जवाब*:-सर्वप्रथम तो यह गलतफहमी दूर करें कि प्रैक्टिकल इस्लाम अलग और थियोरेटिकल अलग है। इस्लाम पूरा का पूरा प्रैक्टिकल मज़हब है। आमतौर से इस तरह के तुलना का मकसद यह होता है कि जो चीज थियोरेटिकल हो उस पर अमल करना असंभव होता है। लेकिन इस्लाम के किसी एक हुक्म को भी अंकित नहीं किया जा सकता जिस पर किसी भी परिस्थिति में अमल करना असम्भव हो जाये।
बल्कि इस्लाम की ईश्वरीय धर्म होने की यह भी विशेषता है कि इंसान को बनानें वाले ईश्वर को इंसान के सामने आने वाले सभी परिस्थितियों का निश्चय ही ज्ञान है और इसलिये उसने अपने आदेशों के पालन में लचीलेपन (flexibility) की वुसअत रखी ताकि किसी परिस्थिति में उनका पालन करना असंभव ना हो जाये।
जैसे नमाज़ पढ़ना हर बालिग मुसलमान के लिए हर हाल में फ़र्ज़ (अनिवार्य) है जो कि खड़े होकर पढ़ी जाती है। लेकिन यदि कोई बीमारी के कारण खड़ा नहीं हो सकता तो फिर उसके लिए यह आसानी है कि वह बैठ कर पढ़े। यदि बैठ कर भी पढ़ने की स्थिति नहीं तो फिर लेट कर पढ़े।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया : (खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, यदि तुम इसमें सक्षम न हो तो बैठकर नमाज़ पढ़ो और यदि इसमें भी सक्षम न हो तो पहलू पर (लेटकर) नमाज़ पढ़ो।”
(सहीह बुखारी:1066, सुनन इब्ने माजा:1224)
दूसरी बात यह कि इस्लाम में औरतों को मस्जिदों में प्रवेश की मनाही नहीं है। लेकिन पर्दे का एहतेमाम और मर्दो और औरतों का पृथक होना अनिवार्य है। हर मस्जिद और अन्य जगहों में इसकी व्यवस्था होना सम्भव नहीं इसीलिए औरतों का घर में नमाज़ पढ़ना अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) और बेहतर है।
जैसा कि
नबी पाक सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम फरमाते हैं:-औरत के लिए सेहन में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के अंदर नमाज पढ़ना है और घर में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के सबसे अंदरूनी कमरे में नमाज पढ़ना है।
(अबू दाऊद: 570)
लेकिन इस्लाम सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने का ही हुक्म नहीं देता बल्कि ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ खड़ा होना और उसके ख़िलाफ मुहिम में मैदान में डटे रहने का भी हुक्म देता है।
अब जब लोग ज़ुल्म के ख़िलाफ मैदान में डटते हैं तो ना तो वहाँ घर होता है ना ही मस्जिद तो ऐसे में ज़ाहिर-सी बात है कि वे घर या मस्जिद में जाकर तो नमाज़ अदा नहीं कर सकते। अतः ऐसी स्थिति में बिलकुल वही हुक्म है कि जैसे मजबूरी वश इंसान यदि खड़े होकर नमाज़ नहीं पढ़ सकता तो वह बैठ कर पढ़े उसी तरह अगर वह मैदान में किसी अन्याय या अत्याचार के लिए डटा है तो उसके लिए हुक्म यह है कि वह वहीं कहीं जहाँ मुनासिब हो वहाँ नमाज़ अदा कर ले।
और ऐसा ही मुस्लिम महिलाओं ने कई जगह अन्याय के विरूद्ध आंदोलन में नमाज़ अदा कर किया। ऐसा कर उन्होने इस्लाम के दोनों आदेशों का निर्वाह किया। नमाज़ भी अदा की और अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपना विरोध भी दर्ज किया। इसमें कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं हुई।
लेकिन यह देखकर नफ़रत फैलाने वालों को जो तकलीफ हुई थी वह अभी तक दूर नहीं हो पा रही है कि जिन मुस्लिम महिलाओं को वह दबा, कमज़ोर समझ रहे थे उन्होंने कैसे मैदान में निकलकर ना केवल अपना विरोध दर्ज किया साथ ही नमाज़ अदा कर अपने धर्म के पालन में कोई कोताही भी नहीं की।
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