भारत में इस्लाम कैसे फैला- सूफी सन्त एक सच्चाई।*
जैसा कि हमने पिछली पोस्टो में देखा कि यह तथ्य बिल्कुल निराधार है कि भारत में इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़ुल्म से फैला। विख्यात विद्वानों जैसे स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर इस सोच और विचार को ही बड़ी मूर्खतापूर्ण बताया है। क्योंकि यह बात बिल्कुल असम्भव है कि किसी की सोच को डंडे / तलवार कि ज़ोर से हमेशा के लिए बदल दिया जाए और उसे किसी और धर्म या व्यवस्था को मानने के लिए मजबूर कर दिया जाए।
अगर कुछ समय के लिए यह बलपूर्वक कर भी दिया जाए तो उनकी नस्ले ज़रूर बग़ावत कर देती है और उस थोपी हुई व्यवस्था का ज़रूर तिरस्कार कर देती हैं। जैसे भारत में आदिवासी / बहुजन समाज और यूरोप में अश्वेत आदि के मामले में हम देखते हैं। जबकि इस्लाम के मामले में ऐसा नहीं है। आज भी नस्ल दर नस्ल मुस्लिम अपने धर्म को आत्मसात किये हुए हैं और आज भी इस्लाम कबूल करने वालों की तादाद दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। साथ ही अगर मुस्लिम बादशाह ज़बरदस्ती किसी को मुसलमान करते तो दिल्ली में मुसलमान कभी अल्पसंख्यक नहीं होते।
फिर भी झूठा प्रचार (प्रोपेगेंडा) करने वाले लोग यह दुष्प्रचार करते रहते हैं कि भारत में इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़रिए आया, जब कि अगर हम इतिहास पर नज़र डालें तो भारत में इस्लाम 627 यानी 1391 साल पहले से ही मौजूद है, जो कि मोहम्मद बिन क़ासिम से 90 साल, महमूद गज़नवी से 400 साल और मुगलो से 900 साल पहले ही सूफी सन्तों के द्वारा पहुँच गया था।
सूफी सन्तों की जन कल्याण, मानवता, समानता, न्याय, परोपकार ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत होने और पारलौकिक जीवन की इस्लामी शिक्षाओं और अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग समुदाय के समुदाय इस्लाम धर्म अपनाते रहे।
जैसा ऊपर बताया गया इसकी शुरुआत सन् 627 के आसपास ही हुई। सन् 629 में पहली मस्जिद की स्थापना हुई जिसे केरल के राजा चेरामन पेरुमल ने करवाई और लोगों के व्यापक रूप से इस्लाम कबूल करने पर उन्होंने अलवर तट पर 11 मस्जिदों की स्थापना की थी।
इसके बाद निरतंर सूफी संतों और इस्लामिक प्रचारकों की शिक्षा से प्रेरित होकर इस्लाम का प्रसार भारत में होता रहा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग सन्त मशहूर हुए। कई के स्थान तो आज भी मौजूद हैं। जैसे
मदुरै और तिरुचिन्नापल्ली में *हज़रत नाथडोली* की वज़ह से इस्लाम फैला। वे एक तुर्की शहज़ादे थे और राज्य छोड़कर संन्यासी / दरवेश बन गए और अरब देश, ईरान और उत्तर भारत का भ्रमण करते हुए तिरुचिन्नापल्ली पहुँचे एवं अपने जुहद, इबादत और अख़्लाक़ / अच्छे व्यवहार से वहाँ के लोगों को ऐसा प्रभावित किया कि बहुत से हिंदुओं ने उनके हाथ पर इस्लाम कुबूल कर लिया।
समाज में छूत-अछूत में बंटे और शोषित लोगों ने इस्लाम में सम्मान और ईश्वरीय आदेश देखते ही इस्लाम कबूल किया। उनका मज़ार भी तिरुचिन्नापल्ली में है।
उनके जानशीन / उत्तराधिकारी *सय्यद इब्राहीम शहीद* तो अपने व्यक्तित्व से लोगों में इतने सम्माननीय और प्रिय हुए की बारह बरस तक उस इलाके कि प्रजा ने उन्हें बादशाह भी बना के रखा।
*हज़रत नाथडोली* के एक मुरीद (शिष्य) *बाबा फ़क़द्दीन* से प्रभावित होकर पेनूकोंडा के राजा मुसलमान बन गये।
ऐसे ही मदुरै में *हज़रत अली बादशाह* के ज़रिए इस्लाम फैला, जो 11 सदी ई. में बग़दाद से *बाबा रेहान* की एक जमाअत / काफिला के साथ भड़ौच आए और वहाँ के राजा का लड़का इस्लाम की सच्चाई से प्रभावित होकर मुसलमान हो गया।
*नूरुद्दीन सतानगर* से इस्लाम के बारे में जानकर गुजरात के कम्बपों, कोरियों, खारवाओं मुसलमान हुए।
आगे चलकर अरब प्रचारकों में एक प्रचारक *पीर महावीर खन्दायत* के नाम से मशहूर हुए, जिनके प्रभाव से बीजापुर के किसानो ने इस्लाम धर्म अपनाया।
फिर चौदहवीं सदी में *हज़रत ख्वाजा गेसू दराज़ (रह.)* पूना और बेलगाम में इस्लाम फैलने का ज़रिया बने।
इसी तरह कोंकण में *हज़रत अब्दुल कादिर जीलानी (रह.)* की नस्ल के एक बुज़ुर्ग शेख *बाबा अजब* के व्यक्तित्व से इस्लाम फैला।
दहवार के जिलों में *हज़रत हाशिम पीर गुजराती* के ज़रिए इस्लाम फैला। सतारा के इलाके में एक नव मुस्लिम *पीर शम्बूरापाकोशी* ने वहाँ के लोगों तक इस्लाम की शिक्षा पहुँचाई, जिसके ज़रिए लोग बड़ी तादाद में मुस्लिम हुए।
12 सदी ई. में एक बुर्जुग / सिद्ध पुरुष *सय्यद अहमद सुल्तान सख़ी सरवर* जो *लखीदाता* के नाम से मशहूर हैं, ने शाहकोट जो मुल्तान के पास है, में आकर बसे और हिंदू-मुसलमान दोनों उनके मुरीद हो गए। उनके मानने वाले सुल्तानी कहलाते हैं और पंजाब खासतौर से जालंधर में बहुत हैं।
राजस्थान में *हज़रत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (रह.)* के बारे में उल्लेख की ज़रूरत ही नहीं। उनकी शिक्षाओं और व्यक्तित्व के ज़रिए तो अनगिनत लोगों ने इस्लाम कुबूल किया और केवल दिल्ली से अजमेर के रास्ते में उनके व्यवहार से सात सौ हिंदुओं ने इस्लाम कुबूल किया था।
पंजाब का पश्चिमी हिस्सा जहाँ *हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी (रह.)* और *हज़रत फ़रीदुद्दीन गंजशकर* (मृत्यु 1265 ई०) से लोगों ने इस्लाम कुबूल किया। *जवाहिरे फ़रीदी* में है कि *बाबा गंजशकर* कि शिक्षा व नसीहत से पंजाब की ग्यारह कौम / समाज मुसलमान हुए।
*हज़रत बूअली कलन्दर* के ज़रिए पानीपत में तीन सौ राजपूतों ने इस्लाम धर्म कबूल किया। ज़ाहिर है कि निहत्थे सूफी सन्त किस तरह राजा-राजपूतो को ज़बरदस्ती इस्लाम कबूल करा सकते थे? निश्चय ही उन्होंने अपने मन से इस्लाम को ईश्वरीय धर्म जानकर अपनाया औऱ आज भी उनके मुस्लिम वंशज मिल जाएंगे।
कश्मीर में *शाह मिर्ज़ा बुलबुल शाह*, *शाह सय्यद अली हम्दानी* और *मीर शम्सुद्दीन इराकी* की वज़ह से इस्लाम को बढ़ावा मिला। बिहार में *फिरदौसिया* सिलसिले के बुज़ुर्ग / सन्त से इस्लाम का ख़ूब प्रसार हुआ।
पन्द्रहवीं सदी ईस्वी में जब बंगाल के राजा *कंस* के बेटे *जटमल* ने इस्लाम कुबूल किया तो उस के असर से बहुत से हिन्दू, मुसलमान हो गये, वहाँ आमतौर से मुसलमान कहत (अकाल) के समय में हिंदुओं के बच्चों का लालन-पालन और उनकी शिक्षा दिक्षा करते, जिससे प्रभावित होकर लोग मुसलमान हो गए।
जब *हज़रत निज़ामुद्दीन ख़लीफ़ा शेख* *अख़ी सिराजुद्दीन* (मृत्यु 1357) और उन के ख़लीफ़ा (गुरु) *शेख अलाउल्हक* (मृत्यु 1368) ने बंगाल में रहे तो एकेश्वरवाद (तौहीद) और ईशदूत (पैगम्बर) कि शिक्षा के साथ-साथ इस्लामी भाई-चारे को भी फैलाया, जिससे वहाँ के हिंदू इस्लाम में दाखिल होते रहे।
*सिलहट* में *शेख़ शहाबुद्दीन सहरवर्दी (रह.)* के मुरीद और *हज़रत बहाउद्दीन जकरिया मुल्तानी (रह.)* के पीर भाई *शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी* (मृत्यु 1225 ई०) इस्लाम का प्रचार-प्रसार करते रहें जिससे लोग मुसलमान होते रहे।
इसके अलावा भी कई प्रांतों में इस तरह इस्लाम धर्म पहुँचा और यही वज़ह है कि आज भी जिनके पूर्वजों ने इस्लाम अपनाया, वे स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं और इसे आत्मसात किए हुए हैं। यह कहना कि इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़ुल्म से फैला, एक झूठ के सिवा कुछ नहीं है।