Category: इतिहास से जुड़ी ग़लतफ़हमियों के जवाब
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मोहमद (स.अ.स) की ज़ैनब बिन्त जहश से शादी पर एतराज़।
जवाब :- इस्लाम में पुत्रवधू / बहु से शादी करना हराम (पूर्णतः प्रतिबंधित)है।इस्लाम में तलाकशुदा, या बेवा औरत के निकाह पर बहुत ज़ोर दिया गया है ताकि वह भी सामान्य ज़िंदगी जी सके ना कि समाज से कट कर दुःख भरी ज़िंदगी जीने को मजबूर हो। अतः इस बारे में भी स्पष्ट मार्गदर्शन किये गए कि किन से शादी की जा सकती है और किस से नहीं। इसी के अंतर्गत जैसे ऊपर बताया गया कि अगर पुत्रवधू बेवा या तलाकशुदा हो जाए तब भी उससे जीवन भर विवाह नहीं किया जा सकता।लेकिन यह नियम मुँह बोले बेटे के बारे में लागू नहीं है। क्योंकि वह आपका पुत्र नहीं होता बल्कि सिर्फ़ कहने या मानने की बात होती है। इसमे भी यह याद रहे कि ऐसा करना कोई अनिवार्य नहीं है बल्कि इसकी सिर्फ़ अनुमति है क्योंकि इस्लाम के नियम कोई आज कल के लिए तो है नहीं बल्कि हर काल खंड ता क़यामत तक के लिये हैं और ऐसी परिस्थिति कई बार बन सकती है इसलिये यह बता देना आवश्यक था।इस के बावजूद इस्लाम के दुश्मन आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की ज़ैनब बिन्त जहश से शादी पर आरोप लगाते हैं जबकि वे आपकी पुत्रवधू नहीं थी बल्कि ज़ैद बिन हारिसा जो की गुलाम थे और बाद में आपने उनको गुलामी से छुटकारा दिला कर अपना बेटा कहा थी यानि मुँह बोला बेटे की तरह रखा था उनकी पूर्व पत्नी थीं जिन्हें वे तलाक़ दे चुके थे।दरअसल इस पूरे वाकये के जरिये अल्लाह तआला को अपने बन्दों को बहुत-सी बातो के बारे में नियम बता देने थे।जैसे – गुलाम, यतीम से व्यवहार, विरासत, शादी के नियम, रिश्तों में अंतर आदि।जो इस बारे में जानने और कुरआन की इन आयतों को पढ़ने से मालूम होती हैं। जबकि इस बारे में इस्लाम से नफ़रत रखने वालों ने बहुत-सी झूठी रिवायतें गढ़ ली हैं जिनमे कोई सच्चाई नहीं है इसलिए हमें चाहिए कि इस वाकये को विस्तार में जानें।हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम से पहले और उनके दौर में गुलामी प्रथा का बहुत चलन था। लोग अपने गुलामो को बुरी तरह इस्तेमाल करते उन्हें समाज में किसी तरह का हैसियत (Status) प्राप्त नहीं था और उनसे बहुत बुरी तरह का व्यवहार किया जाता था। ऐसे दौर में हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की करुणा और उच्च किरदार का आलम यह था कि जब छोटी उम्र में ज़ैद बिन हारिसा ग़ुलाम बन कर आप मुहम्मद सल्लाहो अलैहिवसल्लम की सेवा में आए तो उन्होंने उनको गुलामो की तरह नहीं बल्कि अपने बच्चे की तरह पाला अनुकम्पा/हमदर्दी कि ऐसी मिसाल और कहीं नही मिलती है। क़ुरआन में इसे इन शब्दों में उल्लेखित किया गया है _याद करो (ऐ नबी), जबकि आप उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्मा/ऐहसान किया, और आपने भी जिस पर अनुकम्मा की..(सुरः अहज़ाब 37)जब ज़ैद की उम्र शादी लायक हुई तो हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने उनके लिए रिश्ता ढूँढना चालू किया। चूँकि वे ग़ुलाम थे और हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम जैसी उच्च सोच दुसरो की तो नहीं हो सकती इसलिए उनके लायक रिश्ते ढूँढने में समस्या उत्पन्न हुई उस समय अरब में जाती, कबीलों की ऊँच-नीच बहुत चलन में थी। जिसे आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने ही ख़त्म किया।इस हेतु आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने अपनी फूफी/बुआ की बेटी हज़रत ज़ैनब बिन्त जहश से ज़ैद की शादी करने का इरादा किया।उस वक़्त ज़ैनब बिन्त जहश और उनके कबीले वाले इस बात से राज़ी ना हुए क्योंकि ज़ैनब ऊँचे ख़ानदान की थीं और ज़ैद तो उनकी नज़र में ग़ुलाम थे और उस वक़्त गुलामो की हैसियत तो यह थी कि ऊँचे ख़ानदान तो दूर उनसे आज़ाद स्त्री की शादी करने में भी लोग संकोच करते थे।ऐसे में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की शिक्षा यह थी कि कोई रंग, रूप, जाती से ऊंचा नीचा नहीं होता बल्कि अपने कर्मो से होता है। अतः वे चाहते थे कि ज़ैनब, ज़ैद से शादी करें। जिस बारे में पहले तो वे और उनके कबीले वाले राज़ी नहीं हुए लेकिन फिर कुरआन की सूरह 33 आयत नम्बर 36 नाज़िल हुई।“तथा किसी ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्री के लिए योग्य नहीं कि जब निर्णय कर दे अल्लाह तथा उसके रसूल किसी बात का, तो उनके लिए अधिकार रह जाये अपने विषय में और जो अवज्ञा करेगा अल्लाह एवं उसके रसूल की, तो वह खुले कुपथ में पड़ गया। (भटक गया)” (सुरः अल-अहज़ाब आयात:36)इस आदेश के आ जाने के बाद ज़ैनब बिन्त जहश शादी के लिए राज़ी हुई और हज़रत ज़ैद से उनका निकाह हुआ।इसके जरिये से आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम का लोगों को यह खुली शिक्षा दे देना था कि इस्लाम में कोई ऊँच-नीच नहीं है और यह सब मानवीय बुराइयाँ है जिनसे हमे उठना चाहिए। दूसरी तरफ़ अल्लाह को भी यह स्पष्ट कर देना था कि अगर अल्लाह और उसके रसूल ने आप के हक़ में कोई फ़ैसला कर दिया है तो मुस्लिम की यही शान है कि उसे तस्लीम (खुशी से स्वीकार) करें।इस के बाद वैवाहिक जीवन में हज़रत ज़ैद और हज़रत ज़ैनब की ना बन सकी और उनमें मतभेद होते रहे।हज़रत ज़ैद बिन हारिसा पैगंबर ऐ ईस्लाम के पास आते थे और यह इच्छा प्रकट करते थे कि वे अपनी पत्नी ज़ैनब बिन्त जहश को छोड़ देंगे क्योंकि उनके साथ उनके जीवन में मेल मिलाप नहीं था और दोनों में कुछ न कुछ विवाद चलता ही रहता है।इस पर हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैही व सल्लम फिक्रमंद होते और उन्हें ऐसा ना करने ,अपनी पत्नी के साथ ही रहने और अल्लाह से डरते रहने का कहते।जिसे कुरआन की इसी आयात में आगे इन शब्दों में उल्लेखित किया है _(ऐ नबी), जबकि आप उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्मा (ऐहसान) की, और आपने भी जिसपर अनुकम्मा की कि “अपनी पत्नी को अपने पास रोके रखे और अल्लाह का डर रखो..(सुरः अहज़ाब 37)आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम को यह फ़िक्र भी थी कि ज़ैनब जो कि महान ख़ानदान से हैं और उन्होने आपके कहने पर ही ज़ैद जो कि एक गुलाम थे से शादी की थी। अगर अब ज़ैद उन्हें तलाक दे देते हैं तो यह उनके लिए बहुत बुरी बात होगी। वह यह कि एक तो ग़ुलाम से शादी हुई और फिर उसने भी तलाक दे दी और फिर उनकी उनके समक्ष या उनके ही स्तर के किसी से निकाह होना भी सम्भव नहीं था और समाज में यह भी ताने का इम्कान/सम्भावना थी कि नबी की बात मानकर ग़ुलाम से शादी की और फिर तलाक भी ही गया।आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की इस फ़िक्र के बारे में अल्लाह ने ख़ुद आपको “वही” के द्वारा भविष्य से अवगत करवाया और निर्देश दिया कि हज़रत ज़ैद और हज़रत ज़ैनब का तलाक़ होगा और तलाक़ हो जाने पर अल्लाह के हुक़्म से मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम से ज़ैनब बिन्त जहश का निकाह होगा।क्योंकि आप मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अलावा कोई इतना उच्च नहीं था जिनसे निकाह होने पर हज़रत ज़ैनब की इज़्ज़त की हिफाज़त हो औऱ समाज में सम्मान में बढ़ोतरी मिले औऱ नबी के आदेश पालन का फल भी मिले।लेकिन आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम में इतनी हया थी कि अल्लाह के इस हुक्म पर वे फिर फ़िक्र में पढ़ गए और इन्हें इस बात की चिंता सताने लगी कि लोग इस बारे में क्या कहेंगे। अरब में मुँह बोले बेटे को असली बेटे की तरह ही समझा जाता था।इस हया, संकोच के कारण नबी सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने अल्लाह की यह ख़बर की भविष्य में ज़ैद और ज़ैनब का तलाक हो जाने के बाद उनका निकाह ज़ैनब से होगा यह किसी को बताई नहीं जिसे कुरआन की इसी आयात में आगे इन शब्दों में बयान किया गया है और तुम अपने जी में उस बात को छिपा रहे हो जिसको अल्लाह प्रकट करनेवाला है (सुरः अहज़ाब 37) हलाँकि नबी सल्लाहो अलैहि व सल्ल्म को अल्लाह “वही ” के ज़रिये भविष्य की बाते बताता था और वे लोगो को यह बातें बताते थे जैसे नबी सल्लाहो अलैहि व सल्ल्म ने हज़रत हुसैन की शहादत और हसन-हुसैन की ज़िंदगी से जुड़े वाक़िये पहले ही अपने सहाबाओ को बता दिए थे जो की ४०-५० वर्षों बाद घटित हुए , ऐसे ही कई वाक़िये ,कयामत की निशानियाँ और भविष्य की बातें आप ने लोगों को बताई जिन्हे अल्लाह ने आपको “वही’ के द्वारा बताई थी। लेकिन आपकी हया और पाकदामनी की वजह से आप इस (हज़रत ज़ैनब) बारे में लोगों को अल्लाह की बताई हुई बात बताने में संकोच करते रहे।लेकिन अल्लाह को जो करना हो वह हो के रहता है और यही हुआ कि हज़रत ज़ैद औऱ हज़रत ज़ैनब का जब तलाक हुआ फिर इद्दत गुज़र जाने के बाद अल्लाह के हुक़्म से आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम का निकाह ज़ैनब बिन्त जहश से हुआ और फिर इस बारे में अपने नबी की हया पर तवज्जो दिलाते हुए कहा कि जो अल्लाह का फ़ैसला है उस बारे में किसी से संकोच करने की या डरने की ज़रूरत नहीं। जैसा कि इस आयत में आगे फ़रमायातुम लोगों से डरते हो, जबकि अल्लाह इसका ज़ियादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो l…औऱ फिर इसी वृतांत का पूरा ज़िक्र इस पूरी आयात में मिलता है।“याद करो (ऐ नबी) , जबकि आप उस व्यक्ति से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने अनुकम्पा/ऐहसान की और आपने भी जिसपर अनुकम्पा की कि “अपनी पत्नि को अपने पास रोके रखे और अल्लाह का डर रखो और तुम अपने जी में उस बात को छिपा रहे हो जिसको अल्लाह प्रकट करनेवाला हैl तुम लोगों से डरते हो, जबकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़ रखता है कि तुम उससे डरो l “अत: जब ज़ैद ने अपनी बीवी से ताल्लुक़ात खत्म कर लिए तो हमने उसका तुमसे विवाह कर दिया, ताकि ईमानवालों पर अपने मुंह बोले बेटों की पत्नियों के विषय में कोई तंगी न रहे अल्लाह का फ़ैसला तो पूरा हो कर ही रहता है l)” (सुरः अल-अहज़ाब आयात:37)साथ ही इस ज़रिये अल्लाह का एक मक़सद यह भी सीखा देना था कि मुँह बोले बेटे की बीवी से शादी करना जबकि उसकी तलाक / इद्दत पूरी हो जाए यह प्रतिबंधित नहीं है जैसा सगे बेटे के बारे में है।इसके बाद लोगों को भी यह स्पष्ट हुआ कि भले आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम हज़रत ज़ैद को अपनी करुणा से बेटे की तरह रखते हैं लेकिन इस से कोई हकीकी बेटा नहीं बन जाता अतः उनके बाद कोई उन्हें उसका उत्तराधिकारी ना समझे और कोई वंश प्रथा ना चल पड़े।मुहम्मद तुम्हारे पुरूषों में से किसी के बाप नहीं है, बल्कि वह अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक हैं (अर्थात अंतिम ईशदूत हैं उनके बाद अब कोई ईशदूत नहीं आएगा l)(सुरः अल-अहज़ाब आयात:40) -
टीपू सुल्तान हिन्दू विरोधी थे?
*जवाब:-* मैसूर के पूर्व शासक टीपू सुल्तान को एक बहादुर और देशप्रेमी शासक ही नहीं धार्मिक सहिष्णुता के दूत के रूप में भी याद किया जाता है।
टीपू एक ऐसे भारतीय शासक थे जिनकी मौत मैदान-ए-जंग में अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते हुई थी। साल 2014 की गणतंत्र दिवस परेड में टीपू सुल्तान को एक अदम्य साहस वाला महान योद्धा बताया गया था। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को आधुनिक जगत का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था। जब वे 1960 में NASA की यात्रा पर गए तब उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी। इस बारे में कलाम ने अपनी पुस्तक विंग्स ऑफ फायर में लिखा *”मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था. वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते।”*
लेकिन ऐसे महान योद्धा और विवेकशील शासक जिसने विश्व मे भारत का नाम रोशन किया। उसे कुछ समय से राजनीतिक लाभ के लिए नफ़रत फैलाने वाले लोग ‘हिंदुओं के दुश्मन’ मुस्लिम सुल्तान के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन इतिहास का अध्ययन करने और उनसे जुड़े दस्तावेजो को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि *”टीपू के सांप्रदायिक होने की कहानी गढ़ी गई है और पूर्ण झूठ है।”*
*वरिष्ठ इतिहासकार टीसी गौड़ा* कहते हैं कि टीपू सुल्तान के बारे में यह सभी कहानियाँ गढ़ी हुई है बल्कि सत्य तो यह है कि *”इसके उलट टीपू ने श्रृंगेरी, मेलकोटे, नांजनगुंड, श्रीरंगपट्टनम, कोलूर, मोकंबिका के मंदिरों को ज़ेवरात दिए और सुरक्षा मुहैया करवाई थी। ये सभी कुछ सरकारी दस्तावेज़ों में मौजूद हैं।”*
ऐसे ही झूठे इतिहास की बुनियाद पर टीपू सुल्तान को बदनाम करने की साज़िश की पड़ताल करते हुए *उड़ीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विशम्भरनाथ पांडेय* ने अपनी किताब *इतिहास के साथ यह अन्याय!* में विस्तृत विवरण दिया है
उन्हीं के शब्दों में:-
*इतिहास के साथ यह अन्याय!*
“अब मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हूँ, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है।
जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कॉलेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-एसोसिएशन’ का उदघाटन करने के लिए मुझ को आमंत्रित किया। ये लोग कॉलेज से सीधे मेरे पास आए थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टीपू सुल्तान से सम्बंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज़्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
“तीन हज़ार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।”
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डॉ. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में उपर्युक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है। मैसूर गज़ेटियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता (कोलकाता) में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्व विद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर ब्रजेंद्रनाथ सील को लिखा कि डॉ. शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफ़ेसर श्री कंटइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गज़ेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।
प्रोफ़ेसर श्री कंटइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी ब्राह्मण कृष्णराव थे। उन्होंने मुझ को ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान के तीस पत्रों की फ़ोटो कापियाँ भी भेजी जो उन्होंने श्रृंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकाराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रीरंगापट्नम के क़िले में था। प्रोफ़ेसर श्री कंटइया के विचार में डॉ. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ मैसूर’ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब को ‘टीपू सुल्तान का इतिहास’ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनूदित किया है, जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्रेरी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढ़ंत हैं।
डॉ. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठ्यक्रम के लिए स्वीकृत थी। मैंने कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नक़्लें भेजी और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुल्तान से सम्बन्धित जो ग़लत और भ्रामक वाक्य आए हैं, उनके विरुद्ध समुचित कार्यवाई की जाए। सर आशुतोष चैधरी का शीध्र ही यह जवाब आ गया कि डॉ. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ में 23 जनवरी, 1930 ई. के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-
“मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। … मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और ख़ुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएँ, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है फ़सल अच्छी होती है और ख़ुशहाली आती है।” यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। ‘यंग इण्डिया’ में आगे कहा गया है-
“टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्रीनिवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों को ज़मीनों एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के परिसर में थे यह उसके खुले ज़ेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आज़ादी की राह का हक़ीक़ी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आज़ादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फ़ौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी। वह तलवार जो आज़ादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य है: ‘शेर की एक दिन की ज़िदगी लोमड़ी के सौ सालों की ज़िदगी से बेहतर है।’ उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियाँ भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया है कि “ख़ुदाया, जंग के ख़ून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की ज़िदगी जीने से बेहतर है।”
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सभी आदम की संतान हैं तो सभी की भाषाएँ अलग कैसे ?
जवाब:- अल्लाह तआला क़ुरआन में फरमाते हैं:
और अल्लाह की निशानियाँ में से आसमान और ज़मीन का पैदा करना है और तुम्हारी भाषाओं और रंगों का अलग अलग होना है। बेशक इसमें पूरी दुनियाँ वालों के लिए बहुत-सी निशानियाँ है।
(सूरह रूम : 22)
इस आयत से स्पष्ट है कि दुनियाँ में सैकड़ों हजारों भाषाओं का होना तो अल्लाह तआला के कुदरत की जबरदस्त दलील है। जिस तरह से अल्लाह ने एक ही जोड़े आदम और हव्वा (अलैहिस्सलाम) से दुनियाँ की तमाम नस्ल और रंग के इंसानों को वजूद में लाया और फिर वे अलग-अलग इलाकों और जगहों में बसते चले गए। उसी तरह अल्लाह ने आदम और हव्वा अलैहिस्सलाम की भाषा के ज़रिए दुनियाँ की तमाम भाषाओं को उत्पन्न किया और फिर जब अल्लाह तआला ने अलग-अलग कौमो में नबी भेजे और उनको आसमानी किताबें दी तो वह किताबें भी अलग-अलग भाषाओं में भेजी जिन्हें उस कौम के लोग बोलते थे।
जैसे मूसा अलैहिस्सलाम जिस इलाके में भेजे गए वहाँ के लोगों की ज़बान इब्रानी थी। इसलिए अल्लाह की किताब तौरात भी इब्रानी भाषा में भेजी गई। अरब के लोगों की ज़बान अरबी थी इस लिए क़ुरआन अरबी में उतारा गया।
दुनियाँ में आज 7 हज़ार से भी ज़्यादा भाषाएँ हैं उनमें से हर एक की अपनी अलग खूबसूरती और खुसूसियत है। अगर आप हिन्दी को देखें तो हिन्दी का अपना अंदाज़, लबो लेहजा, शायरी और मुहावरे हैं। उर्दू हिन्दी के मुकाबले में अपनी अलग पहचान और खूबसूरती रखती है। साथ ही इन भाषाओं के और भी कई फायदे हैं जैसे हर सभ्यता और उसका दौर इन भाषाओं के ज़रिए पता चलता है। किसी भी देश जगह की संस्कृति, तौर तरीके आदि को जानने में उस जगह की भाषा का ज्ञान सबसे ज़्यादा मदद करता है।
अगर दुनियाँ में सिर्फ़ एक भाषा होती तब अलग-अलग भाषाओं को सीखने और उनसे तमाम फायदे हासिल करने से इंसानियत महरूम (वंचित) हो जाती। अतः इन भाषाओं का वजूद में आना और इंसान को उसका इल्म कराना अल्लाह की निशानियों में से है।
आज आधुनिक भाषा विज्ञान (Modern Linguistics) भी विभिन्न भाषाओं की उत्पत्ति का इसी और इशारा करता है।
कुछ लोगों को यह उलझन (Confusion) हो जाती है कि दुनियाँ की भाषाएँ जब इतनी अलग-अलग हैं तो फिर वे 1 जोड़े आदम और हव्वा (अलैहिस्सलाम) की भाषाओं से कैसे सम्बंधित हो सकती हैं।
जबकि आज की आधुनिक भाषा विज्ञान (Modern Linguistics) का अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज दुनियाँ में 7,117 जीवित भाषा (Living Language) हैं जो आज बोली और जानी जाती हैं, इसके अलावा कई मृत और विलुप्त भाषाएँ भी हैं। यह सभी भाषाएँ किसी ना किसी एक मूल भाषा से निकली हैं जिन्हें Proto Language (आद्य भाषा) के नाम से जाना जाता है।
कई प्रोटो लैंग्वेज आज डेड या विलुप्त भी हो गई हैं। यानी उन में से निकली भाषाएँ तो आज जीवित हैं लेकिन वे ख़ुद जीवित नहीं है।
ऐसी ही एक प्रोटो लैंग्वेज जिसका नाम Anatolian या Proto-Indo-European (प्रोटो-इंडो-यूरोपियन) है आज दुनियाँ की 50% भाषाओँ की जनक है यानी आज दुनियाँ में बोले जानी वाली लगभग 3,550 भाषाएँ एक ही भाषा से उत्पन्न हुई है जिसको हम Anatolian नाम से जानते हैं।
यानी भले ही कई भाषाएँ अतीत में किसी एक भाषा से निकली हों लेकिन आज समय के साथ उनमें इतना बदलाव हो चुका है कि वे देखने में बिल्कुल अलग-अलग लगे औऱ उनमें कोई समानता ना दिखाई देती हो।
अतः स्पष्ट है कि आज मॉडर्न भाषा विज्ञान यह मानता है कि दुनियाँ की तमाम भाषाएँ कुछ एक भाषाओं से निकली हैं। साथ ही यह बात भी स्वाभाविक एवं प्रबल है कि यह प्रोटो भाषाएँ भी कहीं जा कर मिलती हो और किसी एक प्रमुख प्रोटो भाषा से निकली हों या उन भाषाओँ से जिनका इस्तेमाल आदम और हव्वा अलैहिस्सलाम करते थे।
अतः उपर्युक्त सवाल तो ग़ौर करने पर एक और निशानी में बदल जाता है।
और यक़ीन करने वालों के लिए ज़मीन में बहुत-सी निशानियाँ हैं
तथा स्वयं तुम्हारे भीतर (भी)। फिर क्यों तुम देखते नहीं?
(क़ुरआन 51: 20-21)
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जज़िया क्या और क्यों ?
जवाब:– किसी भी देश में रहने वाले नागरिकों के लिए एक कर प्रणाली अवश्य होती है। उस प्रणाली से ही देश चलता है। सभी सुविधाओं जैसे रोड़, बिजली पानी, अस्पताल, शिक्षा, रक्षा उपकरण एवं देश की सुरक्षा आदि का प्रबन्ध इसी के ज़रिए होता है।
हमारे देश में भी GST, इनकम टैक्स, प्रॉपर्टी टैक्स आदि का प्रावधान है। इनके अलग-अलग प्रकार हैं जो विभिन्न लोगों पर विभिन्न रूप से लागू होते हैं।
उसी तरह इस्लामिक रियासत में भी टैक्स सिस्टम (कर प्रणाली) का प्रावधान है। जो उस देश में रहने वाले सभी नागरिकों पर लागू होती है। उसी के अंतर्गत जज़िया कर भी आता हैं। जो उस मुल्क में रहने वाले गैर मुस्लिमों पर उन्हें दी जाने वाली विभिन्न सुविधाओं, रक्षा को सुचारू रखने के लिए लिया जाता है।
*तो क्या इस्लामिक रियासत में सिर्फ़ गैर मुस्लिमों से टैक्स लिया जाता है मुस्लिमों से नहीं?*
बिल्कुल नहीं, बल्कि जैसा पहले बताया गया कि मुस्लिमों से भी टैक्स लिया जाता है इसे *ज़कात* कहते हैं और यह मुस्लिमों के लिए मात्र टैक्स ही नहीं बल्कि धार्मिक अनिवार्यता भी होती है।
अगर यह दोनों टैक्स ही हैं और मुस्लिमों से ज़कात लिया जाता है तो गैर मुस्लिमों से भी ज़कात लेना चाहिए इसके लिए अलग नाम या प्रकार रखने की आवश्यकता क्यों?
इसके 2 प्रमुख कारण हैं :-
१. चूंकि ज़कात टैक्स के साथ-साथ मुस्लिमों की धार्मिक अनिवार्यता (फ़र्ज़) भी है जैसे उदाहरण के तौर पर ” नमाज़” पढ़ना। इस्लाम का यह उसूल है कि वह अपनी किसी अनिवार्यता को किसी दूसरे धर्म वाले पर नहीं थोपता। इसलिए उन से ज़कात नहीं ली जा सकती।
२. दूसरा कारण यह है कि जज़िया श्रेणी के कर वालों को बहुत–सी विशेष सुविधाओं का प्रावधान भी होता है जो कि “ज़कात श्रेणी” के कर वालों को इस्लामिक रियासत में प्राप्त नहीं होता।
जैसे इस्लामिक रियासत में गैर मुस्लिमों की जंग आदि में जान माल की रक्षा की पूरी जिम्मेदारी इस्लामिक रियासत एवं मुसलमानों की होती है। अतः किसी भी वक़्त जंग, आक्रमण में ज़रूरत पड़ने पर मुस्लिम शासक देश में रह रहे मुस्लिमों (ज़कात कर श्रेणी) को तो ज़कात देने के साथ-साथ जंग में लड़ने के लिए भी बुला सकता है (फिर चाहे वह सैनिक नहीं हो आम नागरिक और आम कारोबार करते हों)। उन्हें सुरक्षा के लिए तैनात किया जा सकता है। या यूँ कहें कि उन्हें आपात स्थिति में तैनाती पर लगाया जा सकता है।
लेकिन गैर मुस्लिम (जज़िया श्रेणी) के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता उन्हें यह विशेष अधिकार प्राप्त होता है कि वे इस तरह के किसी अतिरिक्त भार के लिए बाध्य नहीं हैं और ना उनसे मजबूरन यह काम लिया जा सकता है।
इसके अलावा जज़िया श्रेणी के नागरिक रियासत में “ज़िम्मी“ कहलाते हैं जो शब्द ज़िम्मेदारी से आता है। मतलब रियासत में रह रहे सभी गैर मुस्लिमों की जान माल, कारोबार, धार्मिक आज़ादी, धार्मिक स्थल आदि की सुरक्षा एवं संचालन की ज़िम्मेदारी इस्लामिक रियासत यानी गवर्नमेंट की है और अगर वे यह ना उपलब्ध करा पाए तो ज़िम्मीयो को इस्लाम यह अधिकार देता है कि वह अपने दिए जज़िये (टैक्स) को लौटाने की माँग कर सकते हैं। जो कि इतिहास में हुआ भी है जब कई बार जज़िया लौटाया गया। जबकि ज़कात श्रेणी में ऐसा कोई अधिकार नहीं है।
अतः मालूम होता है कि इस्लामिक रियासत में रह रहे गैर मुस्लिमों / अल्पसंख्यको के अधिकारों एवं उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं का मुस्लिमों से अधिक ध्यान रखा गया है।
यहाँ यह भी सोचने वाली बात है कि जिस तरह इस्लाम को बदनाम करने वाले दुष्प्रचार करते रहते हैं कि इस्लाम गैर मुस्लिमों को अपनी रियासत में रहने का हक़ नहीं देता या उन पर अत्याचार का कहता है। यदि इस बात में थोड़ी भी सच्चाई होती तो फिर इस्लामिक रियासत में गैर मुस्लिमों की रक्षा और सुविधाओं के प्रावधान किस लिए दिए गए हैं?
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इस्लाम दुनिया का पहला धर्म।
जवाब:- अक्सर लोग अज्ञानता के कारण समझते है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने इस्लाम धर्म की स्थापना 1400 वर्ष पूर्व की। जबकि तथ्य यह है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) इस्लाम धर्म के संस्थापक नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के अंतिम संदेष्टा एवं रसूल है।
स्वाभाविक है कि जिसका कोई अंतिम हो उसका कोई पहला भी होगा।
तो वह पहले कौन थे?
कुरआन में कई जगह इसका ज़िक्र है कि आदम अलैही सलाम (धरती पर पहले मनुष्य) ही प्रथम संदेष्टा यानी ईश्वर के प्रथम दूत भी थे, जिन्होंने अपनी संतानों को ईश्वरीय संदेश पहुँचाया और ईश्वरीय शिक्षा दी और उन्हीं से इस्लाम धर्म का आरम्भ हुआ।
प्रथम संदेष्टा से लेकर आखिरी संदेष्टा तक सभी संदेष्टाओं का मुख्य संदेश एक ही रहा है जो है *एकेश्वरवाद एवं ईश्वरीय आदेश का पालन करना*। अतः विश्व का पहला धर्म इस्लाम ही है।
प्रायः लोगों को यह ग़लतफहमी इसलिए भी हो जाती है अरबी भाषा का ज्ञान ना होने के कारण उन्हें ऐसा लगता है कि “अल्लाह” शब्द का प्रयोग पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने किया या लोगों को पहली बार इस बारे में बताया । यानी यह कोई एकदम-सी नई बात है जिसका उनसे पहले कोई ज़िक्र ही नहीं था ।
जबकि ऐसा नहीं है। “अल्लाह” अरबी भाषा में परमेश्वर के लिए प्रयोग होता है और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) से पहले भी लोग अरब में ईश्वर के लिए यह शब्द प्रयोग करते थे अतः आज की तरह ही हमेशा माना जाता रहा है के सृष्टि का स्वामी एक अल्लाह (परमेश्वर) तो है परन्तु समय समय पर लोगों ने इसमें अपने अनुसार मत जोड़ लिए एवं संदेष्टाओं द्वारा बताए मार्ग से भटकते रहे।
इसीलिए अल्लाह समय-समय पर अपने संदेष्टा भेजता रहा और आदम से लेकर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) तक हर काल हर देश में उसने अपने संदेष्टा भेजे जिसका ज़िक्र क़ुरआन में है
हमने हर कौम में एक रसूल / संदेष्टा भेजा (जो लोगों को इस बात की तरफ़ बुलाता था ) के तुम अल्लाह की इबादत करो
(क़ुरआन 16:36)
अतः जब भी कभी कोई संदेष्टा भेजा जाता तो कई लोग उन संदेष्टाओं की बात मान ईश्वर के आदेशों का पालन करते तो कई इसके उलट उन्हें झूठला देते एवं एकेश्वरवाद के विपरीत आचरण जारी रखते।
सभी संदेष्टा नियत समय काल और लोगों के लिए थे जिन सभी का मूल संदेश तो एक ही था वह यह कि “एक ईश्वर की उपासना करना एवं उसके आदेशों का पालन करना” जबकि व्यवहारिक आदेशों में कालखण्ड के अनुसार बदलाव होते रहे ।
उदाहरण के तौर पर आज सभी मुस्लिम जो इस बात का सामर्थ्य रखते हैं, पर अनिवार्य है कि वह मक्का में जाकर हज करें। फिर चाहे वे विश्व के किसी कोने में भी रहते हों और आज हवाई यात्रा आदि उपलब्ध होने पर यह बिल्कुल सम्भव है पर यदि यही आदेश आज से कई हज़ार वर्ष पूर्व होता जब इंसान को दिशा आदि का ही ज्ञान नहीं था, तब तो यह असम्भव होता । अतः उस समय मूल आदेश के अलावा इबादत में यह चीज़ अनिवार्य नहीं की गई।
इस तरह के बदलाव (Updates) आते रहे और 1400 वर्ष पूर्व मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) के आ जाने पर अंतिम आदेश (Final update) क़ुरआन आ गया और अब क़यामत तक यही रहने वाला है।
जैसा कि फ़रमाया:-
“…आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम को पसंद किया…”
(क़ुरआन 5:3)
पूर्व में जितने भी संदेष्टा के संदेश और ग्रंथ अवतरित हुए अब वह उनकी मूल अवस्था में ना रहे और कई तो विलुप्त हो गए और यह अल्लाह के आदेश अनुसार ही हुआ क्योंकि एक बार अंतिम आदेश (Final update) आ जाने पर सिर्फ़ अंतिम को ही सुरक्षित रखा जाता है।
फिर भी निशानियों के तौर पर और सत्य खोज करने वालो के लिए पथ-प्रदर्शन करने के लिए विश्व के सभी प्राचीन प्रमुख ग्रंथो में आज भी कहीं ना कहीं इस्लाम की मूल शिक्षा एकेश्वरवाद, अंतिम संदेष्टा की सूचना आदि बातें समान रूप से मिल जाती हैं। फिर चाहे वह किसी भी धर्म का ग्रन्थ क्यों ना हो। जो कि संयोगवश होना असंभव है। या यह कह लें के अल्लाह ने इन बातों को निशानियों के तौर पर बाक़ी रखा।
तो मालूम हुआ कि इस्लाम की मूल शिक्षा तो हमेशा से ही हर काल में रही।
अब अगर सवाल यह होता है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) से पहले लोग क्या करते थे?
तो जवाब यही है कि वही करते थे जो आज करते हैं। यानी कि कुछ लोग वक़्त के संदेष्टा के बताए रास्ते पर चल कर अल्लाह के आदेश का पालन करते थे तो कई दूसरे लोग संदेष्टा को नहीं मानते और किसी और मत का अनुसरण करते थे।
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मोहम्मद सल्लाहो अलैहि व सल्ल्म के खत।
जवाब:- जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में जाना कि इस्लाम ना युद्ध से फैला ना तलवार से और ना ही यह सम्भव है। बल्कि इस्लाम तो फैला है मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत से। जिन्होंने हर छोटे-बड़े, अमीर-गरीब तक इस्लाम का पैगाम पहुँचाया।
यहाँ उन खास राजाओं, बादशाहों का उल्लेख है, जिनको हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस्लाम को मानने के लिए पत्र लिखे। जिस पर उन बादशाहों ने *इस्लाम* का अध्ययन कर इस्लाम को अपनाया।
जिन बादशाहों ने पत्र मिलने पर इस्लाम क़ुबूल किया..!
1) हब्शा (आज के दौर में इथियोपिया और Eritrea) के बादशाह नजासी जिनका नाम अश्मा इब्न अब्ज़र था।
2) मिस्र के बादशाह अल-मुकव्कीस।
3) बहरीन के राजा मुन्ज़िर इब्न सावा।
4) ओमान के राजा जैफर और उनका भाई अब्द दोनों ने इस्लाम क़ुबूल किया।
5) यमन के गवर्नर के द्वारा फारस के बादशाह को पत्र भेजा जिस पर यमन के गवर्नर ने इस्लाम कुबूल किया।
भारत के राजा *चेरामन पैरुमल* जिनको पत्र तो नहीं लिखा लेकिन इस्लाम के बारे में जानने पर 629 ई में उन्होंने इस्लाम कुबूल किया।
*इसके अलावा और कुछ बादशाहों को भी पत्र लिखे जिन्होंने इस्लाम तो क़ुबूल नहीं किया पर बाद में उनकी प्रजा इस्लाम कुबूल कर मुसलमान हुई।*
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*क्या इस्लाम युद्ध से फैला?*
*जवाब:-*
पैगम्बर ए इस्लाम , अंतिम सन्देष्टा हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म 570 ई में मक्का में हुआ था। लगभग 610 ई में लोगों को इस्लाम कि दावत दी।
23 सालों में पूरा अरब यानी आज के 22 देश के सभी रहवासी मुसलमान हो गए।
*614/628 में अफ्रीका,*
628 ई में बहरीन,
*629 ई में भारत,*
632 ई में इराक,
636 ई में जॉर्डन,
639 ई में मिस्र,
640 ई में ईरान,
670 में अल्जीरिया,
680 ई में मोरक्को,
634 ई में सीरिया,
*618/650 ई में चीन,*
7 वीं सदी में लेबनान,
7 वीं सदी में लीबिया,
*711 में यूरोप में इस्लाम ने प्रवेश किया।*
और इस तरह सिर्फ़ 1 सदी में ही पूरे विश्व में इस्लाम फैल गया।
*क्या सम्भव है..? युद्ध से इतने सारे देश इतनी जल्दी किसी भी विचार को मानने के लिए तैयार हो जाये? और आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी गर्व से उसी धर्म पर मर मिटने को तैयार रहे?*
उस वक़्त दुनियाँ में केवल 2 ताक़ते {फारस और रोम} थी जो आज के अमेरिका, रूस और चीन जितनी ताक़तवर थी और अरब के लोगों के पास तो जंगी / युद्ध का सामान ना के बराबर था। अतः क्या तलवार के दम पर इस्लाम का प्रसार सम्भव था?
अतः यह स्पष्ट है कि इस्लाम तलवार, अपहरण, ज़ुल्म सितम से नहीं बल्कि उसकी *सच्चाई / सत्यता / हक़्क़ानियत और उसके ईश्वरीय धर्म* होने के कारण फैला है।
अगली पोस्ट में हम देखेंगे कि किस तरह पैगम्बर ए इस्लाम ने छोटे बड़े सभी को इस्लाम का पैगाम पहुँचाया और इस सम्बन्ध में ख़त लिखे।
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इस्लाम कैसे फैला एक logical analysis
अक्सर लोग ये इल्ज़ाम लगाते है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला, मुस्लिमों ने लूट मार मचाई, बलात्कार किया, अपहरण किया, ये आतंकी होते है? आदि! आदि!
यहीं तक नहीं बल्कि ये भी कहा जाता है कि उपर्युक्त लिखी गई बातें इस्लामिक धर्म ग्रन्थों में लिखी होती है।
इस तरह के इल्ज़ाम लगाने वाले भाईयों से निवेदन है कि वे सोचकर बताये कि अगर इन बातों में रत्ती बराबर भी सच्चाई होती तो क्या आज जो लोग मुसलमान है, क्या वे इन सब बातों के बावजूद मुस्लिम होते..?
क्या इतने सारे देश मुस्लिम होते..? क्या आज विश्व में सबसे ज़्यादा तेज़ी से स्वीकार किया जाने वाला धर्म इस्लाम होता?
बिल्कुल नहीं ..! तो फिर हम इस्लाम कि सच्चाई को जानने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं..?
भारत में सन् 629 में इस्लाम ने प्रवेश किया। कुछ लोग झूठे इतिहास और तथ्यों की बुनियाद पर ऐसे आरोप लगाते हैं कि इस्लाम भारत में अत्याचार से फैला और अधिकांश लोग जांच पड़ताल करे बिना उसे सही मान लेते हैं। उन्हें यह सोचना चाहिए कि क्या इन व्हाट्सएप्प पर झूठे और फेक मैसेज भेजने वालों को क्या *स्वामी विवेकानंद* से ज़्यादा इतिहास का ज्ञान है?
विवेकानंद जी ने इस सोच को की भारत में इस्लाम तलवार से फैला है को एक *पागलपन* बताया है।
उन्ही के शब्दों में :
*”भारत में मुस्लिम विजय ने उत्पीड़ित, गरीब मनुष्यों को आजादी का जायका दिया था। इसीलिए इस देश की आबादी का पांचवां हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सब तलवार के ज़ोर से नहीं हुआ। तलवार और विध्वंस के जरिये हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, यह सोचना पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है।”*
(संदर्भःSelected Works of Swami Vivekanand, Vol.3, 12th edition,1979. p.294)
पैगम्बर ए इंसानियत, अंतिम सन्देष्टा हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म 570 ईस्वी में मक्का में हुआ था। लगभग 610 ईस्वी में लोगों को इस्लाम कि दावत दी।
23 साल मात्र में पूरा अरब मुसलमान हो गया। (अरब कोई 1 देश नहीं बल्कि आज के दौर के 22 देशों के समूह को अरब कहते है)
और सिर्फ़ 1 ही सदी में यह पूरे विश्व में फैल गया। उस वक़्त दुनियाँ में 2 ताक़ते {फारस और रोम} थी जो आज के अमेरिका, रूस और चीन जितनी ताक़तवर थी। अरब के लोगों के पास तो जंगी / युद्ध का सामान ना के बराबर था। अतः क्या तलवार के दम पर इस्लाम का प्रसार सम्भव था?
और आज 1441 साल बाद भी सभी मुस्लिम देश और बाक़ी देशों में रह रहे मुस्लिमों के वंशज आज भी मुसलमान ही है।
जिस तरह आज दलित / अश्वेत विश्व भर में इतिहास और उन पर हुए अत्याचारों के प्रति जागरूक है और उस व्यवस्था एवं अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचार के प्रति विद्रोह में हैं। तब अगर इस्लाम अत्याचार या जबरन थोपा गया होता तो ऐसा ही विद्रोह और त्याग मुस्लिम देशों में और मुस्लिम वंशजो में नहीं होता…?
निश्चित ही ऐसा नहीं है, बल्कि यह सभी तो इस्लाम को अपने हृदय से आत्मसात किये हुए हैं।
अतः स्पष्ट है कि इस्लाम तलवार, अपहरण, ज़ुल्म सितम से नहीं बल्कि उसकी *सच्चाई / सत्यता/ हक़्क़ानियत उसके ईश्वरीय धर्म* होने के कारण फैला है।
*यकीन मानिए अगर आप इस्लाम का अध्ययन करेंगे तो आप भी इससे आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकेंगे। इस्लाम को (सही स्रोतों से) पढ़ कर देख लीजिये।*
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Historical Misconception – Welcome Post
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