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  • हज सब्सिडी का खेल

    हज सब्सिडी का खेल

    जवाब:- महामारी के इस कठिन समय में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के अभाव में लोग परेशान हो रहे हैं जब लोगों ने सोशल मीडिया पर यह आवाज़ उठाना शुरू की तो उनका यह आक्रोश ट्रेंड में आ गया। कई बुद्धिजीवियों ने यह भी कटाक्ष किए की लोगों ने “धर्म के नाम पर वोट दिये थे अस्पतालों के नहीं ” अब अगर अस्पताल में बेड नहीं मिल रहे है तो इसमें सरकार कि क्या गलती अगर जनता ने सरकार से विकास के मुद्दे पर वोट दिया होता तो आज अस्पताल, बेड और ऑक्सीजन होते।

    जब सोशल मीडिया (Social media) पर यह ट्रेंड तेज़ी से वायरल होने लगा और जनता सवाल करने लगी तो लोगों का ध्यान हर बार असल मुद्दों से भटका कर मुसलमानों पर लाने वालों ने मामला बिगड़ता देख तुरंत जनता को भ्रमित करने के लिये इस तरह के मैसेज वायरल करना चालू किये ~”अस्पताल बनवाने कि ज़िम्मेदारी सिर्फ मोदी जी को मिली है…बाकी को हज हाउस, मदरसे, मस्जिद, कब्रिस्तान बनाने का ठेका मिला था। आज़ादी के बाद से खरबों रूपये कि हज सब्सिडी मुसलमानों को दे दी गई है।”~

    असल में वे अच्छी तरह जानते हैं कि आज बहुसंख्यक समाज के दिमाग में उन्होंने यह बात बैठा दी है कि उनके होने वाले हर नुकसान के पीछे मुस्लिम शब्द है और इसी का सहारा लेकर इस बार भी वे अपना काम बना लेंगे।

    इसलिए कोरोना कि इस आपदा के समय हज सब्सिडी की बात को बिना किसी आधार के ही उछाल दिया गया । 

    खैर, इनका तो यह काम है और इसमे इनका फ़ायदा जुड़ा है लेकिन ग़लती तो उन भोले-भाले लोगों की है जिनको कोई भी बड़े आराम से मूर्ख बना देता है और जो लोग इस तरह की बातों से चला दिये जाते हैं उनकी बुद्धि पर हँसी कम बल्कि दया ज़्यादा आती है।

    वैसे तो हज सब्सिडी को इस मामले में जोड़ना ही बड़ा तर्कहीन (Illogical) औऱ मूर्खता पूर्ण है। फिर भी अगर हम इस बहाने ही सही हज सब्सिडी की बात करें तो हर समझदार और जागरूक भारतीय नागरिक को ये पता है कि हज के नाम पर सब्सिडी हाजियों को नहीं बल्कि एयर इंडिया (Air India) को दी जाती थी और जब तक सब्सिडी दी गई तब तक ही एयर इंडिया (Air India) चली। सब्सिडी के बंद होते से ही एयर इंडिया (Air India) भी बन्द हो गई

     

    अब इस खेल को समझने के लिए इतिहास और कुछ आंकड़ों को समझना होगा।

    जाने-माने उद्योगपति जेआरडी टाटा ने भारत की आज़ादी से पहले ही 1932 में टाटा एयरलाइंस की स्थापना की थी। आज़ादी के बाद यानी 1947 में टाटा एयरलाइंस की 49 फ़ीसदी भागीदारी सरकार ने ले ली थी। 1953 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया था.

    1954 तक हज यात्री मुंबई के शिपिंग कंपनी के जहाजों से हज करने के लिये जाते थे। लेकिन 1954 में हवाई मार्ग द्वारा हज यात्रा शुरू हुई। बावजूद इसके भारी संख्या में यात्री समुद्री मार्ग से ही जाते थे। 1973 में हज यात्रियों को लेकर जा रहे एक जहाज के हादसे के बाद 1973 में सरकार ने फैसला लिया कि हज यात्री अब सिर्फ हवाई यात्रा से ही हज करने जाएंगे। लेकिन हवाई यात्रा महंगी थी। एयर इंडिया (Air India) शिपिंग कंपनी से सस्ती यात्रा उपलब्ध कराने में असमर्थ थी। इसके लिए इंदिरा गांधी ने एयर इंडिया (Air India) को सब्सिडी देना शुरू किया। जो कि 2016 तक चली। जी हाँ सब्सिडी हज के नाम पर एयर इंडिया (Air India) को दी जाती थी।

    हज के नाम पर सब्सिडी का जो गौरख धंधा चल रहा था। जिसमे नेताओं और उनके चहेतों को फ्री यात्रा का मज़ा दिया जा रहा था और बदनाम मुस्लिमों को किया जा रहा था। उसकी सच्चाई मोहम्मद जाहिद साहब का 2016 का यह लेख आँखें खोलने के लिए काफी है।

     

    ⚫ कैलकुलेशन ऑफ़ सब्सिडी 2016 के अनुसार

    2016 के अनुसार मक्का शरीफ से इंडिया के लिये हाजियों का कोटा एक लाख छत्तीस हज़ार (1,36,000) का था।

    2015 में हमारी सरकार ने सालाना बजट में 691-करोड़ हज सब्सिडी के तौर पर मंज़ूर किये थे।

    691 करोड़ ÷ 1.36 लाख = 50.8 हज़ार

    यानी एक हाजी के लिए 50000 रुपये ।।

     

    ◀ अब ज़रा खर्च जोड़ लेते हैं ▶

    2015 में एक हाजी को हज के लिए सरकार को एक लाख अस्सी हज़ार (1,80,000) देने पड़े।

    जिसमे चौतीस हज़ार (34,000) लगभग 2100 रियाल मक्का पहुँचने के बाद खर्च के लिए वापस मिले।

     

    1.8 लाख – 34000 = 1.46 लाख

    यानी हमें (एक हाजी को) हमारी सरकार को एक लाख छियालीस हज़ार (1,46,000) रुपये अदा करने पड़ें हैं ।।

    दिल्ली मुम्बई लखनऊ से जेद्दाह रिटर्न टिकट 2 महीने पहले बुक करते हैं तो कुछ फ्लाइट का किराया 25000 रुपये से भी कम होगा। फिर भी 25000 रुपये मान लेते हैं । (IRCTC पर चेक कर लीजिये) खाना टैक्सी/बस का बंदोबस्त हाजियों को अलग से अपनी जेब से करना होता है।

    सरकार को अदा किये एक लाख छियालीस हज़ार रुपये (1,46,000) में से होने वाला खर्च

    फ्लाइट = 25,000

    मक्का में रहना (25 दिन) = 50,000

    मदीना में रहना (15 दिन) = 20,000

    अन्य खर्चे = 25,000

    कुल खर्च हुआ = 1,20,000

     

    😧 कन्फ्यूज़न 😧

    मतलब एक हाजी से लिये 1,46,000 रुपये और खर्च आया 1,20,000 रुपये मतलब एक हाजी अपनी जेब से सरकार को रूपये 26,000 अधिक देता है ।

     

    अब असल मुद्दा ये है कि जब हाजी सारा रुपया अपनी जेब से खर्च करता है और उसके ऊपर भी 26,000 रुपये और सरकार के पास चला जाता है। मतलब लगभग एक हाजी से रूपये 50 हज़ार सब्सिडी मिला कर सरकार के पास 76,000 हज़ार हो जाता है तो ये पैसा जाता कहाँ है..?

    26,000+50,000 =76000 (बचत)× 1,36,000 हाजी =10,33,60,00,000 (दस अरब तैंतीस करोड़ साठ लाख रुपया)

     

    ध्यान दीजिए कि सऊदी अरब सरकार एयर इंडिया को हज यात्रा के लिए एक तरफ के हवाई जहाज़ का ईंधन भी मुफ्त में देती है जिसे यह लोग खा जाते हैं। यह प्रति व्यक्ति खर्च का गणित है। यदि एक लाख छत्तीस हजार हज यात्रियों को हज कराने का टेंडर निकाला जाए तो इसमें 10 से 15 हजार रुपये की और बचत होगी। जो खर्च बताए गए हैं उनमें एक रूपये का भी अन्तर नहीं है क्योंकि उमरा करने पर लगभग यही खर्च आता है।

     

    इसी तरह हज हाउस, मस्जिद, मदरसे जो भी मुस्लिम धार्मिक स्थल होते है। वे सब मुस्लिम समाज के चंदे से बनते है।।

     

    यह तो थी हज सब्सिडी की बात जिस से मुसलमानों को तो नहीं बल्कि सरकार, सरकारी अफसरों और उनसे जुड़े लोगों को ही फायदा हो रहा था, ख़ैर वह भी 2018 में बंद भी हो गई , जबकि महामारी ने भारत में विकराल रूप दिखाया 2020 में और दूसरी लहर आई 2021 में लेकिन इसके बावजूद किसी मंदबुद्धि को महामारी नियंत्रण (Control) ना कर पाने और इलाज की व्यवस्थाओं की कमी का कारण किसी तरह की धार्मिक सब्सिडी दिख रही हो तो उसे एक बार हर धार्मिक आयोजन या धार्मिक यात्राओं पर सरकारी सहायता, यात्राओं पर ख़र्च जैसे मानसरोवर, वैष्णोदेवी, अमरनाथ आदि एवं मध्य प्रदेश और अन्य प्रान्तों में मुख्यमंत्री तीर्थ यात्रा योजनाओं पर मुफ्त में तीर्थ यात्रा के प्रावधानों आदि को भी एक बार देख लेना चाहिए जो पहले भी थी और अब भी जारी हैं।

  • मुस्लिम को इस्लाम की अच्छी बातें क्यों नहीं सिखाई जाती ?

    मुस्लिम को इस्लाम की अच्छी बातें क्यों नहीं सिखाई जाती ?

    जवाब:-  यह कहना ग़लत होगा कि मुसलमानों को क्यो नहीं समझाया जाता।

    क्योंकि इस्लाम के सभी अरकान और ख़ुद क़ुरान में बार-बार इसकी सीख मिलती है। इसके अलावा हर जुमआ, ईद के मौके और अन्य कई मौकों पर ख़ुत्बे सिर्फ़ मुलसमानों की समझाइश और प्रेरणा के लिए ही होते हैं। कई जमाअते हैं जो मुसलसल यही काम करती हैं। जैसे क़ुरआन की आयत में खुला निर्देश है :

    तथा तुममें एक समुदाय ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो भली बातों की ओर बुलाये, भलाई का आदेश देता रहे, बुराई से रोकता रहे और वही सफल होंगे।*
    (क़ुरआन 3:104)

    इसके बाद भी अगर कोई बाज़ नहीं आता सही अमल नहीं करता तो वह सज़ा का भागी होगा। क्योंकि इस्लाम का यह कहना नहीं कि सिर्फ़ मुसलमान हो जाओ और उसके बाद जो मर्ज़ी चाहे करो। बल्कि अगर इंसान आख़िरत (परलोक) की कामयाबी चाहता है तो उसे ज़िंदगी भर अल्लाह के आदेश पर अमल करना होगा।

    अल्लाह तआला सिर्फ़ मुसलमानों का ईश्वर नहीं है बल्कि वह तमाम इंसानो और संसारो का रब है।👇

    सब प्रशंसायें अल्लाह के लिए हैं, जो सारे संसारों का पालनहार है।
    (क़ुरआन 1:1)

    और उसका पैगाम भी सभी इंसानो के लिए समान रूप से स्पष्ट है :-👇

    ये अल्लाह की (निर्धारित) सीमाएं हैं और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञाकारी रहेगा, तो वह उसे ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी। उनमें वे सदावासी होंगे तथा यही बड़ी सफलता है और जो अल्लाह तथा उसके रसूल की अवज्ञा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, उसे नरक में प्रवेश देगा। जिसमें वह सदावासी होगा और उसी के लिए अपमानकारी यातना है।
    (क़ुरआन 4:13-14)

    साथ ही हमारी यह जिम्मेदारी है कि अल्लाह के हुक्म को सभी तक पहुँचा दे। लेकिन उसके बाद भी अगर वे अनुसरण नहीं करते तो यह उनकी मर्ज़ी है इस पर हमारा कोई ज़ोर नहीं है।

    फिर यदि वे विमुख हों, तो आप पर बस प्रत्यक्ष (खुला) उपदेश पहुँचा देना है।
    (क़ुरआन 16:82)

    अतः हमारा कार्य तो सभी को बता देना है। ना तो यह हमारे लिये सम्भव है ना ही इसकी जिम्मेदारी ईश्वर ने हम पर डाली है कि सभी को सही और सुधार कर दें।

    बल्कि यह तो व्यक्ति विशेष पर है कि वह अल्लाह के आदेशों पर कितना अमल करता है फिर चाहे वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम हो सभी को अपना हिसाब देना है सभी के सामने अल्लाह का आदेश है। सभी को अपनी फ़िक्र करना चाहिए, इसमें कोई समझदारी नहीं की पहले वह सही काम करे फिर मैं करूंगा या वह जब मुस्लिम होकर ईश्वर के बताए हुक्म पर अमल नहीं कर रहा तो मैं क्यों करूं? उसकी सज़ा वह भुगतेगा आप अपने बारे में फ़िक्र करें।

    क्योंकि यह दुनिया तो सिर्फ़ परीक्षा की जगह है असल ज़िदगी तो आख़िरत (मरणोपरांत परलोक) की ही है।

  • मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    जवाब:- यह कहना बिल्कुल ही निराधार और झूठ है कि किसी भी हिन्दू संस्थान को सरकार से पैसा नहीं मिलता। ऐसे सैकड़ों हिंदू संस्थान है जिन्हें सरकार से पैसा और अनुदान मिलता है। सिर्फ़ पिछले साल ही ऐसे 736 संस्थान सरकारी मदद (पैसो) के लिये रजिस्टर किये गए जिन्होने ख़ुद को संघ की विचारधारा से प्रेरित बताया। ऐसे सभी संस्थाओं की लिस्ट भारत सरकार की नीति आयोग की अधिकृत वेबसाइट पर जाकर देखी जा सकती है।

    इन संस्थाओं के अलावा बात करें तो कुंभ, सिंहस्थ व अन्य धार्मिक मेलों के आयोजन एवं अमरनाथ, वैष्णो देवी आदि यात्रा के प्रबंध व स्टाफ आदि में हज़ारों करोड़ रुपये सरकार ही ख़र्च करती है। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है क्योंकि सरकार का काम ही जनकल्याण होता है। लेकिन इन सभी तथ्यों को छुपा कर मात्र मुसलमानो के खिलाफ जो प्रोपेगेंडा किया जाता है वह ग़लत है।

    अब बात करें मदरसों की तो आज हम देखे की किस तरह शब्दो की हेराफेरी कर झूठ फैलाया जाता है। जहाँ क्षेत्रीय भाषा के सरकारी स्कूलों को उनकी भाषा के नाम से जाना जाता है जैसे मराठी, संस्कृत, गुजराती स्कूल आदि वहीं उर्दू भाषा वाले सरकारी स्कूलों को उर्दू स्कूल की जगह जानबूझ कर मदरसा कह दिया जाता है। इसी तरह उर्दू बोर्ड को मदरसा बोर्ड कह दिया जाता है और ऐसा बताया जाता है कि सरकार मदरसों को पैसे दे रही है या मदरसा-शिक्षको को तनख्वाह दे रही है। जबकि इन स्कूलों में कई शिक्षक तो हिन्दू या दूसरे धर्म के होते हैं जैसे अन्य दूसरे सरकारी स्कूलों में होते है।

     

    जबकि मदरसे जिनसे धार्मिक शिक्षा स्थानों का मतलब लिया जाता है वह सभी स्वायत्तशासी (Autonomous) ही होते हैं और समाज के ज़कात औऱ सदकों से चलते हैं। जिनमें ज़्यादातर ग़रीब-बच्चे पढ़ते हैं जिनके रहने खाने की व्यवस्था भी ख़ुद मदरसे वाले करते हैं और ऐसा कर वह सरकार का सहयोग ही करते हैं क्योंकि हर गरीब बच्चे की शिक्षा और पोषण की ज़िम्मेदारी सरकार की भी होती है।

    धार्मिक शिक्षा के अलावा कई मदरसों में स्कूली और प्राथमिक (Primary) शिक्षा भी दी जाती है। जिसके ख़र्च भी अधिकांशतः मदरसे ख़ुद ही उठाते हैं और आम शिक्षा के लिए सरकार से दी जा रही मदद को भी नहीं लेते। जैसे दारुल उलूम देवबंद से जुड़े 3000 मदरसों ने प्राइमरी शिक्षा के लिए भी सरकार से किसी तरह की मदद लेने से इनकार कर दिया। ऐसा ही अधिकांश मदरसों ने किया।

    अतः मालूम हुआ कि मदरसे न केवल ख़ुद मुस्लिमो के ख़र्च से चलते हैं बल्कि गरीब बच्चो की आम शिक्षा के लिए जो सरकार प्रावधान करती है उसे भी छोड़ कर देश हित में योगदान करते हैं।

    अब अंत में वक्फ बोर्ड और उस से जुड़े कर्मचारियों की तनख्वाह के बारे में जानते हैं। यह जानना तो खुद मुस्लिमो के लिए बड़ा रोचक है कि पूरे भारत में रेलवे के बाद अगर किसी संस्था के पास ज़मीन है तो वह *वक्फ* के पास है यानी मुसलिम कौम की ज़मीन है। आज देश में ज़मीन सबसे महंगा सरमाया है और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में होने के बावजूद मुस्लिमो की आर्थिक हालात देश में सबसे खराब है।

    बड़े ताज्जुब की बात है कि देश भर के प्राइम लोकेशन पर ज़मीनों की मालिक कौम के लोगों के पास ही रहने के लिए घर नहीं है ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इस ज़मीन से मुसलिम समाज को कोई फायदा ही नहीं मिल रहा। बल्कि अक्सर लोगों को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। देश भर की प्राइम लोकेशन वाली वक्फ की जमीनों पर ज़्यादातर कब्ज़ा हो चुका है। यह ज़मीन आपसी रज़ामन्दी से सरकारी बिल्डिंगे बन चुकी हैं और रजामंदी किसकी? यह इन्हीं कुछ लोगों की जिन्हें ख़ुद सरकार ने वक्फ की ज़मीन की देखभाल के नाम पर नियुक्त (Appoint) कर रखा है।

     

    ऐसे ही जहाँ भी किसी समाज की ज़मीन है और उस के संचालन के लिए सरकार ने कुछ लोगों को नियुक्त कर उन्हें तनख्वाह देती है दरअसल इससे समाज का नहीं बल्कि नेताओ और सरकारों का ही भला होता है।

     

    जबकि कुछ लोगों को नियुक्त कर तनख्वाह देने की बजाय अगर पारदर्शिता से इस वक्फ की ज़मीन का सही उपयोग किया जाए तो वह सही मायनों में मुस्लिम समाज की मदद एवं न्याय होगा।

  • काबे की ओर सजदा क्यों?

    काबे की ओर सजदा क्यों?

    जवाब:- बेशक अल्लाह तो हर दिशा का मालिक है। 

    और पूरब व पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह) है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है।

    (क़ुरआन 2:115)

    लेकिन अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम और आसानी करते हुए उनके लिए एक क़िबला (Direction) मुकर्रर कर दिया ताकि वे जब भी, जहाँ कहीं भी हों, नमाज़ अदा करें तो सभी 1 ही Direction में अदा करें। ताकि किसी तरह के इख्तिलाफ (मतभेद) या Confusion की गुंजाइश ना रहे।

    (हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो। तथा (हे मुसलमानों!) तुम जहाँ भी रहो, उसी की ओर मुख किया करो…

    (क़ुरआन 2:144)

    इस्लाम एकता और अनुशासन (Discipline) का प्रतीक है। मुस्लिम दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करते हैं जो कि सामूहिक रूप से अदा करना श्रेष्ठ है। यदि कोई क़िबला मुकर्रर नहीं किया गया होता तो कोई किधर चेहरा कर के नमाज़ अदा करता तो कोई किसी दूसरी ओर। जिस से जमाअत से नमाज़ पढ़ना मुमकिन नहीं हो पाता और हर वक्त मतभेद और Confusion की स्थिति बनी रहती। इसलिये अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम करते हुए उनके लिए एक क़िबला मुकर्रर किया और उसी ओर चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया। अतः अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए विश्व भर में जहाँ कहीं भी नमाज़ अदा करते हैं तो काबे की दिशा में करते हैं।

    ➡️ इसी संबंध में ग़लतफ़हमी और अज्ञानता के चलते कुछ गैर मुस्लिम यह समझ लेते हैं कि काबे कि इबादत (पूजा/उपासना) की जाती है। जबकि मुस्लिम काबे कि इबादत नहीं करते हैं ना ही उसे पूजनीय समझते हैं।

    ▪️काबा के मुकाम पर स्थित *“हजरे-अस्वद” (काले पत्थर)* से संबंधित दूसरे इस्लामी शासक हज़रत उमर (रज़ि.) से एक कथन उल्लिखित है। हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक “सहीह बुख़ारी” भाग-दो, अध्याय-हज, पाठ-56, हदीस न. 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया–

    “मुझे मालूम है कि (हजरे-अस्वद) तुम एक पत्थर हो। न तुम किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हो और न नुक़सान और मैंने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुम्हें छूते (और चूमते) न देखा होता तो मैं न तो कभी तुम्हें छूता (और न ही चूमता)।”

    ▪️इसके अलावा लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे:-

    अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में तो लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे। यह बात इतिहास से सिद्ध है। अब जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुसलमान काबा की उपासना (इबादत) करते हैं उनसे पूछना चाहिए कि भला बताइए तो सही कि कौन मूर्तिपूजक मूर्ति पर चढ़कर खड़ा होता है।

    ▪️इस बात में किसी प्रकार का संदेह बाकी ना रहे इसीलिए मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन काल में ही अल्लाह ने तहविले क़िबला (क़िबले का बदलना) कर यह बात ख़ुद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा से प्रैक्टिल कर सबके सामने स्पष्ट कर दी गई, की जब आप मक्का में थे तब अल्लाह का आदेश बैतूल मुकद्दस की तरफ़ चेहरा कर नमाज़ पढ़ने का था। आप मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना तशरीफ़ ले जाने के एक साल बाद तक इस हुक्म पर अमल होता रहा। फिर अल्लाह ने क़िब्ले को बदलने का हुक्म दिया जिसे  तहविले क़िबला कहा जाता है और फिर मुसलमानो ने काबे की तरफ चेहरा कर नमाज़ पढ़ना शुरू की।

    जिस से साबित हो गया कि मुसलमान ना काबे को पूजनीय समझते हैं ना पूजते हैं यह तो सिर्फ़ अल्लाह का आदेश है उसने जिधर रुख करने का कहा उस तरफ़ रुख कर नमाज़ की जाती है।

    और अंत में इस सम्बन्ध में कुर’आन की यह आयत ही पर्याप्त है: –

    नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुँह मशरिक या मग़रिब की तरफ़ कर लो, मगर नेकी यह है जो ईमान लाए अल्लाह पर और यौमे आखिरत पर और फरिश्तों और किताबों पर और नबियों पर, और उस (अल्लाह) की मुहब्बत पर माल दे रिश्तेदारों को और यतीमों और मिस्कीनो को और मुसाफिरों को और सवाल करने वालों को और गर्दनों के आज़ाद कराने में, और नमाज़ काईम करें और ज़कात अदा करें, और जब वह अहद करें तो उसे पूरा करें, और सब्र करने वाले सख्ती में और तकलीफ में और जंग के वक़्त, यही लोग सच्चे हैं, और यही लोग परहेज़गार हैं।

    (क़ुरआन-2:177)

     

  • इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम में औरतों कि वह इज़्ज़त और एहतराम है जिसका और कहीं तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं किया जा सकता इस्लाम ने जहाँ औरतों का मकाम बहुत बुलन्द किया है वहीं कुछ मामलों में उन्हें पुरूषों से भी ज़्यादा तरजीह दी है। यही वज़ह है कि आज सबसे मॉडर्न तरीन समझें जाने वाले यूरोप और अमेरिका में इस्लाम कबूल करने वालों में मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतें हैं। इनमें कई जानीमानी हस्तियाँ भी हैं। अगर इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ कमतर होते तो क्या यह सम्भव था?

     

    इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ और ऊँचे दर्जे की इतनी बातें हैं कि उन सभी का उल्लेख किसी एक पोस्ट में किया जाना असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जा रहा है।

     

    शुरुआत करते हैं आर्थिक पहलू से अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम औरतों को कमाने और काम काज करने का अधिकार नहीं देता और इसी के ज़रिये सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है।

     

    तो सबसे पहले तो यह जान लें कि इस्लाम में औरतों को कमाने की मनाही नहीं है बल्कि इस्लाम में औरतों को कमाने की ज़रूरत ही नहीं है।

     

    इस्लाम औरतों को यह विशेषाधिकार (Privilege) देता है कि उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी हर हाल में पुरुषों (पिता / पति / भाई) के ज़िम्मे है। यह उनका अधिकार है।

     

    इसके बावजूद अगर वे कमाना चाहें तो इस्लाम के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कोई भी जाइज़ कार्य कर सकती है बिल्कुल जैसे मर्द कर सकता है और उनकी उस कमाई में उनका पूर्ण अधिकार है, उसे वे जैसे चाहें ख़र्च करें । जबकि इसके उलट पुरुष अपनी कमाई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य है।

     

    दरअसल बच्चों का 9 महीने अपने गर्भ में रखना और उन्हें जन्म देना एक महान कार्य है जो सिर्फ़ महिलाएँ ही करती हैं और इस्लाम में इसे पूर्ण महत्त्व दिया गया है।

     

    *…उसकी माँ ने दुःख पर दुःख सहकर पेट में रखा (इसके अलावा) दो बरस में (जाकर) उसकी दूध बढ़ाई की (अपने और) उसके माँ बाप के बारे में ताक़ीद की कि मेरा भी शुक्रिया अदा करो और अपने वालदैन का….*

    (सुरः लुक़मान: 14)

     

    इसलिए शादी के मौके पर आदमी को महेर (तोहफे के तौर पर पैसे या कुछ और) भी चुकानी होती है साथ ही उसका व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है। महेर की रक़म औरत की इच्छा पर होती है वह कितनी भी माँग कर सकती है। अतः सीधे तौर पर आर्थिक मामलों में औरतों को मर्दो पर फ़ज़ीलत है।

     

    यह इतना अहम पहलू है कि इसी के इर्दगिर्द ही औरतों की पूरी सामाजिक स्थिति घूमती है। देखते हैं कैसे?

    स्वयं को औरतों की आज़ादी का पैरोकार कहने वाले मर्द प्रधान समाज ने पहले तो औरतों के इस विशेष योगदान को भुला ही दिया और आज़ादी और काम करने के नाम पर उसके ऊपर आर्थिक बोझ भी डाल कर उसे आदमियों के बीच घुमाने और शोषण करने के लिए उपलब्ध करा दिया।

     

    और यह तथ्य सभी के सामने है सभी इसे जानते हैं और जान बूझ कर अनदेखा कर देते हैं ज़्यादा पुरानी बात नहीं है  #Metoo “मी टू “आंदोलन में दुनियाँ भर में छोटे से लेकर बड़े से बड़े स्तर पर हर जगह काम करने वाली औरतों ने कार्यस्थल पर अपने साथ हुए पुरुषों द्वारा ग़लत कृत्यों का खुला बयान किया था। कईयों ने यहाँ तक कहा कि आर्थिक स्थिति के बोझ में दबे होने पर जीवन भर हम शोषण सहते रहे पर कुछ कर ना सके क्योंकि ना कोई सुनने वाला था ना कोई सज़ा देने वाला।

     

    कुछ ही दिनों में पुरुष प्रधान शोषण केन्द्रित व्यवस्था ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल कर भुला भी दिया। लेकिन सच्चाई और इस पश्चिमी कार्य संस्कृति (Western work culture) आधारित व्यवस्था की हक़ीक़त सभी के सामने है। यह औरतों की आज़ादी की व्यवस्था नहीं बल्कि शोषण की सुविधा और व्यवस्था है।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि कोई इसे समझ नहीं पा रहा। ऊपर बताए तथ्य की यूरोप और अमेरिका जैसे मॉडर्न मुल्कों में औरतों के तेज़ी से इस्लाम कबुल करने का यह भी एक अहम कारण है कि वे इस बात को समझ रहे हैं कि इस्लाम में औरतों को पैसों की तरह मर्दो के हाथों में घूमने जैसा नहीं बल्कि उसे तिजोरी में रखे कीमती हीरे की तरह बनाया है।

     

    ऐसे ही हर मामले में इस्लाम उच्च अधिकार देता है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं –

     

    ❇ वंशानुक्रम (विरासत) का अधिकार:-

     

    कुछ धर्मों के अनुसार, एक महिला को विरासत में कोई अधिकार नहीं है। लेकिन इन धर्मों और समाजों के विपरीत, इस्लाम में महिलाओं को विरासत में हिस्से का अधिकार है।

     

    ❇ अपनी पसंद के मुताबिक शादी का अधिकार:-

     

    पति की पसंद:- इस्लाम ने अपने पति को चुनने में महिलाओं को बहुत स्वतंत्रता दी है। शादी के सम्बंध में लड़कियों की इच्छा और उनकी अनुमति सभी मामलों में आवश्यक घोषित की गई है।

     

    ❇ तलाक का अधिकार:-

    इस्लाम ने औरत को खुलअ का हक़ दिया है कि अगर उसके पास ज़ालिम और अक्षम पति है तो पत्नी निकाह को ख़त्म करने का ऐलान कर सकती है और ये अधिकार अदालत के ज़रिए लागू होते हैं।

     

    ❇ अभिव्यक्ति और अपनी राय रखने का अधिकार:-

    एक अवसर पर, हज़रत उमर (रजि॰) ने कहा: “तुम लोगों को चेतावनी दी जाती है औरतों की महेर ज़्यादा ना रखो।….

    हजरत उमर (रजि॰) को इस तकरीर पर एक औरत ने भरी मजलिस में टोका और कहा कि आप यह कैसे कह सकते हो? हालांकि अल्लाह तआला का इरशाद है

     

    और तुम औरतों को ढेर सारा माल (महेर) दो तो उससे कुछ भी वापस ना लो।

    (सुरः निसा: 20)

     

    जब अल्लाह तआला ने जाईज़ रखा है कि शौहर महेर में ढेर सारा माल दे सकता है तो तुम उसको मना करने वाले कौन होते हो? हजरत उमर (रजि॰) ने यह सुनकर फरमाया :”तुम में से हर एक उमर से ज़्यादा जानकार है”। उस औरत की बात का सम्मान किया गया। हालांकि हजरत उमर (रजि॰) उस वक़्त के खलीफा और बादशाह थे।

     

    इससे पता चलता है कि महिलाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लाम में कितना अधिकार है।

     

    इसके अलावा भी कई अधिकार हैं जैसे सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार एवं बहुत से।

    यही नहीं औरतों को और भी कई तरह से इस्लाम में मुकद्दस मकाम दिया गया है। जैसे कई धर्म और मान्यताओं के अनुसार औरतों से दूरी बनाना, औऱ कुँवारा रहना ईश्वर के पास उच्च दर्जा प्राप्त करने का ज़रिया समझा जाता है। जबकि इस्लाम में इस तरह की भावना को कोई जगह नहीं दी गई और विवाह के लिए प्रेरित किया गया।

    इस सम्बंध में, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :

     

    शादी मेरी सुन्नत है। जो मेरी सुन्नत से भटकता है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।

    (इब्ने माजा 1919)

     

    और सिर्फ़ शादी ही नहीं बल्कि इससे आगे बीवियों से अच्छे व्यवहार को अनिवार्य किया गया:- आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:

     

    आप में से सबसे अच्छा वही है जो अपनी पत्नियों के लिए सबसे अच्छा है और मैं अपने घर वालों के लिए सबसे बेहतर हूँ।

    (तिर्मिज़ी 3895)

     

    इसके अलावा भी औरतों से अच्छे सुलूक की कई आदेश दिए गए यहाँ तक कि क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया

     

    *और औरतों के साथ भलाई से ज़िदगी बसर करो। अगर वह तुमको पसंद ना हो तो हो सकता है तुम एक चीज पसंद ना करते हो और अल्लाह तआला उसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दे।

    (सुरः निसा)

     

    और यह सब हुक़ूक़ भी इस्लाम ने आज नहीं बल्कि 1400 साल पहले ही दे दिए गए जब औरतों को तो जीने तक का अधिकार नहीं दिया जाता था और ज़िंदा दफ़न तक कर दिया जाता था (आज भी महिला भ्रूण हत्या कई जगह की जाती है)। जिसे इस्लाम ने सख्त तरीन अपराध बताया और ऐसा करने वालों को क़यामत के दिन सख्त सज़ा से आगाह किया।

     

    “और जब ज़िन्दा दफ़न की हुई लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस गुनाह की वज़ह से क़त्ल की गई।”

    (सूरः तकवीर 81:8,9)

     

    उस दौर में ही इस्लाम ने औरतों को ना केवल ऐसे हालात से निकाला बल्कि ता क़यामत तक के लिए उनके मर्तबे को उच्च कर दिया।

     

    जहाँ माँ के कदमो के नीचे जन्नत बताया गया तो वहीं बेटियों को मर्तबा इतना अहम बताया गया उनकी परवरिश पर जन्नत की बशारत दी गई।

     

    मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है-

     

    जिसके 3 लड़कियाँ हो फिर तंगदस्ती, ग़रीबी, मुहताजी और खुशहाली व बदहाली में इन्तेहाई सब्र और बर्दाश्त के साथ उनका लालन पालन और देखरेख करें तो अल्लाह उसको सिर्फ़ इसलिए जन्नत में दाखिल फरमाएगा कि उसने उनके साथ रहमों करम का मामला किया है। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! जिसके दो बेटियाँ हों? आप ने फरमाया- जिसके दो बेटियाँ हों वह भी। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि जिसके एक बेटी हों? आपने फरमाया- और एक बेटी वाला भी।”

    (मुसनद अहमद 8425)

     

    जैसा कि पहले कहा गया कि इतनी बातें हैं कि एक पोस्ट में कही ही नहीं जा सकती, चुनाव करना तक मुश्किल है। अतः इस से यह अंदाज़ तो हो ही जाता है कि इस्लाम में औरतों को क्या मुकाम है और इस्लाम पर औरतों के बारे में झूठे आक्षेप लगाने वालों की सच्चाई पता चलती है।