सवाल:-अगर इस्लाम सच्चा धर्म है तो अल्लाह ने सभी को मुसलमान क्यो नहीं बनाया?*

जवाब:- हदीस में आता है कि तमाम इंसान मुसलमान ही पैदा होते है फिर उनके माँ बाप उन्हें यहूदी, मजूसी बनाते हैं।
 
यानी अल्लाह को “एक मानना और इस्लाम” इंसान की फ़ितरत है जो कि माँ-बाप के अक़ीदे के प्रभाव से बदल जाती है।
 
अब सवाल यह होता है के फिर अल्लाह ने सभी को मुस्लिम माँ-बाप के यहाँ क्यो पैदा नहीं किया? या जबरिया मुस्लिम क्यो नहीं बनाया?
 
तो बेशक अगर अल्लाह चाहता तो सभी को मुस्लिम और फरमाबरदार बना सकता था। लेकिन अल्लाह को किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं करना थी।
 
…यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है।… (क़ुरआन 5:48) 
 
चूंकि यह दुनिया सभी के लिए इम्तिहान है और परीक्षा की जगह है तो अगर सब को ज़बरदस्ती फरमाबरदार बना दिया जाता तो फिर परीक्षा का मतलब ही क्या रह जाता?
 
जिसने उत्पन्न किया है मृत्यु तथा जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा ले कि तुममें किसका कर्म अधिक अच्छा है? तथा वह प्रभुत्वशाली, अति क्षमावान् है। (क़ुरआन 67:2) 
 
साथ ही यह बात ग़ौर करने की है कि मुसलमान घर में पैदा होना या पैदाइश से मुसलमान होना इस बात की गारंटी नहीं है कि वह व्यक्ति जन्नत में जायेगा। बल्कि एक व्यक्ति मुस्लिम घर में पैदा हो कर भी अंत में जहन्नम को नसीब हो सकता है तो वही एक व्यक्ति भले गैर मुस्लिम पैदा हुआ हो वह अल्लाह के बताए हुए आदेश पर पालन कर जन्नत में जा सकता है।
 
दरअसल इस दुनिया में सभी अपनी-अपनी परीक्षा दे रहे हैं सभी को अपना हिसाब देना है। फिर चाहे वह अमीर हो गरीब हो, मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम हो।
 
इसको हम आज आसानी से इस तरह समझ सकते है जैसे आजकल बोर्ड परीक्षा में प्रश्न पत्र (Question paper) सेट में आते हैं। हर सेट में सवाल अलग होते हैं किसी को A सेट मिलता है किसी को B सेट मिलता है। बहरहाल सभी को अलग-अलग सवाल मिलते हैं। सभी सेटों में कुछ सवाल सरल होते हैं तो कुछ मुश्किल भी होते है और मुश्किल सवालों के नम्बर भी अधिक होते हैं।
 
ऐसे ही हम सभी को अलग-अलग तरह की ज़िंदगी और परिस्थिति मिली है जिसमे हमे परीक्षा देना है। किसी के लिए कुछ मामलों में आसानी है तो किसी दूसरे मामले में मुश्किल और जितनी बड़ी मुश्किल उतना बड़ा बदला भी है।
 
ऐसे ही हम जब उन लोगों की बात करे जो मुस्लिम पैदा हुए तो उनके लिए आसानी यह है कि उन्हें इस्लाम कबूल करने में मशक्कत नहीं करना पड़ी बल्कि माँ बाप के ज़रिए आसानी से मिल गया। लेकिन परेशानी यह है कि जिस को जो चीज़ जितनी आसानी से मिलती है उसकी उतनी कम क़द्र करता है। यही वज़ह है कि कई मुस्लिम इस्लाम के बुनियादी अमल ही पूरे नहीं करते और हो सकता है कि वह इस दुनिया रूपी परीक्षा में फैल हो जाये।
 
जबकि जो मुस्लिम घर में पैदा नहीं होते उन्हे भले इस्लाम कबुल करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हो लेकिन चूंकि उन्हें इसकी अहमियत पता होती है वे मुस्लिम होने पर इस्लाम के पालन में कोताही नहीं करते और सफलता प्राप्त करते हैं।
 
ऐसे ही यह भी है कि पैदाइश से मुसलमानों को अपना हिसाब किताब बालिग होने की उम्र से ही देना है यानी कितनी नमाज़ अदा की, कितने रोज़े छोड़े वगैरह। जबकि जो मुस्लिम घरों में पैदा नहीं हुए उनके इस्लाम से पहले की ज़िंदगी के सभी अमल और गुनाह माफ़ होते है और हिसाब उसी दिन के बाद से देना होता हैं जिस दिन वे इस्लाम अपनाते है।
 
ऐसी और भी कई बातें है। जिस से पता लग जाता है कि दोनों ही सूरत बहरहाल बराबर है और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यक्ति पर है कि वह कैसा अनुसरण करता है और इस परीक्षा में पास होता है या असफल होता है। इसमें उसके मुस्लिम और गैर मुस्लिम घर में पैदा होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
 
क्योंकि अल्लाह सिर्फ़ एक है और उसकी ही इबादत करना चाहिए और उसके आदेशो का पालन करना चाहिए यह बात अल्लाह तआला जीवन में कभी ना कभी हर व्यक्ति के दिल में डाल ही देता है। परन्तु इसके बाद भी इंसान उसे दूसरे प्रभावों में दबा देता है या उसको क़बूल करने का साहस नहीं दिखता और उसका ज़िम्मेदार वह ख़ुद ही होता है चाहे फिर वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम।
 
जैसा कि फ़रमाया क़ुरान में:-
 
हम शीघ्र ही दिखा देंगे उन्हें अपनी निशानियाँ संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर। यहाँ तक कि खुल जायेगी उनके लिए ये बात कि यही सच है और क्या ये बात पर्याप्त नहीं कि आपका पालनहार ही प्रत्येक वस्तु का साक्षी (गवाह) है?
(क़ुरआन 41:53)
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