सवाल:- एक पोस्ट में बताया जा रहा है कि इस्लाम में दिमाग लगाने और सोचने की मनाही है ऐसे कार्य को बिदअत कहते है और यह मना है। अर्थात इस्लाम में कोई थॉट प्रोसेस ही नहीं है बल्कि थॉट (सोचने) ही की जगह नहीं है। इसका जवाब दें ?

जवाब: यहाँ शब्दो की हेराफेरी कर लोगों को गुमराह करने का एक कुप्रयास किया गया है लेकिन झूठ का पर्दाफाश होना निश्चित है।

क्या इस्लाम और क़ुरआन, मनुष्य को अपना दिमाग लगाने, विचार करने, विवेक का इस्तेमाल करने के लिए आमन्त्रित करता है?

निश्चित ही क़ुरआन और इस्लाम में इस बात पर जितना ज़ोर दिया गया है किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिया गया।

और वे कहेंगे, “यदि हम सुनते या बुद्धि से काम लेते तो हम दहकती आग में पड़ने वालों में सम्मिलित न होते।”

(क़ुरआन 67:10)

इसके साथ ही सूरहः अन-नहल 16:12, सूरहः अल-बकरह: 2:164, सूरहः अल-अम्बिया 21:30, सूरहः अल-मा’ईदा 5:58, सूरहः अल-बकरह: 2:44 आदि एवं हदीसों में बार बार मनुष्य को बुद्धि से काम लेने और तर्क करने का कहा गया है।

अतः यह कहना कि इस्लाम में सोचने की मनाही है, एक तथ्यहीन बात है।

▪️ अब बात करते हैं बिदअत की, तो बिदअत का मतलब दिमाग लगाना नहीं होता बल्कि अपनी मर्ज़ी से बिना किसी आधार के धर्म में कोई बात जोड़ देना और ऐसा समझना कि यह ईश्वर की तरफ़ से है या धर्म का हिस्सा है, उसे बिदअत कहते हैं।और यही अंधविश्वास धर्म ग्रंथो में मिलावट का कारण, और अन्य कुरीतियों का कारण होता है जिससे तमाम दूसरे धर्म आज जूझ रहे है और उन्हे ये मानना पढ़ता है कि हमारे धर्म ग्रँथों में एवं धार्मिक मान्यताओ में मिलावट हो चुकी है।

अतः बिदअत को समझना एवं इससे बचना ही विवेकशीलता और बुद्धि का प्रयोग है।

पुनः ईमान वाला निर्णय कैसे लेता है, इस के बारे में घूमते-घुमाते यह बताने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इस्लाम में कोई थॉट प्रोसेस (सोचने कि शक्ति/प्रक्रिया) ही नहीं है बल्कि थॉट की जगह ही नहीं है जबकि कमाल की बात यह है कि इनके ख़ुद के पूरे विवरण से ही समझ आ जाता है कि इस्लाम में कितना विस्तार में थॉट प्रोसेस दिया गया है।

इस्लाम तो सभी के लिए तार्किक, सर्वमान्य एवं सटीक थॉट प्रोसेस देता है जो कि सिर्फ़ मुस्लिम के लिए ही नहीं बल्कि विश्व में किसी भी धर्म में विश्वास करने वाले को सोचने, समझने और सही आचरण करने के लिए प्रेरित करता है।

 

  1. इंसान अंधविश्वास में बाप दादा से चली आ रही प्रथाओं पर ही आँख बंद कर ना चलता रहे। सबसे पहले अपने बुध्दि एवं विवेक का इस्तेमाल करें एवं धर्म ग्रन्थ को पढ़े, उसे परखे और जाने क्या यह सही है?? क्या वाकई में यह ईश्वर के द्वारा है अथवा नहीं है?

यदि ना, तो उसे छोड़े और सत्य की खोज जारी रखे और यदि हाँ, और उसे विश्वास हो कि यही ईश्वर की वाणी है तो फिर उस धर्म को स्वीकार कर उसका पालन करें।

 

  1. अपनी बुद्धि एवं विवेक से मान ले कि यह ईश्वरीय धर्म है तो फिर पता करें की ईश्वर ने उसे क्या आदेश दिए हैं और उनका पालन करें ना कि किसी कथित धर्म गुरु की बात पर आँख बंद कर अमल करता रहे की यह ईश्वर का आदेश है।

 

  1. यह पता करने के लिए वह ख़ुद ईश्वर की किताब देखे की, उसमें क्या आदेश है?

 

  1. यहाँ आवश्यक है कि वह अपनी बुद्धि एवं विवेक से यह ज्ञात करें की कहीं उस किताब ही में तो मिलावट नहीं हो गई है जो मूल रूप से ईश्वर ने भेजी थी?? मिलावट प्रायः बिदअत के द्वारा ही होता है जो इस्लाम में पूर्ण निषेध है। क्योंकि अगर किताब में ही मिलावट है तो फिर ना तो वह ईश्वर की वाणी हो सकती है ना उस पर आधारित वह धर्म, ईश्वरीय धर्म हो सकता है।

 

  1. अतिरिक्त मार्गदर्शन के लिये वह यह भी ज्ञात करें कि ईश्वर ने जिस सन्देष्टा के द्वारा यह किताब और सन्देश भेजे, उन्होने लोगों को किस तरह इसका पालन कर के दिखाया था। अतः सही बात मालूम हो सके ना कि लोगों के कथन/विवरण से की जिस की जो मर्ज़ी हो उसकी वह व्याख्या कर दी और फिर उस पर ही रीत चल पड़ी।

 

और यह सब पता करना इस्लाम में सम्भव है कि इस्लाम में किताब, नबी की शिक्षा, सारे रिकॉर्ड और अमल पूरी तरह संग्रहीत एवं सुरक्षित हैं।

 

दरअसल यही बुध्दि एवं विवेक की पराकाष्ठा है कि इस्लाम में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है बल्कि सभी को इस बात का निमन्त्रण है कि विवेक का इस्तेमाल करें और ख़ुद जाने और सत्य को स्वीकार करने का साहस करें। इस्लाम में सोच की प्रक्रिया एकदम स्पष्ट है।

लेकिन सोचना तो आपको चाहिए कि यदि आप किसी धर्म का पालन करते हैं और फिर भी सभी निर्णय अपने मन से लेते हैं और इस बात को ज़रूरी ही नहीं समझते की वह यह पता करें कि ईश्वर का इस बारे में क्या मार्गदर्शन है?

तब या तो

  1. आप जिस धर्म को मानते हैं उस धर्म में ईश्वर ने आपको कोई मार्गदर्शन ही नहीं किया है। ईश्वर आपको धरती पर भेजे और कोई मार्गदर्शन ही ना करें ऐसा हो ही नहीं सकता।

या फिर

  1. आपके धर्म ग्रँथ में मार्गदर्शन तो मौजूद है लेकिन आप उसे पालन करने योग्य नहीं समझते। अतः जब वह मार्गदर्शन ही पालन योग्य नहीं है तब वह ईश्वर की तरफ़ से कैसे हो सकता है?? यानी सम्भवतः यह मिलावट है।

 

आरोप प्रत्यारोप तो चलते रहेंगे, आप विवेक का उपयोग करें। अगर आप आस्तिक हैं तो आपके लिए आवश्यक है कि ईश्वर के सत्य की खोज कर अपने मरणोपरांत जीवन के बारे में चिंता करें और इस बारे में सोचें ज़रूर “क्योंकि मृत्यु सभी की निश्चिंत है”, और बुध्दि का प्रयोग यही बताता है कि सबसे अहम यह सोच विचार करना है कि जीवन में आने का उद्देश्य क्या था? और मरने के बाद क्या होना है?

 

क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है। किन्तु बहुत-से लोग अपने प्रभु के मिलन का इनकार करते है।

(क़ुरआन 30:8)

 

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