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  • काबे की ओर सजदा क्यों?

    काबे की ओर सजदा क्यों?

    जवाब:- बेशक अल्लाह तो हर दिशा का मालिक है। 

    और पूरब व पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह) है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है।

    (क़ुरआन 2:115)

    लेकिन अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम और आसानी करते हुए उनके लिए एक क़िबला (Direction) मुकर्रर कर दिया ताकि वे जब भी, जहाँ कहीं भी हों, नमाज़ अदा करें तो सभी 1 ही Direction में अदा करें। ताकि किसी तरह के इख्तिलाफ (मतभेद) या Confusion की गुंजाइश ना रहे।

    (हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो। तथा (हे मुसलमानों!) तुम जहाँ भी रहो, उसी की ओर मुख किया करो…

    (क़ुरआन 2:144)

    इस्लाम एकता और अनुशासन (Discipline) का प्रतीक है। मुस्लिम दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करते हैं जो कि सामूहिक रूप से अदा करना श्रेष्ठ है। यदि कोई क़िबला मुकर्रर नहीं किया गया होता तो कोई किधर चेहरा कर के नमाज़ अदा करता तो कोई किसी दूसरी ओर। जिस से जमाअत से नमाज़ पढ़ना मुमकिन नहीं हो पाता और हर वक्त मतभेद और Confusion की स्थिति बनी रहती। इसलिये अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम करते हुए उनके लिए एक क़िबला मुकर्रर किया और उसी ओर चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया। अतः अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए विश्व भर में जहाँ कहीं भी नमाज़ अदा करते हैं तो काबे की दिशा में करते हैं।

    ➡️ इसी संबंध में ग़लतफ़हमी और अज्ञानता के चलते कुछ गैर मुस्लिम यह समझ लेते हैं कि काबे कि इबादत (पूजा/उपासना) की जाती है। जबकि मुस्लिम काबे कि इबादत नहीं करते हैं ना ही उसे पूजनीय समझते हैं।

    ▪️काबा के मुकाम पर स्थित *“हजरे-अस्वद” (काले पत्थर)* से संबंधित दूसरे इस्लामी शासक हज़रत उमर (रज़ि.) से एक कथन उल्लिखित है। हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक “सहीह बुख़ारी” भाग-दो, अध्याय-हज, पाठ-56, हदीस न. 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया–

    “मुझे मालूम है कि (हजरे-अस्वद) तुम एक पत्थर हो। न तुम किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हो और न नुक़सान और मैंने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुम्हें छूते (और चूमते) न देखा होता तो मैं न तो कभी तुम्हें छूता (और न ही चूमता)।”

    ▪️इसके अलावा लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे:-

    अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में तो लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे। यह बात इतिहास से सिद्ध है। अब जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुसलमान काबा की उपासना (इबादत) करते हैं उनसे पूछना चाहिए कि भला बताइए तो सही कि कौन मूर्तिपूजक मूर्ति पर चढ़कर खड़ा होता है।

    ▪️इस बात में किसी प्रकार का संदेह बाकी ना रहे इसीलिए मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन काल में ही अल्लाह ने तहविले क़िबला (क़िबले का बदलना) कर यह बात ख़ुद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा से प्रैक्टिल कर सबके सामने स्पष्ट कर दी गई, की जब आप मक्का में थे तब अल्लाह का आदेश बैतूल मुकद्दस की तरफ़ चेहरा कर नमाज़ पढ़ने का था। आप मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना तशरीफ़ ले जाने के एक साल बाद तक इस हुक्म पर अमल होता रहा। फिर अल्लाह ने क़िब्ले को बदलने का हुक्म दिया जिसे  तहविले क़िबला कहा जाता है और फिर मुसलमानो ने काबे की तरफ चेहरा कर नमाज़ पढ़ना शुरू की।

    जिस से साबित हो गया कि मुसलमान ना काबे को पूजनीय समझते हैं ना पूजते हैं यह तो सिर्फ़ अल्लाह का आदेश है उसने जिधर रुख करने का कहा उस तरफ़ रुख कर नमाज़ की जाती है।

    और अंत में इस सम्बन्ध में कुर’आन की यह आयत ही पर्याप्त है: –

    नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुँह मशरिक या मग़रिब की तरफ़ कर लो, मगर नेकी यह है जो ईमान लाए अल्लाह पर और यौमे आखिरत पर और फरिश्तों और किताबों पर और नबियों पर, और उस (अल्लाह) की मुहब्बत पर माल दे रिश्तेदारों को और यतीमों और मिस्कीनो को और मुसाफिरों को और सवाल करने वालों को और गर्दनों के आज़ाद कराने में, और नमाज़ काईम करें और ज़कात अदा करें, और जब वह अहद करें तो उसे पूरा करें, और सब्र करने वाले सख्ती में और तकलीफ में और जंग के वक़्त, यही लोग सच्चे हैं, और यही लोग परहेज़गार हैं।

    (क़ुरआन-2:177)

     

  • औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    जवाब:- सबसे पहले हम यह जानते हैं कि इद्दत क्या है और कब लागू होती है?

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर इद्दत का मतलब उस अवधि / मुद्दत / समय से है जिसमे औरत को दूसरी शादी करने से पहले अपने घर में कुछ समय गुज़ारना होता है। उसके बाद ही वह दूसरी शादी कर सकती है। आधुनिक सोच के अनुसार ये बात समझ में नहीं आती है कि सिर्फ़ औरत को ही इद्दत में क्यों रहना होता है? लेकिन जब हम सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो पता चलता है कि ईद्दत का समय कितना महत्वपूर्ण है और औरत के लिए यह हर तरह से फायदेमंद एवं ज़रुरी है।

     

    ❇️ *पवित्र क़ुरआन के अनुसार*

     

    “ऐ नबी! जब तुम लोग स्त्रियों को तलाक़ दो तो उन्हें तलाक़ उनकी इद्दत के हिसाब से दो और इद्दत की गणना करो और अल्लाह का डर रखो, जो तुम्हारा रब है। उन्हें उनके घरों से न निकालो और न वे स्वयं निकलें, सिवाय इसके कि वे कोई स्पष्ट अशोभनीय कर्म कर बैठें। ये अल्लाह की नियत की हुई सीमाएँ हैं और जो अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो उसने स्वयं अपने आप पर ज़ुल्म किया। तुम नहीं जानते, कदाचित इस (तलाक़) के पश्चात अल्लाह कोई सूरत पैदा कर दे”

    (क़ुरआन सूरह 65:01)

     

    ➡️ औरत को इद्दत दो कारणों से गुज़ारनी होती है।

     

    1) पति की मृत्यु के कारण:-

    और तुममें से जो लोग बीवियाँ छोड़ के मर जाएँ तो ये औरतें चार महीने दस रोज़ अपने को रोके (और दूसरा निकाह न करें) फिर जब (इद्दत की मुद्दत) पूरी कर ले तो शरीयत के मुताबिक़ जो कुछ अपने हक़ में करें इस बारे में तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है और जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा उस से ख़बरदार है।

    (क़ुरआन सूरह 2:234 )

     

    2) तलाक़ या खुलअ (औरत ख़ुद तलाक़ ले) के कारण:-

    तलाक़ / खुलअ पर 3 हैज / महावारी / Monthly cycles तक ईद्दत होगी।

    “और जिन औरतों को तलाक़ दी गयी है वह अपने आपको तलाक़ के बाद तीन हैज़ के ख़त्म हो जाने तक निकाह सानी से रोके और….”

    (क़ुरआन सूरह 02: 228)

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर अगर औरत गर्भवती है तो बच्चे के पैदा होने के समय तक अधिकतम 9 महीने।

     

    ▪ और तुम्हारी स्त्रियों में से जो हैज से निराश हो चुकी हों, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी इद्दत तीन मास है और इसी प्रकार उनकी भी जो अभी हैज से नहीं हुई और जो हामेला (गर्भवती) हो उनकी इद्दत बच्चे के पैदा होने तक है। जो कोई अल्लाह का डर रखेगा उसके मामले में वह आसानी पैदा कर देगा।”

    (क़ुरआन सूरह 65:04)

     

    ▪️ *शादी हुई लेकिन शारीरिक संबंध नहीं बने और इससे पहले ही तलाक / खुलअ या पति की मृत्यु हो गई तो कोई इद्दत नहीं।

    (क़ुरआन सूरह 33:49)

     

    ✔️ इद्दत के सामाजिक और वैज्ञानिक कारण

     

    1) औरत अगर गर्भ से हो तो उसके गर्भ का पता चल जाये। ताकि बच्चे के पिता पर गर्भावस्था और उससे सम्बन्धित सभी खर्च, ज़िम्मेदारी आदि लागू हो। अगर इद्दत ना हो तो ऐसा हो सकता है कि तलाक के कुछ माह बाद गर्भ उजागर हो और फिर उसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई ना हो ।

     

    2) पहले शौहर से बच्चा हो तो बच्चे की वंशावली की पहचान हो। साथ ही होनेवाले बच्चे को अपने पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा मिले फिर चाहे उसकी माँ से तलाक ही क्यों ना हो गया हो।

     

    3) औरतो में भावनात्मक पहलू अधिक प्रबल होते है, तलाक़ या पति की मृत्यु के बाद उसकी मानसिक अवस्था को दुरुस्त होना ज़रूरी है। ताकि वह अपने नए परिवार में एडजस्ट (Adjust) हो सके।

     

    4) अगर 3-मंथली साइकल नहीं गुज़ारती है और इसके पूर्व ही अगर शादी कर दूसरे मर्द से सम्बन्ध बनते हैं तो यौन रोग (Sexually transmitted disease) हो सकते है।

     

    5) इद्दत का समय गुज़रने के बाद औरत के गर्भाशय और यौनांगों में पूर्व के पति के शुक्राणु, DNA के कोई अंश नहीं रहते जिससे होने वाले बच्चे का वंशावली (Lineage) स्पष्ट होता है और साथ ही औरत और मर्द दोनों ऐड्स और ऐसी अन्य दूसरी बीमारी से पूर्ण रूप से सुरक्षित हो जाते हैं।

     

    इस तरह इस्लाम इस दुनिया के इंसानो का पथप्रदर्शन / रहबरी तब से कर रहा है, जब आधुनिक विज्ञान का वजूद ही नहीं था और आज साइन्सी दृष्टिकोण विकसित हो जाने के बाद उसके कई फायदे और सार्थकताएँ उजागर हो रही है। जो की इस्लाम के सच्चे और उसके ईश्वरीय धर्म होनी की बड़ी दलील है।

  • साइंस ने इल्म ए ग़ैब कैसे बता दिया?

    साइंस ने इल्म ए ग़ैब कैसे बता दिया?

    जवाब:-निःसंदेह, अल्लाह ही के पास है प्रलय का ज्ञान, वही उतारता है वर्षा और जानता है जो कुछ गर्भाशयों में है और नहीं जानता कोई प्राणी कि कल वह क्या कमायेगा और नहीं जानता कोई प्राणी कि किस धरती में मरेगा। वास्तव में, अल्लाह ही सब कुछ जानने वाला, सबसे सूचित है।

    (सुरः लुक़मान आयत 34)

     

    बेशक अल्लाह ही सभी ज़ाहिर और छुपी बातों को जानने वाला है। तमाम इल्म उसी का है। उसके इल्म से किसी के इल्म की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि जिसको जितना भी ज्ञान है वह अल्लाह का अता किया हुआ ही है और अल्लाह के मुकाबले में कुछ भी नहीं है।

     

    मिसाल के तौर पर कुछ सदियों पहले तक इंसान को तो इस दुनियाँ के सुदूर इलाको के बारे में ही नहीं पता था, फिर अल्लाह के दिये हुए इल्म और सोचने समझने और नई चीज़ ईजाद करने की शक्ति का इस्तेमाल किया।

     

    जिस के बारे में ख़ुद अल्लाह ने क़ुरआन में इंसानो को प्रेरित किया है

     

    ..वास्तव में, इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं, उनके लिए, जो सोच-विचार करें।

    (क़ुरआन 45:13)

     

    और इसी सोच विचार करने की शक्ति और अल्लाह के दिये इल्म का इस्तेमाल कर हमने दुनियाँ के बारे में जाना और उस से आगे बढ़ते हुए आज के दौर में हम इस सौर मंडल के कुछ ग्रहों के बारे में थोड़ा कुछ मालूमात कर पाए हैं। लेकिन यदि हम अपनी इस मालूमात की तुलना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसमें मौजूद अनगिनत ग्रह आदि के ज्ञान से करें तो हमारा आज का ज्ञान भी कुछ नहीं है।

     

    जबकि दूसरी तरफ़ अल्लाह ने तो इस सम्पूर्ण कायनात को बनाया इस ब्रह्माण्ड के परे और क्या-क्या है कितनी सजीव, निर्जीव रचनाएँ हैं उन सब को बनाया और वह इसके कण-कण का ज्ञान रखता है।

     

    ऐसा नहीं है कि इंसान कुछ जानता ही नहीं है। लेकिन इंसान के जानने और अल्लाह का जानने में बहुत फ़र्क़ है। जहाँ अल्लाह का किसी के भी बारे में जानना (पता होना) कुल का कुल (पूरा का पूरा है) है, असीम है, सम्पूर्ण है। वहीं इंसान का जानना आंशिक है, अनिश्चित है।

     

    इस तरह उपर्युक्त आयात में फ़रमाया “अल्लाह जानता है जो कुछ गर्भाशयों में है”

     

    अर्थात अल्लाह संपूर्ण बातें जानता है जो कुछ गर्भाशय में है उसके बारे में उसे तमाम मालूमात है फिर चाहे वह होने वाले शिशु का लिंग हो, उसका रंग रूप हो, जीवित अवस्था में जन्म लेगा या गर्भपात होगा, किस दिन, किस क्षण पैदा होगा उसके कर्म कैसे होंगे, उसकी आयु कितनी होगी, उसके गुण क्या होंगे, कुल का नाश करेगा या उद्धार करेगा, कहाँ रहेगा कहाँ मृत्यु को प्राप्त होगा यहाँ तक जीवन से लेकर जीवन उपरांत तक सभी बातों का कुल का कुल ज्ञान अल्लाह को है और वह यह सब कुछ जानता है।

     

    अब यहाँ हम अगर इसकी तुलना इंसानों के जानने और उनकी मालूमात से करें तो आज के दौर में भी डॉक्टर ज़्यादा से ज़्यादा भ्रूण का लिंग पता कर सकते हैं या थोड़ा और कुछ वह भी जो गर्भावस्था का एक अंतराल गुज़र जाने के बाद, उसमें भी उन्हें कई चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है, इसके बाद भी कई बार गलती का इम्कान (संभावना) होता है। इस विषय में जानने के लिए अनगिनत बातें और भी हैं जैसे कुछ ऊपर बताई गई आयु, गुण, कर्म, जीवन, मरण इत्यादि।

     

    दरअसल ऊपर बताई मिसाल की तरह पहले तो इंसान को गर्भ के बारे में कुछ इल्म ही नहीं था, अब जाकर अल्लाह के दिये इल्म का इस्तेमाल कर वह थोड़ा कुछ जानने में समर्थ हुआ है लेकिन उसका इस बारे में भी जानना आज भी अल्लाह के जानने के मुकाबले में शून्य ही है और हमेशा शून्य रहेगा।

     

    वास्तव में अल्लाह ही है जो यह सब जानता है और वे बातें भी जो गर्भाशय में है और हमारे इल्म से बाहर हैं या जिस तरफ़ अभी हमारा ध्यान ही नहीं हो। उसके अलावा कोई और यह सब जानने की कल्पना करना तो दूर इसमें कितने विषय और बातें हैं जानने के लिए, इस बात की गणना भी नहीं कर सकता।

     

    और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं। उन्हें केवल वही जानता है तथा जो कुछ थल और जल में है, वह सबका ज्ञान रखता है और कोई पत्ता नहीं गिरता परन्तु उसे वह जानता है और न कोई अन्न, जो धरती के अंधेरों में हो और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा) है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में है।

    (क़ुरआन 6:59)

  • क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    जवाब:इस तरह का दुष्प्रचार उन गैर मुस्लिम भाईयों के सवाल पर किया जाता है, जो क़ुरआन को समझने पर जिज्ञासावश क़ुरआन के बारे में अपने स्कॉलर से पूछते है। जिसका वे जवाब नहीं देना चाहते है।

     

    इस तरह के सवाल करने वालों से पहला सवाल ये है कि क़ुरआन कौनसी बाइबल से और कब नक़ल (Copy) हुआ?

    क्योंकि रोमन कैथोलिक के अनुसार बाइबल कि कुल 73 (46 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें हैं तथा प्रोटेस्टेंट के अनुसार बाइबल में केवल 66 (39 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें ही हैं। इन सभी किताबों में आपस में विरोधाभास / टकराव भी है। यहाँ तक कुछ ईसाईयों के मुताबिक जो किताबें बाइबल में शुमार हैं वह कुछ दूसरे ईसाईयों की नज़र में बाइबल ही नहीं है। दूसरी बात *पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम* उम्मी थे और क़ुरआन अरबी में है। जबकि बाइबल सबसे पहले 867ई में यानी 250 साल बाद अरबी में अनुवाद हुई है। बाइबल कि तरह क़ुरआन के कोई संस्करण (version) नहीं है। यानी पैग़म्बर ऐ इंसानियत पर जो आयत जिस रूप में पहले नाजिल हुई थी वह उसी रूप में आज भी है। यानी क़ुरआन पूरी दुनियाँ में कहीं भी पढ़ लो एक जैसा ही मिलेगा। ये चमत्कार सिर्फ़ क़ुरआन के साथ ही है। बाक़ी जितने भी ग्रन्थ है, सबमें मिलावट हो गई है। फिर सवाल ये उठता है कि बाइबल और क़ुरआन में समानता क्यों है..❓

     

    दरअसल यह सवाल ख़ुद में एक निशानी की तरह है और इस्लाम के बुनियादी पैगाम को समझने में मदद करता है।

     

    जैसा कि हम जानते हैं क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई आखरी किताब है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के आखिरी पैगम्बर और रसूल हैं। उनसे पहले भी अल्लाह ने दुनियाँ में कई पैग़म्बर और किताबें भेजी जैसे मूसा अलैहिस्सलाम को तौरात (Old Testament) दी, ईसा अलैहिस्सलाम को इंजील (New Testament) दी। यानी कि क़ुरआन से पहले भी कई ग्रन्थ अल्लाह ने भेजे हैं।

     

    (ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाज़िल की।

    (क़ुरआन 3:3)

     

    ऐसे ही विश्व की हर उम्मत के प्रति अल्लाह ने अपने पैगाम को भेजा और कोई उम्मत ऐसी नहीं गुज़री है जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला (सन्देष्टा /नबी /रसूल / ईश दूत) न आया हो।

    (क़ुरआन 35:24)

     

    क़ुरआन से पहले जितने भी ग्रन्थ आये है, चाहे आज वह अपने मूल रूप में मौजूद ना हो, लेकिन उनमें किसी दर्जे में कुछ मूल बाते मौजूद है। यही वज़ह है कि दुनियाँ के सभी प्रमुख ग्रँथों में इस्लाम के मूल सिद्धांत यानी कि एकेश्वरवाद की बात मिलती ही हैं। जो कि न केवल एक महत्वपूर्ण निशानी है बल्कि इस्लाम इसी की और निमंत्रित करता है ।

     

    (हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी हैं।

    (क़ुरआन 3:64)

     

    यानी क़ुरआन तो पुरानी किताबों की तस्दीक करते हुए आया है और इसका तो यह पैगाम है कि सभी उस बात की तरफ़ आये जो सभी पुरानी किताबों में भी मौजूद है।

     

    लेकिन क़ुरआन के अलावा आप दूसरे ग्रँथों में देखें तो आप पाएंगे कि इन मूल-सन्देश के अलावा भी विरोधाभास हैं जैसे बाइबल के पहले धर्मादेश (Commandment) में ही कहा गया कि “ईश्वर सिर्फ़ एक है”। लेकिन दूसरी जगह फिर कुछ और बातें हैं। ऐसा कई विषयों में है।

     

    अब अगर क़ुरआन किसी ग्रन्थ से कॉपी किया गया होता तो जो विरोधाभास बाइबल या दूसरे ग्रन्थों में है, वह विरोधाभास क़ुरआन में भी होना चाहिए थे।

     

    “क्या वे क़ुरआन में सोच–विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सा विरोधाभास / बदलाव पाते”।

    (सूरह निसा 4, आयत 82)

     

    इसके अलावा अगर हम साइंस की रोशनी में देखें तो क़ुरआन में कई विस्मयकारी जानकारी हमें मिलती हैं जिससे क़ुरआन का ईश्वरीय ग्रन्थ होना साबित होता है। कुछ जानकारियाँ ऐसी भी है जो बाइबल में भी मौजूद हैं तो कई ऐसी हैं जो सिर्फ़ क़ुरआन में ही हैं ।

     

    अब अगर क़ुरआन बाइबल से कॉपी किया गया होता तो इसमें विस्मयकारी निशानियाँ कहाँ से आई जो बाइबल में मौजूद नहीं है ? और इसमें वह गलतियाँ और साइंस विरुद्ध बातें क्यो नहीं है जो बाइबल में मौजूद है ?

     

    इससे ये साबित होता है कि क़ुरआन असली अंतिम ईश्वरीय ग्रन्थ है।

  • क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    जवाब:- नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष काफ़िर (गैर मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता।

     

    क़ुरआन 5:32 में इसका खुला आदेश है:-

    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया..”

     

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर मुस्लिम (काफिर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता।

    यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

     

    क़ुरआन की जिन आयात में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है। और इन्हीं आयात को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी काफिरो को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

  • क्या कुरआन पढ़कर लोग आतंकी बनते हैं ?

    क्या कुरआन पढ़कर लोग आतंकी बनते हैं ?

     जवाब:- सर्वप्रथम तो यह सवाल / इल्ज़ाम ही ग़लत है कि क़ुरआन पढ़ कर लोग आतंकवादी बन जाते हैं। आप की जानकारी के लिए बता दे कि दुनिया में निःसंदेह सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली किताब क़ुरआन ही है। विश्व में 180 करोड़ (1.8 Billion) मुस्लिम हैं और अगर क़ुरआन पढ़ कर लोग आतंकवादी बन रहे होते तो आज दुनिया की क्या हालत हुई होती उसका आप अनुमान लगा सकते हैं।

    तमाम कुप्रचारो के बाद भी आज विश्व में सबसे ज़्यादा तेज़ी से कबूल किया जाने वाला धर्म इस्लाम ही है, लाखों लोग इस किताब को पढ़ कर इस्लाम अपना रहे हैं और अगर इस बात का ज़रा-सा भी आधार होता कि क़ुरआन पढ़ लोग आतंकवादी बन रहे हैं तो क्या यह होना संभव था ?

    इस्लाम की बढ़ती लोकप्रियता को रोकने के लिए हमेशा से ही कुप्रयास किए गए (जैसे इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला) उन्ही में से एक प्रयास आतंकवाद शब्द का इस्तेमाल करना है, जो 2001 से शुरू हुआ। इस से पहले कभी यह शब्द मुसलमानों के लिए प्रयोग नहीं किया गया जिस से इसका कुप्रचार और षड्यंत्र होना साबित होता है।

    यह बात तो जग जाहिर है और कई बार इसका जवाब दिया जा चूका है की कुरआन अमन और शान्ति का पैग़ाम देता है। साथ ही यह भी कई बार साबित किया जा चुका है की इस्लाम को बदनाम करने के इसी षडयंत्र का प्रोपेगेंडा करने के लिए मीडिया आतंकवाद  शब्द का प्रयोग इस्लाम और मुस्लिमों के लिए कर, अपना एजेंडा सिद्ध करती है, सभी ने देखा देश विदेश में हुई जघन्य आतंकवादी घटनाओं (जैसे मॉबलिंचिंग, न्यूज़ीलैंड अटैक) जिन को करने वाले मुस्लिम नहीं थे उन घटनाओं के लिए आतंकवाद शब्द प्रयोग ही नहीं किया गया ना करने वालो को उनके धर्म से जोड़ा गया जैसे मुस्लिमों के बारे में किया जाता है। बल्कि कुछ और तरीके से उल्लेखित किया गया ।

     

    लेकिन यहाँ हम आज इस षडयंत्र के दूसरे पहलू को उजागर करेंगे जिस पर कम ही चर्चा हुई है। वह यह कि अक्सर आतंकवादी घटना बता कर कई लोगों की गिरफ्तारी की जाती है। उन का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सालों बाद उन पर आरोप सिद्ध ही नहीं हुए और वे रिहा हो गए और ये पता ही नहीं चल पाया कि असल में घटना के पीछे था कौन? या यह जान बूझ कर छुपा दिया जाता है? क्या यह आतंकी घटना थी या सोची समझी साज़िश।

     

    देखें :-

    ▪देश में नक्सली और आतंकी हमले और उनका विश्लेषण

    1980 से 2019 तक देश में नक्सली और आतंकी हमले 110 से ज़्यादा है, इन हमलों में 3870 से ज़्यादा नागरिक मारे गए, 6683 से ज़्यादा घायल हुए।

    इन 110 हमलों में से मात्र 11 केस पर फ़ैसला आया और अपराधियों को सजा हुई। बचे 100 से ज़्यादा नक्सली / आतंकी हमलों में गिरफ्तार किए गये लोग बेगुनाह साबित हुए औऱ 5-साल, 10-साल और 20-सालों के लम्बे मुकदमों के बाद बाइज़्ज़त बरी हुए।

     

    हर हमले के बाद पकड़े जाने वाले, जिनको इस दावे के साथ पकड़ा जाता था, की ये आतंकी है और इनके खिलाफ पुख्ता सबूत है। पर सरकार यह कभी साबित ही नहीं कर पाई और आंकड़े बताते है, की जिनको आतंकवाद के इल्ज़ाम में पकड़ा है, वे सब तो निर्दोष थे।

    •  अक्षरधाम मंदिर हमले में जिनको पकड़ा था, वे बाइज्ज़त बरी हुए…? मतलब जिनको आतंकी कह कर पकड़ा था, वे सब बेगुनाह थे..?

     

    तो फिर सवाल उठता है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमला किसने करवाया था और इसके पीछे किस लाभ का मकसद था?

    •  संसद हमले के समय 4 लोगों को आरोपी बनाया गया था। एक को फाँसी दी गई (जिसको फाँसी दी थी, उसने कहा था कि मुझे देवेंद्र सिंह ने फँसाया है, उस समय किसी ने भी नहीं सुना, लेकिन अब देवेंद्र सिंह ख़ुद पकड़ा गया) 2 को बाद में बरी कर दिया चौथा जिसको मास्टर माइंड बताया गया था, 3 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से बाइज्ज़त बरी हो गया।

     

    फिर सवाल ये है? संसद / अक्षरधाम औऱ दूसरे हमले किसने करवाये? जिनको आरोपी बनाया वे बरी हो गए तो असली आरोपी कौन थे? उनको बचाने में किस की भूमिका है?

     

    ▪️ क्यों आज तक हमले के असली मुज़रिम पकड़े नहीं गये…?

     

    ▪️ किन लोगों को बचाने के लिए किन लोगों ने निर्दोषों को झूठे मुकदमे में फँसाया…?

     

    ▪️ क्या आतंकी और नक्सली हमले राजनीतिक हित साधने के लिए होते है..?

     

    ▪️ कब तक हम झूठे प्रोपेगेंडा में आकर सच्चाई को अन देखा करते रहेंगे..?

     

    ▪️ कब तक हमारे देश के वीर सैनिक और आम जनता बलि चढ़ते रहेंगे…?

     

    अक्सर ये घटनाएँ चुनाव के आस पास या कोई बड़ा मुद्दा खड़ा हो जाने पर ही क्यों होते हैं? क्या ये सिर्फ़ बार-बार होने वाला इत्तेफ़ाक (Coincidence) है ? या कुछ और?

     

    • यह वे कुछ सवाल हैं जो आपको ख़ुद से पूछने होंगे।