Category: इतिहास से जुड़ी ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • मुस्लिम और राजनीती।

    मुस्लिम और राजनीती।

    जवाब:- मुस्लिमों के अक्सर जवाब ना देने और चुप्पी की वज़ह से झूठ और नफ़रत फैलाने वालों का दुस्साहस इतना बढ़ चुका है कि जो आँकड़े और तथ्य ख़ुद उनके ख़िलाफ़ हैं उनको भी वे मुस्लिमों के ख़िलाफ नफ़रत फैलाने में इस्तेमाल कर रहें हैं, जिसका सबसे बेहतरीन नमूना यह पोस्ट ख़ुद है, देखें:-👇

    ❗ जब धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाते हुए कहा जा रहा है कि जहाँ 65% से अधिक मुस्लिम हैं वहाँ से कोई हिन्दू सांसद या विधायक नहीं है। *अगर ऐसे ही देखा जाना है तो बताएं जहाँ 65% से अधिक हिन्दू हैं वहाँ से क्या एक भी मुस्लिम सांसद है?*

    ❗ इसी तरह जब कुछ एक मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम सांसद होने पर मुस्लिमों के धर्मनिरपेक्ष होने पर सवाल उठाया जा रहा है, तब आप इसी तरह उन 500 से ज़्यादा सांसदों के बारे में क्या कहेंगे जो हिन्दू हैं और हिन्दू बहुल इलाकों से है??

    वाह कमाल की सेलेक्टिव अप्रोच और कमाल की ब्रेन वाशिंग टेक्निक है।

    ❗ देश में 15% मुस्लिम होने के बावजूद संसद में उनकी भागीदारी 5% से भी कम क्यों है?

    ❗ यह आंकड़े किसकी पंथ निरपेक्षता पर सवाल खड़े करते हैं? हिन्दूओ कि या मुस्लिमों की??? 🤔

    ❗ क्यों किसी भी प्रदेश का मुख्यमंत्री मुस्लिम नहीं है?

    ❗ 15% मुस्लिम हमेशा 85% हिन्दू नेताओ सांसदों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को 70 सालों से चुनते आ रहे हैं? कभी 85% वालों ने किसी मुस्लिम को चुनने की क्यों नहीं सोची?

    यह आँकड़े किसकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाते हैं? हिंदुओं की या मुसलमानों की?

    इन सभी के बाद भी मुस्लिमों ने कभी कोई शिकायत नहीं कि लेकिन अब जब यहाँ तो ख़ुद उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली बात का प्रदर्शन हो रहा है। तब इन सवालों को उठाना ज़रूरी हुआ। साथ ही मुस्लिमों को यह भी देख लेना चाहिए कि चुप रहने और झूठ को फैलने देने से क्या परिणाम होते हैं।

  • साइंस ने इल्म ए ग़ैब कैसे बता दिया?

    साइंस ने इल्म ए ग़ैब कैसे बता दिया?

    जवाब:-निःसंदेह, अल्लाह ही के पास है प्रलय का ज्ञान, वही उतारता है वर्षा और जानता है जो कुछ गर्भाशयों में है और नहीं जानता कोई प्राणी कि कल वह क्या कमायेगा और नहीं जानता कोई प्राणी कि किस धरती में मरेगा। वास्तव में, अल्लाह ही सब कुछ जानने वाला, सबसे सूचित है।

    (सुरः लुक़मान आयत 34)

     

    बेशक अल्लाह ही सभी ज़ाहिर और छुपी बातों को जानने वाला है। तमाम इल्म उसी का है। उसके इल्म से किसी के इल्म की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि जिसको जितना भी ज्ञान है वह अल्लाह का अता किया हुआ ही है और अल्लाह के मुकाबले में कुछ भी नहीं है।

     

    मिसाल के तौर पर कुछ सदियों पहले तक इंसान को तो इस दुनियाँ के सुदूर इलाको के बारे में ही नहीं पता था, फिर अल्लाह के दिये हुए इल्म और सोचने समझने और नई चीज़ ईजाद करने की शक्ति का इस्तेमाल किया।

     

    जिस के बारे में ख़ुद अल्लाह ने क़ुरआन में इंसानो को प्रेरित किया है

     

    ..वास्तव में, इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं, उनके लिए, जो सोच-विचार करें।

    (क़ुरआन 45:13)

     

    और इसी सोच विचार करने की शक्ति और अल्लाह के दिये इल्म का इस्तेमाल कर हमने दुनियाँ के बारे में जाना और उस से आगे बढ़ते हुए आज के दौर में हम इस सौर मंडल के कुछ ग्रहों के बारे में थोड़ा कुछ मालूमात कर पाए हैं। लेकिन यदि हम अपनी इस मालूमात की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसमें मौजूद अनगिनत ग्रह आदि के ज्ञान से करें तो हमारा आज का ज्ञान भी कुछ नहीं है।

     

    जबकि दूसरी तरफ़ अल्लाह ने तो इस सम्पूर्ण कायनात को बनाया इस ब्रह्माण्ड के परे और क्या-क्या है कितनी सजीव, निर्जीव रचनाएँ हैं उन सब को बनाया और वह इसके कण-कण का ज्ञान रखता है।

     

    ऐसा नहीं है कि इंसान कुछ जानता ही नहीं है। लेकिन इंसान के जानने और अल्लाह का जानने में बहुत फ़र्क़ है। जहाँ अल्लाह का किसी के भी बारे में जानना (पता होना) कुल का कुल (पूरा का पूरा है) है, असीम है, सम्पूर्ण है। वहीं इंसान का जानना आंशिक है, अनिश्चित है।

     

    इस तरह उपर्युक्त आयात में फ़रमाया “अल्लाह जानता है जो कुछ गर्भाशयों में है”

     

    अर्थात अल्लाह संपूर्ण बातें जानता है जो कुछ गर्भाशय में है उसके बारे में उसे तमाम मालूमात है फिर चाहे वह होने वाले शिशु का लिंग हो, उसका रंग रूप हो, जीवित अवस्था में जन्म लेगा या गर्भपात होगा, किस दिन, किस क्षण पैदा होगा उसके कर्म कैसे होंगे, उसकी आयु कितनी होगी, उसके गुण क्या होंगे, कुल का नाश करेगा या उद्धार करेगा, कहाँ रहेगा कहाँ मृत्यु को प्राप्त होगा यहाँ तक जीवन से लेकर जीवन उपरांत तक सभी बातों का कुल का कुल ज्ञान अल्लाह को है और वह यह सब कुछ जानता है।

     

    अब यहाँ हम अगर इसकी तुलना इंसानों के जानने और उनकी मालूमात से करें तो आज के दौर में भी डॉक्टर ज़्यादा से ज़्यादा भ्रूण का लिंग पता कर सकते हैं या थोड़ा और कुछ वह भी जो गर्भावस्था का एक अंतराल गुज़र जाने के बाद, उसमें भी उन्हें कई चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है, इसके बाद भी कई बार गलती का इम्कान (संभावना) होता है। इस विषय में जानने के लिए अनगिनत बातें और भी हैं जैसे कुछ ऊपर बताई गई आयु, गुण, कर्म, जीवन, मरण इत्यादि।

     

    दरअसल ऊपर बताई मिसाल की तरह पहले तो इंसान को गर्भ के बारे में कुछ इल्म ही नहीं था, अब जाकर अल्लाह के दिये इल्म का इस्तेमाल कर वह थोड़ा कुछ जानने में समर्थ हुआ है लेकिन उसका इस बारे में भी जानना आज भी अल्लाह के जानने के मुकाबले में शून्य ही है और हमेशा शून्य रहेगा।

     

    वास्तव में अल्लाह ही है जो यह सब जानता है और वे बातें भी जो गर्भाशय में है और हमारे इल्म से बाहर हैं या जिस तरफ़ अभी हमारा ध्यान ही नहीं हो। उसके अलावा कोई और यह सब जानने की कल्पना करना तो दूर इसमें कितने विषय और बातें हैं जानने के लिए, इस बात की गणना भी नहीं कर सकता।

     

    और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं। उन्हें केवल वही जानता है तथा जो कुछ थल और जल में है, वह सबका ज्ञान रखता है और कोई पत्ता नहीं गिरता परन्तु उसे वह जानता है और न कोई अन्न, जो धरती के अंधेरों में हो और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा) है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में है।

    (क़ुरआन 6:59)

  • सेना में मुस्लिम रेजिमेंट क्योँ नहीं?

    सेना में मुस्लिम रेजिमेंट क्योँ नहीं?

    जवाब:- यह वायरल विडियो पूरी तरह फेक है और सेना ने इस झूठी बात का पूर्ण रूप से खण्डन कर दिया है और इसे बिल्कुल झूठी बताते हुए कहा है कि इस तरह की कभी कोई घटना नहीं हुई।

     

    अपितु 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच जो युद्ध हुआ था जिसकी बात यहाँ की जा रही है, उसके सबसे बड़े हीरो ही अब्दुल हमीद थे। पाकिस्तान के टैंक ब्रिगेड को पस्त करने वाले बहादुर सैनिक अब्दुल हमीद को उनके शौर्य के लिए मरणोपरांत *देश के सबसे बड़े मेडल परम वीर चक्र से नवाजा गया था।

     

    अब्दुल हमीद ने अपनी जीप पर लगी एक मामूली रिकोएल गन से ही पाकिस्तान के एक के बाद एक चार टैंकों को ध्वस्त कर दिया था। अब्दुल हमीद के हमले से पाकिस्तानी सेना ऐसी घबराई कि अपने टैंक तक भारत की सीमा में छोड़कर भाग खड़ी हुई थी।

     

    उन्ही वीर अब्दुल हमीद की कब्र पर मोदी, प्रधानमंत्री बनते ही माथा टेकने पहुँचे थे ।

     

    इस झूठी विडियो के बारे में रिटायर्ड कर्नल तेज टिक्कू ने कहा कि :

    ‘’विडियो में जो दिखाया गया है वह बिल्कुल बेबुनियाद है और किसी मकसद से डाला गया है. इसमें कोई सच्चाई नहीं है.’

     

    वहीं, रिटायर्ड मेजर जनरल सतबीर सिंह ने कहा कि जो ऐसा कह रहा है वह पाप है।

     

    रिटायर्ड मेजर जनरल सतबीर सिंह ने बताया कि जब जवान देश के लिए सेना में एक साथ होते हैं तो उनके बीच कोई धर्म कोई जाति नहीं होती सिर्फ़ एक चीज होती है और वह है देश की रक्षा।

     

    आगे बताया गया कि देश में धर्म के नाम पर कोई रेजिमेंट ही नहीं है, सिर्फ़ मुस्लिम नहीं बल्कि सेना में कोई हिन्दू रेजिमेंट, क्रिस्चियन रेजिमेंट आदि नाम से कोई रेजिमेंट नहीँ हैं। सिर्फ़ सिख रेजिमेंट भी इसलिए बनी क्योंकि ये सिख राजाओं की देन थी, इसलिए उसे ब्रिटिश काल में इसी नाम से जोड़ा गया और जितनी भी रेजिमेंट हैं वह जाति के नाम पर अंग्रेजों द्वारा बनाई गई थी जिन में कोई बदलाव नहीं किया गया है।

     

    सेना में आज भी कई रेजिमेंट हैं जिनमे सिर्फ़ मुस्लिम हैं या अधिकांश मुस्लिम हैं इसलिए इस तरह के झूठ पर विश्वास कर देश की अखंडता के दुश्मन ना बने। ख़ास तौर पर ऐसे समय में जब सीमा पर भारी तनाव चल रहा है और हमारे सैनिक मज़बूती से डटे हैं।

     

    *पूरी ख़बर जानने के लिए पढ़ें एबीपी न्यूज़ की पड़ताल* 👇

     

    https://www.abplive.com/news/india/viral-sach-of-muslim-regiment-in-the-indian-army-716148

     

  • बनु क़ुरैज़ा” के लोगों को क़त्ल करने का फैसला क्यों दिया?

    बनु क़ुरैज़ा” के लोगों को क़त्ल करने का फैसला क्यों दिया?

    शांति का मज़हब होने का मतलब यह नहीं है कि अपराधियों और दुष्टों को सज़ा ना दी जाए बल्कि शान्ति क़ायम रखने के किए अपराधियों को सज़ा देना ज़रूरी है। बनु क़ुरैज़ा के मर्दों को देशद्रोह, विश्वासघात और मदीना के तमाम मुसलमानों के क़त्ल की साज़िश के जुर्म में क़त्ल की सज़ा दी गई थी।

    संक्षेप में मामला यह था :-

    जब नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम मुसलमानों के साथ मक्का के गैर मुस्लिमों के ज़ुल्म और सितम से मजबूर होकर मदीना वालो के आमंत्रण पर मक्का से मदीना तशरीफ़ ले गए तब मदीना के लोगों ने मुसलमानों का इस्तकबाल किया, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना पहुँचने पर वहाँ मौजूद मदीने के मुस्लिम कबीलों और मक्का के मुस्लिमो में भाईचारा क़ायम हो गया वहाँ के मुस्लिम कबीले जिनमे इस्लाम आने से पूर्व मतभेद थे वे सभी दूर हो गए।

    उस समय कोई मुल्की या मिलिट्री निज़ाम तो नहीं हुआ करता था और सभी की सुरक्षा एक बड़ी फिक्र थी। उस वक्त मदीना में मुस्लिमो के अलावा तीन यहूदी कबीले भी मौजूद थे। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके साथ भी समझौते किये और सभी ने मिलकर आपस में संधि (Alliance) की कि सब मिलकर मदीना की हिफाज़त करेंगे। तुम्हारा दुश्मन हमारा दुश्मन होगा और हम तुम्हारी तुम्हारे दुश्मनों के खिलाफ मदद करेंगे और हमारा दुश्मन तुम्हारा दुश्मन होगा और तुम्हें हमारी हमारे दुश्मनों के खिलाफ मदद करना होगी। इसके अलावा भी कई समझौते हुए।

     

    उन सभी समझौते का मुसलमानों ने बड़ी दृढ़ता से पालन किया। मगर इसके उलट यहूदियों ने हमेशा मदीने की हुक़ूमत के साथ गद्दारी की और दुश्मनों का ही साथ दिया।

     

    जैसे मक्का के दुश्मनों ने जब पहली बार मुसलमानों पर हमला किया उस समय यहूदियों के एक कबीले ने मुसलमानों के साथ गद्दारी की और दुश्मनों का साथ दिया। यह इतना बड़ा जुर्म था कि उन के हर व्यक्ति को फाँसी की सजा मिलनी चाहिए थी मगर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनको माफ़ कर दिया और जिला वतन कर दिया। दूसरी लड़ाई के बाद यहूदियों के दूसरे कबीले ने गद्दारी की इस बार भी आपने उन्हें माफ़ करके जिला वतन कर दिया।

     

    लेकिन इसके बाद जब गजवा-ए-खंदक हुआ और मक्का के दुश्मनों के साथ अरब के और भी बहुत सारे कबीले मुसलमानों पर हमला करने के लिए मदीना आए तो मुसलमानों ने उनसे बचने के लिए मदीना के आसपास खंदक (गहरी खाई) खोदी। यह एक बहुत ही बड़ा हमला था और उस वक्त मुसलमानों की संख्या दुश्मन के मुकाबले में बहुत थोड़ी थी। मदीना के हालात भी बहुत सख़्त थे और हर व्यक्ति की जान पर पड़ी थी। ऐसे नाज़ुक वक्त में बनु क़ुरैज़ा के यहूदियों ने दुश्मनों के साथ ना सिर्फ हाथ मिलाया और मुसलमानों की पीठ में खंज़र घोंपने का काम किया बल्कि तमाम षडयंत्रों के साथ तमाम मुस्लिमो का कत्ले के आम हो जाने का पूरा मंसूबा बनाया जैसे ना केवल वे दुश्मनों की मदद करेंगे बल्कि जब वे बाहर से हमलावर होंगे तो यह अंदर से घात करेंगे ताकि मुसलमान दोनों तरफ से घिर जाए और उनके बचने की कोई शक्ल ना बचे। दुश्मनों के साथ मिलकर उन्होंने मुसलमानों पर हमले की साज़िश की। मगर अल्लाह तआला ने उनकी तमाम साजिशों को किसी तरह नाकाम कर दिया। इस भयानक साज़िश का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त उन्होने डेढ़ हजार तलवारे, दो हजार भाले, 300 जिरह ( लोहे का सूट जिसे जंग में पहना जाता है) 500 ढालें मुसलमानों से लड़ने के लिए तैयार कर रखी थी। जबकि चोला दोस्ती (Alliance) का पहन रखा था ।

     

    इसको आप यूँ समझे कि भारत के चाइना से अगर लड़ाई चल रही हो और भारत के किसी शहर के लोग चाइना की मदद करते हुए पीछे से भारतीय फौज पर हमला करें दुश्मनों से मिलकर उन्हें ख़त्म करने की साज़िश करे तो उन्हें क्या सज़ा मिलना चाहिए? क्या उन्हें फाँसी और क़त्ल से बढ़कर सजा नहीं मिलनी चाहिए?

     

    आज भी किसी भी देश के कानून में सिर्फ देशद्रोह करना या दुश्मन से गुप्त सूचना साझा करना ही मौत की सज़ा की श्रेणी में आता है। तो अगर कोई इस से भी बढ़कर सूचना साझा करना तो छोड़िए बल्कि दुश्मन से मिलकर विश्वासघात करे, पीठ पीछे हमले की साज़िश करे अपने लोगों की मृत्यु सुनिश्चित करे तो उसकी क्या सज़ा होना चाहिए ?

     

    यही काम बनु क़ुरैज़ा वालों ने भी किया। इसलिए बनु क़ुरैज़ा के सभी बालिग मर्दों को क़त्ल की सज़ा दी गई।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि वे इस सज़ा से अंजान थे बल्कि अपना अपराध और उसकी सज़ा से वे भली भांति परिचित थे। तभी इस संदर्भ में जब मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपराधियों से पूछा कि क्या इस मामले में तुम्हें सा’द इब्ने मुआज़ का फैसला कबूल होगा? (सा’द इब्ने मुआज़ जो की यहूदियों के ख़ास मित्र कबीले औस के सरदार थे) तो सभी ने कहा हाँ हमे कबुल होगा।

     

    तब सा’द इब्ने मुआज़ ने उन्हें क़त्ल का फैसला सुनाया जिसे उन्होंने कबूल किया क्योंकि इस संगीन जुर्म की सज़ा यही है और यह ख़ुद यहूदियों की किताब Deuteronomy 20: 12 में भी दर्ज है और आज भी किसी भी देश के कानून में इसकी यही सज़ा होगी। इसे मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की भी स्वीकृति मिली।

     

    इस घटना / वाकिये से नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम के इंतिहाई रहम दिल और दयालु होने का भी पता चलता है। क्योंकि जब यहूदियों ने पहली बार गद्दारी की थी तो आप जानते थे कि अगर इनको इसी तरह खुला छोड़ दिया तो यह हमारे खिलाफ दोबारा साज़िश करने लगेंगे। लेकिन फिर भी उन्होंने उन्हें माफ़ किया और सज़ा-ए-मौत के बजाए सिर्फ जिला वतन किया। यही उन्होंने दूसरी बार भी किया। मगर बनु क़ुरैज़ा ने इस से ना कोई नसीहत हासिल की ना स्वयं को सुधारा बल्कि उल्टा वे तो अपनी साज़िश और षड्यंत्र में और आगे बढ़ गए अतः उनका जुर्म भी बहुत ज़्यादा बड़ा और जान बूझ के किया हुआ था। इसलिए उन्हें मौत की सज़ा दी गई।

     

    उसी तरह *कअब बिन अशरफ* भी एक अपराधी था। शायर होने का ये मतलब नहीं की वह कोई मोतबर शख्सियत था। जिस तरह से कुछ डॉक्टर, इंजीनियर भी अपराधी होते हैं और अपने पेशे का ही इस्तेमाल अपराध में कर देते हैं। उसी तरह कअब बिन अशरफ भी जंग भड़काने, लोगों को उकसाने और फितना करने में अपने पेशे का इस्तेमाल करता था। कई जंगे भड़काने और कई लोगों की मौत का ज़िम्मेदार था। उसके औऱ भी कई जुर्म थे जैसे जंग-ए-बदर के बाद मक्का वालो को फिर मुस्लिमों के साथ जंग के लिए उकसाना, मदीना में आकर मुसलमानों को उनकी महिलाओं आदि के बारे में आहत करने वाली बातें करना निरन्तर मुस्लिमो को मानसिक और शारीरिक यातना देने की कोशिशें करते रहना यहाँ तक कि आप मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के क़त्ल की साज़िश में भी शामिल था।

     

    अतः शांति स्थापित रखने के लिए यह ज़रूरी है कि अशांति फैलाने वाले फितना फसाद और जंग भड़काने वाले जघन्य अपराधियों को सख़्त सजा दी जाए ताकि दूसरों को भी नसीहत हो और तमाम फितना फसाद की कोशिश करने वाले अपनी हरकतों से बाज़ रहें। इसीलिए उसे भी उसके अपराध की सज़ा दी गई।

     

     

  • भारत में इस्लाम कैसे फैला?

    भारत में इस्लाम कैसे फैला?

    जैसा कि हमने पिछली पोस्टो में देखा कि यह तथ्य बिल्कुल निराधार है कि भारत में इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़ुल्म से फैला। विख्यात विद्वानों जैसे स्वामी विवेकानंद ने समय-समय पर इस सोच और विचार को ही बड़ी मूर्खतापूर्ण बताया है। क्योंकि यह बात बिल्कुल असम्भव है कि किसी की सोच को डंडे / तलवार कि ज़ोर से हमेशा के लिए बदल दिया जाए और उसे किसी और धर्म या व्यवस्था को मानने के लिए मजबूर कर दिया जाए।

     

    अगर कुछ समय के लिए यह बलपूर्वक कर भी दिया जाए तो उनकी नस्ले ज़रूर बग़ावत कर देती है और उस थोपी हुई व्यवस्था का ज़रूर तिरस्कार कर देती हैं। जैसे भारत में आदिवासी / बहुजन समाज और यूरोप में अश्वेत आदि के मामले में हम देखते हैं। जबकि इस्लाम के मामले में ऐसा नहीं है। आज भी नस्ल दर नस्ल मुस्लिम अपने धर्म को आत्मसात किये हुए हैं और आज भी इस्लाम कबूल करने वालों की तादाद दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। साथ ही अगर मुस्लिम बादशाह ज़बरदस्ती किसी को मुसलमान करते तो दिल्ली में मुसलमान कभी अल्पसंख्यक नहीं होते।

     

    फिर भी झूठा प्रचार (प्रोपेगेंडा) करने वाले लोग यह दुष्प्रचार करते रहते हैं कि भारत में इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़रिए आया, जब कि अगर हम इतिहास पर नज़र डालें तो भारत में इस्लाम 627 यानी 1391 साल पहले से ही मौजूद है, जो कि मोहम्मद बिन क़ासिम से 90 साल, महमूद गज़नवी से 400 साल और मुगलो से 900 साल पहले ही सूफी सन्तों के द्वारा पहुँच गया था।

     

    सूफी सन्तों की जन कल्याण, मानवता, समानता, न्याय, परोपकार ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत होने और पारलौकिक जीवन की इस्लामी शिक्षाओं और अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग समुदाय के समुदाय इस्लाम धर्म अपनाते रहे।

     

    जैसा ऊपर बताया गया इसकी शुरुआत सन् 627 के आसपास ही हुई। सन् 629 में पहली मस्जिद की स्थापना हुई जिसे केरल के राजा चेरामन पेरुमल ने करवाई और लोगों के व्यापक रूप से इस्लाम कबूल करने पर उन्होंने अलवर तट पर 11 मस्जिदों की स्थापना की थी।

     

    इसके बाद निरतंर सूफी संतों और इस्लामिक प्रचारकों की शिक्षा से प्रेरित होकर इस्लाम का प्रसार भारत में होता रहा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग सन्त मशहूर हुए। कई के स्थान तो आज भी मौजूद हैं। जैसे

     

    ▪️ मदुरै और तिरुचिन्नापल्ली में *हज़रत नाथडोली* की वज़ह से इस्लाम फैला। वे एक तुर्की शहज़ादे थे और राज्य छोड़कर संन्यासी / दरवेश बन गए और अरब देश, ईरान और उत्तर भारत का भ्रमण करते हुए तिरुचिन्नापल्ली पहुँचे एवं अपने जुहद, इबादत और अख़्लाक़ / अच्छे व्यवहार से वहाँ के लोगों को ऐसा प्रभावित किया कि बहुत से हिंदुओं ने उनके हाथ पर इस्लाम कुबूल कर लिया।

     

    समाज में छूत-अछूत में बंटे और शोषित लोगों ने इस्लाम में सम्मान और ईश्वरीय आदेश देखते ही इस्लाम कबूल किया। उनका मज़ार भी तिरुचिन्नापल्ली में है।

     

    ▪️ उनके जानशीन / उत्तराधिकारी *सय्यद इब्राहीम शहीद* तो अपने व्यक्तित्व से लोगों में इतने सम्माननीय और प्रिय हुए की बारह बरस तक उस इलाके कि प्रजा ने उन्हें बादशाह भी बना के रखा।

     

    ▪️ *हज़रत नाथडोली* के एक मुरीद (शिष्य) *बाबा फ़क़द्दीन* से प्रभावित होकर पेनूकोंडा के राजा मुसलमान बन गये।

     

    ▪️ ऐसे ही मदुरै में *हज़रत अली बादशाह* के ज़रिए इस्लाम फैला, जो 11 सदी ई. में बग़दाद से *बाबा रेहान* की एक जमाअत / काफिला के साथ भड़ौच आए और वहाँ के राजा का लड़का इस्लाम की सच्चाई से प्रभावित होकर मुसलमान हो गया।

     

    ▪️ *नूरुद्दीन सतानगर* से इस्लाम के बारे में जानकर गुजरात के कम्बपों, कोरियों, खारवाओं मुसलमान हुए।

     

    ▪️ आगे चलकर अरब प्रचारकों में एक प्रचारक *पीर महावीर खन्दायत* के नाम से मशहूर हुए, जिनके प्रभाव से बीजापुर के किसानो ने इस्लाम धर्म अपनाया।

     

    ▪️ फिर चौदहवीं सदी में *हज़रत ख्वाजा गेसू दराज़ (रह.)* पूना और बेलगाम में इस्लाम फैलने का ज़रिया बने।

     

    ▪️ इसी तरह कोंकण में *हज़रत अब्दुल कादिर जीलानी (रह.)* की नस्ल के एक बुज़ुर्ग शेख *बाबा अजब* के व्यक्तित्व से इस्लाम फैला।

     

    ▪️ दहवार के जिलों में *हज़रत हाशिम पीर गुजराती* के ज़रिए इस्लाम फैला। सतारा के इलाके में एक नव मुस्लिम *पीर शम्बूरापाकोशी* ने वहाँ के लोगों तक इस्लाम की शिक्षा पहुँचाई, जिसके ज़रिए लोग बड़ी तादाद में मुस्लिम हुए।

     

    ▪️ 12 सदी ई. में एक बुर्जुग / सिद्ध पुरुष *सय्यद अहमद सुल्तान सख़ी सरवर* जो *लखीदाता* के नाम से मशहूर हैं, ने शाहकोट जो मुल्तान के पास है, में आकर बसे और हिंदू-मुसलमान दोनों उनके मुरीद हो गए। उनके मानने वाले सुल्तानी कहलाते हैं और पंजाब खासतौर से जालंधर में बहुत हैं।

     

    ▪️ राजस्थान में *हज़रत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (रह.)* के बारे में उल्लेख की ज़रूरत ही नहीं। उनकी शिक्षाओं और व्यक्तित्व के ज़रिए तो अनगिनत लोगों ने इस्लाम कुबूल किया और केवल दिल्ली से अजमेर के रास्ते में उनके व्यवहार से सात सौ हिंदुओं ने इस्लाम कुबूल किया था।

     

    ▪️ पंजाब का पश्चिमी हिस्सा जहाँ *हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी (रह.)* और *हज़रत फ़रीदुद्दीन गंजशकर* (मृत्यु 1265 ई०) से लोगों ने इस्लाम कुबूल किया। *जवाहिरे फ़रीदी* में है कि *बाबा गंजशकर* कि शिक्षा व नसीहत से पंजाब की ग्यारह कौम / समाज मुसलमान हुए।

     

    ▪️ *हज़रत बूअली कलन्दर* के ज़रिए पानीपत में तीन सौ राजपूतों ने इस्लाम धर्म कबूल किया। ज़ाहिर है कि निहत्थे सूफी सन्त किस तरह राजा-राजपूतो को ज़बरदस्ती इस्लाम कबूल करा सकते थे? निश्चय ही उन्होंने अपने मन से इस्लाम को ईश्वरीय धर्म जानकर अपनाया औऱ आज भी उनके मुस्लिम वंशज मिल जाएंगे।

     

    ▪️ कश्मीर में *शाह मिर्ज़ा बुलबुल शाह*, *शाह सय्यद अली हम्दानी* और *मीर शम्सुद्दीन इराकी* की वज़ह से इस्लाम को बढ़ावा मिला। बिहार में *फिरदौसिया* सिलसिले के बुज़ुर्ग / सन्त से इस्लाम का ख़ूब प्रसार हुआ।

     

    ▪️ पन्द्रहवीं सदी ईस्वी में जब बंगाल के राजा *कंस* के बेटे *जटमल* ने इस्लाम कुबूल किया तो उस के असर से बहुत से हिन्दू, मुसलमान हो गये, वहाँ आमतौर से मुसलमान कहत (अकाल) के समय में हिंदुओं के बच्चों का लालन-पालन और उनकी शिक्षा दिक्षा करते, जिससे प्रभावित होकर लोग मुसलमान हो गए।

     

    ▪️ जब *हज़रत निज़ामुद्दीन ख़लीफ़ा शेख* *अख़ी सिराजुद्दीन* (मृत्यु 1357) और उन के ख़लीफ़ा (गुरु) *शेख अलाउल्हक* (मृत्यु 1368) ने बंगाल में रहे तो एकेश्वरवाद (तौहीद) और ईशदूत (पैगम्बर) कि शिक्षा के साथ-साथ इस्लामी भाई-चारे को भी फैलाया, जिससे वहाँ के हिंदू इस्लाम में दाखिल होते रहे।

     

    ▪️ *सिलहट* में *शेख़ शहाबुद्दीन सहरवर्दी (रह.)* के मुरीद और *हज़रत बहाउद्दीन जकरिया मुल्तानी (रह.)* के पीर भाई *शेख जलालुद्दीन तबरेज़ी* (मृत्यु 1225 ई०) इस्लाम का प्रचार-प्रसार करते रहें जिससे लोग मुसलमान होते रहे।

     

    इसके अलावा भी कई प्रांतों में इस तरह इस्लाम धर्म पहुँचा और यही वज़ह है कि आज भी जिनके पूर्वजों ने इस्लाम अपनाया, वे स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं और इसे आत्मसात किए हुए हैं। यह कहना कि इस्लाम आक्रमणकारियों के ज़ुल्म से फैला, एक झूठ के सिवा कुछ नहीं है।

  • क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    जवाब:इस तरह का दुष्प्रचार उन गैर मुस्लिम भाईयों के सवाल पर किया जाता है, जो क़ुरआन को समझने पर जिज्ञासावश क़ुरआन के बारे में अपने स्कॉलर से पूछते है। जिसका वे जवाब नहीं देना चाहते है।

     

    इस तरह के सवाल करने वालों से पहला सवाल ये है कि क़ुरआन कौनसी बाइबल से और कब नक़ल (Copy) हुआ?

    क्योंकि रोमन कैथोलिक के अनुसार बाइबल कि कुल 73 (46 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें हैं तथा प्रोटेस्टेंट के अनुसार बाइबल में केवल 66 (39 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें ही हैं। इन सभी किताबों में आपस में विरोधाभास / टकराव भी है। यहाँ तक कुछ ईसाईयों के मुताबिक जो किताबें बाइबल में शुमार हैं वह कुछ दूसरे ईसाईयों की नज़र में बाइबल ही नहीं है। दूसरी बात *पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम* उम्मी थे और क़ुरआन अरबी में है। जबकि बाइबल सबसे पहले 867ई में यानी 250 साल बाद अरबी में अनुवाद हुई है। बाइबल कि तरह क़ुरआन के कोई संस्करण (version) नहीं है। यानी पैग़म्बर ऐ इंसानियत पर जो आयत जिस रूप में पहले नाजिल हुई थी वह उसी रूप में आज भी है। यानी क़ुरआन पूरी दुनियाँ में कहीं भी पढ़ लो एक जैसा ही मिलेगा। ये चमत्कार सिर्फ़ क़ुरआन के साथ ही है। बाक़ी जितने भी ग्रन्थ है, सबमें मिलावट हो गई है। फिर सवाल ये उठता है कि बाइबल और क़ुरआन में समानता क्यों है..❓

     

    दरअसल यह सवाल ख़ुद में एक निशानी की तरह है और इस्लाम के बुनियादी पैगाम को समझने में मदद करता है।

     

    जैसा कि हम जानते हैं क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई आखरी किताब है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के आखिरी पैगम्बर और रसूल हैं। उनसे पहले भी अल्लाह ने दुनियाँ में कई पैग़म्बर और किताबें भेजी जैसे मूसा अलैहिस्सलाम को तौरात (Old Testament) दी, ईसा अलैहिस्सलाम को इंजील (New Testament) दी। यानी कि क़ुरआन से पहले भी कई ग्रन्थ अल्लाह ने भेजे हैं।

     

    (ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाज़िल की।

    (क़ुरआन 3:3)

     

    ऐसे ही विश्व की हर उम्मत के प्रति अल्लाह ने अपने पैगाम को भेजा और कोई उम्मत ऐसी नहीं गुज़री है जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला (सन्देष्टा /नबी /रसूल / ईश दूत) न आया हो।

    (क़ुरआन 35:24)

     

    क़ुरआन से पहले जितने भी ग्रन्थ आये है, चाहे आज वह अपने मूल रूप में मौजूद ना हो, लेकिन उनमें किसी दर्जे में कुछ मूल बाते मौजूद है। यही वज़ह है कि दुनियाँ के सभी प्रमुख ग्रँथों में इस्लाम के मूल सिद्धांत यानी कि एकेश्वरवाद की बात मिलती ही हैं। जो कि न केवल एक महत्वपूर्ण निशानी है बल्कि इस्लाम इसी की और निमंत्रित करता है ।

     

    (हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी हैं।

    (क़ुरआन 3:64)

     

    यानी क़ुरआन तो पुरानी किताबों की तस्दीक करते हुए आया है और इसका तो यह पैगाम है कि सभी उस बात की तरफ़ आये जो सभी पुरानी किताबों में भी मौजूद है।

     

    लेकिन क़ुरआन के अलावा आप दूसरे ग्रँथों में देखें तो आप पाएंगे कि इन मूल-सन्देश के अलावा भी विरोधाभास हैं जैसे बाइबल के पहले धर्मादेश (Commandment) में ही कहा गया कि “ईश्वर सिर्फ़ एक है”। लेकिन दूसरी जगह फिर कुछ और बातें हैं। ऐसा कई विषयों में है।

     

    अब अगर क़ुरआन किसी ग्रन्थ से कॉपी किया गया होता तो जो विरोधाभास बाइबल या दूसरे ग्रन्थों में है, वह विरोधाभास क़ुरआन में भी होना चाहिए थे।

     

    “क्या वे क़ुरआन में सोच–विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सा विरोधाभास / बदलाव पाते”।

    (सूरह निसा 4, आयत 82)

     

    इसके अलावा अगर हम साइंस की रोशनी में देखें तो क़ुरआन में कई विस्मयकारी जानकारी हमें मिलती हैं जिससे क़ुरआन का ईश्वरीय ग्रन्थ होना साबित होता है। कुछ जानकारियाँ ऐसी भी है जो बाइबल में भी मौजूद हैं तो कई ऐसी हैं जो सिर्फ़ क़ुरआन में ही हैं ।

     

    अब अगर क़ुरआन बाइबल से कॉपी किया गया होता तो इसमें विस्मयकारी निशानियाँ कहाँ से आई जो बाइबल में मौजूद नहीं है ? और इसमें वह गलतियाँ और साइंस विरुद्ध बातें क्यो नहीं है जो बाइबल में मौजूद है ?

     

    इससे ये साबित होता है कि क़ुरआन असली अंतिम ईश्वरीय ग्रन्थ है।

  • दी लॉस्ट ट्राइब ऑफ़ इज़राइल।

    दी लॉस्ट ट्राइब ऑफ़ इज़राइल।

    यहूदियों का यह मानना है कि वह ग्रेटर इज़राइल का निर्माण कर विश्वभर में फैले हुए यहूदीयो को वहाँ बसाये। यह उनके मसीहा (Messiah /Jewish king from Davidic line) के आगमन से जुड़ा है जिसके बारे में उनका मानना है कि उस मसीहा के आने से मसीआनिक काल (Messianic Age) का आरंभ होगा जिस पूरे काल में उनके इस मसीहा का राज होगा।
     
    यही कारण है कि वे दुनियाभर में फैले यहूदियों को इज़राइल में लाकर बसाना चाहते हैं। शुरुआत में यहूदियों के 12 कबीले थे जिन्हें अंग्रेज़ी में ट्राइब कहा जाता है लेकिन 722 ईसा पूर्व निओ असीरियन ने यहूदियों के इन 12 कबीलों में से 10 कबीलों को निष्कासित कर दिया जो कि दुनिया में अलग-अलग जगह जाकर बस गए। इन्हें ही लॉस्ट ट्राइब यानी कि गुम हुए कबीले या नस्लें कहा जाता है।
     
    अब जब 1948 में मित्र राष्ट्र द्वारा जबरन फिलिस्तीन की ज़मीन पर इज़राइल देश की स्थापना की गई तो उन्होने इसके बाद अपने उन 10 गुम हुए कबीलों की दुनियाभर में तलाश शुरू की। इसी को लेकर इज़राइल में एक कानून है जिसे “Law of return”(लॉ आफ रिटर्न) कहा जाता है यानी कि ढूँढने पर अगर दुनियाभर में कहीं भी बसा कोई यहूदी पाया जाता है तो उसे इज़राइल की राष्ट्रीयता दी जाएगी साथ ही अगर यहूदी पूरी दुनिया में कही के भी हो वह इजराइल के नागरिक कहलाएंगे। जब भी वह इज़राइल आना चाहे उन्हें नागरिकता मिलेगी।
     
    इसी तलाश में दुनिया के अलग-अलग देशों से अलग-अलग नस्लें पाई गई जिनकी यहूदी वंशावली (Ancestry) है जिन्हें इसी कानून के अंतर्गत इज़राइली राष्ट्रीयता दी गई।
     
    जैसे ख़ुद हमारे देश भारत में भी कुछ जाती पाई गई हैं जो इसके अंतर्गत आती हैं जिसके बारे में आप विकिपीडिया (Wikipedia) में पढ़ सकते हैं जिनमे से एक है “बनिए  मेनाशे” (Bnei Menashe) जिनका सम्बन्ध उन 10 कबीलों में से Menashe कबीले से पाया गया।
     
    ▪️ गौर करने वाली बात यह है कि इज़राइल चारों तरह से मुस्लिम देशों से घिरा है। और फ़िलहाल वह एक छोटा-सा राष्ट्र है, अब अगर वह अपने ग्रेटर इज़राइल के निर्माण के लिए सारी दुनिया से यहूदियों को वहाँ लाकर बसाता है तो स्वभाविक है कि उसे विस्तार करने की ज़रूरत पड़ेगी। उसे और जगह की ज़रूरत पड़ेगी ही और इसके लिए उसे आस पास के मुस्लिम देशों पर कब्ज़ा करना होगा और वहाँ की ज़मीन पर कब्ज़ा किये बिना यह सम्भव नहीं है।
     
    लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अब किसी देश को अनुमति नहीं है कि वह जबरन अपना विस्तार करे और बेवजह आस पास के देशों पर कब्ज़ा करे। अगर कोई ऐसा करता है तो विश्व के बाक़ी देश मिलकर उसे ऐसा करने से रोकेंगे।
     
    और यहीं से शुरू होती है मुस्लिमो को बदनाम करने उन्हें आतंकी, हत्यारे, सभी के दुश्मन बताने की साज़िश। क्योंकि अगर उन्हें ऐसा साबित कर दिया गया तो फिर कोई इज़राइल के आस पास के मुल्कों पर कब्जे और मासूम मुस्लिमो की जान लेने पर कुछ नहीं कहेगा ना उन्हें रोकेगा। इस तरीके को पहले भी कई बार इस्तेमाल किया जा चुका है।
     
    👉 जैसे उदाहरण के तौर पर अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ पर हमले किये जिसमें लाखों मासूम मारे गए पूरा देश तबाह हो गये, उसकी वज़ह यह बताई गई कि यहाँ परमाणु और जैविक हथियार हैं और ओसामा बिन लादेन छुपा है। इस पर पूरी दुनिया ख़ामोश रही किसी ने अमेरिका को नहीं रोका और लाखों मासूमों की हत्या होने दी लेकिन ना वहाँ से ओसामा मिला ना परमाणु हथियार।
     
    अब ज़रा सोचिए कि अगर उक्त वज़ह ना बताई गई होती तो क्या दुनिया अमेरिका को यूँ ही अफ़ग़ानिस्तान या इराक़ पर बम बारी कर लाखों लोगों को मारने देती? नही…!
     
    यह बात इस से भी साबित होती है कि अमेरिका का अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर हमले का दिखाने का कारण कुछ और था और करने का कारण कुछ और। क्योंकि जब अमेरिका को ओसामा को पकड़ना था तो बड़े ही आराम से उसने उसे पाकिस्तान से पकड़ लिया और उसे पाकिस्तान पर एक बम तक गिराने की ज़रुरत नहीं पड़ी।
     
    लेकिन उधर अफगानिस्तान के मामले में तो उसने इसी बहाने से इतने बम बरसाए थे कि पूरा अफ़ग़ानिस्तान ही खंडहर बन गया था। इराक़ मामले में बाद में माफ़ी माँगी जिसका अहसास भी किसी को नहीं हुआ। लेकिन चूंकि उसने दुनिया के सामने यह स्थापित कर दिया था कि ऐसा वह दूसरे कारणों से कर रहा है तो किसी ने उसे इस बारे में नहीं रोका।
     
    👉 ऐसे ही अपने विस्तार और मुस्लिम देशों पर आक्रमण को सही ठहराने के लिए इज़राइल मुस्लिमो का ग़लत चित्रण करता है।
     
    चूँकि वर्ल्ड मीडिया और सोशल मीडिया यहूदियों के हाथ में है और उन्होंने यह काम बखूबी किया भी है।
     
    दुनियाभर में मुस्लिमो को बदनाम करना फ़र्ज़ी इस्लामिक नाम से हमले करवाना, झूठी वीडियो बनाना, मुस्लिम देशों में गृह युद्ध करवाना आदि यह करवा कर इज़राइल कई बार एक्सपोज़ भी हो चुका है जैसे कई वीडियो जिनमे आतंकी हत्या करते दिखाई देते हैं उनका बाद में स्टुडियो में शूट होना साबित होना। इसके अलावा ख़ुद इज़राइल रक्षा बल (Israel defense force) के चीफ गादी ईज़ानकोट (Gadi Eizenkot)* का यह कबूल करना कि उन्होंने सीरिया में विद्रोहियों और आतंकियों को हथियार उपलब्ध कराए थे। जिसके इस्तेमाल से वहाँ युद्ध और हिंसा होती रही।
     
    इज़राइल वायु सेना के पायलट योनातन शपीरा (yonatan shapira) ने खुद इज़राइल को आतंकी राष्ट्र बताते हुए वायुसेना से इस्तीफा दिया था और खुले तौर पर कहा था की इज़राइल फिलिस्तीनियों पर बर्बरता और आतंकी हमले कर रहा है और खुले तौर पर war crime में लिप्त है और विश्व के सामने फिलिस्तीनियों का ग़लत  चित्रण कर रहा है जब की वास्तविकता कुछ और है , yonatan की बात का समर्थन करते हुए बाद में और २७ पायलटों ने इस्तीफा दिया था आदि।
     
    और इन सबके पीछे कारण यही है कि मुस्लिमो को बदनाम करो उन्हें सबका दुश्मन बताओ ताकि जब हम निर्दोषों की हत्या करे, उनकी जमीनों पर कब्ज़ा करें तो लोग हमें रोके नहीं बल्कि उसे सही समझें।और हम यह सब इस आड़ में करें कि हम तो आतंक का खात्मा कर रहे हैं।
     
    ▪️हालाँकि यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि सभी यहूदियों की यह मंशा नहीं है कितनों ने ख़ुद अपने देश की इन हरकतों के खिलाफ आवाज़ उठाई है (जैसे yonatan shapira ) जबकि कई यहूदी नस्लो ने बाद में दूसरे धर्म (प्रमुखत: इस्लाम) कबूल कर लिया और उन्होंने ग्रेटर इज़राइल बनाने और इज़राइल राष्ट्रीयता लेने से भी इंकार कर दिया। उदाहरण के तौर पर भारत के उत्तर प्रदेश में पाए जाने वाले “बनु इस्राएली “
     
    लेकिन यहूदी उग्रवादियों का यह विशेष मंसूबा है जिसने सत्ता पर कब्ज़ा जमाया हुआ है। साथ ही दुनियाभर के उग्र संगठनों जिनकी मंशा स्वयं को श्रेष्ठ समझना और सत्ता पर कब्ज़ा जमाना है, उनके साथ मिलकर यह अपनी इस साज़िश को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं जिस की बुनियाद पर वह अपने अलग अलग मकसद हासिल करते हैं ।
     
  • “फिलिस्तीन” महत्वपूर्ण क्यों?

    “फिलिस्तीन” महत्वपूर्ण क्यों?

    पिछली post में हमने फिलिस्तीन के बारे में 1906 से जाना इस Post में हम ई.पू. 6000 से ईतिहास पर बात करेंगे। लेकिन उससे पहले कुछ जगह और शब्दों के बारे में जान लेते है।
    • बैतूल मुक़द्दस जिसे येरुशलम/Jerusalem कहते है। 
    • हरम शरीफ, मस्ज़िद ऐ अक़सा, हैकल ऐ सुलेमानी, Solomon temple, Temple Mount, first temple
    • ️ कुब्बत-अल-सख़रा जिसे Dome of the Rock कहते है इस पर 200kg सोना लगा है जिसे 685 – 691ई में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने बनवाया था। जो की मस्ज़िद अल अक़सा के दालान/कारीडोर में है।
    फिलिस्तीन तिनो धर्मो के लिए महत्वपूर्ण क्यों है..?
    फिलिस्तीन एक बोहत ही प्राचीन जगह है जिसे पैगम्बरों (Prophet) की धरती भी कहते है क्योंकि कई पैग़म्बरों ने वहाँ जन्म लिया ।
    ▪️ यहूदियों (jews) के लिए –
    यहूदी मानते हैं कि यह धरती का केंद्र है और इस स्थान पर दुनियां की नींव रखी गई थी और यहीं पर Prophet अब्राहम ने अपने बेटे इस्माईल की बलि/क़ुरबानी देने की तैयारी की थी ,35 ऐकड का क्षेत्र जिसमें मस्ज़िद ऐ अक़सा है के पास ऐक दिवार के अवशेष है जिसे यहुदी Wailing Wall कहते है और उसे हैकल ऐ सुलेमानी, माबद,  यानि 1st Temple  के अवशेष मानते हैं।
    ▪️ ईसाईयों (Christians) के लिए :-
    इसाई मानते हैं कि ये वह स्थान है जहां कलवारी की पहाड़ी पर यूशु को सूली पर चढ़ाया गया था । सूली के बाद जिस पत्थर पर उनको लिटाया गया वो पत्थर आज भी बैतूल मुक़द्दस/येरुशलम में है। चूँकि यह घटना ईसाई धर्म की नींव है इसीलिए उनके लिए यह स्थान महत्वपूर्ण है ।
    ▪️ मुसलमानो के लिए :-
    मुसलमानों के लिए यह स्थान उपरोक्त कुछ कारणों के आलावा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि फिलिस्तीन में बैतूल मुक़द्दस, मस्ज़िद ऐ अक़सा इस्लाम में तीसरी सबसे पवित्र जगह है (पहली मक्का, दूसरी मदिना)  यह मुसलमानों का पहला क़िबला भी है और मुसलमानों की मान्यता है कि पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब मैराज पर गए तो आपने सबसे पहले मक्का से यहां तक की यात्रा की और कुब्बत-अल-सख़रा यानि Dome of the Rock भी है।
    मुस्लिम यहुदी में सम्बन्ध –
    पैगंबर ईब्राहिम (Prophet अब्राहम) अलैहिस्सलाम के पोते का नाम हजरत याकूब (Prophet Jacob) था, जिनको इस्राइल (इजराइल) भी कहते है। जिनके नाम पर आज का यहूदी राष्ट्र इजराइल है। हजरत याकूब के एक पुत्र का नाम यहूदा(जुडा) था यहूदा के नाम पर ही इनके वंशज यहूदी कहलाए जिन्हें Jews भी कहते है। जो की मिस्र से थे जिन्हें पैग़म्बर मूसा (Prophet Moses) अलैहिस्सलाम ने फिलिस्तीन (Palestine) में बसाया था।
    ♦️ इसी अब्राहम/इब्राहिम धर्म में पैग़म्बर ईब्राहिम के दो बेटे थे 1 Prophet हज़रत इस्हाक़ (इस्राइल) इनसे जो नस्ल चली वह यहूदी कहलाए पैग़म्बर के नाम के कारण इनको इसराइल/इज़्राइल भी कहा जाता है। इसलिए यहूदीयों को इसराइली भी कहते हैं। हजरत इब्राहिम के दूसरे बेटे Prophet हज़रत इस्माईल थे जिनकी नस्ल से पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहिवसल्लम आये जो की अरबी थे। यहूदियों मैं कई हजारो पैगंबर आ चुके थे और उनकी किताबों में लिखा था की आखिरी पैगंबर भी जल्द ही तशरीफ लाने वाले हैं। उन्हें यकीन था कि वह पैगंबर यहूदियों में से ही होंगे। लेकिन उनकी उम्मीद के खिलाफ वह पैगंबर हजरत इस्माइल अलेही सलाम की नस्ल से हो गए। इसलिए यहूदियों ने घमंड किया और उनको नबी मानने से इनकार कर दिया।
    ♦️ यहुदी, पैग़म्बर हज़रत ईसा यानि Jesus और पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहिवसल्लम को नही मानते है। जबकि इस्लाम के अनुसार अगर कोई पहले के किसी पैग़म्बर जैसे हज़रत मूसा (Prophet Moses, Suleman etc.) और हज़रत ईसा (Prophet Jesus/yeshu) etc. को नही माने तो वो मुस्लमान ही नही हो सकता।
    फिलिस्तीन और मस्ज़िद ऐ अक़सा – ईतिहास के आयने में।
    मस्जिद अल अक़सा जिसका निर्माण प्रथम मनुष्य हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने क़ाबा के 40 साल बाद किया था। जो तूफान ऐ नूह में ध्वस्त हो गई थी, जिसे पैग़म्बर हज़रत इब्राहिम ने अपने बेटे हज़रत इस्हाक़ के साथ पुनः निर्माण की। इसके आलावा सबसे पहले जिसने फिलिस्तीन में आवास किया वे कन्आनी हैं, जो 6 हज़ार वर्ष ईसा पूर्व में अरब महाद्वीप से फिलिस्तीन आए।
    1200 ईपू हज़रत मूसा जिन्हें ईसाई/यहुदी Prophet Moses कहते है ने यहूदियों को मिस्र से लाकर फिलिस्तीन में बसाया।
    ♦️ 957 ईसा पूर्व इजरायल राज्य के शुरुआती वर्षों में, राजा सुलैमान जिन्हें इस्लाम में पैग़म्बर सुलैमान भी कहते है, इसी मस्ज़िद को फिर से बनवाया जिसे यहुदी 1st temple कहते है। जिसे 586 ईपू बेबीलोन के बादशाह ने यहूदियों की साजिशो से तंग आ कर फिलिस्तीन से निष्कासित कर दिया और 1st Temple भी गिरा दिया।
    ♦️ 70 साल तक ये नगर खण्डर के रूप में रहा और 515/559 ईसा पूर्व राजा साइरस ने पुनःनिर्माण करवाया लेकिन विरोध के कारण बिच में रुक गया जिसे पैग़म्बर ज़कर्या (Prophet Zechariah) के काल में दारा (Darius) ने निर्माण करवाया जिसे यहुदी second temple कहते है। )
    ♦️ हज़रत ईसा जिन्हें ईसाई Prophet Jesus कहते है, उनके crucifiction के बाद 70 ई में रोमन जो की ईसाई हो गए थे ने यहूदियो को फिर फिलिस्तीन से निष्कासित कर दिया ,दरअसल ईसाई जो को ईसा अलैही. को ईश्वर का बेटा मानते हैं उनके अनुसार यहूदि ईसा अले. की हत्या के दोषी हैं इसी वजह से ईसाइयों की इन से दुश्मनी हुई ।
    ♦️ ऊपर बताए कारण की वजह से ही सन् 70 ई से सन् 637 तक यहूदीयो को फिलिस्तीन आने पर भी पाबन्दी थी *सन् 637 मे जब फिलिस्तीन ईसाईयो से मुस्लिमो के हाथों में आया तब दूसरे खलीफा हज़रत उमर रज़ीअल्लाह अन्हु ने यहूदियों पर लगी इन पाबंदी को हटाया और उन्हें फिलिस्तीन में दाखिल होने और इबादत करने की अनुमति दी।
     1100ई में ईसाईयो ने बैतूल मुक़द्दस/Jerusalem पर हमला कर कब्ज़ा कर लिया और जिसे 1187 में सुलतान सलाउद्दीन अय्यूबी रह० ने Jerusalem वापस ले लिया।
    ⚫ *ईस तरह सन् 70 से 1948 तक लगभग 1900 सालो तक फिलिस्तीन और बैतूल मुक़द्दस यानि येरुशलम पर यहूदियों का कोई क़ब्ज़ा नही था।*
    आखिर में… यहूदियों का मोजुदा फिलिस्तीन को लेकर यह मानना है की ,अगर वो मस्ज़िद ऐ अक़सा को गिरा कर 3rd Temple को बना दे औऱ आसपास के इलाकों पर कब्ज़ा कर Greater Israel की स्थापना कर विश्वभर के यहूदियों को यहाँ लाकर बसा दें तो उनका मसीहा आ जायेगा जिसके सानिध्य में वे विश्व मे राज करेंगे। यही कारण है कि इज़राइल में यह कानून है कि दुनियाभर का कोई भी यहूदी जिसकी नस्ल यहूदियों से मिलती है वह इज़राइल जा कर बस सकता है और उसको वहाँ की राष्ट्रीयता दी जाएगी साथ ही इज़रायल विश्वभर में lost tribe को ढूंढेने और उन्हें इज़राइल लाने के प्रयास के लिए बाकायदा मिशन चलाता है ।
  • क्या क़ुरआन संग्रहित है ?

    क्या क़ुरआन संग्रहित है ?

    जवाब:- हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दौर में ही क़ुरआन की तरतीब (सुरः का क्रम) और संग्रहण (जमा) पूरा हो चुका था वह दो ज़रियो से हुआ:-

    1. हिफ़्ज़ के ज़रिए
    2. लेखनी के ज़रिए

     

    जब भी क़ुरआन नाज़िल होता था उसे हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) अपने सहाबा (साथी) को सिखाते थे। जिसे कई सहाबा हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर अपने सीनों में महफ़ूज़ कर लेते थे और यही हिफ़्ज़ का सिलसिला नस्ल ब नस्ल हर दौर में जारी रहा और आज भी आप को हर मुल्क में हर उम्र के हाफिज़ मिल जाएंगे जिन्हें पूरा क़ुरआन शब्दश: याद है। क़ुरआन की हिफाज़त का यह तरीक़ा इतना विशेष ही कि इस तरह दुनियाँ के किसी दूसरे धर्म ग्रन्थ के बारे में इसका दावा करना तो दूर कभी कोई कल्पना भी नहीं की गई।

     

    दूसरी तरह लेखनी के ज़रिए महफूज़ करने वाले सहाबा, जो आयात हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) सिखाते वे उसे पत्थर, पत्तों, खाल आदि पर लिख लिया करते थे और फिर उसे हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के सामने दोहरा कर चेक करवाया करते थे। पूरे क़ुरआन को इन तरह लेखनी में (अलग अलग जगह) महफूज़ भी हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दौर में कर लिया गया था।

     

    हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दुनियाँ से रुखसत के बाद पहले ख़लीफा अबूबक्र रज़ि॰ ने हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ि॰ (जो कि हाफिज़ थे और जिनके बारे में हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) ने लोगों को कहा था कि जिसे क़ुरआन सीखना है वह ज़ैद से सीखें) के प्रतिनिधित्व में इन सभी (क़ुरआन के लेखों) को 1 जगह जमा किया और 1 किताब की शक्ल दी।

     

    जब इस्लाम अरब से बाहर चीन, भारत, ईरान आदि जगह फैला तब तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान रज़ि॰ के दौर में उस संकलित क़ुरआन कि 7 प्रतिलिपि (Copy) बनाई गई और एक-एक प्रतिलिपि अलग-अलग देशों में सील लगवाकर भिजवाया गया। इस संकलन में क़ुरआन में मात्राएँ (ज़ेर / ज़बर) नहीं थे।

     

    हज्जाज़ बिन यूसुफ जो कि इराक के गवर्नर थे ने जब यह देखा कि गैर अरबी क़ुरआन को पढ़ने में गलती कर रहे है, तो उसमें उन्होंने जानकारों (हाफिज़, विशेषज्ञों) से ज़ेर-ज़बर लगवाये, ताकि पढ़ने वालों को आसानी हो सके और बिलकुल उसी तरह से पढ़ा जाए जैसा मूल अरबी भाषा में पढ़ा जाता रहा है।

     

    अतः जिस तरतीब और शक्ल में मोहम्मद (स॰अ॰व॰) क़ुरआन अपनी उम्मत को देकर गए बिल्कुल वही आज उम्मत के पास मौजूद है और ता क़यामत तक महफूज़ रहेगा जैसा कि अल्लाह का वादा है:-

    वास्तव में, हमने ही ये शिक्षा (क़ुरआन) उतारी है और हम ही इसके रक्षक हैं।

    (क़ुरआन 15:9)

     

    भारत में आज भी UP के रामपुर में रज़ा लायब्रेरी में हज़रत अलि रज़िअल्लाहू अन्हु कि हस्त लिखित क़ुरआन मौजूद है।

     

  • फिलिस्तीन और इज़राइल के विवाद का क्या कारण है ?

    फिलिस्तीन और इज़राइल के विवाद का क्या कारण है ?

    बात 1492 की है, जब स्पेन से यहूदियों को मार कर भगाया जा रहा था तब *तुर्क साम्राज्य, सल्तनत ऐ उस्मानिया (Ottoman Empire) के सुल्तान बायज़ीद ने स्पेन के तट पर अपने जहाज़ खड़े कर दिए और लाखों यहूदियों को अरब से तुर्की तक फैली अपनी सल्तनत में पनाह दी।
     
    दूसरी बार फिर जब 1943 में जर्मनी में हिटलर के होलोकॉस्ट (नरसंहार) से निष्कासित किए गए लाखों यहूदी शरणार्थियों से ठसाठस भरे हुए जहाज़ समुद्र को चीरते हुए इटली, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका में पनाह मांगने पहुचे लेकिन हर जगह से नाउम्मीद होने पर एक बार फिर जहाजों पर बैनर लगा कर फिलिस्तीन से गुहार की।
     
    “जर्मन ने हमारे घर, परिवार को तबाह कर दिया है आप हमारी उम्मीदों को मत कुचलना” और 1400 सालों से बसे फिलिस्तीनियों ने अपनी ज़मीन पर यहूदियों को जगह दी।
     
    जिस बारे में ख़ुद यहूदी प्राइम मिनिस्टर डेविड बेन-गुरियन (David Ben-Gurion) ने अपनी किताब में लिखा है की 70ई. से 1917 तक जो Diaspora (यहूदियों की प्रताड़ना / बिखराव ) का समय था, जिसमें ईसाईयों की गुलामी / प्रताड़ना से मुस्लिमो ने हमे बचाया और स्पेन की मुस्लिम हुक़ूमत हमारे लिए स्वर्ण काल (Golden Period) था।
     
    इन सब के बावजूद आज इज़राइली लोग फिलिस्तीनियों की जान के दुश्मन बने हैं और उनके ग़लत चित्रण में कोई कमी नहीं छोड़ रहे।
     
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    फिलिस्तीन (अरब-मुस्लिम) और इजराइल (यहूदियों) के विवाद का मुख्य कारण क्या है?
     
    इसका मुख्य कारण है फिलिस्तीनियों को बेघर कर उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना। जो कि उन्होंने लगभग कर भी लिया है। 1948 के पहले आज का इज़राइल कोई देश ही नहीं था उक्त भूमि सिर्फ़ फिलिस्तीन थी जिस पर यहूदियों को बसाया गया जिन्होंने लगातार विस्तार और दमन कर आज पूरे फिलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया है और अब थोड़े ही हिस्से में मूल निवासी फिलिस्तीनी बचे हुए हैं जिन्हें भी निष्कासित करने की कोशिश हर वक़्त इज़राइल करता रहता है
     
    यह तथ्य इतना स्पष्ट तथ्य है कि इस बारे में हर कोई जानता है कि इज़राइल कब बना।
     
    अब इस बारे में थोड़ा और विस्तार से जानते हैं।
     
    ▪️ प्रथम विश्व युद्ध (1st World war) के बाद जब वैश्विक हुक़ूमत बदलने लगी तब यहूदियों को अहसास हो गया था, की अब ख़ुद का देश होना ज़रूरी है। द्वितीय विश्व युद्ध (Second world war) से पहले जब यूरोप और दूसरी जगह से जब यहूदियों को भगाया जाने लगा तब से वह अपने लिए ज़मीन की तलाश में थे जो की फिलिस्तीन में जाकर पूरी हुई। लेकिन फिलिस्तीन में 1400 सालों से रह रहे अरब मुस्लिमो को वहाँ से हटाए बिना यह सम्भव नहीं था। 1948, 1956, 1967, 1980, 1994, 2006, 2008, 2014 और अब 2021 में लगातार फिलिस्तीनियों को उनकी जगह से खदेड़ कर यहूदियों की बस्ती बसाई जा रही है। 1941 में 20% पर फिलिस्तीनी ज़मीन पर यहूदी थे जो आज 95% ज़मीन पर कब्जा कर चुके है और वहाँ के मज़लूमो ने जब कभी इसके खिलाफ संघर्ष किया तो मुस्लिम विरोधियों ने उन्हें ही आतंकी घोषित कर दिया गया।
     
    ▪️ 1906 में विश्व ज़ायोनी संगठन World Zionist Organization (WZO) ने अर्जेंटीना को *Zionist (यहूदी) मातृभूमि बनाने को लेकर चर्चा की। लेकिन 1917 में ब्रिटेन के विदेश सचिव लॉर्ड बेलफोर और यहूदी (Zionist) नेता लॉर्ड रोथ्सचाइल्ड के बीच एक पत्र व्यवहार हुआ जिसमे लॉर्ड बेलफोर ने ब्रिटेन की ओर से ये आश्वासन दिया की अर्जेंटीना के बजाए फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप में बनाने के लिए वह पूरी कोशिश करेंगे।
     
    ▪️ प्रथम विश्व युद्ध के बाद उस्मानिया खिलाफत (Ottoman Empire) को ख़त्म करने के लिए ब्रिटेन और फ्रांस ने एक गुप्त समझौता किया जिसे *साइक्स-पिकोट समझौता (Sykes-Picot Agreement) भी कहते है। इसके अंतर्गत पूरे अरब जगत को दो “क्षेत्रों” में बाँट दिया गया जिसमे रूस की भी स्वीकृति थी। इसके अंतर्गत सीरिया और लेबनान फ्रांस के प्रभाव क्षेत्र मे और जॉर्डन, इराक और फिलिस्तीन ब्रिटेन के क्षेत्र में और फिलिस्तीन का कुछ क्षेत्र मित्र देशों की संयुक्त सरकार के क्षेत्र में आ गया। रूस को इस्तांबुल, तुर्की और अर्मेनिया का कुछ इलाक़ा मिल गया।
     
    ▪️ प्रथम विश्व युद्ध (1st World War) के बाद फिलिस्तीन, तुर्की (उस्मानिया खिलाफत) से ब्रिटिश हुक़ूमत में चला गया। 1922 में मित्र देशों का ब्रिटेन को समर्थन था। ब्रिटिश फिलिस्तीन में एक स्थानीय और स्वशासनीय सरकार का प्रबंध चाहते थे मगर यहूदी ऐसे किसी भी स्वशासनीय सरकार के प्रबंध से डरे हुए थे क्योंकि इसमे जनसंख्या के अनुपात से अरबों की बहुलता हो जाती। जैसा कि शुरू में बताया गया कि 1492 में उस्मानिया खिलाफत में जब यहूदियों को सहारा दिया था तब से कुछ यहुदी उस क्षेत्र में रह रहे थे। प्रथम विश्व युद्ध (1st world war) तक फिलिस्तीन में 6 लाख फिलिस्तीनी और 1 लाख यहूदी रहते थे।
     
    ▪️ 1932 से 1943 तक लाखों यहूदी जर्मनी, पोलैंड और पूर्वी यूरोप से भागकर अपनी जान बचा कर फिलिस्तीन आने लगे। फिलिस्तीन में यहूदियों की बढ़ती आबादी से यहूदी (Zionist) ब्रिटेन पर दबाव बनाने लगे की उसको एक राष्ट्र घोषित करें। इधर फिलिस्तीनियों को चिंता होने लगी की यहूदियों की बढ़ती आबादी से उनको अपनी ज़मीन छोड़नी होगी। इस बढ़ते दबाव से ब्रिटेन अलग हो गया और उसमे इजराइल और फिलिस्तीन विवाद संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) को दे दिया।
     
    ▪️ संयुक्त राष्ट्र ने अरब और यहूदियों का फिलिस्तीन में टकराव देखते हुए फिलिस्तीन को दो हिस्सों अरब राज्य और यहूदी राज्य (इजराइल) में विभाजित कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने एक योजना बनाई जिसमे 45% जमीन 70% फिलिस्तीनियों को और 55% जमीन 30% यहूदियों को देने की बात करी। इस अन्याय पूर्ण प्लान का फिलिस्तीनियों ने विरोध किया जिससे *14 मई 1948 को इजराइल ने ख़ुद स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और इजराइल को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया।
     
    जिसके कारण पहला अरब और इजराइल युद्ध हुआ। जिसमे लाखों फिलिस्तीनी बेघर हुए और इजराइल (Israel) ने फिलिस्तीन के 78% हिस्से कब्जा कर लिया। गाज़ा और ईस्ट येरूशलम जॉर्डन के कंट्रोल में गया और इजराइल ने 11 मई 1949 में संयुक्त राष्ट्र की मान्यता हासिल की। (इस युद्ध में अक्सर हम सुनते है, की एक अकेले इजराइल ने अरब लीग जिसमे 8 देश थे को हराया, जबकि सच्चाई ये है  कि  इजराइल को मित्र राष्ट्रों का पूरा समर्थन था क्योंकि इजराइल फिलिस्तीन में बसना शुरू ही हुए थे तथा इजराइल के समर्थन में 117500 और अरब के साथ मात्र 63 हज़ार फ़ौज थी)
     
    ▪️ 1956 में दूसरा अरब इजराइल युद्ध हुआ और इजराइल ने पूर्वी येरुशलम पर भी अपना क़ब्ज़ा कर लिया और एक समझौता हुए जिसमे मस्जिद ऐ अक़्सा का क़ब्ज़ा जॉर्डन को दिया गया।
     
    यहूदियों के धार्मिक कानून और इजराइल सरकार (Government) के अनुसार यहूदी, उस 35 एकड़ के क्षेत्र जिसमे मस्जिद ऐ अक़्सा और डोम ऑफ द रॉक (Dome of the rock) है के अंदर नहीं जा सकते है क्योंकि वह उनके लिए बहुत ही पवित्र है और वह उसमे पैर नहीं रख सकते है। जिस बारे में 1967 में इजराइल के डिफेंस मिनिस्टर मोशे दयान ने कहा था कि यही सही है की मस्जिद ऐ अक़्सा की देख रेख जॉर्डन ही करें। लेकिन समय के साथ अपने अक़ीदे को खुद तोड़ दिया और सन् 2000 में 1000 पुलिस के साथ उग्रवादी यहूदी (Zionist) ज़बरदस्ती उस क्षेत्र में घुसे है और दमन करने लगे। जिससे दोनों पक्षों के लोग घायल हुए और मारे गए।
     
    ▪️ 1980 आते-आते जॉर्डन पीछे हटा और फिलिस्तीन लीडरशिप आगे आई और सत्ता हाथ में ली। लेकिन पूर्वी येरुशलम वापस नहीं मिला और वह यहूदियों के क़ब्ज़े में ही रहा 1994 तक मस्जिद ऐ अक़्सा के ग्रैंड मुफ्ती की नियुक्ति (Appointment) जॉर्डन करता था जो की फिलिस्तीनी होते थे। इस 35 एकड़ की जगह को अब तक जॉर्डन ही मरम्मत करता आ रहा है जिसमे तीनों धर्म (यहूदी / ईसाई / मुस्लिम) की निशान मौजूद है। इस पर अब तक 1 बिलियन डॉलर ख़र्च कर चूका है और इस क्षेत्र की सुरक्षा (Security) इजराइल के पास है जो फिलिस्तीनियों को अंदर आने में परेशानी पैदा करती है।
     
    ▪️ 1980 में इजराइल ने एक कानून पास किया और येरुशलम को एक पूर्ण इजराइल स्टेट की टेरिटरी ख़ुद ही बना दिया। जो अंतरराष्ट्रीय कानून (International law) का उल्लंघन है जिसे कोई भी देश मान्यता नहीं देता है। 06 दिसंबर 2017 में ट्रम्प सरकार येरुशलम, जो की फिलिस्तीन की राजधानी थी को इसराइल की राजधानी की मान्यता दे देती है। जगजाहिर है कि इज़राइल और अमेरिका का हमेशा से गठजोड़ रहा है जिसकी प्रमुख वज़ह अमेरिका के अहम ओहदों पर यहूदियों के कब्ज़ा और इकोनॉमी पर पकड़ है।
     
    इस पूरी लड़ाई का कारण ब्रिटेन, अमेरिका, फ़्राँस और रूस के समर्थन में इजराइल द्वारा फिलिस्तीन पर अवैध क़ब्ज़ा है जो की मस्ज़िद ऐ अक़्सा को गिरा कर पूरे फिलिस्तीन से मुस्लिमो को भगा कर ग्रेटर इज़राइल (Greater Israel) की स्थापना करना चाहते हैं जो कि यहूदियों के धर्म ग्रँथों से प्रेरित है, जिसका निर्माण करने से उनका मानना है कि उनका अंतिम मसीहा दुनिया में आगमन करेगा और वे उसके सान्निध्य में विश्व पर राज करेंगे। इस बारे में जानने के लिए यहूदी ग्रँथों *Greater Israel ,Third temple, New World Order, Freemason, Illuminati*  ( ग्रेटर इज़राइल, थर्ड टेम्पल , न्यू वर्ल्ड आर्डर   फ्रीमेसन, इल्लुमिनेटी)  और रोथ्सचाइल्ड परिवार (Rothschild Family) के बारे में पढ़ना चाहिए ।