सवाल:-हमें ईश्वर से क्यों डरना चाहिए? क्या इस्लाम डर का मज़हब है जो क़ुरआन में बार-बार अल्लाह से डरने का कहा जाता है?

जवाब:-  क़ुरआन हमें सिर्फ़ अल्लाह से डरना नहीं सिखाता बल्कि उस से मोहब्बत करना और उसकी रहमत की उम्मीद रखना भी सिखाता है।

❇️ प्रेम
(हे नबी!) कह दोः यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो, तो मेरा (रसूल का) अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम करेगा तथा तुम्हारे गुनाह माफ़ कर देगा और अल्लाह बहुत माफ़ करने वाला और (रहीम) दयावान् है।
(क़ुरआन 3:31)

हे ईमान वालों! तुममें से जो अपने धर्म से फिर जायेगा, तो अल्लाह (उसके स्थान पर) ऐसे लोगों को पैदा कर देगा, जिनसे वह प्रेम करेगा और वे उससे प्रेम करेंगे।…. 
(कुरआन 5:54)

लेकिन अक्सर लोग सिर्फ़ प्रेम के भ्रम में बेपरवाह हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि ईश्वर हम से प्रेम करता है अतः अब हम कुछ भी करें अंत में ईश्वर हमें माफ कर ही देगा।

❇️इसीलिए प्रेम ही काफ़ी नहीं है, प्रेम के अतिरिक्त डर भी ज़रूरी है जिसके कुछ एक कारण तो यह हैं:-

1. जो भी व्यक्ति किसी से प्रेम करता है या उसके बुलन्द मर्तबे की वज़ह से उसका अदब करता है वह उस से डरता ज़रूर है। इस बात से की कहीं वह उसे नाराज़ ना कर दे या उनकी बात ना मान कर नुक़सान ना उठा ले। जैसे एक बच्चा अपने माँ-बाप से इसलिये नहीं डरता की वे कोई डरावनी चीज़ हैं। बल्कि उनको नाराज़ ना करने और अदब की वज़ह से डरता है।

2. दूसरा यह कि आप जिस भी देश में रहते हैं आपको उसके कानून को मानना होता है और आप इस बात से डरते हैं कि यदि आप उनको तोड़ेंगे तो सज़ा के भागीदार होते हैं।

अतः ईश्वर से इसलिए भी डरना चाहिए क्योंकि वह पूरी दुनियाँ का मालिक है और उसने दुनियाँ व्यर्थ ही नहीं बनाई है बल्कि इसमें आपके किये कर्मो का हिसाब होना है और फिर वह आपको स्वर्ग या नर्क प्रदान करेगा। अगर इंसान उसके बताये आदेशों का पालन नहीं करेगा और दुष्टता करेगा तो ईश्वर उसे सख्त सज़ा देने कि ताक़त रखता है।

दुनियाँ के कानून से तो एक बार बचा जा सकता है। लेकिन ईश्वर से ना छुपा जा सकता है ना बचा जा सकता है।

हे मनुष्यो! अपने पालनहार से डरो, वास्तव में, क़यामत (प्रलय) का भूकम्प बड़ा ही भयानक है।
(क़ुरआन 22:1)

और तुम कदापि अल्लाह को, असावधान (ग़ाफ़िल) न समझो, जो अत्याचारी कर रहे हैं! वह तो उन्हें उस दिन के लिए टाल रहा है, जिस दिन आँखें खुली रह जायेँगी।                                                      (क़ुरआन 14:42)

तो जिसने एक कण के बराबर भी अच्छा किया होगा, उसे देख लेगा और जिसने एक कण के बराबर भी बुरा किया होगा, उसे देख लेगा।
(क़ुरआन:99 7-8)

3. अक्सर इंसान दुनियाँ में किसी ताकतवर व्यक्ति से डरने के कारण अन्याय का साथ देता है या सत्य का साथ नहीं देता। इस पर भी ईश्वर (अल्लाह) ने मनुष्य जाति को अपने डर के ज़रिए प्रेरणा दी है कि उसे सत्य का साथ देने में किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है।

….तो उनसे न डरो तथा मुझ ही से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।
(क़ुरआन 3:175)

…तुम भी लोगों से न डरो, मुझ ही से डरो..
(क़ुरआन 5:44)

4. इसके अतिरिक्त इस सम्बंध में अरबी का लफ्ज़ “तक़वा” सबसे सटीक व्याख्या करता है जो इन सभी अर्थों को लिए हुए है जैसे “शील, धर्मपरायणता, पुण्यशीलता, धार्मिकता, ईश्वर भक्ति” आदि अतः ऐसा डर जो तक़वे एवं तमाम अच्छे कर्मों के लिए प्रेरित करता है।

हे ईमान वालों! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ देने वाले रहो तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इसपर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थातः सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निःसंदेह तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति जानता है।
(क़ुरआन 5:8)

हे ईमान वालों! अल्लाह से डरो तथा सही और सीधी बात बोलो। 
(क़ुरआन 33:70)

❇️ अल्लाह की रहमत से उम्मीद-

यानी क़ुरआन हमें सिखाता है कि बन्दा अपने ईश्वर से प्रेम करें उसकी नाफरमानी करने से डरता रहे और यदि फिर उस से कोई कोताही / गलती होती है तो क़ुरआन हमें अपने ईश्वर से रहमत की उम्मीद रखना सिखाता है।

(ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ मेरे बन्दों जिन्होने (गुनाह करके) अपनी जानों पर ज्यादतियाँ की हैं तुम लोग ख़ुदा की रहमत से नाउम्मीद न होना बेशक ख़ुदा (तुम्हारे) कुल गुनाहों को बख्श देगा वह बेशक बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है।
( क़ुरआन 39:53)

अतः क़ुरआन में हमें बिल्कुल स्पष्ट और सही ढंग से सीखा दिया गया कि एक बन्दे का अपने ईश्वर के प्रति कैसा ताल्लुक होना चाहिए।

जिसके अभाव में इंसान या तो सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम तो कभी सिर्फ़ डर ही डर के सिद्धान्त में पड़कर ग़ुमराह होता है।

 

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