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  • सृष्टि का सबसे पहला धर्म (इस्लामिक सीरीज़ पोस्ट 8)

    सृष्टि का सबसे पहला धर्म (इस्लामिक सीरीज़ पोस्ट 8)

    अक्सर लोग अज्ञानता के कारण समझते है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने इस्लाम धर्म की स्थापना 1400 वर्ष पूर्व की। जबकि तथ्य यह है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) इस्लाम धर्म के संस्थापक नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के अंतिम संदेष्टा एवं रसूल है।

     

    स्वाभाविक है कि जिसका कोई अंतिम हो उसका कोई पहला भी होगा।

    तो वह पहले कौन थे?

    कुरआन में कई जगह इसका ज़िक्र है कि आदम अलैही सलाम (धरती पर पहले मनुष्य) ही प्रथम संदेष्टा यानी ईश्वर के प्रथम दूत भी थे, जिन्होंने अपनी संतानों को ईश्वरीय संदेश पहुँचाया और ईश्वरीय शिक्षा दी और उन्हीं से इस्लाम धर्म का आरम्भ हुआ।

     

    प्रथम संदेष्टा से लेकर आखिरी संदेष्टा तक सभी संदेष्टाओं का मुख्य संदेश एक ही रहा है जो है एकेश्वरवाद एवं ईश्वरीय आदेश का पालन करना

     

    जैसा कि हमने जाना समस्त संसारो का बनाने और चलाने वाला अल्लाह (ईश्वर) ही है। तो इस संसार मे जो कुछ भी है उनका सबसे पहला कर्तव्य यही है की वह सिर्फ अपने उस ईश्वर की इबादत करें। यानी कि उसके आदेशों का पालन करें। जिस बात का वह हुक्म दे उसे पूरा करें और जिन बातों से रोके उस से बचें। अतः अपने आप को ईश्वर की मर्ज़ी के प्रति समर्पित कर अपने ईश्वर के आज्ञाकारी बने और उसकी कृपा और इनामों के हक़दार बने । यही परिभाषा शब्द “इस्लाम” की भी है ।

     

    ऐसे ही आदम अलैहिस्सलाम का धर्म यानी कि समस्त मनुष्य जाति का सबसे पहला धर्म यही है।

    सृष्टि में सभी उस ईश्वर के आदेशों का पालन करते हैं जैसा कि हमने फ़रिश्तों के बारे में देखा ।

    अब इसके उलट जो कोई ईश्वर के आदेशों का पालन नहीं करता और उसके आदेशों को झूठलाता है वही उसके गज़ब और सज़ा का हकदार होता है।

    जैसा कि हमने इब्लीस (शैतान) के बारे में देखा जिसने अल्लाह के आदेश की अवहेलना की और सत्य धर्म से भटक गया ।

     

    ऐसा ही एक आदेश अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम को दिया :-

    और हमने आदम से कहा ऐ आदम तुम अपनी बीवी समेत बेहिश्त में रहा सहा करो और जहाँ से तुम्हारा जी चाहे उसमें से बफराग़त खाओ (पियो) मगर उस दरख्त के पास भी न जाना (वरना) फिर तुम अपना आप नुक़सान करोगे

    (क़ुरआन 2:36)

  • क्या इस्लाम में ऊँच-नीच भेदभाव है?

    क्या इस्लाम में ऊँच-नीच भेदभाव है?

    जवाब:- इस्लाम में रंग, जात-पात, नस्ल आदि के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव की कोई जगह नहीं है। अल्लाह की नज़र में सभी मनुष्य इस आधार पर एक समान हैं।

     

    क़ुरआन में अल्लाह तआला फरमाते हैं: “ऐ लोगो! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बीलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहाँ तुम में सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुम में सबसे अधिक डर रखता है। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जानने वाला, ख़बर रखने वाला है।

    (क़ुरआन 49:13)

     

    पैगम्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने अपने आखरी हज के मौके पर फ़रमाया: किसी अरब वाले को दूसरे मुल्क वाले पर और ना दूसरे मुल्क वालों को अरबों पर कोई फजीलत और बरतरी (महत्व / विशेष अधिकार) है इसी तरह किसी गोरे को काले पर और काले को गोरे पर कोई फजीलत नहीं है, फजीलत सिर्फ़ तक्वा यानी अल्लाह से डरने की वज़ह से है

     

    इस से हमे मालूम हुआ कि इस्लाम में नस्ल, वतन ,रंग, बिरादरी को कोई अहमियत (महत्व) नहीं है, यह सिर्फ़ इसलिए बनाई गई है कि लोग एक दूसरे को पहचान सकें जैसे रंग-रूप, बोल-चाल देख कर पहचाना जा सकता है कि यह व्यक्ति किस जगह का है, किस जगह से ताल्लुक रखता है। लेकिन यह चीज़ किसी को छोटा या बड़ा नहीं बनाती बल्कि अल्लाह के नज़दीक जो चीज़ किसी का दर्जा बढ़ाती है और किसी को दूसरे से बेहतर बनाती है तो वह है “तक्वा” यानी कि अल्लाह से डर, धर्म-परायणता।

     

    इस्लाम की विशेषता यह है कि यह सिर्फ़ उपदेश, कहने भर पर नहीं रुकता बल्कि इस से आगे बढ़कर इस पर अमल (अभ्यास) करवा कर आदर्श स्थापित करवाता है।

     

    जैसे दिन में पांच वक़्त नमाज़ का हुक्म अल्लाह ने दिया जिसमें सभी को एक सफ़ (लाइन) में कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ अदा करनी होती है। फिर चाहे कोई अमीर हो या ग़रीब, किसी बिरादरी का हो, मालिक हो या कर्मचारी, बादशाह हो या ग़ुलाम किसी तरह का भेदभाव नहीं रह जाता और हज के मौके पर यही चीज़ आलमी (वैश्विक) तौर पर देखने को मिलती है कि एक जैसे से कपड़े में काले, गोरे चाहे किसी मुल्क के हो सब कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं और साफ़ जाहिर होता है कि अल्लाह के सामने सब बराबर हैं। इस्लाम के कई और अर्कानो (Devotional duties of Islam / इस्लाम के भक्ति संबंधी कर्तव्य) में इस तरह की मिसाल देखी जा सकती है।

     

    स्पष्ट हुआ कि इस्लाम में जात-पात का कोई आधार नहीं है ना किसी बिरादरी की किसी दूसरे पर श्रेष्ठता है। सय्यदों के मामले में यह अवश्य है कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) के रिश्तेदार होने के नाते सभी मुस्लिमो द्वारा उन्हें विशेष सम्मान और प्रेम प्राप्त है लेकिन यह भी उन्हें किसी तरह की क़ानूनन या व्यवहारिक विशेषता प्रदान नहीं करता।

    और इस बात के अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) से ही कई सय्यद कानूनी मामलों में अदालत में सामान्य व्यक्ति के रूप में पेश होते आएँ हैं, दूसरे मुस्लिमो में विवाह / रिश्ते आदि करते आएँ हैं और कई सय्यद मौजूद होने पर भी किसी गैर सय्यद को तक़वे और काबिलियत के आधार पर अमीर (सरदार) नियुक्त किया जाता रहा है।

     

    क्या मुसलमानों को सिर्फ़ अपनी बिरादरी / जाति / समाज में शादी करने का हुक्म है?

     ऐसा बिल्कुल नहीं है, क़ुरान में जिन रिश्तों (खूनी रिश्तों) में शादी करना मना है उसके अलावा एक मुस्लिम दुनिया के किसी भी मुल्क, नस्ल, बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले मुस्लिम से शादी कर सकता है इसमें किसी तरह की बंदिश नहीं है।

    इसे इस्लाम ने व्यक्ति की अपनी पसंद (Choice) पर छोड़ दिया है। फिर चाहे वह अपनी आपसी रिश्तेदारों में करे या बाहर करे । कई लोग आपस में सिर्फ़ इसलिये रिश्ते करते हैं क्योंकि लोग जाने पहचाने होते हैं अतः निबाह की संभावना काफ़ी अधिक होती है। इस्लाम इसे भी मना नहीं करता ।

    हाँ इस बात की सलाह अवश्य देता है कि अपनी बच्चों का रिश्ता सोच-समझकर और हर चीज़ पर विचार करके करे ताकि आगे कोई समस्या ना आए और वे एक अच्छा वैवाहिक जीवन व्यतीत करें ।

    लेकिन कोई व्यक्ति अगर सिर्फ़ इन चीज़ों (नस्ल, बिरादरी) के आधार पर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझे अपनी बिरादरी से बाहर रिश्ता करना हराम / पाप समझे और इस वज़ह से बाहर रिश्ता ना करे तो यह बिल्कुल ग़लत बात है और वह अल्लाह की हलाल की हुई शय (चीज़) को हराम क़रार कर बहुत बड़ा गुनाह कर रहा है।

    अंत में सवाल आता है कि इतना प्रावधान होने के बाद भी कुछ मुसलमान जाति के नाम पर भेदभाव क्यों करते हैं?

    इसकी सीधी-सी वज़ह इस्लामिक ज्ञान ना होना और इस्लाम की शिक्षा से दूरी होना है। जब कोई व्यक्ति इन चीज़ों से दूर होता है तो समाज में व्याप्त बुराइयों में वह भी लिप्त हो जाता है और फिर उन बुराइयों को अपना लेता है, जिनको उसने या उसके पूर्वजों ने इस्लाम अपनाने पर त्याग कर दिया था।

    जैसा भारत में इस्लाम के आने से पहले ही जातिवाद, ऊँच नीच और एक ही ख़ानदान में शादी की रीत चली आ रही है तो किसी दूसरे मुल्कों में काले गोरे के भेदभाव का इतिहास रहा। ऐसी और भी कई सामाजिक बुराइयाँ हैं जिनकी इस्लाम में कोई जगह नहीं, पर कई मुस्लिमों ने उसको आत्मसात कर लिया है जिसका कारण ऊपर बताई गई बात है जो कि इस्लाम की नहीं बल्कि उनकी ख़ुद की और समाज, सोसाइटी (मआशरे) की ग़लती है। जिसका उन्हें त्याग करना चाहिए और इस्लाम की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए।