तरह हजम नहीं हो जाता । यानी दिन में तीन बार खाने का मतलब हुआ कि हाजमे का सिस्टम चौबीस घण्टे लगातार चलता रहे। 

     

    हाजमे के सिस्टम की लगातार हरकत और खाने पीने की बदपरहेजी इस सिस्टम को खराब कर देती है और इंसान तरह-तरह की पेट की बीमारियों का शिकार होने लगता है। रोज़े के दौरान पन्द्रह – सोलह घण्टों तक खाने पीने से परहेज इस सिस्टम को आराम की पोजीशन में ला देता है और इस तरह हाजमे का सिस्टम अपने को दुरुस्त यानी कि रिपेयर कर लेता है।

     

    लीवर:- लीवर जिस्म का निहायत अहम हिस्सा है, जो न सिर्फ़ हाजमे में मदद करता है बल्कि खून भी बनाता है। साथ में जिस्म के इम्यून सिस्टम को मज़बूत करता है जिससे इंसान में बीमारियों से लड़ने की ताकत पैदा होती है।

     

    रोज़ा लीवर को हाजमे के काम से कुछ घण्टों के लिए फ्री कर देता है, नतीजे में वह पूरी ताकत के साथ खून बनाने और इम्यून सिस्टम को मज़बूत करने लगता है। इस तरह एक महीने का रोज़ा जिस्म में साल भर के लिए बीमारियों से लड़ने की ताकत पैदा कर देता है।

     

    आमाशय:-रोज़ा मेदे या आमाशय में बनने वाले एसिड को बैलेंस करता है। नतीजे में इंसान न तो एसीडिटी का शिकार होता है और न ही कम एसीडिटी की वजह से बदहजमी होने पाती है।

     

    दिल:- यानी सरक्यूलेटरी सिस्टम। दिल जिस्म में दौड़ते हुए खून को कंट्रोल करता है। दिल इंसान की पैदाइश से मौत तक लगातार काम करता रहता है। लगातार काम करने में दिल का थकना लाज़मी है। खासतौर से जब इंसान तेज रफ्तार टेन्शन की जिंदगी जी रहा हो।

     

    रोज़ा रखने के दौरान रगों में खून की क्वांटिटी कम हो जाती है। जिससे दिल को कम काम करना पड़ता है और उसे फायदेमन्द आराम मिल जाता है। इसी के साथ रगों की दीवारों पर पड़ने वाला डायस्टोलिक प्रेशर कम हो जाता है। जिससे दिल और रगों दोनों को ही आराम मिलता है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में लोग हाइपरटेंशन का शिकार हो रहे हैं। रोजे के दौरान डायस्टोलिक प्रेशर की कमी उन्हें इस बीमारी से बचाकर रखती है।

     

    और सबसे ख़ास बात। रोजे के दौरान अफ्तार से चन्द लम्हों पहले तक खून से कोलेस्ट्रॉल, चरबी और दूसरी चीज़ें पूरी तरह साफ हो जाती हैं और रगों में जमने नहीं पातीं, जिससे दिल का दौरा पड़ने का रिस्क ख़त्म हो जाती है।

     

    गुर्दे:-  खून की सफ़ाई करते हैं, रोजे के दौरान आराम की हालत में होते हैं, इसलिए जिस्म के इस अहम हिस्से की ताकत लौट आती है।

     

    अन्य फायदे:-  रोजे के कुछ और फायदे सेहत के मुताल्लिक इस तरह हैं कि रोज़ा कोलेस्ट्रॉल और चरबी को कम करके मोटापे को दूर करता है। चूंकि रोजे के दौरान जिस्म में हल्का-सा डिहाइड्रेशन हो जाता है। पानी की यह कमी जिस्म की जिंदगी को बढ़ा देती है। जैसा कि हम नेचर में देखते हैं कि जो पौधे पानी का कम इस्तेमाल करते हैं उनकी लाइफ ज़्यादा होती है।

     

    इस तरह हम देखते है, रोज़ा/उपवास केवल मुस्लिम समाज के लिए ही नहीं अपितु संसार के हर मनुष्य के लिये लाभदायक है, जो कि धार्मिक आधार पर ही नहीं अपितु वैज्ञानिक आधार पर भी हर मनुष्य के लिए लाभदायक है।

  • रोज़ा रखने से खुदा मिलता है?

    रोज़ा रखने से खुदा मिलता है?

    जवाब:-  सबसे पहले इस सम्बंध में इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे (मूल सिद्धांत) को समझना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि अक्सर लोग इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे को समझे बिना ही इसे दूसरे धर्मो की तरह मानकर सवाल करने लगते हैं।

    जैसा कि दूसरे धर्मो का अक़ीदा (विश्वास) होता है कि यह दुनिया ही सब कुछ है आदमी को पुनर्जन्म लेकर बार-बार यहीं आना है। अच्छे कर्मों का फल अगले जीवन में अच्छा बदला और बुरे कर्मों का फल अगले जीवन में दरिद्रता / ग़रीबी दुःख आदि है, यानी कि इस दुनिया की परिस्थिति और सफलता ही सब कुछ है।

    ऐसा इस्लाम में नहीं है बल्कि इस्लाम में यह दुनिया तो मात्र परीक्षा का स्थान है और बहुत थोड़े समय के किये है। जबकि असल जीवन तो आख़िरत / परलोक का है जो हमेशा रहने वाला है। अतः असली कामयाबी तो आख़िरत / परलोक की कामयाबी है।

    जैसा कि अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया-  उसने मौत और जिंदगी को इसलिए पैदा किया ताकि वह तुम्हें आजमाए कि तुम में से कौन अच्छे अमल करता है, वह सर्व शक्तिमान और बहुत माफ़ करने वाला है।
    (क़ुरआन 67:2)

    यानी कि इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इंसान इस दुनिया में गरीबी, अमीरी, सुख, दुःख, बीमारी, सेहत, जवानी, बुढ़ापा, औलाद, माता, पिता यह सारी चीज़ें और परिस्थिति इंसान की परीक्षा के लिए बनाई गई है। जिस तरह से परीक्षा में अलग-अलग तरह के टेस्ट पेपर सेट (Test paper set) होते हैं और अंत में यह मायने नहीं रखता की किस को कौन-सा सेट मिला था बल्कि यह मायने रखता है कि किस ने अपने सेट को सही तरीके से हल किया अतः कौन-कौन पास हुआ और कौन नहीं । वैसे ही इस जीवन में अलग-अलग लोगों की परिस्थिति और ईश्वर के आदेश का पालन कर आख़िरत में कामयाबी के बारे में है ।

    अब आते हैं आपके सवालों पर।

    • 1)  आपने पहला सवाल यह किया है कि आपने रमज़ान के 30-रोजे रखे तो क्या अल्लाह आपको मिला?

    जी बिल्कुल मिला! क्योंकि रोजे का बुनियादी उद्देश्य तक़वा हासिल करना है। क़ुरआन में है:  ऐ इमान वालों: तुम पर रोजे़ फर्ज़ किए गए जैसे कि तुम से पहली उम्मतो पर फर्ज़ किए गए थे, ताकि तुम तक़वा हासिल करो।
    (क़ुरआन 2:183)

    तक़वा यानी हर बुरे काम से बचना है और जो भी बुरे कामों से बचता है और नेक अमल / कर्म करता है वह अल्लाह के करीब होता जाता है। हदीस में है: अल्लाह तआला फरमाते हैं:  बंदा रोजा सिर्फ़ मेरे लिए रखता है और मैं ही उसका बदला दूँगा। 
    (बुखारी vol 2 page 226)

    रोजे की और भी बहुत-सी फजीलत है। बल्कि अगर आप एक महीने रोजा रख कर देख ले तो आपको ख़ुद ही अंदाजा हो जाएगा कि आप अल्लाह के कितने करीब होते हैं और शैतान (बुरे कर्म) से कितने दूर। आज दुनिया में हजारों की तादाद में ऐसे लोग मौजूद हैं जो ख़ुद मुसलमान नहीं है लेकिन आत्मिक शांति और वैज्ञानिक कारणों से रमज़ान के पूरे रोजे रखते हैं ।

    अब बात रही अल्लाह को भौतिक रूप से प्राप्त करने की और उसका दर्शन करने की। तो वह कोई ऐसी चीज़ नहीं जो आपको यूँ ही प्राप्त हो जाये। इसके बारे में स्पष्ट संदेश है कि आख़िरत में अल्लाह के उन बंदों को अल्लाह का दर्शन प्राप्त होगा जिन्होंने इस जीवन में उसके आदेशों का पालन कर अपने आपको इसका हक़दार बनाया है। जो आप भी कर सकते हैं बल्कि हर मुस्लिम इसके लिए जीवन भर प्रयासरत रहता है।

    • 2)  दूसरा सवाल है कि अगर अल्लाह होता तो दुनिया में गरीब और फ़क़ीर ना होते।

    इसका पूरा जवाब तो इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे (मूल श्रद्धा) को समझने से ही पता चल गया होगा। फिर भी इसका थोड़ा और खुलासा कर देते हैं।

    सर्वप्रथम तो इस बात से आपके आख़िरत के जीवन में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप अमीर हैं या गरीब। दरअसल दुनिया में संतुलन बनाये रखने के लिए भी कुछ लोगों को अमीर और कुछ को गरीब होना ज़रूरी है। अगर सभी अमीर बन जाते तो यह संतुलन ही नहीं रहता और दुनिया का निजाम / व्यवस्था तहस नहस हो जाता। लेकिन जैसा ऊपर उल्लेख किया गया कि दुनिया में गरीब और अमीर दोनों परीक्षा / आजमाइश में है। अमीर की आजमाइश इसमें है कि वह अपने ईश्वर की आदेशों का पालन करते हुए गरीबों का ख़्याल रखे। इसीलिए इस्लाम में अमीरों पर ज़कात फ़र्ज है। ज़कात का मतलब हर साल अपने माल में से 2.5% गरीबों को देना। इसी तरह ज़कात के अलावा भी अपने माल को दान करने के बहुत सारे फजाइल / फायदे क़ुरआन और हदीस में बताये गए हैं। जैसे एक हदीस में है : वह शख़्स मुसलमान नहीं हो सकता जो ख़ुद तो पेट भर कर खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे।
    (तबरानी)

    नबी सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की पूरी जिंदगी यह तालीम देते हुए गुजरी कि पहले दूसरों का पेट भरो फिर ख़ुद खाओ। अब अमीर लोगों की गलती है कि वह गरीबों का हक़ खा जाते हैं। अगर अमीर सही तौर से गरीबों का ख़्याल रखें तो दुनिया से भीख मांगने वाले ख़त्म हो जाए और कोई भी भूखा ना सोएगा।‌ ऐसे लोगों को दुनिया में भी सख्त सजा मिलती है और आखिरत का अज़ाब तो बहुत दर्दनाक है।

    ऐसे ही जो लोग गरीब पैदा हुए हैं अगर वह सब्र से काम ले और अल्लाह के थोड़े दिए हुए माल पर खुश रहें तो अल्लाह तआला क़यामत में उनको इसका बेहतरीन बदला देंगे और दुनिया में भी उन्हें अमीरों से ज़्यादा खुशहाली नसीब होगी। क्योंकि खुशहाली सिर्फ़ माल की वज़ह से हासिल नहीं होती। आप बहुत से गरीब लोगों को देख सकते हैं जिनके चेहरे अमीरों से ज़्यादा चमकते और मुस्कुराते हैं।

    • 3) तीसरा सवाल है कि जब घर से नहा कर जाते हैं तो मस्जिद में दोबारा जाकर वुज़ू क्यों करते हैं?

    इस्लाम में स्वच्छता की बहुत अधिक अहमियत है, बावुज़ू होना नमाज़ अदा करने के लिए ज़रूरी है। हमारे वह अंग जो खुले रहते हैं और उन पर गंदगी लग जाती है उन्हें नमाज़ से पहले धोया जाता है। ताकि इंसान अल्लाह तआला के सामने मस्जिद में बिल्कुल पाक साफ़ होकर खड़ा हो। अगर आदमी अभी-अभी नहाया है और उसने लैट्रिन पेशाब वगैरह नहीं किया है तो उसका वुज़ू बाक़ी है और उसे दोबारा वुज़ू करने की ज़रूरत नहीं। ‌

    इस्लाम में स्वच्छता तो अहम है लेकिन पानी की फ़िज़ूलखर्ची (दुरुपयोग) बिल्कुल मना है। वुज़ू करने में इस्लाम इस बात की तालीम देता है कि उसमें पानी कम से कम ख़र्च किया जाये और उसका पूरा सदुपयोग हो।‌ एक हदीस में है:  एक बार नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम अपने एक साथी हजरत स‌अद (रजि.) के पास से गुजरे, वह उस वक़्त वुज़ू कर रहे थे (और पानी ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग में आ रहा था)। नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ए स‌अद ! पानी की यह फ़िज़ूलखर्ची क्यों? उन्होंने कहा, क्या वुज़ू करते वक़्त भी पानी की फ़िज़ूलखर्ची होती है? आप सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने फरमाया: हाँ ! चाहे तुम किसी नहर पर ही वुज़ू कर रहे हो।
    (मुसनदे अहमद 6768, इब्ने माज़ा 419)

    यानी वुज़ू करने में पानी को व्यर्थ नहीं बहाना है फिर चाहे आप नदी / नहर से ही वुज़ू क्यों ना कर रहे हो (अर्थात पानी बहुतायत मात्रा में उपलब्ध हो तब भी)

    इसी तरह अगर आप इस्लाम की बुनियादी बातों को जानकर अगर आप बुनियादी तस्वीर ( मूल अवधारणा / बेसिक कॉन्सेप्ट) को समझ लेंगे तो आपको आपके सवालों के जवाब ख़ुद ही मिल जाएंगे।