जवाब:- इल्म ना होने की वज़ह से अक्सर हम लोग इस तरह की बातों को देख कर या तो बहस और झगड़े में पड़ जाते हैं और अपने ताल्लुकात खराब कर लेते हैं या फिर इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं और अपनी जिम्मेदारी से मुँह फेर लेते हैं।

 

जब की इन हालात में क्या करना है वह क़ुरआन में हमें बहुत ही विस्तार से समझाया गया है।

 

अल्लाह तआला फरमाता है क़ुरआन में :-

 

*और भलाई बुराई (कभी) बराबर नहीं हो सकती तो (सख्त कलामी का) ऐसे तरीके से जवाब दो जो निहायत अच्छा हो (ऐसा करोगे) तो (तुम देखोगे) जिसमें और तुममें दुश्मनी थी गोया वह तुम्हारा दिल सोज़ दोस्त है।*

(क़ुरआन 41:34)

 

मतलब हमें यह सिखाया गया है कि हम बुरी बातों का और सख्त कलामी का बदला अच्छी बातों से और अच्छे व्यवहार से दें। अगर हम ऐसा करेंगे तो देखेंगे कि सामने वाले ना केवल हमारी बात को सुनेंगे और समझेंगे बल्कि दिलों में बैठी हुई दुश्मनी दूर होगी और दोस्ती में बदल जाएगी।

 

आगे यह भी बताया कि कहीं लोगों की बदज़ुबानी या सरकशी तुम्हें हक़ बात कहने से ना रोक दे। क्योंकि हक़ बात कहने वालों के सामने ये हालात हमेशा आते रहे, लेकिन मुहम्मद (स.अ.व.) और सहाबा कभी इन बातों से घबराकर हक़ कहने से पीछे ना हटे।

 

अलबत्ता यह काम भी अल्लाह ने हमें इतने खूबसूरत तरीके से समझाया कि अगर इस काम में हमें नसीहत देना पड़े और बहस व मुबाहिशा करना भी पड़े तो वह भी बड़े भले तरीक़े से और हिकमत से किया जाए और इस तरह किया जाए जो लोगों के नज़दीक सबसे भला और अच्छा मालूम हो।

 

*(ऐ रसूल) तुम (लोगों को) अपने परवरदिगार की राह पर हिकमत और अच्छी-अच्छी नसीहत के ज़रिए से बुलाओ और बहस व मुबाहिशा करो भी तो इस तरीक़े से जो लोगों के नज़दीक सबसे अच्छा हो….*

(क़ुरआन 16:125)

 

इस के दिगर अगर कोई महफ़िल या कलाम करने वाले ऐसे हों कि जिनका मकसद सिर्फ़ अल्लाह की आयतों को झुठलाना हो और वह कोई बात सुनना या समझना ही नहीं चाहते और क़ुरआन की आयतों की हँसी उड़ाने में लगे हों और या माहौल ऐसा बन जाये कि वह हठधर्मी पर उतर कर यह काम करने लगें।

 

तब ऐसे वक़्त में क़ुरआन हमें सिखाता है कि हम उस महफ़िल को छोड़ दें और इस काम में शरीक ना हो हत्ता की (यहाँ तक की) वह कुछ और बात करने लगें (या की फिर कभी और माकूल माहौल हो और फिर तब आप अपनी बात उन्हें समझा सकें)।

 

*(मुसलमानों) हालांकि ख़ुदा तुम पर अपनी किताब क़ुरआन में ये हुक्म नाज़िल कर चुका है कि जब तुम सुन लो कि ख़ुदा की आयतों से इनकार किया जाता है और उससे मसख़रापन किया जाता है तो तुम उन (कुफ्फ़ार) के साथ मत बैठो यहाँ तक कि वह किसी दूसरी बात में ग़ौर करने लगें वरना तुम भी उस वक़्त उनके बराबर हो जाओगे..*

(क़ुरआन 4:140)

 

तो हमने देखा क़ुरआन ने हमारी कितनी रहनुमाई की है, बजाय इस पर अमल करने और अपने फ़रीज़े को अंजाम देने के हम लोग ख़ुद अपने-अपने दिमाग़ से तय कर लेते हैं। कभी बहस और झगड़ा कर लेते हैं या तो नज़रअंदाज़ कर अपने आप को सही समझते हैं।

 

इसलिये ज़रूरत है क़ुरआन को समझने की, इल्म हासिल करने की और फिर एतबार से उस पर अमल करने की।

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