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  • क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    जवाब:-  नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष क़ाफ़िर (गैर-मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता है।

    क़ुरआन [5:32] में इसका खुला आदेश है। 👇
    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया”

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर-मुस्लिम (क़ाफ़िर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता। यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर-मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

    क़ुरआन की जिन आयातः में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान के सम्बंध में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है और इन्हीं आयातः को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी क़ाफ़िर को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

     

    कुरआन सूरह 2:191 का हवाला देकर अकसर यह कहा जाता है कि इसमे लिखा है “जहाँ तुम बहुसंख्यक हो जाओ वहाँ गैर मुस्लिमों को क़त्ल करो।” बिलकुल झूठ है। ऐसा इस आयत तो क्या पूरे कुरआन में कहीं भी नहीं लिखा है।

    झूठा प्रोपेगेंडा कर नफ़रत फैलाने वालो लोगों को चैलेंज है कि सूरह 2:191 तो क्या पूरे कुरआन में कहीं कोई आयात बता दे जिसमे यह बात लिखी हो। जो कि वे नहीं बता पाएंगे अतः इनसे निवेदन है कि झूठ की बुनियाद पर नफ़रतें फ़ैलाना बन्द कर दें।

    अब हम कुरआन सूरह 2:191 के बारे में बात करें तो इसका सन्दर्भ क्या है और उसमे क्या लिखा है यह सिर्फ़ उसकी पहले की आयत यानी की 2:190 पढ़ लेने से ही स्पष्ट हो जाता है।

    और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़े, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
    (कुरआन 2:190)

    यानी कि यह स्पष्ट है कि यहाँ युद्ध के हालात के बारे में ज़िक्र है और अंततः अल्लाह ने उन लोगों से लड़ने की अनुमति दी है जो ख़ुद तुमसे लड़ते हैं और तुम्हें क़त्ल करने के लिए आते हैं और अल्लाह की रहमत देखिए कि इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया की जो तुमसे लड़े उन्ही से लड़ने की अनुमति है और इसके अलावा किसी तरह की ज़्यादती की अनुमति नहीं है।

    दरअसल जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का में लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने लगे तो मक्का के सारे लोग आपके दुश्मन बन गए। जो कोई भी इस्लाम स्वीकार करता उसको तरह-तरह की तकलीफ दी जाती थी। उन पर इतने भयानक अत्याचार किए गए कि उसको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    इस्लाम स्वीकार करने वालो पर मक्का के लोगों की तरफ़ से यह अत्याचार 13 वर्षों तक चलते रहे इन लोगों का कसूर सिर्फ़ इतना था कि इन्होंने इस बात को स्वीकारा था कि सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत की जाए, उसके साथ किसी को शरीक ना किया जाए उसके बताए आदेशों का पालन किया जाए, गरीब और यतीमो पर अत्याचार ना करें, हराम का माल ना खाएँ, ब्याज के ज़रिए गरीबों पर ज़ुल्म ना किया जाए, झूठ ना बोलें, रिश्वत ना लें, लड़कियों को ज़िंदा दफन ना करें, शराब और किसी भी तरह का नशा ना करें।

    लेकिन मक्का के सरदारों को यह बात कबूल ना थी और उन्होंने मुस्लिमो पर 13 साल तक कठोर अत्याचार किये और जब वे इस्लाम को बढ़ने से ना रोक पाए तो हथियार और ताकत के दम पर मुस्लिमो को ख़त्म कर देने की ठानी यहाँ तक मुस्लिमो को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया कि उन्हें अपने जीवन भर की कमाई, घर-बार और अपना वतन छोड़ कर मदीना में जाना पड़ा।

    गौरतलब रहे कि इस पूरे अरसे (13 वर्षो) तक अल्लाह ने मुस्लिमो को अपने ऊपर अत्याचार करने वालो को किसी तरह का जवाब देने की अनुमति नहीं दी यहाँ तक अपने बचाव / आत्मरक्षा (Self defense) में भी हाथ उठाने की अनुमति नहीं थी। कई मुस्लिमो ने इस बात की इजाज़त माँगी लेकिन उन्हें सिर्फ़ सब्र करने का ही कहा गया और इजाज़त नहीं दी गई। यहाँ तक कि कितने ही मुस्लिम इन अत्याचारों को सहते हुए स्वर्ग सिधार गए।

    अंततः जब 13 वर्षों के अंतराल के बाद मुस्लिम अपने घरों से निकाल दिए गए और मदीना में जाकर शरण लेने को मजबूर हुए इसके बाद भी मक्का के काफिरों को चैन नहीं मिला और वे मुस्लिमो को ख़त्म करने में लगे रहे कभी पूरा लश्कर लेकर हमला करने आते तो कभी कुछ कभी कुछ और। 14-15 साल का अंतराल गुज़र जाने के बाद अल्लाह ने मुस्लिमो को ऐसे ज़ालिमों को जवाब देने और जो जंग करने आए उनसे युद्ध करने की इजाज़त दी। ऐसा ही ज़िक्र कुरआन सूरह 2:190 में है,

    इसके आगे फिर आयात 2:191 आती है👇

    और जहाँ कहीं उन पर क़ाबू पाओ, क़त्ल करो और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना (उत्पीड़न) क़त्ल से भी बढ़कर गम्भीर है। लेकिन मस्जिदे हराम (काबा) के निकट तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे स्वयं तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अतः यदि वे तुमसे युद्ध करें तो उन्हें क़त्ल करो-ऐसे इनकारियों का ऐसा ही बदला है।
    (कुरआन 2:191)

    ज़ाहिर है जंग के मैदान में जब अंततः लड़ने की अनुमति दी गई तो यही कहा जायेगा कि जब वे तुमसे लड़ने आएँ तो उन्हें जहाँ पाओ वहाँ क़त्ल करो, यह तो नहीं कहा जायेगा कि जब वे लड़ने आएँ तो पीठ फेर कर भाग जाना या खुद ही क़त्ल हो जाना। इस आयत के ही शब्दों से यह भी साफ़ हो जाता है कि उन्हें उस जगह से निकालने के लिए कहा जा रहा है जहाँ से इन्होंने ख़ुद मुसलमानो को बाहर निकाला था और उस पर अब कब्ज़ा किये हुए बैठे हैं। फिर इस आयत में एक बार फिर खबरदार कर दिया गया की तुम उनसे ना लड़ो जब तक कि वे तुमसे ना लड़े।

    अतः इस आयत का सन्दर्भ स्पष्ट हुआ, तथा यह भी मालूम चला कि इस आयत का हवाला देकर जो बताया गया था वह झूठ था और यह भी मालूम हुआ कि कुरआन में जो लड़ने की आयतें हैं वे अत्याचार और अत्याचारियों के विरुद्ध ही है। ना कि आम हालात में और आम लोगों के बारे में।

    जिन्हें नफ़रत फैलाने वाले अपने प्रोपेगेंडा के लिए तोड़ मरोड़ के इस्तेमाल करते हैं।

     

    इसी विषय को विस्तार में जाने के लिए वीडियो देखें।👇https://www.facebook.com/Aimimyakuthpura.hyd/videos/1669457576569984/

  • कुरआन में जिहाद की आयतें।

    कुरआन में जिहाद की आयतें।

    जवाब:- इस सवाल के जवाब के लिए क़ुरआन जिन हालात में नाज़िल हुआ उसको जानने की ज़रूरत है। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लममक्का में लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने लगे तो मक्का के सारे लोग आपके दुश्मन बन गए। जो कोई भी इस्लाम स्वीकार करता उसको तरह-तरह की तकलीफ दी जाती थी। उन पर इतने भयानक अत्याचार किए गए कि उसको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    🛑 हजरत अबू बकर रजि अल्लाहु अन्हु जब मुसलमान हुए तो आपको काफिरों ने मिलकर इतना मारा कि जब आपके घरवाले उठाकर ले गए तो यह समझ रहे थे कि अब वह शायद ज़िंदा नहीं बचेंगे।

    🛑 हजरत बिलाल जो कि गुलाम थे उन्होंने जब इस्लाम स्वीकार किया तो उनके आका उनको मक्का की गरम तपती हुई रेत पर डाल देता और सीने पर बड़ा भारी पत्थर रख देता और उन्हे कहता कि इस्लाम छोड़ दो। उनको कोड़े मारता और अंगारों पर लिटाता। कभी उनको मक्का के गुंडों के हवाले कर दिया जाता जो उनको मक्का की गलियों में घसीटते रहते। ‌

    🛑 एक बार हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद रजि अल्लाहु अन्हु को ज़ोर से क़ुरआन पढ़ने पर इतना मारा कि पूरे बदन में निशान पड़ गए।

    🛑 हजरत उस्मान रजि अल्लाहू अन्हु ने जब इस्लाम स्वीकार किया तो उनके चाचा ने उनको एक खंभे से बाँध दिया कि जब तक इस्लाम नहीं छोड़ोगे तुम्हें नहीं खोलेंगे।

    🛑 हजरत अम्मार बिन यासिर और उनकी माँ को जलते हुए अंगारों पर डाल दिया जाता, जिससे उनकी कमर की चर्बी पिघल जाती और वह लोग बेहोश हो जाते‌। हजरत अम्मार इस अत्याचार और ज़ुल्म से वफात पा गए। उनकी माँ की शर्मगाह में मक्का के काफ़िर अबू जहल ने बरछी मारी जिससे वह शहीद हो गई। हालांकि उस वक़्त वह काफ़ी बूढ़ी थी। उस ज़ालिम ने आपके बुढ़ापे पर भी तरस नहीं खाया।

    🛑 हजरत खब्बाब को दहकते हुए अंगारों पर पटक कर आपके सीने पर पैर रख दिया जाता ताकि हिल ना सके। खून और चर्बी के पिघलने से वह अंगारे बुझ जाते। इसी वज़ह से आप की पीठ पर सफेद दाग हो गए थे। ‌एक बार उनके सिर को इस्लाम छोड़ने के लिए दहकती सलाखों से दागा गया।

    🛑 अगर कोई आदमी मक्का में मुसलमान होता तो पूरा मक्का उसकी दुश्मनी पर उतर आता। अगर वह इज़्ज़तदार होता तो उसको गालियाँ देते। अगर वह व्यापारी होता तो उसके व्यापार को तबाह कर दिया जाता और अगर वह कमजोर होता तो उसको भयानक तकलीफें दी जाती, कोड़ों से मारा जाता, जलती हुई रेत पर लिटाया जाता।

    🛑 ख़ुद पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को तरह-तरह की जिस्मानी और मानसिक तकलीफें दी गई ताकि किसी तरह वह लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने और इस्लाम का पैगाम पहुंचाने से रुक जाएँ।
    यहाँ तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जानलेवा हमले और क़त्ल की साज़िश हुई, आपको जज़्बाती तकलीफे देते हुए आपकी बेटियों के रिश्ते तोड़ दिए गए और तलाक करवा दिए गए।

    🛑 मक्का की एक घाटी में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आपके पूरे ख़ानदान समेत बॉयकॉट कर दिया गया। 3 साल तक सभी लोगों ने बड़ी तंगी के साथ जिंदगी गुजारी। कई-कई रात लोग भूखे रहते, बच्चे भूख से तड़पते रहते लेकिन उन तक खाना नहीं पहुँचने दिया जाता था।

    यह तो कुछ नमूने हैं, वरना मुसलमानों पर मक्का में इससे भी खतरनाक अत्याचार 13 सालों तक लगातार किए गए। यह सारी बातें सीरत (जीवनी) पर लिखी गई अरबी उर्दू हिंदी और इंग्लिश की किताबों में मौजूद हैं।

  • क्या कुरआन की आयतें दूसरे धर्म वालों से हिंसा प्रेरित करती हैं?

    क्या कुरआन की आयतें दूसरे धर्म वालों से हिंसा प्रेरित करती हैं?

    जवाब:- क़ुरआन के बारे में दुष्प्रचार फैलाने का यह तरीक़ा बहुत ही पुराना है कि क़ुरआन की जिन आयतों में जंग के मैदान में अत्याचारियों के प्रति युद्ध का जिक़्र (उल्लेख) है उन आयतों को अलग-अलग सूरतों (अध्यायों / पाठों) में से और अलग-अलग जगह से सन्दर्भ के बाहर (Out of context) निकाल कर ऐसा दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन हिंसा के लिए प्रेरित करता है।

     

    जबकि जब आप इन आयतों को इनके सन्दर्भो के साथ पढ़ेंगे या आगे पीछे की आयत ही पढ़ लेंगे तो आप जान लेंगे की यह दावा कितना झूठा है।

     

    जैसे उदाहरण के तौर पर क़ुरआन 9:5 का हवाला देकर यह कहा जाता है कि क़ुरआन गैर मुस्लिमों को मारने का हुक्म देता है। जबकि इसकी अगली और पिछली आयात यानी 9: 4 और 9: 6 ही पढ़ लेने से इसका सन्दर्भ पता चल जाता है कि यह युद्ध के मैदान की आयत है और उसमें भी अल्लाह का हुक्म यह है अगर इस (युद्ध के) दौरान भी अगर कोई मुस्लिमों से पनाह (शरण) मांगे तो उसे पनाह दी जाए।

     

    दरअसल सिर्फ़ क़ुरआन ही नहीं बल्कि विश्व के हर प्रमुख धर्म ग्रन्थ में इस तरह की बातें, यानी की युद्ध के मैदान, अत्याचार और अत्याचारियों के विरुद्ध मौजूद हैं। लेकिन अगर इसी तरह इन ग्रन्थों से इन श्लोकों / आयतों / वर्सेज को सन्दर्भ के विपरीत (Out of context) अलग-अलग निकाल कर एक जगह इकट्ठा कर दिखाया जाए। तो *विश्व का हर धर्म ग्रन्थ हिंसा को बढ़ावा देता दिखाई देगा।

    और ऐसे ही क़ुरआन की इन 24 आयतों के बारे में किया जाता रहा है। हालाँकि यह स्वाभाविक है कि इस तरह तो प्रथम दृष्टया (Prima facie) कोई भी इन्हें पढ़कर ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाएगा। लेकिन अगर वह क़ुरआन और मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी का अध्ययन करेगा तो वह ज़रूर सच जान लेगा।

    उदाहरण के तौर पर: ऐसे ही 1950 के दौरान फैलाए जा रहे इसी कुप्रचार का शिकार होकर स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य ने इस्लाम को हिंसा और आतंकवाद से जोड़ते हुए इस्लाम के ख़िलाफ लिखी जिसका आधार यही 24 आयतों के प्रति कुप्रचार रहा लेकिन जब उन्हें बाद में सत्य का ज्ञान हुआ तो उन्होंने ख़ुद अपनी लिखी किताब पर खेद व्यक्त करते हुए उसे शून्य घोषित किया और ईश्वर से माफी मांगते हुए किताब लिखी “इस्लाम आतंक या आदर्श?”

    उसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा (उन्हीं के शब्दों में)

    मैंने कई साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज मधोक का लेख “दंगे क्यों होते हैं?’’ पढ़ा था। इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण क़ुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताए गए थे। लेख में क़ुरआन मजीद की वे आयते भी दी गई थी।

     

    *इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट (पर्चा) ‘क़ुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलंबियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं’ किसी व्यक्ति ने मुझे दिया। इसे पढ़ने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि मैं क़ुरआन पढूं। इस्लामी पुस्तकों की दुकान से क़ुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला।*

     

    क़ुरआन मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिली, जो पैम्फलेट (पर्चे) में लिखी थी। इससे मेरे मन में यह ग़लत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम हैं। दिमाग़ भ्रमित हो चुका था, इसलिए हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी।

    इस्लाम, इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैने एक पुस्तक लिख डाली ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास’ जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद “The History Of Islamic Terrorism” के नाम से सुदर्शन प्रकाशन, सीता कुंज, लिबर्टी गार्डेन, रोड नम्बर-3, मलाड (पश्चिम), मुंबई -400064 से प्रकाशित हुआ।

    हाल ही में मैने इस्लाम धर्म के विद्वानों (उलेमा) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस्लाम प्रेम,सद्भावना व भाईचारे का धर्म है। किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम धर्म के विरूद्ध हैं। आतंकवाद के ख़िलाफ फतवा (धर्मादेश) भी जारी हुआ।

    इसके बाद मैंने क़ुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से सम्पर्क किया, जिन्होने मुझे बताया कि क़ुरआन मजीद की आयत भिन्न-भिन्न तत्कालीन परिस्थितियों में उतरी।

    इसलिए क़ुरआन मजीद का केवल अनुवाद ही न देखकर यह भी देखा जाना ज़रूरी हैं कि कौन-सी आयत किस परिस्थिति में उतरी, तभी उसका सही मतलब और मकसद पता चल पाएगा।

    साथ ही ध्यान देने योग्य हैं कि क़ुरआन इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) पर उतारा गया था। अत: क़ुरआन को सही मायने में जानने के लिए पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी हैं। विद्वानों ने मुझसे कहा, ‘‘आपने क़ुरआन मजीद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब से लिया हैं, वे आयतें उन अत्याचारी काफ़िर और मुशरिक लोगों के लिए उतारी गई जो अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) से लड़ाई करते और मुल्क में फसाद करने के लिए दौड़ते फिरते थे। सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरूद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फरमान हैं।’’

    उन्होने मुझसे कहा कि इस्लाम की सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद की पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरे क़ुरआन मजीद के साथ हजरत मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी भी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते।

    मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नजरिए से जब मन की शुद्धता के साथ क़ुरआन मजीद शुरू से अन्त तक पढ़ा, तो मुझे क़ुरआन मजीद की आयतों का सही मतलब और मकसद समझ में आने लगा।

    सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी उक्त किताब ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास’ में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा हैं जिसका मुझे हार्दिक खेद (दुःख) हैं और इसलिये मैं अपने भुल एवं दुःख व्यक्त करते हुए फिर से एक नयी पुस्तक लिखी जिसका नाम है “इस्लाम आतंक या आदर्श?” इस पुस्तक में मैंने इस्लाम के अपने अध्ययन को बखूबी पेश किया है।

    और साथ ही मैं अल्लाह से, पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूँ। जनता से मेरी अपील हैं कि मेरी पहली पुस्तक ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास पुस्तक में जो लिखा हैं उसे शून्य समझें और मेरी नयी पुस्तक “इस्लाम आतंक या आदर्श?” का अध्ययन करें और साथ ही अन्य लोगों तक पहुँचाए, धन्यवाद।। (स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य)

    वैसे तो हर व्यक्ति को ख़ुद क़ुरआन और मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी का स्वयं अध्ययन करना चाहिए लेकिन जो इतना समय न निकाल सके और इन 24 आयतों को लेकर भ्रम की स्थिति में है उसे कम से कम स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य की लिखी इस किताब का ज़रूर अध्ययन करना चाहिए जो कि बहुत ही आसानी से हर जगह उपलब्ध है।

  • क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    जवाब:- नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष काफ़िर (गैर मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता।

     

    क़ुरआन 5:32 में इसका खुला आदेश है:-

    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया..”

     

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर मुस्लिम (काफिर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता।

    यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

     

    क़ुरआन की जिन आयात में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है। और इन्हीं आयात को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी काफिरो को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।