जवाब:- हमेशा से ही देश के विभाजन का आरोप मुस्लिमों पर लगाया जाता है जबकि आप इतिहास का अध्ययन करें तो आप इस तथ्य से अवगत होंगे की दो राष्ट्र की बुनियाद हिंदू राष्ट्रवादी सोच के लोगों ने रखी थी।
यह बात बिल्कुल प्रमाणित है कि मुस्लिम लीग की दो देश की बात उठाए जाने से बहुत पहले अट्ठारवीं सदी में ही हिन्दू राष्ट्रवादियों ने इस सिद्धांत की बुनियाद डाल दी थी। जो कि उन्नीसवीं सदी के आते आते बहुत मुखर होती गई। उनके मशहूर और उभरते हुए नेताओं के ईसाईयों और खास तौर से मुसलमानों को लेकर दिए जा रहे ज़हरीले भाषण भी बढ़ते गए।
भाई परमानंद, राजनारायण बसु (1826-1899), उनके साथी नवगोपाल मित्र, लाला लाजपत राय, डॉ. बी.एस. मुंजे, वी.डी. सावरकर, एम.एस. गोलवलकर आदि हिंदूवादी लोग लगातार एक हिन्दू राष्ट्र की कल्पना कर रहें थे। एक ऐसे हिन्दू राष्ट्र की कल्पना जिसमें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के लोग हिंदुओं की दया पर पले।
1899 में लाला लाजपतराय जी ने हिंदुस्तान रिव्यू नामक पत्रिका में एक आलेख लिखा और बताया कि हिंदू अपने-आप में एक राष्ट्र हैं। भाई परमानन्द ने तो अपनी आत्मकथा में अफगानिस्तान और सीमावर्ती इलाकों को मिलाकर अलग मुस्लिम राष्ट्र कि योजना तक प्रस्तावित कर दी थी।
गोलवलकर ने तो जर्मनी के नाज़ियों और इटली के फासिस्टों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये की तर्ज़ पर भारत के मुसलमानों और ईसाईयों को चेतावनी दी कि,
“अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे राष्ट्र की तमाम संहिताओं और परम्पराओं से बंधे, राष्ट्र की दया पर टिकें, जिनको कोई विशेष सुरक्षा का अधिकार नहीं होगा, विशेष अधिकारों या अधिकारों की बात तो दूर रही। इन विदेशी तत्वों के सामने सिर्फ़ दो ही रास्ते हैं, या तो वो राष्ट्रीय नस्ल में मिल जाए और उसकी तहज़ीब को अपनाए या उसकी दया पर ज़िंदा रहें जब तक कि राष्ट्रीय नस्ल उन्हें इजाज़त दे और जब राष्ट्रीय नस्ल की मर्ज़ी हो तब वे देश को छोड़ दें।….
विदेशी नस्लों को चाहिए कि वे हिन्दू तहज़ीब और ज़बान को अपना ले…
हिन्दू राष्ट्र के अलावा दूसरा कोई विचार अपने दिमाग़ में न लायें और अपना अलग अस्तित्व भूलते हुए हिन्दू नस्ल में मिल जाये या देश में हिन्दू राष्ट्र के साथ दोयम दर्जे के आधार पर रहें, अपने लिए कुछ न मांगे, अपने लिए कोई खास अधिकार न मांगे यहाँ तक कि नागरिक अधिकारों की भी चाहत न रखें।”
(एम.एस. गोलवलकर: वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड)
हिन्दू महासभा के बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने भी ऐसी ही घोषणा की थी।
डॉ. बी. एस. मुंजे ने हिन्दू महासभा के फलने फूलने और उसके बाद आर.एस.एस. के बनने में मदद की थी। सन् 1923 में अवध हिन्दू महासभा के तीसरे सालाना जलसे में उन्होंने ऐलान किया-
“जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ो का, फ्रांस फ्रांसीसी का और जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिन्दू संगठित हो जाए, तो वो मुसलमानों को वश में कर सकते हैं।”
(उध्दृत जे.एस. धनकी, ‘लाला लाजपत राय ऐंड इंडियन नेशनलिज़्म’)
सावरकर ने हमेशा से ईसाई और मुस्लिम समुदाय को विदेशी मानते हुए सन् 1937 में अहमदाबाद में हिंदु महासभा के 19 वें सालाना जलसे में अपने भाषण में कहा-
“आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, जबकि हिंदुस्तान में खास तौर से दो राष्ट्र है- हिन्दू और मुसलमान।”
(समग्र सावरकर वांग्मय: हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6)
बाबा साहेब अंबेडकर इस तरह के भाषणों से होने वाले एक बड़े नुकसान के खतरे को समझ रहे थे, उन्होंने इस संदर्भ में परिस्थितियों को देखते हुए साफ़ लिख दिया था-
“ऐसे में देश का टूटना अब ज़्यादा दूर की बात नहीं रह गया। सावरकर मुसलमान क़ौम को हिन्दू राष्ट्र के साथ बराबरी से रहने नहीं देंगे। वो देश में हिंदुओं का ही दबदबा चाहते है, और चाहते हैं कि मुसलमान उनके अधीन रहे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी का बीज बोने के बाद सावरकर अब क्या चाहेंगे कि हिन्दू मुस्लिम एक ही संविधान के तले एक अखंड देश में होकर जिएं, इसे समझना मुश्किल है।”
(बी.आर.अंबेडकर: पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन)
इसी तरह के भाषणों, बिगड़ते माहौल और क्रिया प्रक्रिया स्वरूप अंत में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, वो भी तब जब अक्सर नेताओं के भाषण से उन्हें लगा कि अब भारत में रहना आसान नहीँ होगा।
दरअसल 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह समझ आ गया था की देश पर राज जारी रखने के लिए यह युक्ति करना ज़रूरी है कि हिन्दू-मुस्लिम फिर कभी एक ना हो पाएं इसी के फलस्वरूप इस एजेंडे की शुरुआत हुई।
आज जनता को समझना होगा कि आज जो लोग देश के बंटवारे का आरोप लगाते हैं उनका ख़ुद का बंटवारे में कितना बड़ा हाथ था? और आज भी जो नफ़रत फैलाने वाले लोग कर रहे हैं यह उसी एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं जो देश के लिये हितकारी नहीं है।
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