Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के शान में गुस्ताख़ी

    पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के शान में गुस्ताख़ी

    देश में किसी भी बड़ी समस्या, राजनेताओं की असफ़लता या किसी भी मुद्दे से बहुसंख्यकों का ध्यान भटकाने का सबसे बेहतरीन और कारगर उपाय है मुसलमान और इस्लाम।

    कितना भी बड़ा नुक़सान हो रहा हो या जान के लाले पड़े हों फिर भी हमारी जनता ऐसी है कि मुसलमान और इस्लाम का मुद्दे से हर वक़्त ठगाने के लिए तैयार रहती है। बात कड़वी है लेकिन जब तक यह कड़वी गोली नहीँ ली जाएगी तब तक ऐसे ही स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के अभाव में जाने जाती रहेंगी ऐसे ही बेरोजगारी की मार और महँगाई में जनता लुटती रहेगी। 

    आख़िर क्या मक़सद होता है जब एक ऐसा आदमी जिसकी कोई हैसियत नहीं वह उठकर उस शख्सियत के बारे में अनर्गल बातें कह देता है जो दुनियाभर में करोड़ों मुसलमानों के लिए जान से भी अधिक प्रिय है। ऐसी शख्सियत जिस के उच्च किरदार और मानवता पर एहसान को दुनिया का हर ज्ञानी और इतिहासकार जानता और मानता है फिर चाहे वह किसी धर्म का क्यों ना हो। 

    सीधी-सी बात है यहाँ मकसद होता है देश के बहुसंख्यकों का ध्यान समस्याओं से हटाना जिस में वे घिर चुके हैं और देश को सीधे-सीधे तौर पर धार्मिक मुद्दे और हिंसा में झोंकना ताकी दीर्घकालीन यह मुद्दा चलता रहे और जनता इसी में उलझी रहे। तभी तो बार-बार देश के करोड़ो मुस्लिमों को उकसाया जाता है, कभी क़ुरआन पर सवाल, कभी मस्जिद पर तो कभी किसी और पर। जब हर बार ऐसी घटिया हरकतों की पोल खुलती रही और काम नहीँ बना तो अब सीधे तौर पर पैगम्बर ए इस्लाम की शख्सियत पर लाँछन लगाए जा रहें है। बेशर्मी की इंतेहा है यह। 

    और आश्चर्य की बात है कि इतने कॉमन सेंस की बात होने पर भी देश के बहुसंख्यकों को कठपुतली बनना मंज़ूर है लेकिन ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं।

    क्या वज़ह है कि एक तरफ़ लगातार ऐसी घटिया हरकतें करवाई जाती हैं और फिर पीछे से यह सुनिश्चित किया जाता है देशभर के मुस्लिमों की कानूनी कार्यवाही की मांग के बावजूद कोई कार्यवाही ना हो और ना ही इन्हें रोका जाए? आख़िर इसके परिणाम क्या होंगे? ज़रा इसका ठीक उल्टा कर सोचें कि अगर यही काम करने वाला मुस्लिम होता और आहत मुस्लिम नहीं बल्कि दूसरे धर्म के लोग हो रहे होते तो क्या होता ?

    इस्लाम की शिक्षा तो यह है कि आप किसी दूसरे धर्म के पूज्यों को बुरा ना कहो।

    और हे ईमान वालो! उन्हें बुरा न कहो, जिन (मूर्तियों) को वे अल्लाह के सिवा पुकारते हैं। अन्यथा, वे लोग अज्ञानता के कारण अति करके अल्लाह को बुरा कहेंगे।                 (क़ुरआन 6:108)

    ऐसी उच्च शिक्षा है जो अमन को बढ़ावा देती है। 

    वहाँ दूसरी तरफ पर आपकी शिक्षा क्या है ?? निराधार बातें बोलकर दूसरों का अपमान करो, अपमान करने वालो पर कार्यवाही मत करो, ताकि प्रतिक्रिया में दूसरे कुछ करें और फिर अशांति हो, लोगों का और देश का नुक़सान हो?

    भाई यह तो देश प्रेम नहीं है। बल्कि कठपुतली की तरह इस्तेमाल होना है। ग़लत को ग़लत कहना साहस का काम है वह भी तब जब ख़ुद अपने वालो के खिलाफ कहना हो।

    और ईमानदारी से बात करें तो ख़ुद उत्तर दें कितने वाट्सएप ग्रुप्स चल रहे हैं जिनका दिन भर का काम सिर्फ़ इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फ़ैलाना और लोगों को भड़काना है? कितने ऐसे वक्ता हैं जिनका काम सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम के बारे में बुरा कहना लोगों को भड़काना और इस्लाम और उसके आदर्शों के अनादर करने के लिये लोगों को उकसाना है? इसका जवाब तो आप जानते ही हैं।

    इसके उलट देखें तो एक भी मुस्लिम वक्ता या व्हाट्सएप ग्रुप नहीं मिलेगा जो यह काम कर रहा हो। बल्कि पैगम्बर के अनादर और ऐसे मसलों के खिलाफ बोलते वक़्त भी हर वक्ता बार-बार यही कहता है कि सिर्फ़ दोषी पर कार्यवाही हो हमारी दूसरों से कोई शिकायत नहीं है। इन बातों से देश में अशांति होगी।

    यहाँ फ़र्क़ साफ़ दिख जाता है लेकिन बात वही है। ग़लत को ग़लत कहने का साहस। यह जो आपको सुबह से शाम और हर समस्या और सवाल के जवाब में सिर्फ़ “मुस्लिमों और इस्लाम से नफ़रत परोसी जाती है” इसकी वज़ह कुछ तो होगी। विचार ज़रूर करें।

    उसके बाद भी आप ठगाते रहना चाहते हैं और अपने आने वाली नस्लों का भी भविष्य इसी तरह बर्बाद करना चाहते हैं तो भूल जाइए महामारी को बेरोज़गारी को और हर समस्या को और बने रहें कठपुतली।

    रही बात पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की तो उनका नाम तो कल भी रोशन था आज भी है और हमेशा-हमेशा रहेगा, हर अगले दिन उनके नाम लेवा बढ़ते ही जाएंगे। उनसे ईर्ष्या रखने वाले अपनी ईर्ष्या में ही ख़त्म हो गए और ना उनके नाम बाक़ी रहे ना कोई जानने वाला ही।

    इन्ना आतयना कल कौसर

    फ़सल्ली लिरब्बिका वन्हर

    इन्ना शानिअका हुवल अबतर।

    (क़ुरआन 108:1-3)

  • “मुसलमानों की विचारधारा”

    “मुसलमानों की विचारधारा”

    जवाब:-  झूठ की बुनियाद पर नफरत की मुहिम चलाने वाले 24 घण्टे तरह-तरह से तरीके बदल-बदल कर नफ़रत और झूठ फैलाने में लगे रहते हैं ।

    जैसे यहाँ एक कहानी की शक्ल में लोगों के दिमाग में ज़हर भरा जा रहा है। सबसे पहले तो यह बात भली भांति समझ लें कि झूठ, झूठ ही रहता है चाहे वह सीधी तरह कह दिया जाए या कहानी के रूप में बोला जाए। 

    अब देखिए इस प्रोपेगंडे उर्फ़ कहानी की शुरुआत ही यहाँ से होती है कि “एक परिवार के दो बेटे थे जिसमें से “एक बेईमान था” जिस से अभिप्राय मुसलमान है। अतः अगर कोई ध्यान दे तो उसे इस घटिया मैसेज की मंशा का यहीं आभास हो जाये और उसे आगे पड़ने की ज़रूरत ही ना पड़े ।

    70 सालों से इस देश के मुसलमान इस देश के लिए जान माल लुटाते आये हैं सुरक्षा से लेकर चिकित्सा, खेल से लेकर कला हर जगह उनका योगदान है। बात सिर्फ पाकिस्तान के विरुद्ध करे तो रक्षा के उपकरणों की ईजाद हो, युद्ध का मैदान हो या खेल का मैदान भारत की जीत में मुसलमानों का योगदान हर जगह रहा है।

    फिर भी यह झूठे, देश तोड़ने और नफरत फैलाने वाले लोग रणनीति के तहत मुसलमानों का इस घटिया तरीके से चित्रण करते हैं, उन्हें पाकिस्तान परस्त और देश का दुश्मन बताने का कुप्रयास करते हैं । शर्म आना चाहिए इन्हें।

    देश के प्रगति और अखंडता के असली दुश्मन तो यह है जो ख़ुद देश को गृह युद्ध की तरफ धकेल रहे हैं और ऐसा यह पहल भी कर चुके हैं ।

     

    अब आइए इन के कहानी के माध्यम से ब्रेन वाश करने के उद्देश्य से उठाये कुछ बिंदुओं पर

    • 1. मुस्लिमो ने देश के टुकड़े किये?

    यदि आप इतिहास का अध्ययन करे तो आप इस तथ्य से अवगत होंगे जो यहाँ छुपा दिया जाता है दरअसल दो राष्ट्र की बुनियाद हिंदू राष्ट्रवादी सोच के लोगों ने रखी थी

    यह बात बिल्कुल प्रमाणित है कि मुस्लिम लीग की दो देश की बात उठाए जाने से बहुत पहले अठारहवीं सदी में ही हिन्दू राष्ट्रवादियों ने इस सिद्धांत की बुनियाद डाल दी थी। जो कि उन्नीसवीं सदी के आते-आते बहुत मुखर होती गई उनके मशहूर और उभरते हुए नेताओं के ईसाईयों और ख़ास तौर से मुसलमानों को लेकर दिए जा रहे ज़हरीले भाषण भी बढ़ते गए।

    भाई परमानंद, राजनारायण बसु (1826-1899), उनके साथी नव गोपाल मित्र, लाला लाजपत राय, डॉ. बी एस मुंजे, 

    वी डी सावरकर, एम एस गोलवलकर आदि हिंदूवादी लोग लगातार एक हिन्दू राष्ट्र की कल्पना कर रहें थे। एक ऐसे हिन्दू राष्ट्र की कल्पना जिसमें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के लोग हिंदुओं की दया पर पले। गोलवलकर ने तो जर्मनी के नाज़ियों और इटली के फासिस्टों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये की तर्ज़ पर भारत के मुसलमानों और ईसाईयों को चेतावनी दी कि-

    “अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे राष्ट्र की तमाम सहिंताओ और परम्पराओं से बंधे, राष्ट्र की दया पर टिके, जिनको कोई विशेष सुरक्षा का अधिकार नहीं होगा, विशेष अधिकारों या अधिकारों की बात तो दूर रही। इन विदेशी तत्वों के सामने सिर्फ़ दो ही रास्ते हैं, या तो वह राष्ट्रीय नस्ल में मिल जाए और उसकी तहज़ीब को अपनाए या उसकी दया पर ज़िंदा रहें जब तक कि राष्ट्रीय नस्ल उन्हें इजाज़त दे और जब राष्ट्रीय नस्ल की मर्ज़ी हो तब वे देश को छोड़ दें।…. विदेशी नस्लों को चाहिए कि वे हिन्दू तहज़ीब और ज़बान को अपना ले… हिन्दू राष्ट्र के अलावा दूसरा कोई विचार अपने दिमाग़ में न लायें और अपना अलग अस्तित्व भूलते हुए हिन्दू नस्ल में मिल जाये या देश में हिन्दू राष्ट्र के साथ दोयम दर्जे के आधार पर रहे, अपने लिए कुछ न मांगे, अपने लिए कोई ख़ास अधिकार न मांगे यहां तक कि नागरिक अधिकारों की भी चाहत न रखें।”   (एम एस गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशन हुड डिफाइंड)

    हिन्दू महासभा के बाल कृष्ण शिवराम मुंजे ने भी ऐसी ही घोषणा की थी।

    डॉ. बी एस मुंजे ने हिन्दू महासभा के फलने फूलने और उसके बाद आर आर एस के बनने में मदद की थी, सन 1923 में अवध हिन्दू महासभा के तीसरे सालाना जलसे में उन्होंने ऐलान किया-

    “जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ो का, फ्रांस फ्रांसीसी का और जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिन्दू संगठित हो जाए, तो वह मुसलमानों को वश में कर सकते हैं।”   (उध्दृत जेएस धनकी, ‘लाला लाजपतराय ऐंड इंडियन नेशनलिज़्म’)

    सावरकर ने हमेशा से ईसाई और मुस्लिम समुदाय को विदेशी मानते हुए सन 1937 में अहमदाबाद में हिंदु महासभा के 19 वें सालाना जलसे में अपने भाषण में कहा-

    “आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, जबकि हिंदुस्तान में ख़ास तौर से दो राष्ट्र है- हिन्दू और मुसलमान।”   (समग्र सावरकर वांग्मय: हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6)

    बाबा साहब अंबेडकर इस तरह के भाषणों से होने वाले एक बड़े नुक्सान के खतरे को समझ रहे थे, उन्होंने इस संदर्भ में परिस्थितियों को देखते हुए साफ लिख दिया था-

    “ऐसे में देश का टूटना अब ज़्यादा दूर की बात नहीं रह गया। सावरकर मुसलमान क़ौम को हिन्दू राष्ट्र के साथ बराबरी से रहने नहीं देंगे। वह देश में हिंदुओं का ही दबदबा चाहते है और चाहते हैं कि मुसलमान उनके अधीन रहे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी का बीज बोने के बाद सावरकर अब क्या चाहेंगे कि हिन्दू मुसलमान एक ही संविधान के तले एक अखंड देश में होकर जिए, इसे समझना मुश्किल है।” (बी आर अंबेडकर, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन)

    इसी तरह के भाषणों, बिगड़ते माहौल और क्रिया प्रक्रिया स्वरूप अंत में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, वह भी तब जब अक्सर नेताओं के भाषण से उन्हें लगा कि अब भारत में रहना आसान नहीं होगा।

    दरअसल आज जनता को समझना होगा कि आज जो लोग देश के बँटवारे का आरोप लगाते हैं उनका ख़ुद का बँटवारे में कितना बड़ा हाथ था और आज भी जो नफरत फैलाने वाले लोग कर रहे हैं उनका एजेंडा समझना होगा।

     

    • 2. भारत हिन्दू राष्ट्र है और हिंदुओं ने मुसलमानों को अपनी ज़मीन पर रखा उनके लिए मस्जिद बनाई आदि-

    भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। जो मुस्लिम भारत मे रहे वे अपने तमाम संसाधनों, सम्पत्तियों और अपनी ज़मीन के साथ रहे ना ही किसी और के आश्रय पर। हिंदुओं ने उन्हें अपनी ज़मीन पर नहीं रखा बल्कि ये ख़ुद उनकी ज़मीन है और इसी तरह बाकियो की भी। सिखों की, ईसाईयों की, आदिवासियों की सभी की और उन सभी ने अपनी ज़मीनों को मिलाकर भारत देश का निर्माण किया है।

    बेवजह इसे कुछ और दिखाने का प्रयास ना करें। हाँ यह ज़रूर है कि अब कुछ लोग इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग कर रहे हैं।

    उनके बारे में हम यही कहेंगे कि इस मांग को मुस्लिमो से नफरत के चश्मे को उतार के देखे और बाबा साहब और काशीराम जी और दूसरे लोगों ने जिन्होंने इसका विरोध किया है उन्हें इसका विरोध क्यों किया है उसे एक बार ज़रूर पढ लें।

     

    • 3. इस्लाम तलवार से और सूफी संतों के गाने के ज़रिये फैला-

    जब यह बात पुरी तरह झूठ साबित हो गई कि इस्लाम तलवार से नहीं फैला, यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद जी ने ख़ुद इस सोच को ही पागलपन बता दिया उन्ही के शब्दों में:-

     

    “भारत में मुस्लिम विजय ने उत्पीड़ित, ग़रीब मनुष्यों को आज़ादी का जायका दिया था। इसीलिए इस देश की आबादी का पांचवां हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सब तलवार के ज़ोर से नहीं हुआ। तलवार और विध्वंस के जरिये हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, यह सोचना पागलपन के सिवाए और कुछ नहीं है_।”   (संदर्भ : Selected Works of Swami Vivekananda, Vol.3,12th edition,1979.p.294)

    तो नफरत फैलाने वालों ने एक नया हास्यास्पद तथ्य देना शुरू कर दिया कि इस्लाम सूफी संतों के गानों से फैला जिसमे अल्लाह, सजदा आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता था।

    हमे यह बताये की अगर गाने सुनने से धर्म परिवर्तन हो जाता तो आज भारत में एक भी मुसलमान ना बचता क्योंकि यहाँ वे सभी सदियों से हिन्दू भजन ना सिर्फ सुन रहे हैं बल्कि पिछले कुछ दशकों से सुनने के साथ साथ टी व्ही (TV) पर देख भी रहे हैं।

    अतः ज़रा बुद्धि का प्रयोग करें और इस तरह के बुद्धिहीन तथ्य देना बंद करें।

     

    • 4. मुसलमानों का पूर्व नियोजित (Pre planned) काम करना-

    इस पूरे झूठ की पोल खुल जाने पर मुसलमानों का तो नहीं बल्कि इन नफरत फैलाने वालों का प्री प्लान काम ज़्यादा उजागर होता है। जो है अंग्रेजों की तर्ज पर तोड़ो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) । फिर जो बच जाए उन पर विभाजन (Division) का आरोप थोप दो। नफरत फैलाते रहो। ख़ुद करो आरोप दूसरों पर। ख़ुद देश को तोड़ने वाले और गृह युद्ध के काम करो और बताओ स्वंय को देश भक्त। आप ख़ुद देख लें, मुस्लिमो से नफरत का मुद्दा हटा दें तो इनके पास बने रहने (survive) के लिए बचता ही क्या है ?? इसे ही तो कहते हैं षड्यंत्र।

    अंत मे यहीं कहना चाहेंगे कि आज के नौजवान इतने बेवकूफ़ नहीं रह गए हैं कि उन्हें पिताजी कुछ भी मनगढ़ंत झूठी कहानी सुनाएंगे जिसे सुनकर नौजवान स्तब्ध रह जाएंगे।

    बल्कि आज का नौजवान इतना समझदार है कि झूठ का शिकार होने की बजाय उल्टा अपने पिताजी को ही कहेगा कि आप आई टी सेल (IT cell) के फेक मैसेज के शिकार हुए हो, षड्यंत्र में आकर बेवजह ब्रेन वाश हो रहे हो और सत्य बता कर उन्हें ख़ुद स्तब्ध कर देगा ना कि ख़ुद स्तब्ध होकर मूर्ख बनेगा।

  • पैगंबर ए इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम की शादियां

    पैगंबर ए इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम की शादियां

    इस्लाम से नफ़रत रखने वालों की तरफ से हर ज़माने में तरह तरह से इस्लाम और इस्लाम की तालीमात पर किसी ना किसी तरह ऐतराज़ किए जाते रहे हैं, और यह कोई हैरत की बात नहीं, बल्कि ये तो इस्लाम के ज़िंदा मज़हब होने की पहचान है, उन्हीं ऐतराज़ और सवालों में एक यह सवाल है जो उन की तरफ से अक्सर होता रहा है, जिस की आढ़ में हुज़ूर (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) की पाकीज़ा शख्सियत पर बेहूदा और घिनावने इल्ज़ाम लगा कर लोगों के दिलों में इस्लाम और नबी के बारे में नफरत डालने और भोले और सादा मुसलमानों को अपने नबी के बारे में शक और वहम में डालने की कोशिश की जाती है, हालांकि इस ऐतराज़ की हैसियत उस राख के ढेर से ज़्यादा कुछ नहीं जिसे मामूली सा हवा का झोंका उड़ा कर किनारे लगा देता है, इसी लिए मुसलमानों की तरफ से हमेशा इस का जवाब दिया जाता रहा है।

    तो आएं आज फ़िर हम आप के सामने इस का जवाब पेश करते हैं, आगे बढ़ने से पहले यहां दो प्वॉइंट अच्छी तरह समझ लेना चाहिए!

    • (1) नबी ए पाक (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) के पहले निकाह के अलावा सारे निकाह बुढ़ापे के ज़माने यानी 50 साल की उम्र के बाद हुए हैं, तमाम इतिहासकार इस पर मुत्तफिक हैं कि नबी का 25 बरस तक किसी ओरत से विवाहित संबंध नहीं रहा, हालांकि उम्र का यही वो दौर है, जिस में इंसान पर जवानी का भूत सवार हो कर उसे पागल बना देता है, खास तौर पर 25 बरस तक का ज़माना तो बहुत नाज़ुक होता है, अगर कंट्रोल ना हो तो इंसान इस जवानी के जुनून में हर तरह का बुरा से बुरा काम कर गुज़र सकता है, लेकिन इतिहास गवाह है कि नबी (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) ने ये ज़माना जिस शुद्धता और पाकदामनी के साथ गुज़ारा है, उस की मिसाल पेश नहीं की जा सकती, ख़ुद नबी के दुश्मन, मक्का के मुशरिकों ने उस वक़्त आप की दुश्मनी और आप की बातों से लोगों को दूर रखने के लिए उन पर क्या क्या आरोप और इल्ज़ाम नहीं लगाए, आप को जादूगर कहा, कभी शायर कहा, कभी नजुमी कहा, और इसी तरह के इल्ज़ाम लगाए, लेकिन इतिहास की किसी किताब में नहीं मिले गा कि किसी ने आप की जवानी पर कोई सवाल उठाया हो, आप की पाकीज़गी की इस से बड़ी दलील शायद और कुछ नहीं हो सकती, क्यूं कि ये वो लोग थे जो मोका मिलने पर आप की जान लेने में भी नहीं झिझकते!!
    • (2) हज़रत आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा ) के अलावा नबी ए पाक की सारी बीवियां विधवा व बेवा थीं, जब कि ये एक सच है कि हवस परस्त और एश पसंद लोग विधवा और बड़ी उम्र की औरतों के बजाए नई नवेली कुंवारी लड़कियों को पसंद करते हैं, चाहे ख़ुद कितने ही बूढ़े क्यूं ना हों!
      मगर हम देखते हैं कि नबी ए पाक पहले तो 25 साल तक तन्हाई की ज़िंदगी बसर करते हैं और फिर जब शादी करते हैं तो ऐसी ओरत से जो उम्र में आप से पंद्रह साल ज़्यादा और एक नहीं, बल्कि दो शोहरों के निकाह (विवाह) में रह चुकी थीं और उन की उम्र और जवानी का अक्सर हिस्सा गुज़र चुका था, फिर अपनी अच्छी ताकत और सेहत के ज़माने यानी 25 से 50 साल तक का ज़माना उसी एक विधवा और उम्र दराज़ बीवी के साथ गुज़ार देते हैं।

     

    • ये दो प्वाइंट यहां इतने महत्वपूर्ण हैं कि सिर्फ़ इन्हीं से नबी पर इल्ज़ाम लगाने वालों के इल्ज़ामात टूट कर बिखर जाते हैं और नबी ए पाक की शुद्धता और पाकदामनी खुल कर सामने आ जाती है।

    अब हम आप की बीवियां के संक्षेप में हालात लिखते हैं, जिन से हमारा दावा पूरी तरह साबित हो कर, हर इंसाफ पसंद इंसान को ये मानने पर मजबूर कर देगा कि नबी ए पाक जिस दीन को ले कर इस दुनिया में तशरीफ लाए थे, उस के लिए ये शादियां कितनी जरूरी थीं!!

    (1) हज़रत खदीजा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    ये नबी की सब से पहली बीवी रहीं, शादी के वक़्त इन की उम्र 40 साल थी, ये पहले “अबू हाला” फिर “अतीक बिन आयिद” के निकाह में रहीं उन की वफात के बाद आप के निकाह में आयीं, नबी ने अपनी पूरी जवानी का ज़माना इन्हीं के साथ गुज़ारा, हज़रत इब्राहीम के इलावा आप की तमाम औलाद इन्हीं से हुई, 65 साल की उम्र में वफात पाई, इसी दौरान मुहम्मद (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) को 40 साल की उम्र में नुबुव्वत मिली, इसी लिए शुरू में इस्लाम की तबलीग और नबी की मदद में आप की बड़ी कुर्बानियां रहीं।

    (2) हज़रत सौदा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    हज़रत खदीजा की वफात के बाद नुबुव्वत के दसवें साल आप के निकाह में आईं, उस वक़्त इन की उम्र 50 या 55 साल थी, इन के पहले शोहर इंतिक़ाल कर गए थे, जिस की वजह से बे यार व मदद गार तंगी की ज़िंदगी गुज़ार रहीं थीं, नबी ने इन की दीन व दुनिया की हिफाज़त व मदद के लिए इन से निकाह कर के इन की सारी परेशानियों को ख़तम किया।

    (3) हज़रत आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    मदीना हिजरत से तीन साल पहले निकाह हुआ और नुबुव्वत के तेरहवें या चौदहवें और हिजरत के पहले साल में रुखसती हुई, 9 साल नबी ए पाक के निकाह में रहीं, सिर्फ़ यही एक बीवी हैं, जो बिन ब्याही और कुंवारी थीं, नबी के दुनिया से जाने के बाद 48 साल ज़िंदा रहीं, अहकाम, मसाइल और दीन की जानकारी में आप की सारी बीवियों से आगे थीं!

    (4) हज़रत हफ्सा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    हज़रत उमर की बेटी थीं, नुबुव्वत के पंद्रहवें और हिजरत के तीसरे साल निकाह में आईं, पहले शौहर का इंतकाल हो गया था, हज़रत उमर ने बाप होने के नाते पहले अबू बकर और उस्मान की निकाह का पैग़ाम दिया, लेकिन जब इन हज़रात ने कोई जवाब नहीं दिया तो नबी ए पाक ने निकाह फरमा कर हज़रत उमर को इज्ज़त बख़्शी, कुल आठ साल आप के निकाह में रहीं।

    (5)हज़रत ज़ैनब बिंत ए खुज़यमा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    नुबुव्वत के पंद्रहवें और हिजरत के तीसरे साल निकाह में आईं, उहद की जंग में इन के शौहर अब्दुल्लाह बिन जहश शहीद हो गए थे, इसलिए इन की तसल्ली और इज्ज़त अफजाई की खातिर निकाह किया, निकाह के दो तीन महीने बाद ही इंतकाल कर गईं!

    (6) हज़रत उम्मे सलमा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    नुबुव्वत के सोलहवें और हिजरत के चोथे साल ये भी विधवा होने की हालत में आप के निकाह में आईं, शौहर के निधन के बाद इन के चार बच्चे यतीम बिल्कुल बे सहारा थे, उन की कफालत और परवरिश के लिए नबी ने इन से निकाह किया और आप ने इन बच्चों को इतना प्यार दिया कि वो अपने बाप बिल्कुल भूल गए, नबी ए पाक के बाद सात साल ज़िंदा रहीं, इंतकाल के वक़्त 80 या 84 साल की उम्र थीं।

    (7) हज़रत ज़ैनब बिंत ए जहश (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    आप की फूपी ज़ाद बहन थीं, आप के ग़ुलाम और मुंह बोले बेटे हज़रत ज़ैद के निकाह में थीं, उन की आपसी रंजिश की वजह तलाक़ की नोबत आ गई थी, जिस से उन की दिल शिकनी हुई, नबी ने खुदा के हुक्म से उन की तसल्ली और एक बुरी रस्म को तोड़ने के लिए निकाह किया, छह साल आप के निकाह में रहीं, ये निकाह नुबुव्वत के सत्रहवें और हिजरत के पांचवे साल में हुआ।

    (8) हज़रत जुवेरिया (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    एक बड़े सरदार की बेटी थीं, इन का कबीला इस्लाम दुश्मनी, चोरी, डकेती में मशहूर था, जंग के दौरान दूसरे केदियों के साथ गिरिफ्तार हो कर आईं, आप ने उन की खुशी उन से निकाह किया, जिस के नतीजे में उन का कबीला भी मुसलमान हुआ, ये शादी नुबुव्वत के सत्रहवें या अठारवें और हिजरत के पांचवें या छटे साल में हुई।

    (9) उम्मे हबीबा(रज़ियल्लाहु अन्हा)

    अबू सूफियान बिन हरब (रज़ियल्लाहु अन्ह )की बेटी थीं, हब्शा हिजरत की, वहीं इन के पहले शौहर मुरतद हो कर इंतकाल कर गए, फिर नुबुव्वत के अठाहरवें और हिजरत के छटे साल हबशा के बादशाह नजाशी ने नबी के हुक्म पर इन का निकाह नबी से कर दिया, 74 साल की उम्र में वफात हुई!

    (10)हज़रत सफिय्या (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    कबीला बनू नज़ीर के सरदार की बेटी थीं, पहले शौहर से तलाक़ हुई, दूसरे शौहर खेबर की जंग में मारे गए, जिस में ये गिरिफ्तार हो कर आईं, आप ने आजाद कर के अपने निकाह में ले लिया,ये वाकया नुबुव्वत के उन्नीसवें और हिजरत के सातवें साल में पेश आया, सवा तीन साल आप के निकाह में रहीं!

    (11) हज़रत मयमूना (रज़ियल्लाहु अन्हा)

    नुबुव्वत के उन्नीसवें और हिजरत के सातवें साल, नबी की वफात से तीन साल पहले निकाह में आईं, ये आखिरी बीवी थीं, इन के बाद आप ने किसी ओरत से निकाह नहीं किया,ये पहले अबू रहम के निकाह में थीं, आप के चालीस साल बाद 80 साल की उम्र में वफात पाई।

    इस तफसील से कुछ प्वाइंट खुल कर सामने आते हैं:

    • (1) हज़रत आयशा के अलावा आप की सारी बीवियां वो थीं जो पहले दूसरे शौहरों के साथ विवाहित रह चुकी थीं।
    • (2)जिन औरतों से आप ने शादी की, उन में अक्सर उस उम्र को पहुंच चुकी थीं जिस उम्र में ओरतें शादी के लायक नहीं बचतीं।
    • (3)आप की ये सारी शादियां मदीना पहुंचने के बाद हुईं जहां दुश्मनों के साथ जंगों को सिलसिला शुरू हो चुका था, जिस बिना पर आप को अक्सर घर से बाहर रहना होता था।
      इन बातों के सामने रख कर कोई इंसाफ़ पसंद कैसे कह सकता है कि नबी ने ये शादियां इस लिए की क्यों कि आप को औरतों की बहुत चाहत थी? (नऊज़ू बिल्लाहि मिन ज़ालिक) सच ये है कि आप को औरतों की कोई ज़्यादा ख्वाहिश नहीं थी, जैसा कि ख़ुद आप ने फ़रमाया: ما لی فی النساء من حاجۃ. (मुझे औरतों की कोई ज़रूरत नहीं) लेकिन इस के बावजूद आप ने ये शादियां खुदा के हुक्म से की, जिन में दीन की कुछ हिकमतें और फायदे सामने थे।

    वो क्या हिकमतें और फायदे थे जिन की वजह से आप ने ये शादियां की?
    नीचे इन्हीं मस्लिहतों और हिकमतों में कुछ हम आप के सामने बयान करते हैं।

    (1) दीन सिखाना:

    यह सब से बुनियादी प्वाइंट है, नबी ए पाक (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) को इस दुनिया में पूरी इंसानियत को ज़िंदगी गुजारने का सही रास्ता दिखाने और बुराई के रास्ते से बचाने के लिए भेजा गया, इसी मकसद के लिए आप पर कुरआन उतारा गया, ख़ुदा की तरफ से आप को ख़ूबसूरत तालीेमात दी गईं, अब इस तालीम में बहुत सारी वो बातें भी हैं, जिन का सम्बन्ध सिर्फ़ मर्दों से है, और कुछ वो हैं जो सिर्फ़ औरतों से रिलेटिव हैं, इस लिए ज़रूरत थी कि जिस तरह मर्दों की एक तादाद के साथ रह कर दीन और दीन की बातों को सीखें, ऐसे ही इस बात की भी सख़्त ज़रूरत थी कि औरतों की भी एक तादाद ऐसी हो, जो अंदर व बाहर आप के साथ रहे, ताकि उन के वास्ते से वो बातें भी दूसरी औरतों तक पहुंचाई जा सकें, जो एक ओरत शर्म की वजह से अजनबी मर्द से नहीं पूछ सकती।
    फिर ये बात भी है कि नबी की पूरी ज़िंदगी लोगों के लिए नमूना है, जो आप ने ज़बान से कहा, जो आप ने कर के दिखाया, जो आप के सामने किया गया और आप ने उसे नहीं रोका, ये सारी चीज़ें दीन ए इस्लाम का हिस्सा है, इस के बग़ैर इस्लाम अधूरा है, अब ज़ाहिर है कि अगर अज़्वाज ए मुतहरात (नबी की बीवियां) ना होती, घरेलू ज़िंदगी गुज़ारने का सही तरीका केसे मालूम होता? यही तो वो औरतें हैं जो घरेलू ज़िंदगी में दीन व दुनिया दोनों के लिए गाइड का दर्जा रखती हैं, इसी लिए अल्लाह ने इन औरतों से खास तौर पर कुरआन में कहा था: و  اذكرن ما يتلى عليكم في بيوتكن من آيات الله و الحكمة
    (सूरह अहज़ाब: आयत:24)
    ख़ुदा की उन आयतों को जो तुम्हारे घर में पढ़ी जाती हैं, और नबी के तरीके को खूब याद रखो।

    (2)एक गलत रस्म का तोड़ना:

    अरब के लोगों में जहां बहुत सी रस्में जहालत की वजह से पैदा हो गईं थीं, वहीं एक रस्म ये भी थी कि  वो अपने मुंह बोले बेटे को असली बेटे के दर्जे में समझा जाता था, जैसे असली बेटा अपनी बीवी को तलाक दे तो उस ओरत से शादी नहीं की जा सकती थी, यही मामला मुंह बोले बेटे के साथ किया जाने लगा था, ओर इस्लाम जो हर गलत रस्म को मिटाने के लिए ही आया था, वो इस ना माकूल रस्म को केसे बाक़ी रख सकता था, इस लिए नबी ने अल्लाह के हुक्म पर हज़रत ज़ैद जो आप के ग़ुलाम और मुंह बोले बेटे थे, उन की तलाक शुदा बीवी हज़रत जैनब से शादी कर के इस रस्म को हमेशा के लिए ख़तम किया।

    (3) सियासी फायदा

    कुछ शादियां आप ने कबीलों को अपने करीब करने के लिए की ताकि आपस की दुश्मनियां कम हों, और लोग अमन व सलामती के साथ इस्लाम के साए में आ जाएं।
    जैसे हज़रत सफिय्या के निकाह ही को देखें जो एक यहूदी कबिले से थीं, तो पता चलता है कि उस से पहले जितनी जंगें मक्का के लोगों से हुईं उन में कहीं ना कहीं यहूदियों का हाथ ज़रूर होता था, लेकिन इतिहास गवाह है कि इस निकाह के बाद यहुद नबी के खिलाफ किसी जंग में शामिल नहीं हुए।
    इसी तरह हज़रत उम्मे हबीबा के निकाह का मामला है, कि उन के वालिद अबू सूफियान मुसलमानों के सख्त दुश्मन थे,यही बद्र, उहद और खंदक़ जैसी जगों में मुशरिकीन के लीडर रहे थे, लेकिन इतिहास बताता है कि इस शादी के बाद उन्होने मुसलमानों के ख़िलाफ़ कोई फोज तय्यार नहीं की बल्कि इस के कुछ वक़्त बाद ही ये भी इस्लाम के साए में आ गए, इस के इलावा उन का सारा खानदान बनु उमैया इस रिश्ते का ख्याल करने लगा और उन की दुश्मनी में कमी आ गई।
    हज़रत जुवेरिया के निकाह मैं भी यही बात रही, वहां बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि जब नबी के सहाबा को इस निकाह का पता चला तो वो ये सुन कर बहुत खुश हुए और आप की रिश्तेदारी का ख्याल करते हुए उन सारे लोगों को आज़ाद कर दिया जो हज़रत जुवेरिया के साथ गिरफतार हो कर आए थे, जिस के नतीजे में उन लोगों ने भी खुश हो कर इस्लाम को अपना लिया।
    खुलासा ये कि इन शादियों से जिन खानदानों से आप के संबन्ध हुए, वो आगे चल कर इस्लाम और मुसलमानों की तरक्की का जरिया बने।

    इस सारी तफसील को पढ़ कर हर इंसाफ पसंद और सही अकल और दिल रखने वाला इंसान इस से इंकार नहीं कर सकता कि नबी ए पाक (सल्ल्लाहु अलयही वसल्लम) ने शादी के बारे में जो तरीका आप ने अपनाया था, वो अपनी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए नहीं था, बल्कि उस से मुल्क, कोम, इस्लाम और पूरी इंसानियत का फ़ायदा जुड़ा हुआ था, जिसे नज़र अंदाज़ करना उस शख्सियत के लिए मुमकिन नहीं था, जो सारी इंसानियत के लिए रहमत बना कर भेजी गई थी।

    (या रब्बि सल्लि वसल्लिम दाइमन अबदन अला हबीबिका खयरिल खलकि कुल्लिहिम)

    ये लेख “मकालात ए हबीब” में से संक्षिप्त किया गया है।

    नोट: नबी ए पाक की ज़िंदगी पर सेंकड़ों और हज़ारों किताबें मुस्लिमों और गेर मुस्लिमों की तरफ से लिखी जा चुकी हैं, इस लेख में दी हुई जानकारी आप किसी भी किताब से जांच सकते हैं।
    नमूने के तौर पर कुछ किताबों के नाम लिख दिए जाते हैं:
    (1)सीरतुन नबी, शिबली नोमानी
    (2)सीरतुल मुस्तफा, इदरीस कांधलवी
    (3) रहमतुल लिल आलमीन, सुलेमान मंसुरपुरी
    (4) असह हस्सियर, अबुल बरकात दानापुरी
    (5) Muhammad : His life Based on Earliest Sources, Martin lings

  • “मुसलमानों की विचारधारा”

    “मुसलमानों की विचारधारा”

    अभी कुछ दिन पहले मैं छुट्टी पर अपने घर गया हुआ था, शाम को मैं और पिताजी “ज़ी न्यूज़” पर सुधीर चौधरी वाला “DNA” देख रहे थे जिसमें बुरहान वानी और महिलाओं इस्लामिक आतंकवाद का मुद्दा चल रहा था।

    अचानक पिताजी ने मुझसे पूछा “मुसलमानों की क्या आइडियोलॉजी है कभी तुमने इस पर ग़ौर किया है”

    मैं थोड़ा संशय में पड़ गया आज पिताजी ने ये कौन-सा अजीब प्रश्न कर दिया, मैं कुछ जवाब देता उससे पहले ही पिताजी ने मुझसे कहा तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ।

     

    “एक गाँव में एक संपन्न परिवार रहता था, उनके पास खेती बाड़ी और पशुओं की कोई कमी नहीं थी, परिवार में दो बेटे थे जो शादीशुदा और संपन्न थे लेकिन एक बेटा बेईमान था वह हमेशा किसी न किसी बात पर अपने माता पिता और भाई से झगड़ा करता रहता था, उसकी रोज़ की कलह कलेश को देखकर माता पिता ने सारी संपत्ति दो भागों में बाँट दी, वह क्लेशी लड़का अपनी सारी सम्पत्ति लेकर दूसरे गाँव में बस गया।

     

    लेकिन उस बेईमान लड़के के भी एक लड़का और लड़की थी जो विभाजन के समय ये कहकर की “वह दादा और दादी को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे वह दादा दादी को बहुत प्रेम करते हैं, वह हमेशा दादा दादी के साथ ही रहेंगें”

    और वह दोनों दादा दादी के साथ रुक गये।

     

    बूढे दादा दादी उन्हें बहुत प्यार करते थे, अब दादा दादी ने उन बच्चों का अच्छे स्कूल में दाख़िला कराया, उन्हें अच्छी-अच्छी व्यवस्था देने लगे। शुरुआती दिनों में उन बच्चों ने दादा दादी से कहा की वे कभी उन माता पिता के पास नहीं जाएँगे, दादा दादी ने बच्चों को समझाया की तुम हर महीने अपने माता पिता से मिल सकते हो। 

    अब बच्चे हर महीने अपने माता पिता के पास जाते थे और दादा दादी के ख़र्चे से मौज उड़ाते थे। इस तरह उनका समय बीतता गया।

     

    कुछ वर्षों बाद जब बच्चे बड़े हो गये, अब दादा दादी ने अपना हिस्सा बेचकर लड़के के लिए एक अच्छा व्यवसाय खुलवाया और लड़की के लिए एक अच्छा परिवार देखकर शादी कर दी, जिसमें दादा दादी ने अपनी सम्पत्ति का चौथाई हिस्सा दहेज़ में दे दिया।

     

    अब लड़के ने अपने व्यवसाय में घाटा दिखा कर उस व्यवसाय को बचाने के बहाने दादा दादी से और रुपया ऐंठा, फिर लड़की ने भी अपने पति के लिए व्यवसाय खुलवाने के लिए दादा दादी से एक अच्छी रक़म उधार ली, इस तरह ये माज़रा चलता रहा और दादा दादी हमेशा इस भ्रम में रहे की उनके नाती नातिन उन्हें बहुत प्यार करते हैं।

     

    लेकिन दादा दादी का दूसरा लड़का जो ये मंशा समझ रहा था ने उन बुजुर्गो को समझाने की बहुत कोशिश की जिसके चलते परिवार में बहुत झगड़ा हुआ, फिर उन लड़के लड़की ने सारे गाँव में ये हल्ला मचा दिया की दादा दादी और उसके चाचा जी उन पर बहुत अत्याचार कर रहे हैं, फिर उन बच्चों ने गाँव में शोर कर दिया की इन दादा दादी के कहने पर वे अपने माता पिता के साथ नहीं गये और आज ये सभी हम पर अत्याचार कर रहें हैं, फिर उन बच्चों ने “पटवारी” को कुछ लालच देकर अपने पक्ष में खड़ा कर लिया और गाँव में घोषणा कर दी की वे दादा दादी की सम्पत्ति के जायज़ हक़दार हैं और वे अपना हिस्सा लेकर दादा दादी से अलग होना चाहते हैं।

     

    अब गाँव के कुछ लालची उनके पक्ष में खड़े हो गये और इस तरह उन बच्चों ने दादा दादी को कंगाल कर दिया और उन बूढे दादा दादी को सारे गाँव की नज़रों में अत्याचारी, बेईमान, धोखेबाज़ की पदवी दिला दी और फिर वह बच्चे अपने माँ बाप के साथ मिल गये।

     

    अब दिनों बाद कहानी में ट्विस्ट आया जब दादा दादी को पता चला की “ये सारा खेल पूर्व नियोजित (प्री प्लान) था, जिसे उनके ही उस क्लेशी लड़के ने रचा था और जान बूझकर अपने बच्चों को वहाँ छोड़कर गया जिससे वह उनकी सारी सम्पत्ति को हड़प सके”

     

    अब मेरे पिताजी ने मुझसे कहा की “अब मुसलमानों की स्थिति देखो, उन्होंने भारत जैसे सम्पन्न परिवार को जान बूझकर धर्म के आधार पर विभाजित करवाया और अपना हिस्सा लिया।

     

    अब उन्होंने अपने प्लान के अनुसार कुछ मुसलमानों को भारत में ही रहने की हिदायत दी, अब उन मुसलमानों ने भी भारत के हिन्दुओँ को भरोसा दिया की वह भारत से बहुत प्यार करते हैं (ठीक वैसे ही जैसे वह बच्चे उन बूढ़े दादा दादी से करते थे) और वह अपने मरते दम तक भारत में ही रहेंगें”। 

     

    फिर कुछ सालों बाद उन मुसलमानों ने पाकिस्तान के अपने रिश्तेदारों (माता पिता) से मिलना शुरू कर दिया, लेकिन मासूम भारत के हिन्दू यही समझते रहे की वह मुसलमान उन्हें बहुत प्यार करते हैं, इसलिये वह मुस्लिम भारत छोड़कर नहीं गये।

    इस वात्सल्य में हिन्दुओँ ने अपनी जमींन पर उनके लिए मस्जिदें बनवायीं और उन्हें सिर आँखों पर रखा। फिर उन मुसलमानों ने अपना रँग दिखाना शुरू किया और बेईमानी पर उतर आये और उन्होंने भारत के कई हिस्सों पर अपनी आबादी के आधार पर कब्ज़ा जमा लिया, जिसमें उस “पटवारी” जैसे वामपंथियों ने भारत में ये घोषणा कर दी की हिन्दू बहुत दमनकारी और अत्याचारी हैं, इन हिन्दुओँ ने मासूम मुसलमानों पर अत्याचार किया है और उनका हिस्सा नहीं दे रहे।

     

    फिर पिताजी ने कहा की “तुम्हें क्या लगता है, की उन दादा दादी (हिन्दुओँ) को आज बेवकूफ़ बनाया जा रहा है, वास्तव में उन दादा दादी (हिन्दुओँ) का बेवकूफ बनने का इतिहास बहुत पुराना है, पहले मुसलमानों ने हिन्दुओँ को तलवार के बल पर इस्लाम कबूल कराया और जब इससे बात ना बनी तो उन्होंने हिन्दुओँ को बेवकूफ़ बनाने का एक और तरीका ईजाद कर लिया, वह था “सूफ़ी संत” जिसमें हिन्दुओँ को ढोंगी प्रेम के नाम पर इस्लाम और अल्लाह की महत्ता दिखाने लगे, उनके हर सूफ़ी गाने में सिर्फ़ इस्लाम के प्रतीकों जैसे “अल्लाह, ख़ुदा, मौला, रसूल, सजदा जैसे शब्द ही आते थे जिसको उन मासूम दादा दादी जैसे हिन्दुओँ ने पुरजोर से अपनाया।

     

    फिर पिताजी ने मुझसे कहा की “भारत एक मात्र हिन्दू राष्ट्र है, लेकिन दुःख की बात है यहाँ हिन्दुओँ को आज भी मुसलमानों की मानसिकता समझ नहीं आयी, तुम्हें क्या लगता है अगर कश्मीर इन्हें दे दिया जाए तो समस्या ख़त्म हो जायेगी! बिल्कुल नहीं ख़त्म होगी, आज ये कश्मीर की माँग कर रहे हैं आने वाले कल को ये हैदराबाद माँगेगे फिर केरल फिर असम फिर पश्चिम बंगाल और इस तरह ये धीरे-धीरे पूरे भारत पर कब्ज़ा करना चाहेँगे।”

     

    क्या तुम जानते हो मुसलमान हमेशा अपने पूर्व नियोजित अनुसार काम करते हैं, जब उन्हें किसी देश पर कब्ज़ा करना होता है तो वह हमेशा अपने आप को दो ग्रुप में बाँट लेते हैं जिसमें एक कट्टर होता है जो आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देता है और दूसरा तुमसे झूठे प्रेम का ढोंग दिखाता है जो तुम्हें हमेशा ये विश्वास दिलाता है कि आतंकवादी इस्लामी नहीं होते, उन्हें धर्म के आधार पर नहीं देखना चाहिए और तुम मासूम हिन्दू उनकी बात मान लेते हो, ये रक़म ख़र्च करके हिन्दुओँ के कुछ ग़द्दारों जैसे वामपंथी और पत्रकारों को अपनी तरफ़ मिला लेते हैं फिर वह ग़द्दार देश में हर तरह ये माहौल बना देते हैं कि मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है और धीरे-धीरे तुम सभी हिन्दू अपनी सम्पत्ति जैसे कश्मीर, बंगाल, असम, केरल, यूपी, बिहार, जैसे कई राज्यों से उन दादा दादी की तरह बे दखल कर दिए जाते हो, लेकिन वह दूसरा शांति और प्रेम का ढोंग दिखाने वाला समुदाय तुम्हें कभी महसूस ही नहीं होने देता की तुम्हारे घर से बे दख़ल किया जा रहा है और तुम आँख बन्द करके मान भी लेते हो। 

     

    और सुनो जब वह तुम्हारे राज्य या देश पर कब्ज़ा कर लेते हैं तो फिर वह दोनों (आतंकवादी कट्टर और शांति का ढोंग करने वाले) उस राज्य या देश को आपस में बराबर बाँट लेते हैं ठीक उस क्लेशी बाप और उनके बच्चों की तरह”……

     

    अब पिताजी ने अपनी बात पर विराम दिया और मैं आज अपने पिताजी की बात सुनकर स्तब्ध रह गया, कितनी बड़ी बात उन्होंने कितने आसान शब्दों में समझा दी।

     

    झूठ की बुनियाद पर नफरत की मुहिम चलाने वाले 24 घण्टे तरह-तरह से तरीके बदल-बदल कर नफ़रत और झूठ फैलाने में लगे रहते हैं ।

     

    जैसे यहाँ एक कहानी की शक्ल में लोगों के दिमाग में ज़हर भरा जा रहा है। सबसे पहले तो यह बात भली भांति समझ लें कि झूठ, झूठ ही रहता है चाहे वह सीधी तरह कह दिया जाए या कहानी के रूप में बोला जाए। 

     

    अब देखिए इस प्रोपेगंडे उर्फ़ कहानी की शुरुआत ही यहाँ से होती है कि “एक परिवार के दो बेटे थे जिसमें से “एक बेईमान था” जिस से अभिप्राय मुसलमान है। अतः अगर कोई ध्यान दे तो उसे इस घटिया मैसेज की मंशा का यहीं आभास हो जाये और उसे आगे पड़ने की ज़रूरत ही ना पड़े ।

     

    70 सालों से इस देश के मुसलमान इस देश के लिए जान माल लुटाते आये हैं सुरक्षा से लेकर चिकित्सा, खेल से लेकर कला हर जगह उनका योगदान है। बात सिर्फ पाकिस्तान के विरुद्ध करे तो रक्षा के उपकरणों की ईजाद हो, युद्ध का मैदान हो या खेल का मैदान भारत की जीत में मुसलमानों का योगदान हर जगह रहा है।

     

    फिर भी यह झूठे, देश तोड़ने और नफरत फैलाने वाले लोग रणनीति के तहत मुसलमानों का इस घटिया तरीके से चित्रण करते हैं, उन्हें पाकिस्तान परस्त और देश का दुश्मन बताने का कुप्रयास करते हैं । शर्म आना चाहिए इन्हें।

     

    देश के प्रगति और अखंडता के असली दुश्मन तो यह है जो ख़ुद देश को गृह युद्ध की तरफ धकेल रहे हैं और ऐसा यह पहल भी कर चुके हैं ।

     

    अब आइए इन के कहानी के माध्यम से ब्रेन वाश करने के उद्देश्य से उठाये कुछ बिंदुओं पर

    • 1. मुस्लिमो ने देश के टुकड़े किये?
      यदि आप इतिहास का अध्ययन करे तो आप इस तथ्य से अवगत होंगे जो यहाँ छुपा दिया जाता है दरअसल दो राष्ट्र की बुनियाद हिंदू राष्ट्रवादी सोच के लोगों ने रखी थी

    यह बात बिल्कुल प्रमाणित है कि मुस्लिम लीग की दो देश की बात उठाए जाने से बहुत पहले अठारहवीं सदी में ही हिन्दू राष्ट्रवादियों ने इस सिद्धांत की बुनियाद डाल दी थी। जो कि उन्नीसवीं सदी के आते-आते बहुत मुखर होती गई उनके मशहूर और उभरते हुए नेताओं के ईसाईयों और ख़ास तौर से मुसलमानों को लेकर दिए जा रहे ज़हरीले भाषण भी बढ़ते गए।

    भाई परमानंद, राजनारायण बसु (1826-1899), उनके साथी नव गोपाल मित्र, लाला लाजपत राय, डॉ. बी एस मुंजे,
    वी डी सावरकर, एम एस गोलवलकर आदि हिंदूवादी लोग लगातार एक हिन्दू राष्ट्र की कल्पना कर रहें थे। एक ऐसे हिन्दू राष्ट्र की कल्पना जिसमें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के लोग हिंदुओं की दया पर पले। गोलवलकर ने तो जर्मनी के नाज़ियों और इटली के फासिस्टों द्वारा यहूदियों के सफ़ाये की तर्ज़ पर भारत के मुसलमानों और ईसाईयों को चेतावनी दी कि-

    “अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे राष्ट्र की तमाम सहिंताओ और परम्पराओं से बंधे, राष्ट्र की दया पर टिके, जिनको कोई विशेष सुरक्षा का अधिकार नहीं होगा, विशेष अधिकारों या अधिकारों की बात तो दूर रही। इन विदेशी तत्वों के सामने सिर्फ़ दो ही रास्ते हैं, या तो वह राष्ट्रीय नस्ल में मिल जाए और उसकी तहज़ीब को अपनाए या उसकी दया पर ज़िंदा रहें जब तक कि राष्ट्रीय नस्ल उन्हें इजाज़त दे और जब राष्ट्रीय नस्ल की मर्ज़ी हो तब वे देश को छोड़ दें।…. विदेशी नस्लों को चाहिए कि वे हिन्दू तहज़ीब और ज़बान को अपना ले… हिन्दू राष्ट्र के अलावा दूसरा कोई विचार अपने दिमाग़ में न लायें और अपना अलग अस्तित्व भूलते हुए हिन्दू नस्ल में मिल जाये या देश में हिन्दू राष्ट्र के साथ दोयम दर्जे के आधार पर रहे, अपने लिए कुछ न मांगे, अपने लिए कोई ख़ास अधिकार न मांगे यहां तक कि नागरिक अधिकारों की भी चाहत न रखें।”
    (एम एस गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशन हुड डिफाइंड)

    हिन्दू महासभा के बाल कृष्ण शिवराम मुंजे ने भी ऐसी ही घोषणा की थी।

    डॉ. बी एस मुंजे ने हिन्दू महासभा के फलने फूलने और उसके बाद आर आर एस के बनने में मदद की थी, सन 1923 में अवध हिन्दू महासभा के तीसरे सालाना जलसे में उन्होंने ऐलान किया-

    “जैसे इंग्लैंड अंग्रेज़ो का, फ्रांस फ्रांसीसी का और जर्मनी जर्मन नागरिकों का है, वैसे ही भारत हिंदुओं का है। अगर हिन्दू संगठित हो जाए, तो वह मुसलमानों को वश में कर सकते हैं।”
    (उध्दृत जेएस धनकी, ‘लाला लाजपतराय ऐंड इंडियन नेशनलिज़्म’)

    सावरकर ने हमेशा से ईसाई और मुस्लिम समुदाय को विदेशी मानते हुए सन 1937 में अहमदाबाद में हिंदु महासभा के 19 वें सालाना जलसे में अपने भाषण में कहा-

    “आज यह कतई नहीं माना जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, जबकि हिंदुस्तान में ख़ास तौर से दो राष्ट्र है- हिन्दू और मुसलमान।”
    (समग्र सावरकर वांग्मय: हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6)

    बाबा साहब अंबेडकर इस तरह के भाषणों से होने वाले एक बड़े नुक्सान के खतरे को समझ रहे थे, उन्होंने इस संदर्भ में परिस्थितियों को देखते हुए साफ लिख दिया था-

    “ऐसे में देश का टूटना अब ज़्यादा दूर की बात नहीं रह गया। सावरकर मुसलमान क़ौम को हिन्दू राष्ट्र के साथ बराबरी से रहने नहीं देंगे। वह देश में हिंदुओं का ही दबदबा चाहते है और चाहते हैं कि मुसलमान उनके अधीन रहे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी का बीज बोने के बाद सावरकर अब क्या चाहेंगे कि हिन्दू मुसलमान एक ही संविधान के तले एक अखंड देश में होकर जिए, इसे समझना मुश्किल है।”
    (बी आर अंबेडकर, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन)

    इसी तरह के भाषणों, बिगड़ते माहौल और क्रिया प्रक्रिया स्वरूप अंत में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव सन् 1940 में पारित किया था, वह भी तब जब अक्सर नेताओं के भाषण से उन्हें लगा कि अब भारत में रहना आसान नहीं होगा।

    दरअसल आज जनता को समझना होगा कि आज जो लोग देश के बँटवारे का आरोप लगाते हैं उनका ख़ुद का बँटवारे में कितना बड़ा हाथ था और आज भी जो नफरत फैलाने वाले लोग कर रहे हैं उनका एजेंडा समझना होगा।

    • 2. भारत हिन्दू राष्ट्र है और हिंदुओं ने मुसलमानों को अपनी ज़मीन पर रखा उनके लिए मस्जिद बनाई आदि-

    भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। जो मुस्लिम भारत मे रहे वे अपने तमाम संसाधनों, सम्पत्तियों और अपनी ज़मीन के साथ रहे ना ही किसी और के आश्रय पर। हिंदुओं ने उन्हें अपनी ज़मीन पर नहीं रखा बल्कि ये ख़ुद उनकी ज़मीन है और इसी तरह बाकियो की भी। सिखों की, ईसाईयों की, आदिवासियों की सभी की और उन सभी ने अपनी ज़मीनों को मिलाकर भारत देश का निर्माण किया है।

    बेवजह इसे कुछ और दिखाने का प्रयास ना करें। हाँ यह ज़रूर है कि अब कुछ लोग इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग कर रहे हैं।

    उनके बारे में हम यही कहेंगे कि इस मांग को मुस्लिमो से नफरत के चश्मे को उतार के देखे और बाबा साहब और काशीराम जी और दूसरे लोगों ने जिन्होंने इसका विरोध किया है उन्हें इसका विरोध क्यों किया है उसे एक बार ज़रूर पढ लें।

    • 3. इस्लाम तलवार से और सूफी संतों के गाने के ज़रिये फैला-

    जब यह बात पुरी तरह झूठ साबित हो गई कि इस्लाम तलवार से नहीं फैला, यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद जी ने ख़ुद इस सोच को ही पागलपन बता दिया उन्ही के शब्दों में:-

    “भारत में मुस्लिम विजय ने उत्पीड़ित, ग़रीब मनुष्यों को आज़ादी का जायका दिया था। इसीलिए इस देश की आबादी का पांचवां हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सब तलवार के ज़ोर से नहीं हुआ। तलवार और विध्वंस के जरिये हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, यह सोचना पागलपन के सिवाए और कुछ नहीं है_।”
    (संदर्भ : Selected Works of Swami Vivekananda, Vol.3,12th edition,1979.p.294)

    तो नफरत फैलाने वालों ने एक नया हास्यास्पद तथ्य देना शुरू कर दिया कि इस्लाम सूफी संतों के गानों से फैला जिसमे अल्लाह, सजदा आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता था।

    हमे यह बताये की अगर गाने सुनने से धर्म परिवर्तन हो जाता तो आज भारत में एक भी मुसलमान ना बचता क्योंकि यहाँ वे सभी सदियों से हिन्दू भजन ना सिर्फ सुन रहे हैं बल्कि पिछले कुछ दशकों से सुनने के साथ साथ टी व्ही (TV) पर देख भी रहे हैं।
    अतः ज़रा बुद्धि का प्रयोग करें और इस तरह के बुद्धिहीन तथ्य देना बंद करें।

    • 4.  मुसलमानों का पूर्व नियोजित (Pre planned) काम करना-

    इस पूरे झूठ की पोल खुल जाने पर मुसलमानों का तो नहीं बल्कि इन नफरत फैलाने वालों का प्री प्लान काम ज़्यादा उजागर होता है। जो है अंग्रेजों की तर्ज पर तोड़ो और राज करो (डिवाइड एंड रूल) । फिर जो बच जाए उन पर विभाजन (Division) का आरोप थोप दो। नफरत फैलाते रहो। ख़ुद करो आरोप दूसरों पर। ख़ुद देश को तोड़ने वाले और गृह युद्ध के काम करो और बताओ स्वंय को देश भक्त। आप ख़ुद देख लें, मुस्लिमो से नफरत का मुद्दा हटा दें तो इनके पास बने रहने (survive) के लिए बचता ही क्या है ?? इसे ही तो कहते हैं षड्यंत्र।

    अंत मे यहीं कहना चाहेंगे कि आज के नौजवान इतने बेवकूफ़ नहीं रह गए हैं कि उन्हें पिताजी कुछ भी मनगढ़ंत झूठी कहानी सुनाएंगे जिसे सुनकर नौजवान स्तब्ध रह जाएंगे।

    बल्कि आज का नौजवान इतना समझदार है कि झूठ का शिकार होने की बजाय उल्टा अपने पिताजी को ही कहेगा कि आप आई टी सेल (IT cell) के फेक मैसेज के शिकार हुए हो, षड्यंत्र में आकर बेवजह ब्रेन वाश हो रहे हो और सत्य बता कर उन्हें ख़ुद स्तब्ध कर देगा ना कि ख़ुद स्तब्ध होकर मूर्ख बनेगा।

     

     

  • रमज़ान विशेष

    रमज़ान विशेष

    रोज़ा एक इबादत है। जो कि रमज़ान (हिजरी कैलन्डर के महीने) में 1 माह के लिए रखे जाते है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)।

    इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल अल्लाह (ईश्वर) के लिए और उसके हुक़्म से भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों से स्वयं को रोके रखना। “अनिवार्य रोज़े” जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं। इनके अलावा व्यक्ति पूरे साल में कभी भी (कुछ दिनों को छोड़कर) रोज़े रख सकता है।

    •  रोज़ा को एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स कह सकते है, जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके. वह हर उस बात को करने से रुके जिसे अल्लाह ने मना किया और हर उस काम को करे जिसका उसको हुक़्म हो।

     

    •  रोज़े का 1 मकसद ये भी है कि भूख-प्यास की तकलीफ़ का अहसास हो ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हम दर्द बन सके।

     

    •  इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है!

     

    क्या रोज़े अन्य धर्म में भी है..?

     

    ♥ अल-कुरान:- ‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ (क़ुरआन, 2:183)

     

    क़ुरआन जो कि आखरी ईश्वरीय ग्रन्थ है, में साफ़ तौर से लिखा है कि जैसे तुम से पहले के लोगों पर अनिवार्य किये गए थे… अब हम देखते है,👇

     

    1. वेद:- सनातन धर्म में रोज़े को व्रत या उपवास कहते हैं। व्रत का आदेश करते हुए वेद कहते हैं ‘‘व्रत के संकल्प से वह पवित्रता को प्राप्त होता है। पवित्रता से दीक्षा को प्राप्त होता है, दीक्षा से श्रद्धा को और श्रद्धा से सद्ज्ञान को प्राप्त होता है।‘‘          (यजुर्वेद, 19:30)
    2. ‘‘सावधान चित्त, चार ग्रास प्रातः काल तथा चार ग्रास सूर्यास्त होने पर एक मास तक प्रतिदिन भोजन करे तो यह शिशु चन्द्रायण व्रत कहा गया है। इस व्रत को महर्षियों ने सब पापों के नाश के लिए किया था।‘‘                                                  (मनु. 11:219,221)

    शिशु चन्द्रायण व्रत निरन्तर एक मास तक ऐसे रखा जाता है कि शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष से आरंभ करके एक मास तक केवल प्रातः काल और सूर्यास्त पर थोड़ा खाने की अनुमति होती है। यह व्रत रमज़ान के रोज़ों से समानता में निकटतम हैं।

    बाइबिल:- बाइबिल के नये नियम (New Testament) के अनुसार ईसाईयों के लिए 40 दिनों के लगातार रोज़े अनिवार्य किए गए थे।

    ‘‘जब यीशु चालीस दिन और चालीस रात उपवास कर चुके तब उन्हें भूख लगी।‘‘ 

    (मत्ती 4:2)

     

    परन्तु उन्होंने अपने तीन वर्षीय प्रचार काल में चूंकि अपने सहसंगियों के साथ निरन्तर मुसाफ़िर के तुल्य कठोर जीवन व्यतीत किया, इसलिए उस अवधि में उन्होंने अपने सहसंगियों को रोज़े से मुक्त कर दिया था परन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह छूट केवल उतने दिनों की है, जब तक वे उनके मध्य हैं।

     

    यहूदी:- लम्बी अवधि के लगातार रोज़ों का उल्लेख यहूदियों के धर्म ग्रंथों Old Testament (बाइबिल के पुराने नियम की पुस्तकों) में मिलता है।

     

    ‘‘समस्त देशवासियों और पुरोहितों से यह कह: जो उपवास और शोक पिछले सत्तर वर्षों से वर्ष के पांचवें और सातवें महीने में तुम करते आ रहे हो, क्या तुम यह मेरे लिए करते हो?” 

    (ज़कर्याह 7:5)

     

    रोज़ा और विज्ञान

    सन्‌ 1994 में मोरक्को में ‘रमज़ान व सेहत’ पर पहली अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस) हुई जिसमें पूरी दुनिया से आये पचास रिसर्च पेपर पढ़े गये। सभी में एक बात उभरकर आयी कि रोजे से किसी भी तरह का सेहत को कोई नुक़सान नहीं होता। जबकि बहुत से हालात में रोज़ा पूरी तरह फायदेमन्द साबित होता है।

    डाइजेस्टिव सिस्टम:- सबसे पहले बात करते हैं पाचन तंत्र (डाईजेस्टिव सिस्टम) पर। इस सिस्टम में शामिल हैं दाँत, जबान, गला, खाने की नली, मेदा यानी आमाशय, छोटी आँत और बड़ी आँत। जब हम खाना शुरू करते हैं या खाने का इरादा करते हैं तो दिमाग़ इस पूरे सिस्टम को हरकत में ला देता है और ये पूरा सिस्टम तब तक एक्टिव रहता है जब तक कि खाना पूरी तरह हजम नहीं हो जाता । यानी दिन में तीन बार खाने का मतलब हुआ कि हाजमे का सिस्टम चौबीस घण्टे लगातार चलता रहे। 

     

    हाजमे के सिस्टम की लगातार हरकत और खाने पीने की बदपरहेजी इस सिस्टम को खराब कर देती है और इंसान तरह-तरह की पेट की बीमारियों का शिकार होने लगता है। रोज़े के दौरान पन्द्रह – सोलह घण्टों तक खाने पीने से परहेज इस सिस्टम को आराम की पोजीशन में ला देता है और इस तरह हाजमे का सिस्टम अपने को दुरुस्त यानी कि रिपेयर कर लेता है।

     

    लीवर:- लीवर जिस्म का निहायत अहम हिस्सा है, जो न सिर्फ़ हाजमे में मदद करता है बल्कि खून भी बनाता है। साथ में जिस्म के इम्यून सिस्टम को मज़बूत करता है जिससे इंसान में बीमारियों से लड़ने की ताकत पैदा होती है।

     

    रोज़ा लीवर को हाजमे के काम से कुछ घण्टों के लिए फ्री कर देता है, नतीजे में वह पूरी ताकत के साथ खून बनाने और इम्यून सिस्टम को मज़बूत करने लगता है। इस तरह एक महीने का रोज़ा जिस्म में साल भर के लिए बीमारियों से लड़ने की ताकत पैदा कर देता है।

     

    आमाशय:-रोज़ा मेदे या आमाशय में बनने वाले एसिड को बैलेंस करता है। नतीजे में इंसान न तो एसीडिटी का शिकार होता है और न ही कम एसीडिटी की वजह से बदहजमी होने पाती है।

     

    दिल:- यानी सरक्यूलेटरी सिस्टम। दिल जिस्म में दौड़ते हुए खून को कंट्रोल करता है। दिल इंसान की पैदाइश से मौत तक लगातार काम करता रहता है। लगातार काम करने में दिल का थकना लाज़मी है। खासतौर से जब इंसान तेज रफ्तार टेन्शन की जिंदगी जी रहा हो।

     

    रोज़ा रखने के दौरान रगों में खून की क्वांटिटी कम हो जाती है। जिससे दिल को कम काम करना पड़ता है और उसे फायदेमन्द आराम मिल जाता है। इसी के साथ रगों की दीवारों पर पड़ने वाला डायस्टोलिक प्रेशर कम हो जाता है। जिससे दिल और रगों दोनों को ही आराम मिलता है। आज की भागदौड़ की जिंदगी में लोग हाइपरटेंशन का शिकार हो रहे हैं। रोजे के दौरान डायस्टोलिक प्रेशर की कमी उन्हें इस बीमारी से बचाकर रखती है।

     

    और सबसे ख़ास बात। रोजे के दौरान अफ्तार से चन्द लम्हों पहले तक खून से कोलेस्ट्रॉल, चरबी और दूसरी चीज़ें पूरी तरह साफ हो जाती हैं और रगों में जमने नहीं पातीं, जिससे दिल का दौरा पड़ने का रिस्क ख़त्म हो जाती है।

     

    गुर्दे:-  खून की सफ़ाई करते हैं, रोजे के दौरान आराम की हालत में होते हैं, इसलिए जिस्म के इस अहम हिस्से की ताकत लौट आती है।

     

    अन्य फायदे:-  रोजे के कुछ और फायदे सेहत के मुताल्लिक इस तरह हैं कि रोज़ा कोलेस्ट्रॉल और चरबी को कम करके मोटापे को दूर करता है। चूंकि रोजे के दौरान जिस्म में हल्का-सा डिहाइड्रेशन हो जाता है। पानी की यह कमी जिस्म की जिंदगी को बढ़ा देती है। जैसा कि हम नेचर में देखते हैं कि जो पौधे पानी का कम इस्तेमाल करते हैं उनकी लाइफ ज़्यादा होती है।

     

    इस तरह हम देखते है, रोज़ा/उपवास केवल मुस्लिम समाज के लिए ही नहीं अपितु संसार के हर मनुष्य के लिये लाभदायक है, जो कि धार्मिक आधार पर ही नहीं अपितु वैज्ञानिक आधार पर भी हर मनुष्य के लिए लाभदायक है।

  • इस्लाम और बच्चों की शिक्षा

    इस्लाम और बच्चों की शिक्षा

    जवाब:- हमारे सृष्टिकर्ता परमेश्वर ने इस्लाम के माध्यम से मनुष्य की हर मार्ग में अगुवाई की है। इस्लाम धर्म हर बुजुर्ग, जवान, स्त्री, पुरुष सबके साथ लेकिन विशेष रूप से बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करने का संदेश देता है। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते है इसलिए उनके बचपन में ही उन्हें किस प्रकार सही दिशा में ढालना है इसके प्रति इस्लाम धर्म की शिक्षाऐं अति उत्तम है।

     

    👉 निर्धनता के कारण बच्चों को ना मारा जाए। 

    अरब देश में कई बार ऐसा होता था कि लोग बच्चों का लालन पोषण करने में अक्षम होते तो उन्हें जान से मार देते थे। ऐसे में क़ुरआन के माध्यम से ईश्वर ने लोगों को सख़्त चेतावनी दी,

    “और निर्धनता के भय से अपनी सन्तान की हत्या ना करो, हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। वास्तव में बच्चों की हत्या बहुत ही बड़ा अपराध है।”

    (क़ुरआन 17:31)

     

    👉 लिंग के आधार पर बच्चों में भेदभाव ना किया जाए। 

    इस्लाम धर्म इस बात का भी ध्यान रखता है कि बच्चों के साथ लिंग के कारण भेदभाव ना किया जाए। नबी का संदेश है कि “जो मुसलमान व्यक्ति लड़कों को लड़कियों पर श्रेष्ठ ना समझे और स्त्रियों का अनादर ना करे, ऐसे व्यक्ति को ईश्वर स्वर्ग प्रदान करेगा।”

    [पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.)]

     

    👉 लड़का, लड़की दोनों के लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य।

    इस्लाम धर्म में बच्चों को शिक्षित करने के लिए बड़ा ज़ोर दिया है। क़ुरआन की पहली आयत ‘इक़रा’ अर्थात ‘पढ़ो’ है, इसका अर्थ यह हुआ कि इस्लाम में शिक्षा की बड़ी अहमियत है और “इस्लाम का पहला पैगाम शिक्षा है।”

    (क़ुरआन 96:1-5)

     

    नबी का कथन है कि “शिक्षा प्राप्त करना हर पुरूष और स्त्री पर अनिवार्य है।”

    (इब्ने माजा, हदीस 224)

     

    👉 पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.व.) का बच्चों के प्रति सद व्यवहार।

    मुहम्मद (स.अ.व.) की ये खूबी तो थी ही कि वह अमीर ग़रीब, गोरे काले, ऊँचे नीचे, शिक्षित अशिक्षित, का भेद किये बिना हमेशा दूसरों से अच्छी भावना के साथ मिलते थे। मिलने वाले की इज़्ज़त करते, अपने साथियों और दुश्मनों का भी सम्मान करते थे। मुहम्मद (स.अ.व.) की ये भी विशेषता थी कि अपने पराये का भेद किये बिना सभी बच्चों से प्रेम करते थे।

     

    👉 बच्चों को देखकर स्वयं सलाम करना। 

    हज़रत अनस रजि. कहते हैं, आप सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम बच्चों के पास से गुज़रते तो ख़ुद उन्हें सलाम करते ताकि वह भी अपने से छोटे और बड़ों का अभिवादन करना सीखें।

    (सहीह बुख़ारी , किताबुल इस्तेज़ान, अध्याय तसलीम, सहीह मुस्लिम किताबुस्लाम, मुसनद अहमद 12362)

     

    👉 नमाज़ की हालत में

    मुहम्मद (स.अ.व.) ने एक बार अपनी नवासी उमामा बिन्ते अल आस रजि. को कंधों पर उठा लिया और नमाज़ पढ़ने लग गए, जब रुकूअ करते तो उसको नीचे रखते और जब रुकूअ से सर उठाते तो फिर दोबारा उठा लेते। इसके साथ ही उन्हें ईश्वर की भक्ति करने के लिए भी प्रेरित करते ताकि वह नास्तिक नहीं आस्तिक बनें।

    (बुखारी, किताबुल बर्र व सलात, अध्याय रहमतुल बलद)

     

    👉 बच्चों के साथ मनोरंजन।

    बच्चों के साथ पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) विशेष रूप से प्रेम करते, दया भावना रखते। उनके लिए बरकत की दुआ करते, उन्हें गोद में बिठा लेते और कभी-कभी बच्चा पेशाब भी कर देता, लेकिन आपके चेहरे पर नाराज़गी ना आती, कभी आप सवारी पर होते तो बच्चों को देखकर रुक जाते और उन्हें सवारी पर पीछे बिठा लेते। बच्चों को खेलते देखकर खुश होते और बच्चों के कहने पर ख़ुद भी उनके साथ खेलते। कोई भी बच्चा मिलता प्रेम से उसके सिर और गालों पर हाथ फेरते।

    (सही मुस्लिम, किताबुल फ़ज़ाइल)

     

    👉 मौसम का पहला फल बच्चों को खिलाते। 

    हज़रत अबू हुरैरा रजि. बयान करते हैं, “जब मौसम का नया फल आता तो मुहम्मद (स.अ.व.) की सेवा में पेश किया जाता, तो आप इस प्रकार अल्लाह से प्रार्थना करते: ‘ऐ अल्लाह हमारे मदीना, हमारे फलों और मुद व साअ में आशीष प्रदान कर और फिर वह फल जो छोटा बच्चा क़रीब होता, उसको दे देते।”

    (सहीह मुस्लिम, किताबुल हज, अध्याय फ़ज़्ल मदीना, दुआ नबी सल्ल०, सुनन इब्ने माजा)

     

    👉 युद्ध में भी किसी बच्चे को ना मारने का नियम। 

    पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) दुश्मनों के बच्चों के साथ भी नेक व्यवहार करते। यहाँ तक कि दुश्मनों के बच्चे भी पैग़म्बर की नेक दिली के कारण आपके पास आया करते थे।

    जब भी युद्ध होता तो आप विशेष रूप से आज्ञा देते कि ‘सावधान! किसी बच्चे को मत मारना, वे निर्दोष है।’

    एक युद्ध में कुछ बच्चे मारे गए, आपको सूचना मिली तो आपको बड़ा दुख हुआ। एक सहाबी ने कहा- ‘ऐ अल्लाह के रसूल वह तो अत्याचारियों के बच्चे थे, इस पर नबी ने कहा, “सावधान किसी बच्चे को ना मारना, हर बच्चा ईश्वर के मार्ग की प्रकृति पर पैदा होता है।”

    (सिलसिला सहीहा लिलअलबानी, हदीस 402)

     

    ये कुछ उदाहरण है जिससे पता चलता है कि इस्लाम ने बच्चों के साथ अच्छे व्यवहार के लिए बेहतर शिक्षाऐं दी है।

    अतः हम सबको चाहिए कि उपर्युक्त शिक्षाओं के अनुसार बच्चों के साथ व्यवहार करें।

  • क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    जवाब:- दारुल हर्ब की आप ने मनगढ़ंत ही कोई व्याख्या कर रखी है जिसकी बुनियाद पर आप कुछ भी निष्कर्ष निकालते रहते हैं। तो पहले तो यह जान लें कि इस तरह की व्याख्याओं और प्रावधान का ही कोई आधार नहीं है।

    दूसरी बात यह भी समझ लें कि इस्लाम कोई ऐसा धर्म नहीं है जो किसी एक मात्र देश या नस्ल का हो। जिन्हें अगर दूसरे देशों में कोई समस्या आ रही हो तो उन्हें लौट कर अपने देश आ जाना चाहिए।

    तीसरी बात यह की कुछ ओछी मानसिकता वाले जिस तरह से भारत के हर मुस्लिम को हर दूसरी बात पर पाकिस्तान चले जाओ कहते रहते हैं उन्होंने ही अब अपने इस कथन का विस्तार और वैश्वीकरण कर लिया है। अब कहीं भी मुस्लिम अपने पर हो रहे अत्याचार के विरोध में आवाज़ उठाते हैं तो “यही” लोग कहने लगते हैं कि उस देश को छोड़ के चले जाओ। तो आप यह समझ लें कि ना तो आप इस दुनिया के मालिक हैं और ना ही यह कोई तर्क संगत बात है कि अन्याय का विरोध मत करो अपनी समस्या भी मत बताओ और देश छोड़ के चले जाओ। अतः अपनी सोच थोड़ी खुली रखें और थोड़ी परिपक्वता का परिचय दें।

    अंत में यह बात सभी को समझना चाहिए कि भारत देश मैं हिन्दू-मुस्लिमों का साथ सदियों पुराना है। मुस्लिमों का इस देश की प्रगति और हर क्षेत्र में योगदान रहा है फिर चाहे वह रक्षा हो विज्ञान हो चिकित्सा हो कला हो या खेल कूद हो। बेवजह पिछले कुछ वर्षों में अपने ही देश की एक बड़ी आबादी को दुश्मन की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है और बेवजह ही उन्हें शक की नज़र से देखा जा रहा। राजनीतिक मुद्दे से शुरू हुआ यह ज़हर अब बहुत आगे निकल चुका है। इसलिये आप से अनुरोध है कि इसे और हवा देने के प्रयास ना करे जिसके परिणाम देश हित में बिल्कुल भी नहीं होंगे।

  • इसराइल से दुश्मनी और तुर्की से प्रेम?

    इसराइल से दुश्मनी और तुर्की से प्रेम?

    जवाब:- देश की विदेश नीति या पूरा देश ही धार्मिक भावनाओं पर चले ऐसा मुसलमानों का तो नहीं बल्कि देश को धार्मिक राष्ट्र बनाने की मांग करने वालो और इसका दावे करने वालो का कहना ज़रूर है और खुले तौर पर इस देश में कई दल, संघ, संगठन इसके लिए प्रयासरत हैं जिनका कहना है कि हम भारत को एक धार्मिक राष्ट्र बना कर रहेंगे। अतः आपको यह सवाल उन से या ख़ुद अपने आप से करना चाहिए।

    एक और ग़लतफहमी जो आप फैला रहे है वह यह कि इस आंदोलन में तुर्की के राष्ट्रपति का समर्थन हो रहा है। जबकि इन प्रदर्शनो में सिर्फ़ फ्रांस के इस घटिया विधान का विरोध हो रहा है और कई सारे देश प्रमुखों ने भी फ्रांस का इस मामले में विरोध किया है तो यहाँ उनका समर्थन नहीं बल्कि उनके इन कथनों मात्र का समर्थन हो जाता है जिसमे कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भी हैं। लेकिन आप को सिर्फ़ एर्दोगन नज़र आ रहे हैं और एक बार फिर आप इस बात को भी ऐसा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं जैसे मुस्लिम एर्दोगन के किसी भारत विरोधी बयान का समर्थन कर रहे हों। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है।

  • फ़्राँस विरोधी प्रदर्शन का‌ राफेल से क्या लेना देना?

    फ़्राँस विरोधी प्रदर्शन का‌ राफेल से क्या लेना देना?

    जवाब:- आपका यह सवाल शुरू में उजागर की गई आपकी मुसलमानों की हर बात को कुतर्कों द्वारा देश विरोध से जोड़ने की मंशा से ओत प्रोत है जो पूरी तरह निराधार है। इस पूरे घटनाक्रम में ना किसी ने राफेल का कोई ज़िक्र किया है ना ही किसी की ऐसी कोई मंशा है। अतः बेवजह के प्रोपेगेंडा का प्रयास ना करें।

     

  • मोहम्मद साहब के कार्टून पर गुस्सा और उनके नाम से गलत कामों पर खामोशी?त

    मोहम्मद साहब के कार्टून पर गुस्सा और उनके नाम से गलत कामों पर खामोशी?त

    जवाब:-  देश-दुनिया के तमाम मुस्लिम इदारों ने इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंकी संगठनों का खुला विरोध किया है, उनके खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं। अगर आप इस बात से अनजान हैं तो आपको अपनी आँखें खुली और खबरों पर नज़र रखना चाहिए। देेेखिए कुछ उदाहरण आपके लिए 👇

    विश्व का सबसे बड़ा मदरसा (दारुल उलूम देवबंद) ने फतवा जारी किया👇

    1) https://m.timesofindia.com/india/deoband-first-a-fatwa-against-terror/articleshow/3089161.cms

    2) https://www.hindustantimes.com/delhi/coming-fatwa-against-terrorism/story-EZRGI5IPyMv2e5b8bZ1EUP.htm

    3) https://www.thehindu.com/news/national/darul-uloom-deoband-condemns-alqaeda-move/article6384559.ece

    4) https://www.indiatvnews.com/news/india/madrasasjoin-hands-to-create-awareness-against-isis-55989.html

    • मुस्लिम कार्यकर्ता ने की पेरिस आतंकी हमले की निंदा👇
    • शहर भर के मुस्लिम संगठनों ने घोषणा की कि मुस्लिम कब्रिस्तानों में मारे गए आतंकवादी के लिए कोई जगह नहीं है👇
    • https://edition.cnn.com/2009/WORLD/asiapcf/04/17/mumbai.bodies/

    अब यह आरोप लगाने वाले कि “इन विरोध प्रदर्शनो का स्तर फ्रांस के विरोध में हो रहे प्रदर्शन उतना क्यो नहीं है।” ख़ुद यह बात भली भांति जानते हैं कि दोनों ही बातों (मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर के विरोध और इस्लामी नामो पर चल रहे आतंकी संगठनों के विरोध) में एक मूल फ़र्क़ है जिसे जानते ही इस प्रोपेगंडे से प्रेरित सवाल की पोल खुल जाती है। लेकिन बड़ी ही चालाकी से इस पर से ध्यान हटा दिया जाता है।

     

    वह यह है कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अपमान के मामले में मुस्लिमों ने जहाँ शांति पूर्वक यह अपील की है कि आप ऐसा कर हमारी धार्मिक भावना आहत ना करें लेकिन इस अपील पर ना ही वे रुके ना किसी देश, सरकार ने इसे रोकने का ज़मीनी प्रयास किया जिस से इस कृत्य को रोका जा सके अतः विरोध प्रदर्शन हुए।

     

    जबकि “जैश-ए-मोहम्मद” आदि आतंकी संगठनों के मामले में ऐसा नहीं है, उनको तो ख़त्म करने के लिए देश दुनिया की बड़ी- बड़ी मिलिट्री आर्मी लगी हुई हैं, उन्हें ख़त्म करने में दुनिया के तमाम संसाधन और ताकत लगा रखी गई है और उन्हें ख़त्म करने के निरंतर प्रयास चल रहे हैं। जब इतने प्रयास और मिलिट्री कार्यवाही (Operation) चल रहे हैं उसके बाद भी आप यह चाहते हैं कि निरंतर विरोध प्रदर्शन चलते रहें? यक़ीन जानिए अगर इसी तरह का या इस से 100 गुना छोटा ज़मीनी प्रयास भी अगर दुनिया ने हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) के अपमान को रोकने में लगाया होता तो मुस्लिमों को किसी तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं करना पड़ता।

    खैर, इन आतंकी संगठनों की सच्चाई जानना हो तो यह‌ दोनो विडियो देख लिजिए 👇

    कन्हैया कुमार ने आतंकवाद की खोली पोल https://youtu.be/783RQbADM24

    डॉ राम पुनियानी जी ने आतंकवाद की हकीकत बताई। https://www.facebook.com/1350954568321994/posts/2601119306638841/