Tag: मुस्लिम औरते

  • औरतों पर विशेष।

    औरतों पर विशेष।

    आधुनिक युग के लोग महिलाओं को सम्मान देने, उनको अधिकार देने की बात करते हैं। लेकिन क्या आपको पता है महिलाओं के अधिकार पर सबसे ज़्यादा रोशनी इस्लाम धर्म ने डाली है। जी हाँ, वही इस्लाम धर्म जिसके बारे में झूठ फैलाया जाता है कि इस्लाम धर्म में औरतों के कोई अधिकार नहीं है। इस्लाम धर्म के अनुसार महिलाओं के अधिकार के कुछ नमूने आपके सामने पेश है-

    👉 इस्लाम के अनुसार मर्द और औरत दोनों समान आध्यात्मिक स्वभाव रखते हैं-
    (देखें, क़ुरआन सूरः निसा 4:1, सूरः नहल 16:72, सूरः शूरा 42:11)

    👉इस्लाम से पूर्व लड़कियों को ज़िन्दा दफ़न करने की प्रथा को इस्लाम ने बंद किया-
    (सूरः तक़वीर 81:8-9, सूरः इस्राएल 17:31, सूरः अनआम 6:151)

    👉परवरिश में लड़का और लड़की के बीच भेदभाव पूरी तरह मना है-
    (अबू दाऊद 5146, मुसनद अहमद 1957)

    👉इस्लाम में रंग, खानदान, जाति और धन के आधार पर औरतों से भेदभाव नहीं होगा-
    (सूरः अल इमरान 3:195, सूरः अहज़ाब 33:35)

    👉इस्लाम में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार-
    (सूरः अलक़ 96:1-5, इब्ने माजा 224)

    👉हज़रत आईशा अपने ज़माने की मशहूर स्कॉलर या आलिमा थीं-
    (इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने सहाबा के अलावा चारों खलीफाओं की भी रहनुमाई की है)

    👉उस समय जबकि लड़कियों को ज़िन्दा दफ़न कर दिया जाता था इस्लाम में आलिमा और स्कॉलर पाई जाती थीं-
    (कहा जाता है कि हज़रत आईशा के करीब 88-शागिर्द थे और उम्मे सलमा के 32-शागिर्द थे इनके अलावा और भी महिला विद्वान थी। हज़रत आईशा टीचर्स की टीचर थी)

    👉इस्लाम ने पश्चिम से 1300 वर्ष पहले महिलाओं को आर्थिक अधिकार दिए-

    👉इस्लाम ने महिलाओं को शरीअत के दायरे में रहते हुए काम और कारोबार करने की अनुमति दी है-
    (हज़रत खदीजा अपने ज़माने की व्यापारी महिलाओं में सबसे सफल व्यापारी थी, और अपने व्यापार का लेन देन अपने पति हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) के द्वारा करती थी।)

    👉इस्लाम में महिलाओं पर कोई आर्थिक ज़िम्मेदारी नहीं है-
    (औरत के खाने पीने पहनने ओढ़ने की ज़िम्मेदारी उसके पिता, भाई, और पति की है)

    👉इस्लाम ने औरत को सदियों पहले विरासत का अधिकार दिया-
    (सूरः निसा 4:11)

    👉इस्लाम में पत्नी की हैसियत से औरत के अधिकार-
    (सूरः रूम 30:21, सूरः निसा 4:19, सूरः बक़र 2:228, सूरः निसा 4:34)

    👉लड़की या दुल्हन से किसी तरह के दहेज की माँग करना इस्लाम में हराम है-
    (निकाह के मौके पर लड़की वालों की तरफ़ से लड़के वालों को दहेज़ देना मना है बल्कि इस्लाम की शिक्षा तो ये है कि लड़का लड़की को उपहार के रूप में महर अदा करेगा। सूरः निसा 4:4)

    👉इस्लाम में माँ की हैसियत से औरत के अधिकार-
    (सूरः इस्राएल 17:23-24, सूरः लुक़मान 31:14, सूरः अहक़ाफ़ 46:15)

    👉इस्लाम के अनुसार गर्भ धारण करने और बच्चे को जन्म देने से स्त्री का दर्जा और अधिक बढ़ जाता है-
    (सूरः निसा 4:1, सूरः लुक़मान 31:14)

    👉इस्लाम में बहन की हैसियत से औरत के अधिकार-
    (सूरः तौबा 9:71)

    👉इस्लाम ने महिलाओं को कानूनी अधिकार दिए-
    (सूरः बक़र 2:178-179)

    👉इस्लाम ने महिलाओं को गवाही का हक़ 1400 साल पहले दिया-
    (सूरः बक़र 2:282, सूरः माएदा 5:106, सूरः नूर 24:4)

    👉शादी के बाद लड़की को अपने बाप का नाम अपने नाम के साथ लगाने की पूरी आजादी है-

    👉इस्लाम ने महिलाओं को राजनीतिक अधिकार दिए-

    👉इस्लाम महिलाओं को वोट का अधिकार देता है-
    (सूरः मुमतहिना 60:12)

    👉इस्लाम में औरत कानून बनाने के काम में हिस्सा ले सकती है-
    (एक मशहूर हदीस के मुताबिक हज़रत उमर सहाबा से महर की हद मुकर्रर करने का मशवरा कर रहे थे तब एक औरत ने उनकी रहनुमाई की।)

    👉मुस्लिम औरत जंग के मैदान में भी हिस्सा ले सकती है-
    (सहीह बुखारी)

    महिलाओं के अधिकार के ताल्लुक़ से ये चंद बातें मैंने पेश की है। ज़्यादा जानकारी के लिए और अपनी भाषा में निःशुल्क क़ुरआन प्राप्त करने के लिए सम्पर्क करें।

  • औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    जवाब:- सबसे पहले हम यह जानते हैं कि इद्दत क्या है और कब लागू होती है?

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर इद्दत का मतलब उस अवधि / मुद्दत / समय से है जिसमे औरत को दूसरी शादी करने से पहले अपने घर में कुछ समय गुज़ारना होता है। उसके बाद ही वह दूसरी शादी कर सकती है। आधुनिक सोच के अनुसार ये बात समझ में नहीं आती है कि सिर्फ़ औरत को ही इद्दत में क्यों रहना होता है? लेकिन जब हम सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो पता चलता है कि ईद्दत का समय कितना महत्वपूर्ण है और औरत के लिए यह हर तरह से फायदेमंद एवं ज़रुरी है।

     

    ❇️ *पवित्र क़ुरआन के अनुसार*

     

    “ऐ नबी! जब तुम लोग स्त्रियों को तलाक़ दो तो उन्हें तलाक़ उनकी इद्दत के हिसाब से दो और इद्दत की गणना करो और अल्लाह का डर रखो, जो तुम्हारा रब है। उन्हें उनके घरों से न निकालो और न वे स्वयं निकलें, सिवाय इसके कि वे कोई स्पष्ट अशोभनीय कर्म कर बैठें। ये अल्लाह की नियत की हुई सीमाएँ हैं और जो अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो उसने स्वयं अपने आप पर ज़ुल्म किया। तुम नहीं जानते, कदाचित इस (तलाक़) के पश्चात अल्लाह कोई सूरत पैदा कर दे”

    (क़ुरआन सूरह 65:01)

     

    ➡️ औरत को इद्दत दो कारणों से गुज़ारनी होती है।

     

    1) पति की मृत्यु के कारण:-

    और तुममें से जो लोग बीवियाँ छोड़ के मर जाएँ तो ये औरतें चार महीने दस रोज़ अपने को रोके (और दूसरा निकाह न करें) फिर जब (इद्दत की मुद्दत) पूरी कर ले तो शरीयत के मुताबिक़ जो कुछ अपने हक़ में करें इस बारे में तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है और जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा उस से ख़बरदार है।

    (क़ुरआन सूरह 2:234 )

     

    2) तलाक़ या खुलअ (औरत ख़ुद तलाक़ ले) के कारण:-

    तलाक़ / खुलअ पर 3 हैज / महावारी / Monthly cycles तक ईद्दत होगी।

    “और जिन औरतों को तलाक़ दी गयी है वह अपने आपको तलाक़ के बाद तीन हैज़ के ख़त्म हो जाने तक निकाह सानी से रोके और….”

    (क़ुरआन सूरह 02: 228)

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर अगर औरत गर्भवती है तो बच्चे के पैदा होने के समय तक अधिकतम 9 महीने।

     

    ▪ और तुम्हारी स्त्रियों में से जो हैज से निराश हो चुकी हों, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी इद्दत तीन मास है और इसी प्रकार उनकी भी जो अभी हैज से नहीं हुई और जो हामेला (गर्भवती) हो उनकी इद्दत बच्चे के पैदा होने तक है। जो कोई अल्लाह का डर रखेगा उसके मामले में वह आसानी पैदा कर देगा।”

    (क़ुरआन सूरह 65:04)

     

    ▪️ *शादी हुई लेकिन शारीरिक संबंध नहीं बने और इससे पहले ही तलाक / खुलअ या पति की मृत्यु हो गई तो कोई इद्दत नहीं।

    (क़ुरआन सूरह 33:49)

     

    ✔️ इद्दत के सामाजिक और वैज्ञानिक कारण

     

    1) औरत अगर गर्भ से हो तो उसके गर्भ का पता चल जाये। ताकि बच्चे के पिता पर गर्भावस्था और उससे सम्बन्धित सभी खर्च, ज़िम्मेदारी आदि लागू हो। अगर इद्दत ना हो तो ऐसा हो सकता है कि तलाक के कुछ माह बाद गर्भ उजागर हो और फिर उसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई ना हो ।

     

    2) पहले शौहर से बच्चा हो तो बच्चे की वंशावली की पहचान हो। साथ ही होनेवाले बच्चे को अपने पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा मिले फिर चाहे उसकी माँ से तलाक ही क्यों ना हो गया हो।

     

    3) औरतो में भावनात्मक पहलू अधिक प्रबल होते है, तलाक़ या पति की मृत्यु के बाद उसकी मानसिक अवस्था को दुरुस्त होना ज़रूरी है। ताकि वह अपने नए परिवार में एडजस्ट (Adjust) हो सके।

     

    4) अगर 3-मंथली साइकल नहीं गुज़ारती है और इसके पूर्व ही अगर शादी कर दूसरे मर्द से सम्बन्ध बनते हैं तो यौन रोग (Sexually transmitted disease) हो सकते है।

     

    5) इद्दत का समय गुज़रने के बाद औरत के गर्भाशय और यौनांगों में पूर्व के पति के शुक्राणु, DNA के कोई अंश नहीं रहते जिससे होने वाले बच्चे का वंशावली (Lineage) स्पष्ट होता है और साथ ही औरत और मर्द दोनों ऐड्स और ऐसी अन्य दूसरी बीमारी से पूर्ण रूप से सुरक्षित हो जाते हैं।

     

    इस तरह इस्लाम इस दुनिया के इंसानो का पथप्रदर्शन / रहबरी तब से कर रहा है, जब आधुनिक विज्ञान का वजूद ही नहीं था और आज साइन्सी दृष्टिकोण विकसित हो जाने के बाद उसके कई फायदे और सार्थकताएँ उजागर हो रही है। जो की इस्लाम के सच्चे और उसके ईश्वरीय धर्म होनी की बड़ी दलील है।

  • आंदोलन में औरतें नमाज़ कैसे पढ़ सकती हैं?

    आंदोलन में औरतें नमाज़ कैसे पढ़ सकती हैं?

    जवाब*:-सर्वप्रथम तो यह गलतफहमी दूर करें कि प्रैक्टिकल इस्लाम अलग और थियोरेटिकल अलग है। इस्लाम पूरा का पूरा प्रैक्टिकल मज़हब है। आमतौर से इस तरह के तुलना का मकसद यह होता है कि जो चीज थियोरेटिकल हो उस पर अमल करना असंभव होता है। लेकिन इस्लाम के किसी एक हुक्म को भी अंकित नहीं किया जा सकता जिस पर किसी भी परिस्थिति में अमल करना असम्भव हो जाये।

     

    बल्कि इस्लाम की ईश्वरीय धर्म होने की यह भी विशेषता है कि इंसान को बनानें वाले ईश्वर को इंसान के सामने आने वाले सभी परिस्थितियों का निश्चय ही ज्ञान है और इसलिये उसने अपने आदेशों के पालन में लचीलेपन (flexibility) की वुसअत रखी ताकि किसी परिस्थिति में उनका पालन करना असंभव ना हो जाये।

     

    जैसे नमाज़ पढ़ना हर बालिग मुसलमान के लिए हर हाल में फ़र्ज़ (अनिवार्य) है जो कि खड़े होकर पढ़ी जाती है। लेकिन यदि कोई बीमारी के कारण खड़ा नहीं हो सकता तो फिर उसके लिए यह आसानी है कि वह बैठ कर पढ़े। यदि बैठ कर भी पढ़ने की स्थिति नहीं तो फिर लेट कर पढ़े।

     

    नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया : (खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, यदि तुम इसमें सक्षम न हो तो बैठकर नमाज़ पढ़ो और यदि इसमें भी सक्षम न हो तो पहलू पर (लेटकर) नमाज़ पढ़ो।”

    (सहीह बुखारी:1066, सुनन इब्ने माजा:1224)

     

    दूसरी बात यह कि इस्लाम में औरतों को मस्जिदों में प्रवेश की मनाही नहीं है। लेकिन पर्दे का एहतेमाम और मर्दो और औरतों का पृथक होना अनिवार्य है। हर मस्जिद और अन्य जगहों में इसकी व्यवस्था होना सम्भव नहीं इसीलिए औरतों का घर में नमाज़ पढ़ना अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) और बेहतर है।

     

    जैसा कि

    नबी पाक सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम फरमाते हैं:-औरत के लिए सेहन में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के अंदर नमाज पढ़ना है और घर में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के सबसे अंदरूनी कमरे में नमाज पढ़ना है।

    (अबू दाऊद: 570)

     

    लेकिन इस्लाम सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने का ही हुक्म नहीं देता बल्कि ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ खड़ा होना और उसके ख़िलाफ मुहिम में मैदान में डटे रहने का भी हुक्म देता है।

     

    अब जब लोग ज़ुल्म के ख़िलाफ मैदान में डटते हैं तो ना तो वहाँ घर होता है ना ही मस्जिद तो ऐसे में ज़ाहिर-सी बात है कि वे घर या मस्जिद में जाकर तो नमाज़ अदा नहीं कर सकते। अतः ऐसी स्थिति में बिलकुल वही हुक्म है कि जैसे मजबूरी वश इंसान यदि खड़े होकर नमाज़ नहीं पढ़ सकता तो वह बैठ कर पढ़े उसी तरह अगर वह मैदान में किसी अन्याय या अत्याचार के लिए डटा है तो उसके लिए हुक्म यह है कि वह वहीं कहीं जहाँ मुनासिब हो वहाँ नमाज़ अदा कर ले।

     

    और ऐसा ही मुस्लिम महिलाओं ने कई जगह अन्याय के विरूद्ध आंदोलन में नमाज़ अदा कर किया। ऐसा कर उन्होने इस्लाम के दोनों आदेशों का निर्वाह किया। नमाज़ भी अदा की और अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपना विरोध भी दर्ज किया। इसमें कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं हुई।

     

    लेकिन यह देखकर नफ़रत फैलाने वालों को जो तकलीफ हुई थी वह अभी तक दूर नहीं हो पा रही है कि जिन मुस्लिम महिलाओं को वह दबा, कमज़ोर समझ रहे थे उन्होंने कैसे मैदान में निकलकर ना केवल अपना विरोध दर्ज किया साथ ही नमाज़ अदा कर अपने धर्म के पालन में कोई कोताही भी नहीं की।