सवाल:- हलाला क्या है और क्यों होता है?

*जवाब:-* इस्लाम में हर मसले को बड़ी तफसील से बयान किया गया है। जिस तरह शादी और निकाह करने के इस्लामी कायदे कानून है इसी तरह अगर किसी वज़ह से मियाँ-बीवी में निबाह ना हो सके और वह शादी के बंधन से निकलना चाहे तो तलाक के लिए भी कुछ नियम और तरीके हैं।

बुनियादी तौर पर इस्लाम में निकाह / शादी एक पवित्र रिश्ता है। इसीलिए हदीस में आया है कि अल्लाह तआला के नज़दीक हलाल चीजों में सबसे ज़्यादा नापसंदीदा चीज तलाक है।

फिर भी कभी मियाँ-बीवी में बिगाड़ और रिश्ता टूटने की नौबत आये तो इस बारे में क़ुरआन लोगों को उन दोनों के बीच सुलह की कोशिश का हुक्म देता है :-

*और यदि तुम्हें दोनों के बीच वियोग (जुदाई) का डर हो, तो एक मध्यस्थ उस (पति) के घराने से तथा एक मध्यस्थ उस (पत्नी) के घराने से नियुक्त करो, यदि वे दोनों संधि कराना चाहेंगे, तो अल्लाह उन दोनों के बीच संधि (समझौता) करा देगा। वास्तव में, अल्लाह अति ज्ञानी सर्वसूचित है।*

(क़ुरआन 4:35)

 

तलाक के इस पूरे प्रोसेस (प्रक्रिया) को संक्षिप्त में इन 6 पॉइंट में समझते हैं:-

1️⃣ अगर कोशिश करने पर भी सुलह ना हो सके और फिर भी तलाक चाहें तो उसका सही तरीक़ा यह है कि वह शख़्स अपनी बीवी को एक बार तलाक दे दे।

2️⃣ अब इसके बाद 3 माह (3 Menstrual Cycle) इद्दत का वक़्त है इस दौरान भी अगर पति पत्नी में बात बनती है उनका मन बदलता है तो वह फिर रूजू (साथ रहना) कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ़ गवाहों को इत्तेला (सूचित) करना होगा कि हमारा निबाह हो गया है।

3️⃣ लेकिन 3 माह गुज़र जाने पर भी उनका तलाक का इरादा क़ायम रहा तो अब तलाक हो गई और वह दोनों एक दूसरे के निकाह से निकल गए।

4️⃣ इस के बाद भी अगर भविष्य में वे फ़िर से एक साथ रहना चाहे तो रह सकते हैं। पर इसके लिए उन्हें दोबारा से निकाह करना होगा और इसमें कोई रोक नहीं।

5️⃣ मान लीजिये अगर दोबारा निकाह हुआ और फिर से उनके बीच तलाक की नौबत होती है तो फिर वही प्रक्रिया है, पहले सुलह कि कोशिश फिर ऊपर बताई प्रक्रिया 1-4 अनुसार।

6️⃣ ऐसा ही दूसरी बार भी हो सकता है यह दूसरा तलाक होगा। अब अगर उसके बाद फिर निकाह हो गया लेकिन फिर तीसरी बार यही नौबत आ गई तो अब तीसरी बार के बाद यह प्रक्रिया और नहीं दोहराई जा सकती।

 

ऐसा इसलिए है क्योंकि शादी, सुलह की कोशिशें और तलाक कोई मज़ाक और खेल नहीं है जो जीवन भर दोहराया जाता रहे। इसलिये इसकी हद क़ायम करना ज़रूरी है ताकि इसकी अहमियत बनी रहे। लिहाज़ा अगर 3 बार यह तलाक की प्रक्रिया हो गई तो अब उस आदमी के लिए वह औरत हराम (वर्जित) हो गई अब वह उससे निकाह नहीं कर सकता।

तलाक की यह हद (3 बार) इसलिए भी मुक़र्रर की गई ताकि औरत को ऐसे ज़ालिम से छुटकारा मिल सके जो उसे बार-बार निकाह में लेकर तलाक दे रहा हो और उसे क़ैद में रख उसकी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा हो। जैसा इस्लाम आने से पहले किया जाता था क्योंकि तब तलाक की कोई हद मुक़र्रर नहीं थी।

 

अब यह तलाक हो जाने के बाद औरत किसी और व्यक्ति से शादी करें और अपना जीवन बसर करें। इस्लाम में तलाक औरत के लिए ज़िंदगी का खात्मा (End of Life) नहीं है कि तलाक शुदा औरत अब समाज से कटकर अकेली और दुःख भरी ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हो। बल्कि इस्लाम तो यह हुक्म देता है कि “तलाकशुदा औरत के निकाह में जल्दी करो” ताकि वह एक सामान्य जीवन जी सके।

अगर कभी जीवन में फिर उस औरत के दूसरे पति का देहाँत हो जाता है या उस पति से स्वभाविक रुप से तलाक हो जाता है। तब वह अपने पहले पति से फिर निकाह कर सकती है क्योंकि अब वह अब अपने पहले शौहर के लिए हराम नहीं रही।

 

इस पूरी तफसील से यह बात समझ में आ गई होगी कि हलाला कोई कानून और प्रक्रिया (Procedure) नहीं है बल्कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया (Natural Process) है।

जिस की सम्भवतः कभी नौबत ही ना आए क्योंकि यह ज़रूरी नहीं कि औरत के दूसरे पति का देहाँत हो जाएगा या उस से भी तलाक होगा। चूंकि वह अब अपने पहले शौहर के लिए हलाल (शादी जाइज़) हो गई इसलिए इस प्रोसेस को हलाला कह दिया जाता है।

इस कि मिसाल यह है कि अगर किसी को ठंड के मौसम में बताया जाए कि फलाँ काम बारिश का मौसम आने पर करना है। अब स्वाभाविक है कि ठंड का मौसम गुजरेगा, फिर गर्मी का मौसम आएगा फिर 8 माह गुज़रने पर बारिश में यह काम करने का वक़्त आएगा। अब वह व्यक्ति यह करें कि ठंड में ही शॉवर चालू कर के कहने लगे कि बारिश आ गई और उक्त काम कर ले। तो ना तो वह काम होगा साथ ही ऐसे व्यक्ति को नासमझ ही कहा जायेगा।

यही बात हलाला के मामले में है यह कोई  प्रक्रिया (Procedure) नहीं जिसे योजनाबद्ध (प्लान) कर के किया जा सके।

 

जैसे अगर कोई आदमी तीन तलाक के बाद अपनी बीवी का जानबूझकर किसी दूसरे आदमी से निकाह करवाता है ताकि बाद में वह उसको तलाक दे-दे और वह फिर से निकाह कर ले तो ऐसे लोगों पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सख्त लानत (भर्त्सना) की है। हजरत उमर ने एक बार मीमबर से यह ऐलान किया कि अगर मेरे पास कोई हलाला करने वाला लाया गया तो मैं उसे कोड़े लगाऊंगा। क्योंकि यह हराम काम है और एक तरह का ज़िना (व्यभिचार) है। इसकी इस्लाम में हरगिज़ कोई गुंजाइश नहीं हो सकती।

 

मीडिया ने तीन तलाक और हलाले का इस तरह दुष्प्रचार किया है कि उसको देख कर लगता है जैसे हर मुसलमान आदमी अपनी बीवी को तीन तलाक देता है और उसका हलाला करवाता है। हालांकि इसे इस्लाम की खूबी कहिए कि मुसलमानों में तलाक की दर सबसे कम है। अगर तलाक की कहीं ज़रूरत पड़ती भी है तो उसका भी बहुत बेहतर तरीक़ा इस्लाम में है और औरत के हक़ की हिफाज़त कर, तलाक के ज़रिये ज़ुल्म से निजात का रास्ता देता है। जबकि कई धर्मों में तो तलाक का कोई प्रावधान ही नहीं है एक बार शादी हो गई तो जीवन भर पति की दासी बनी रहे फिर चाहे पति कुछ भी करें।

 

हलाला जैसा इस्लाम में ना कोई कानून है ना कोई प्रावधान। जानबूझकर हलाला करने जैसी गंदी चीज का मुसलमानों से कोई ताल्लुक नहीं है। फिर भी इस्लाम का दुष्प्रचार करने के लिए इस तरह की बातें की जाती हैं।

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