Tag: हज़रत मोहम्मद

  • क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    जवाब:- दारुल हर्ब की आप ने मनगढ़ंत ही कोई व्याख्या कर रखी है जिसकी बुनियाद पर आप कुछ भी निष्कर्ष निकालते रहते हैं। तो पहले तो यह जान लें कि इस तरह की व्याख्याओं और प्रावधान का ही कोई आधार नहीं है।

    दूसरी बात यह भी समझ लें कि इस्लाम कोई ऐसा धर्म नहीं है जो किसी एक मात्र देश या नस्ल का हो। जिन्हें अगर दूसरे देशों में कोई समस्या आ रही हो तो उन्हें लौट कर अपने देश आ जाना चाहिए।

    तीसरी बात यह की कुछ ओछी मानसिकता वाले जिस तरह से भारत के हर मुस्लिम को हर दूसरी बात पर पाकिस्तान चले जाओ कहते रहते हैं उन्होंने ही अब अपने इस कथन का विस्तार और वैश्वीकरण कर लिया है। अब कहीं भी मुस्लिम अपने पर हो रहे अत्याचार के विरोध में आवाज़ उठाते हैं तो “यही” लोग कहने लगते हैं कि उस देश को छोड़ के चले जाओ। तो आप यह समझ लें कि ना तो आप इस दुनिया के मालिक हैं और ना ही यह कोई तर्क संगत बात है कि अन्याय का विरोध मत करो अपनी समस्या भी मत बताओ और देश छोड़ के चले जाओ। अतः अपनी सोच थोड़ी खुली रखें और थोड़ी परिपक्वता का परिचय दें।

    अंत में यह बात सभी को समझना चाहिए कि भारत देश मैं हिन्दू-मुस्लिमों का साथ सदियों पुराना है। मुस्लिमों का इस देश की प्रगति और हर क्षेत्र में योगदान रहा है फिर चाहे वह रक्षा हो विज्ञान हो चिकित्सा हो कला हो या खेल कूद हो। बेवजह पिछले कुछ वर्षों में अपने ही देश की एक बड़ी आबादी को दुश्मन की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है और बेवजह ही उन्हें शक की नज़र से देखा जा रहा। राजनीतिक मुद्दे से शुरू हुआ यह ज़हर अब बहुत आगे निकल चुका है। इसलिये आप से अनुरोध है कि इसे और हवा देने के प्रयास ना करे जिसके परिणाम देश हित में बिल्कुल भी नहीं होंगे।

  • फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    जवाब:-  चलिए इस बहाने ही सही आपने यह तो माना कि मुसलमानों का क़त्ले आम हो रहा है उन पर अत्याचार हो रहा है। क्या यह आतंकवाद नहीं है? आप फ्रांस में किसी एक शख़्स की मौत हो जाने पर तो अपना पूरा समर्थन दे देते हैं उसके लिए प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देते हैं। उसे रोकने के लिए सभी साथ आ जाते हैं। लेकिन ख़ुद आपके अनुसार “मुसलमानों का जो कत्ले आम” हो रहा है उसके खिलाफ कभी एक शब्द नहीं कहते? ना उसका कभी इस तरह का विरोध करते हैं?

    क्या सिर्फ़ इसलिए कि यहाँ मरने वाले मुसलमान हैं? क्या यह ख़ुद आपकी ही ज़ुबान से आपका दोहरा चरित्र उजागर नहीं कर देता?? सवाल तो बनता है।

    अगर हमारी बात करें तो हम ना सिर्फ़ चीन बल्कि म्यांन्मार, फिलिस्तीन, सीरिया तमाम दुनियाभर में मुसलमानों पर आतंकवाद के आरोप की आड़ में हो रहे अत्याचार बल्कि आतंकी हमलों के खिलाफ बोलते भी हैं और उसका विरोध भी करते हैं। लेकिन आप जैसे लोग ही यह बात कभी स्वीकार ही नहीं करते और उन पर हो रहे ज़ुल्म पर आँख बंद कर लेते हैं और दोहरे मापदंड (Double standards) का प्रदर्शन करते हैं।

    रही बात की यह विरोध उस स्तर का क्यों नहीं जिस तरह मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर के मामले में है तो यह बात जग जाहिर है कि एक मुसलमान के लिए उसकी ख़ुद की जान से भी प्रिय मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की शान है। ख़ुद पर हो रहे अत्याचार को एक बार वह ज़रूर सहन कर लेगा या कम आवाज़ उठाएगा लेकिन अपने पैगम्बर के मामले में वह अपने सामर्थ्य से अधिक करने का प्रयास करेगा।

  • फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    जवाब:- बड़े ही अफ़सोस और विडंबना की बात है कि एक संकीर्ण और षड्यंत्रकारी सोच के द्वारा आज देश के मुसलमानों की हर गति विधि, हर काम, उनकी हर समस्या और उनके किसी द्वारा किए गए किसी वैध विरोध को देश विरोधी कार्यवाही बताया जाता है और कुतर्कों के द्वारा सभी को देश विरोधी साबित कर मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाई जाती है। ऐसा ही प्रयास इस बार फ्रांस के कुकृत्य के विरोध के मामले में हो रहा है। जिसे बेवजह ग़लत रूप देकर इसे देश के खिलाफ बताने की कोशिश की जा रही है।

    जहाँ अक्सर लोगों को मालूम ही नहीं है कि मामला क्या है और वे इस तरह के षड्यंत्र में आकर बेवजह ही इसे ग़लत नज़र से देख रहे है और सवाल कर रहे हैं। इसलिए इन सवालों के जवाब देने से पहले आप यह जाने की यह मामला है क्या? और विरोध क्यों हो रहा है? और क्यों आपको भी इस विरोध में शामिल होना चाहिए।

     

    फ्रांस का विरोध क्यों? और क्यों सिर्फ़ मुसलमानों को ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों को इस विरोध में शामिल होना चाहिए?

     

    जो एक बहुत ही असभ्य, गैर ज़िम्मेदाराना और घटिया बात है। इसी के अंतर्गत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर पर दुनिया भर के मुसलमान, फ्रांस के इस घटिया कृत्य का विरोध कर रहे हैं और कुछ लोग सिर्फ़ मुस्लिमों से नफ़रत में इतने अंधे हो चुके हैं कि वह बिना कुछ जाने ही फ्रांस का इस बात पर समर्थन कर रहे हैं। वह यह अच्छी तरह से समझ लें कि फ्रांस का यह विधान “बोलने की स्वतंत्रता” सिर्फ़ मुसलमानों और इस्लाम के लिये नहीं है। यह तो हर धर्म के भगवान, महा पुरुषों का अपमान और अश्लील चित्रण द्वारा धार्मिक भावनाओं को आहत करने की छूट देता है। आज इस्लाम धर्म के पैग़ंबर का अपमान किया गया है कल हिन्दू, सिख व अन्य किसी दूसरे धर्मों के बारे में भी यही बात हो सकती है। इसीलिए फ्रांस के इस घटिया विधान का सभी को विरोध करना चाहिये।

     

    और यदि आप ऐसा नहीं कर रहे या फ्रांस का इस बात में समर्थन कर रहे हैं तो इसका मतलब यह होगा की आपको इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि कोई आपके धर्म, आस्था, चिन्हों आदि का कैसा भी अपमान करे। आप को इस पर कोई आपत्ति नहीं है और आप इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि सभी को यह करने की छूट होना चाहिए।

     

    अतः अब आप ख़ुद तय कर लें कि आपको इस बारे में फ्रांस का समर्थन करना चाहिए या उसका विरोध?

  • कुरआन किसने लिखा ?

    कुरआन किसने लिखा ?

    जवाब:-  चूंकि अधिकांश धर्मग्रंथ इंसानों द्वारा लिखे गए हैं जैसे गॉस्पेल ऑफ जॉन, गॉस्पेल ऑफ मार्क, श्रीरामचरितमानस आदि को क्रमशः जॉन, मार्क, तुलसीदास ने लिखा था। वैसे ही क़ुरआन के बारे में समझ लिया जाता है कि क़ुरआन को मुहम्मद (स.अ.व.) ने लिखा है जबकि ऐसा नहीं हैं।

    आप (स.अ.व.) तो उम्मी थे यानी की पढ़-लिख नहीं सकते थे जैसा की क़ुरआन में लिखा है :-

    और (ऐ रसूल) क़ुरआन से पहले न तो तुम कोई किताब ही पढ़ते थे और न अपने हाथ से तुम लिखा करते थे ऐसा होता तो ये झूठे ज़रुर (तुम्हारी नबुवत में) शक करते।
    (क़ुरआन 29:48)

    अतः क़ुरआन मुहम्मद (स.अ.व.) ने नहीं लिखा बल्कि यह उनपर नाज़िल (अवतरित) हुआ है।

    जैसा कि अल्लाह त’आला ने क़ुरआन में बताया –
    “(ऐ रसूल) तुम (साफ) कह दो कि इस (क़ुरआन) को तो रुहलकुदूस (जिब्रिल) अपने रब की तरफ़ से लेकर आते थे।”
    (सुरः नहल : 102)

    यानी कि अल्लाह ने क़ुरआन, जिब्रिल (जो कि अल्लाह के 1 फ़रिश्ते हैं) अलैहिस्सलाम के ज़रिए मुहम्मद (स.अ.व.) पर नाज़िल किया है। जब भी अल्लाह का हुक्म होता था जिब्रिल क़ुरआन की आयतें लेकर मुहम्मद (स.अ.व.) के पास आते और उन्हें उसका ज्ञान करवा देते थे। पूरा क़ुरआन एक बार में नहीं बल्कि थोड़ा-थोड़ा 23 वर्ष के अंतराल में अवतरित हुआ।

    क़ुरआन का जमा करवा देना, पढ़वा देना और उसकी मुश्किलात को समझा देना भी अल्लाह ने अपने ज़िम्मे ही लिया था।
    (क़ुरआन 75:16-19)

    जो कि मुहम्मद (स.अ.व.) के जरिये मुकम्मल (सम्पन्न) कर दिया गया।

  • बनु क़ुरैज़ा” के लोगों को क़त्ल करने का फैसला क्यों दिया?

    बनु क़ुरैज़ा” के लोगों को क़त्ल करने का फैसला क्यों दिया?

    शांति का मज़हब होने का मतलब यह नहीं है कि अपराधियों और दुष्टों को सज़ा ना दी जाए बल्कि शान्ति क़ायम रखने के किए अपराधियों को सज़ा देना ज़रूरी है। बनु क़ुरैज़ा के मर्दों को देशद्रोह, विश्वासघात और मदीना के तमाम मुसलमानों के क़त्ल की साज़िश के जुर्म में क़त्ल की सज़ा दी गई थी।

    संक्षेप में मामला यह था :-

    जब नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम मुसलमानों के साथ मक्का के गैर मुस्लिमों के ज़ुल्म और सितम से मजबूर होकर मदीना वालो के आमंत्रण पर मक्का से मदीना तशरीफ़ ले गए तब मदीना के लोगों ने मुसलमानों का इस्तकबाल किया, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना पहुँचने पर वहाँ मौजूद मदीने के मुस्लिम कबीलों और मक्का के मुस्लिमो में भाईचारा क़ायम हो गया वहाँ के मुस्लिम कबीले जिनमे इस्लाम आने से पूर्व मतभेद थे वे सभी दूर हो गए।

    उस समय कोई मुल्की या मिलिट्री निज़ाम तो नहीं हुआ करता था और सभी की सुरक्षा एक बड़ी फिक्र थी। उस वक्त मदीना में मुस्लिमो के अलावा तीन यहूदी कबीले भी मौजूद थे। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके साथ भी समझौते किये और सभी ने मिलकर आपस में संधि (Alliance) की कि सब मिलकर मदीना की हिफाज़त करेंगे। तुम्हारा दुश्मन हमारा दुश्मन होगा और हम तुम्हारी तुम्हारे दुश्मनों के खिलाफ मदद करेंगे और हमारा दुश्मन तुम्हारा दुश्मन होगा और तुम्हें हमारी हमारे दुश्मनों के खिलाफ मदद करना होगी। इसके अलावा भी कई समझौते हुए।

     

    उन सभी समझौते का मुसलमानों ने बड़ी दृढ़ता से पालन किया। मगर इसके उलट यहूदियों ने हमेशा मदीने की हुक़ूमत के साथ गद्दारी की और दुश्मनों का ही साथ दिया।

     

    जैसे मक्का के दुश्मनों ने जब पहली बार मुसलमानों पर हमला किया उस समय यहूदियों के एक कबीले ने मुसलमानों के साथ गद्दारी की और दुश्मनों का साथ दिया। यह इतना बड़ा जुर्म था कि उन के हर व्यक्ति को फाँसी की सजा मिलनी चाहिए थी मगर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनको माफ़ कर दिया और जिला वतन कर दिया। दूसरी लड़ाई के बाद यहूदियों के दूसरे कबीले ने गद्दारी की इस बार भी आपने उन्हें माफ़ करके जिला वतन कर दिया।

     

    लेकिन इसके बाद जब गजवा-ए-खंदक हुआ और मक्का के दुश्मनों के साथ अरब के और भी बहुत सारे कबीले मुसलमानों पर हमला करने के लिए मदीना आए तो मुसलमानों ने उनसे बचने के लिए मदीना के आसपास खंदक (गहरी खाई) खोदी। यह एक बहुत ही बड़ा हमला था और उस वक्त मुसलमानों की संख्या दुश्मन के मुकाबले में बहुत थोड़ी थी। मदीना के हालात भी बहुत सख़्त थे और हर व्यक्ति की जान पर पड़ी थी। ऐसे नाज़ुक वक्त में बनु क़ुरैज़ा के यहूदियों ने दुश्मनों के साथ ना सिर्फ हाथ मिलाया और मुसलमानों की पीठ में खंज़र घोंपने का काम किया बल्कि तमाम षडयंत्रों के साथ तमाम मुस्लिमो का कत्ले के आम हो जाने का पूरा मंसूबा बनाया जैसे ना केवल वे दुश्मनों की मदद करेंगे बल्कि जब वे बाहर से हमलावर होंगे तो यह अंदर से घात करेंगे ताकि मुसलमान दोनों तरफ से घिर जाए और उनके बचने की कोई शक्ल ना बचे। दुश्मनों के साथ मिलकर उन्होंने मुसलमानों पर हमले की साज़िश की। मगर अल्लाह तआला ने उनकी तमाम साजिशों को किसी तरह नाकाम कर दिया। इस भयानक साज़िश का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस वक्त उन्होने डेढ़ हजार तलवारे, दो हजार भाले, 300 जिरह ( लोहे का सूट जिसे जंग में पहना जाता है) 500 ढालें मुसलमानों से लड़ने के लिए तैयार कर रखी थी। जबकि चोला दोस्ती (Alliance) का पहन रखा था ।

     

    इसको आप यूँ समझे कि भारत के चाइना से अगर लड़ाई चल रही हो और भारत के किसी शहर के लोग चाइना की मदद करते हुए पीछे से भारतीय फौज पर हमला करें दुश्मनों से मिलकर उन्हें ख़त्म करने की साज़िश करे तो उन्हें क्या सज़ा मिलना चाहिए? क्या उन्हें फाँसी और क़त्ल से बढ़कर सजा नहीं मिलनी चाहिए?

     

    आज भी किसी भी देश के कानून में सिर्फ देशद्रोह करना या दुश्मन से गुप्त सूचना साझा करना ही मौत की सज़ा की श्रेणी में आता है। तो अगर कोई इस से भी बढ़कर सूचना साझा करना तो छोड़िए बल्कि दुश्मन से मिलकर विश्वासघात करे, पीठ पीछे हमले की साज़िश करे अपने लोगों की मृत्यु सुनिश्चित करे तो उसकी क्या सज़ा होना चाहिए ?

     

    यही काम बनु क़ुरैज़ा वालों ने भी किया। इसलिए बनु क़ुरैज़ा के सभी बालिग मर्दों को क़त्ल की सज़ा दी गई।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि वे इस सज़ा से अंजान थे बल्कि अपना अपराध और उसकी सज़ा से वे भली भांति परिचित थे। तभी इस संदर्भ में जब मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपराधियों से पूछा कि क्या इस मामले में तुम्हें सा’द इब्ने मुआज़ का फैसला कबूल होगा? (सा’द इब्ने मुआज़ जो की यहूदियों के ख़ास मित्र कबीले औस के सरदार थे) तो सभी ने कहा हाँ हमे कबुल होगा।

     

    तब सा’द इब्ने मुआज़ ने उन्हें क़त्ल का फैसला सुनाया जिसे उन्होंने कबूल किया क्योंकि इस संगीन जुर्म की सज़ा यही है और यह ख़ुद यहूदियों की किताब Deuteronomy 20: 12 में भी दर्ज है और आज भी किसी भी देश के कानून में इसकी यही सज़ा होगी। इसे मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की भी स्वीकृति मिली।

     

    इस घटना / वाकिये से नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम के इंतिहाई रहम दिल और दयालु होने का भी पता चलता है। क्योंकि जब यहूदियों ने पहली बार गद्दारी की थी तो आप जानते थे कि अगर इनको इसी तरह खुला छोड़ दिया तो यह हमारे खिलाफ दोबारा साज़िश करने लगेंगे। लेकिन फिर भी उन्होंने उन्हें माफ़ किया और सज़ा-ए-मौत के बजाए सिर्फ जिला वतन किया। यही उन्होंने दूसरी बार भी किया। मगर बनु क़ुरैज़ा ने इस से ना कोई नसीहत हासिल की ना स्वयं को सुधारा बल्कि उल्टा वे तो अपनी साज़िश और षड्यंत्र में और आगे बढ़ गए अतः उनका जुर्म भी बहुत ज़्यादा बड़ा और जान बूझ के किया हुआ था। इसलिए उन्हें मौत की सज़ा दी गई।

     

    उसी तरह *कअब बिन अशरफ* भी एक अपराधी था। शायर होने का ये मतलब नहीं की वह कोई मोतबर शख्सियत था। जिस तरह से कुछ डॉक्टर, इंजीनियर भी अपराधी होते हैं और अपने पेशे का ही इस्तेमाल अपराध में कर देते हैं। उसी तरह कअब बिन अशरफ भी जंग भड़काने, लोगों को उकसाने और फितना करने में अपने पेशे का इस्तेमाल करता था। कई जंगे भड़काने और कई लोगों की मौत का ज़िम्मेदार था। उसके औऱ भी कई जुर्म थे जैसे जंग-ए-बदर के बाद मक्का वालो को फिर मुस्लिमों के साथ जंग के लिए उकसाना, मदीना में आकर मुसलमानों को उनकी महिलाओं आदि के बारे में आहत करने वाली बातें करना निरन्तर मुस्लिमो को मानसिक और शारीरिक यातना देने की कोशिशें करते रहना यहाँ तक कि आप मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के क़त्ल की साज़िश में भी शामिल था।

     

    अतः शांति स्थापित रखने के लिए यह ज़रूरी है कि अशांति फैलाने वाले फितना फसाद और जंग भड़काने वाले जघन्य अपराधियों को सख़्त सजा दी जाए ताकि दूसरों को भी नसीहत हो और तमाम फितना फसाद की कोशिश करने वाले अपनी हरकतों से बाज़ रहें। इसीलिए उसे भी उसके अपराध की सज़ा दी गई।