सवाल:-एक पोस्ट के माध्यम से कहा जा रहा हे की रेगिस्तान में लोग मांस खाते थे क्योंकि वहाँ सब्ज़ियाँ नहीं होती थी, मूर्ति की पूजा नहीं करते थे क्योंकि मिट्टी नहीं होती थी, मरने के बाद दफ़न कर देते थे क्योंकि जलाने के लिए लकड़ियाँ नहीं होती थी अतः इस्लाम धर्म नहीं मज़हब है जिसका मतलब दिनचर्या और अपने कबीले को बढ़ाना होता है।

जवाब:-  इस तरह की पोस्ट लिखने के पीछे मकसद यह होता है कि किसी तरह लोगों को इस्लाम के बारे में जानने से रोका जाए और उनकी जिज्ञासाओं को समाप्त किया जाए। इसीलिए कुछ भी लिख कर ख़ुद ही व्याख्या कर दी जाती है कि यही इस्लाम है।

और यह व्याख्याएँ इतनी मनगढ़ंत, दुर्बल और हास्यपद होती हैं कि ज़रा-सी बुद्धि लगाने पर इनकी पोल खुल जाती है।

जैसे यहाँ इस पोस्ट में जो बातें लिखी हैं यदि उसी अनुसार सोचा जाए तो ठीक इसका उल्टा मानना पड़ता है कि भारत में जंगल हैं, लकड़ी ज़्यादा है इसलिए मानना पड़ेगा कि यहाँ मरने के बाद जलाया जाता है, फल सब्ज़ी ज़्यादा है इसलिए वह खाई जाती थी, मिट्टी है इसलिये लोग मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते थे। पत्ते ज़्यादा है इसलिये पत्तल दोने में खाते थे आदि।

अतः इस तर्क अनुसार तो भारत का हर धर्म, धर्म ही नहीं रहा बल्कि दिनचर्या हो गया।

अतः यह पोस्ट पूर्ण काल्पनिक तो है ही साथ ही इसमें झूठ का भी भरपूर प्रयोग किया गया है जैसे कहा जा रहा है कि इस्लाम धर्म नहीं मज़हब है और मज़हब का अर्थ कहीं दिनचर्या बताया जा रहा है तो कहीं अपने कबीले को बढ़ाना।

जबकि यह दोनों ही पूर्ण झूठ है, आज आप ख़ुद बड़ी आसानी से गूगल ट्रांसलेटर का प्रयोग कर पता कर लें कि मज़हब का अर्थ क्या होता है? वैसे तो क़ुरआन में इस्लाम के लिए शब्द “दीन” का प्रयोग किया गया है। लेकिन अगर शब्द मज़हब की बात करें तो इसका भी अर्थ अरबी में धर्म ही होता है। यदि आपको अरबी में हिन्दू धर्म या सिख धर्म कहना है तो आपको हिन्दू मज़हब या सिख मज़हब ही कहना होगा।

वैसे दिन-ए-इस्लाम जीवन का एक पूरा तरीक़ा (Complete way of life) है जिसमें अनुयायियों का जीवन के हर एक पहलू के बारे में मार्गदर्शन कर दिया गया है। फिर चाहे वह धर्म पालन हो या दिनचर्या। ऐसे सिर्फ़ दिनचर्या की ही बात करें तो इसके बताए तरीको का लाभ आज जगजाहिर है। फिर चाहे वह खान-पान का तरीक़ा हो या ख़तना का। लेकिन इन्हीं में से कुछ एक को लेकर यह दिखाने का कुप्रयास किया गया कि बस यही इस्लाम है। जबकि इस्लाम की उस विशेष एवं पृथक पहलू को सभी से छुपाने का प्रयास किया गया जो उसे सभी धर्मों से अलग बनाता है। वह यह कि:-

1. सिर्फ़ एक ईश्वर को पहचानना और उसी की इबादत करना-

वही अल्लाह तुम्हारा पालनहार है, उसके अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं। वह प्रत्येक वस्तु का उत्पत्तिकार है। अतः उसकी इबादत (वंदना) करो तथा वही प्रत्येक चीज़ का अभिरक्षक है।
(क़ुरआन 6:102)

ख़ुदा ही वह ज़ाते पाक है कि उसके सिवा कोई माबूद नहीं (वह) ज़िन्दा है (और) सारे जहान का संभालने वाला है उसको न ऊँघ आती है न नींद जो कुछ आसमानो में है और जो कुछ ज़मीन में है (गरज़ सब कुछ) उसी का है कौन ऐसा है जो बग़ैर उसकी इजाज़त के उसके पास किसी की सिफ़ारिश करें जो कुछ उनके सामने मौजूद है (वह) और जो कुछ उनके पीछे (हो चुका) है (खुदा सबको) जानता है और लोग उसके इल्म में से किसी चीज़ पर भी अहाता नहीं कर सकते मगर वह जिसे जितना चाहे (सिखा दे) उसकी कुर्सी सब आसमानॊं और ज़मीनों को घेरे हुये है और उन दोनों (आसमान व ज़मीन) की निगेहदाश्त उस पर कुछ भी मुश्किल नहीं और वह आलीशान बुजुर्ग़ मरतबा है।*
(क़ुरआन 2:255)

2. और फिर उसी ईश्वर के आदेशों का पालन कर यह जीवन रुपी परीक्षा व्यतीत करना क्योंकि यह जीवन तो थोड़े समय के लिए है अंत में सभी को मरना है और अपने किये कर्मो का हिसाब देना है।

कह दो, “मृत्यु जिससे तुम भागते हो, वह तो तुम्हें मिलकर रहेगी, फिर तुम उसकी ओर लौटाए जाओगे जो छिपे और खुले का जाननेवाला है और वह तुम्हें उससे अवगत करा देगा जो कुछ तुम करते रहे होगे।” 
(क़ुरआन 62:8)

उस दिन लोग तितर-बितर होकर आयेंगे, ताकि वे अपने कर्मों को देख लें।
तो जिसने एक कण के बराबर भी पुण्य किया होगा, उसे देख लेगा।
और जिसने एक कण के बराबर भी बुरा किया होगा, उसे देख लेगा।
(क़ुरआन 99: 6-8)

और अंत में, यह कहना भी बिल्कुल निराधार है कि अरब के लोग एक ईश्वर को इसलिए पूजते और मूर्तियाँ नहीं बनाते थे क्योंकि वहाँ मिट्टी नहीं थी। क्योंकि क़ुरआन नाज़िल होने से पहले अरब के लोग अल्लाह (ईश्वर) को तो मानते थे लेकिन उसके साथ-साथ उन्होंने कई मूर्तियाँ भी बना रखी थी और उनके बारे में मन से ही काल्पनिक किस्से कहानियाँ बना कर उन्हें भी पूजते थे और उन्हें किसी तरह ईश्वर के साथ शरीक (साझी) कर उन से मांगने लगते थे! जैसे किसी मूर्ति को ईश्वर की बेटी बना देते तो किसी और को और कुछ। जिस से मना करने के लिए क़ुरआन में कई जगह जिक्र है
जैसे

वास्तव में, ये कुछ केवल नाम हैं, जो तुमने तथा तुम्हारे पूर्वजों ने रख लिये हैं। नहीं उतारा है अल्लाह ने उनका कोई प्रमाण। वे केवल अनुमान (ईश्वर के पुत्र / पुत्री की कहानियाँ) पर चल रहे हैं तथा अपनी मनमानी पर। जबकि आ चुका है उनके पालनहार की ओर से मार्गदर्शन।
(क़ुरआन 53:23)

हे लोगों! एक उदाहरण दिया गया है, इसे ध्यान से सुनो, जिन्हें तुम अल्लाह के अतिरिक्त पुकारते हो, वे सब एक मक्खी भी नहीं पैदा कर सकते, यद्यपि सब इसके लिए मिल जायें और यदि उनसे मक्खी कुछ छीन ले, तो उससे वापस नहीं ला सकते। माँगने वाले निर्बल और जिनसे माँगा जाये, वे दोनों ही निर्बल हैं।
(क़ुरआन 22:73)

अतः मालूम हुआ कि इस्लाम सभी के लिए एक खुला पैगाम है जिसमें विस्तार में जानने के लिए बहुत कुछ है। जबकि इस सवालिया पोस्ट में मज़हब का झूठा अनुवाद कर और झूठी कुतार्किक व्याख्या कर कुछ का कुछ बताने का प्रयास किया गया।

 

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