सवाल:- जब इस्लाम धर्म सिर्फ़ 1400 सालों से है तो पहले के लोग किस धर्म को मानते थे?

जवाब:- अक्सर लोग अज्ञानता के कारण समझते है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने इस्लाम धर्म की स्थापना 1400 वर्ष पूर्व की। जबकि तथ्य यह है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) इस्लाम धर्म के संस्थापक नहीं बल्कि इस्लाम धर्म के अंतिम संदेष्टा एवं रसूल है।

स्वाभाविक है कि जिसका कोई अंतिम हो उसका कोई पहला भी होगा।

तो वह पहले कौन थे?

कुरआन में कई जगह इसका ज़िक्र है कि आदम अलैही सलाम (धरती पर पहले मनुष्य) ही प्रथम संदेष्टा यानी ईश्वर के प्रथम दूत भी थे, जिन्होंने अपनी संतानों को ईश्वरीय संदेश पहुँचाया और ईश्वरीय शिक्षा दी और उन्हीं से इस्लाम धर्म का आरम्भ हुआ। 

प्रथम संदेष्टा से लेकर आखिरी संदेष्टा तक सभी संदेष्टाओं का मुख्य संदेश एक ही रहा है जो है *एकेश्वरवाद एवं ईश्वरीय आदेश का पालन करना*। अतः विश्व का पहला धर्म इस्लाम ही है। 

प्रायः लोगों को यह ग़लतफहमी इसलिए भी हो जाती है अरबी भाषा का ज्ञान ना होने के कारण उन्हें ऐसा लगता है कि “अल्लाह” शब्द का प्रयोग पहली बार मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) ने किया या लोगों को पहली बार इस बारे में बताया । यानी यह कोई एकदम-सी नई बात है जिसका उनसे पहले कोई ज़िक्र ही नहीं था ।

जबकि ऐसा नहीं है। “अल्लाह” अरबी भाषा में परमेश्वर के लिए प्रयोग होता है और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) से पहले भी लोग अरब में ईश्वर के लिए यह शब्द प्रयोग करते थे अतः आज की तरह ही हमेशा माना जाता रहा है के सृष्टि का स्वामी एक अल्लाह (परमेश्वर) तो है परन्तु समय समय पर लोगों ने इसमें अपने अनुसार मत जोड़ लिए एवं संदेष्टाओं द्वारा बताए मार्ग से भटकते रहे।

इसीलिए अल्लाह समय-समय पर अपने संदेष्टा भेजता रहा और आदम से लेकर मोहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) तक हर काल हर देश में उसने अपने संदेष्टा भेजे जिसका ज़िक्र क़ुरआन में है

 

हमने हर कौम में एक रसूल / संदेष्टा भेजा (जो लोगों को इस बात की तरफ़ बुलाता था ) के तुम अल्लाह की इबादत करो

(क़ुरआन 16:36)

 

अतः जब भी कभी कोई संदेष्टा भेजा जाता तो कई लोग उन संदेष्टाओं की बात मान ईश्वर के आदेशों का पालन करते तो कई इसके उलट उन्हें झूठला देते एवं एकेश्वरवाद के विपरीत आचरण जारी रखते।

सभी संदेष्टा नियत समय काल और लोगों के लिए थे जिन सभी का मूल संदेश तो एक ही था वह यह कि “एक ईश्वर की उपासना करना एवं उसके आदेशों का पालन करना” जबकि व्यवहारिक आदेशों में कालखण्ड के अनुसार बदलाव होते रहे ।

उदाहरण के तौर पर आज सभी मुस्लिम जो इस बात का सामर्थ्य रखते हैं, पर अनिवार्य है कि वह मक्का में जाकर हज करें। फिर चाहे वे विश्व के किसी कोने में भी रहते हों और आज हवाई यात्रा आदि उपलब्ध होने पर यह बिल्कुल सम्भव है पर यदि यही आदेश आज से कई हज़ार वर्ष पूर्व होता जब इंसान को दिशा आदि का ही ज्ञान नहीं था, तब तो यह असम्भव होता । अतः उस समय मूल आदेश के अलावा इबादत में यह चीज़ अनिवार्य नहीं की गई।

इस तरह के बदलाव (Updates) आते रहे और 1400 वर्ष पूर्व मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) के आ जाने पर अंतिम आदेश (Final update) क़ुरआन आ गया और अब क़यामत तक यही रहने वाला है।

जैसा कि फ़रमाया:-

 

“…आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम को पसंद किया…”

(क़ुरआन 5:3)

पूर्व में जितने भी संदेष्टा के संदेश और ग्रंथ अवतरित हुए अब वह उनकी मूल अवस्था में ना रहे और कई तो विलुप्त हो गए और यह अल्लाह के आदेश अनुसार ही हुआ क्योंकि एक बार अंतिम आदेश (Final update) आ जाने पर सिर्फ़ अंतिम को ही सुरक्षित रखा जाता है।

 

फिर भी निशानियों के तौर पर और सत्य खोज करने वालो के लिए पथ-प्रदर्शन करने के लिए विश्व के सभी प्राचीन प्रमुख ग्रंथो में आज भी कहीं ना कहीं इस्लाम की मूल शिक्षा एकेश्वरवाद, अंतिम संदेष्टा की सूचना आदि बातें समान रूप से मिल जाती हैं। फिर चाहे वह किसी भी धर्म का ग्रन्थ क्यों ना हो। जो कि संयोगवश होना असंभव है। या यह कह लें के अल्लाह ने इन बातों को निशानियों के तौर पर बाक़ी रखा।

तो मालूम हुआ कि इस्लाम की मूल शिक्षा तो हमेशा से ही हर काल में रही।

अब अगर सवाल यह होता है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम) से पहले लोग क्या करते थे?

तो जवाब यही है कि वही करते थे जो आज करते हैं। यानी कि कुछ लोग वक़्त के संदेष्टा के बताए रास्ते पर चल कर अल्लाह के आदेश का पालन करते थे तो कई दूसरे लोग संदेष्टा को नहीं मानते और किसी और मत का अनुसरण करते थे।

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