Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • ISIS के झण्डे पर कलमा लिखा होता है मुस्लिम इसका विरोध क्यों नही करते ?

    ISIS के झण्डे पर कलमा लिखा होता है मुस्लिम इसका विरोध क्यों नही करते ?

    जवाब:-  पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी के हर वीडियो की तरह यह विडियो भी झूठ के द्वारा डर और हिंसा भड़का कर समाज में ध्रुवीकरण कर राजनीतिक फायदा उठाने के चतुर प्रयास का उदाहरण है।

    आइए सिर्फ़ सुने नहीं बल्कि ध्यान देकर शब्दों के पीछे के षड्यंत्र और कुतर्कों को समझें और इनकी हक़ीक़त सामने लाएँ।

    सबसे पहले कुलश्रेष्ठ जी ISIS के झंडे पर “पहला कलमा” लिखा है से शुरू करते हैं और बड़ी ही चालाकी से कुछ सेकंड के अंदर ही ISIS के आतंकी शब्द की जगह सीधे “मुसलमान कलमा लिखा झंडा लेकर आतंक कर रहे है” कहने लग जाते हैं और अगले सेकंड में ही उन मुसलमान (जो कि वास्तव में मुस्लिम नहीं है सिर्फ़ हुलिया बना रखा है) को हिंदुस्तान का मुसलमान बना डालते हैं। कमाल है कुछ फ़र्क़ ही नहीं रहा।

    खैर आगे वे कहते हैं चूंकि इस्लामिक नारे का इस्तेमाल हो रहा है और मुसलमान इसका विरोध नहीं कर रहे हैं इसलिए हिंदुस्तान के मुसलमान मक्कार और मुनाफिक है।

    सर्वप्रथम यहाँ पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी ख़ुद को ही अपने ही शब्दों में मक्कार साबित कर रहे हैं क्योंकि यह वह अच्छे से जानते हैं कि ख़ुद हमारे देश में जय श्री राम का नारा लगाने को मजबूर करते हुए लोगों की भीड़ कई निर्दोषो को बाँधकर मौत के घाट उतार देती है उन वीडियो में कई सारे धार्मिक झंडे भी नज़र आते हैं कई सारे लोग धार्मिक नारे लगा रहे होते हैं और ऐसे एक नहीं बल्कि कई सारे मॉब लिंचिंग और दंगों के केस इस देश में हो रहे है तो क्या श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ को शर्म नहीं आ रही?? ख़ुद के आस पास और धर्म से जुड़े मामलों की बात छोड़कर हजारों किलोमीटर दूर किसी घटना का ज़िक्र करके अपने ही देश वालों को आतंकी घोषित कर रहे हैं।

    तो ऐसा करते ही वह ख़ुद अपने ही शब्दों के अनुसार मक्कार निर्लज्ज और झूठे साबित नहीं हो जाते?

    अब आते हैं उनके इस आरोप पर की मुसलमान पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहि व सल्लम के अपमान पर जिस स्तर का विरोध करते हैं वैसे ही ISIS आदि के लिए क्यों नहीं करते?

    पुष्पेंद्र जी तो यह बात भली भांति जानते हैं कि दोनों ही बातों में एक मूल फ़र्क़ है जिसे जानते ही इस प्रोपेगंडे की पोल खुल जाती है लेकिन वह बड़ी चालाकी से इसे लोगों के सामने छुपा जाते हैं। जिसे हमें जानना चाहिए।

    वह यह है कि हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहि व सल्लम के अपमान के मामले में मुस्लिमों ने ही शांति पूर्वक यह अपील की कि आप ऐसा कर हमारी धार्मिक भावना आहत ना करें लेकिन इस अपील पर ना ही वे रुके ना किसी देश / सरकार ने इसे रोकने का प्रयास किया अतः विरोध प्रदर्शन हुए।

    जबकि ISIS के मामले में तो देश / दुनिया की बड़ी-बड़ी मिलिट्री आर्मी उन्हें ख़त्म करने में लगी हुई हैं। उन्हें ख़त्म करने में दुनिया के तमाम संसाधन और ताकत लगा रखी है। अगर इसी तरह का या इससे 100 गुना छोटा प्रयास भी अगर दुनिया ने हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) के अपमान को रोकने में लगाया होता तो मुस्लिमो को किसी तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं करना पड़ता।

    बल्कि इसमें तो बड़े आश्चर्य की बात है कि अमेरिका, रूस जैसे देश इतने सारे मिलिट्री संसाधन लगाने के बावजूद ISIS का खात्मा क्यों नहीं हो पा रहा??

    ISIS मुस्लिम है भी या जैसे बुर्का, टोपी पहनकर गैर-मुस्लिम ग़लत काम करते है उस तरह से कोई अन्य है ताकि मुस्लिमो के खिलाफ नफ़रत का प्रोपेगेंडा चलाया जा सके जो अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रयास है?

    क्योंकि बहुत-सी बातें है जो इस और इशारा करती हैं कि ISIS मुस्लिम संगठन नहीं है। बल्कि मोसाद और CIA के द्वारा खड़ा किया गया लगता है??

    • 1. जैसे ISIS के हमले प्रमुख रूप से मुस्लिम राष्ट्रों पर ही हो रहे हैं जिनमे शिया सुन्नी दोनों मुस्लिम तरह के राष्ट्र शामिल हैं।
    • 2. ISIS के नाम से प्रचारित की गई वीडियो का झूठा (fake) साबित होना जैसा कि अमेरिका के द्वारा 2 लाख $ डॉलर की लागत से फ़िल्माया जाना साबित हुआ।
    • 3. ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह दावा करना कि ISIS को खड़ा करने के पीछे पूर्व राष्ट्रपति ओबामा का हाथ है।

    ऐसे और भी कई तथ्य हैं जो ISIS को मुस्लिम नहीं बल्कि भाड़े के क़ातिल का गुट कह सकते है। इसके बावजूद विश्व भर में मुस्लिमो ने ISIS और इस तरह के सभी आतंकी संस्थाओं का पुरज़ोर विरोध किया है जो श्री पुष्पेंद्र को नहीं दिखता।👇

    विश्व का सबसे बड़ा मदरसा (दारुल उलूम देवबंद) ने फतवा जारी किया👇

    1) https://m.timesofindia.com/india/deoband-first-a-fatwa-against-terror/articleshow/3089161.cms

    2)https://www.hindustantimes.com/delhi/coming-fatwa-against-terrorism/story-EZRGI5IPyMv2e5b8bZ1EUP.htm

    3)https://www.thehindu.com/news/national/darul-uloom-deoband-condemns-alqaeda-move/article6384559.ece

    4)https://www.indiatvnews.com/news/india/madrasasjoin-hands-to-create-awareness-against-isis-55989.html

    • मुस्लिम कार्यकर्ता ने की पेरिस आतंकी हमले की निंदा👇

    • शहर भर के मुस्लिम संगठनों ने घोषणा की कि मुस्लिम कब्रिस्तानों में मारे गए आतंकवादी के लिए कोई जगह नहीं है👇

    https://edition.cnn.com/2009/WORLD/asiapcf/04/17/mumbai.bodies/

    हाँ यह अवश्य है कि पुष्पेंद्र कभी राम और भगवा के नाम पर हो रहे ग़लत कामो के खिलाफ बोलते नहीं दिखे। तो उन्ही के शब्दों में वे क्या हैं यह अब दोहराने की ज़रूरत नहीं।

    उनका नजरिया बिल्कुल यही है।👇

     

    हर धर्म से जुड़े उग्रवादी संगठन अपने नामो में उस धर्म के प्रतीक और चिन्हों का प्रयोग करते हैं जैसे फलाँ सेना ,फलाँ दल आदि तो क्या पुष्पेंद्र हथियार लेकर उन्हें ख़त्म करने चले जाते है?? नहीं ना यह काम तो सेना और सुरक्षा बल का होता है। तो क्या वे यह चाहते हैं कि हिंदुस्तान का मुसलमान हथियार लेकर ISIS आदि का खात्मा करने चले जाएँ? इस तरह की बचकाना बाते और मूर्खतापूर्वक तर्क गंभीर चेहरा बना कर कहने से लोग भड़क जाएंगे और मूर्ख बन जाएंगे ऐसा अब श्रीमान को सोचना छोड़ देना चाहिए।

    क्या नमाज़ डर का प्रतीक है इससे पलायन होता है?

    जिसने भी जीवन में किसी को नमाज़ पड़ते देखा है वह जानता है कि पुष्पेंद्र जी यहाँ कितना बड़ा झूठ रच रहे हैं। नमाज़ कोई उग्र और हिंसक प्रदर्शन नहीं है। अगर पलायन की बात करें तो यातनाओं से दुखी होकर देशभर में जिन जगहों से मुस्लिमो को पलायन करना पड़ा है उसकी लिस्ट इतनी लंबी है कि उल्लेख ही नहीं किया जा सकता। कुछ एक की बात करे तो यू.पी. के श्यामली, तापराना, सम्भल राजस्थान के डाँटल आदि के बारे में पुष्पेंद्र जी का क्या कहना है?? जहाँ से सैकड़ो की संख्या में मुसलमानों ने प्रताड़ना की वज़ह से पलायन किया है।

    फिर भी यहाँ हम बहुसंख्यक को दोष नहीं देंगे। बल्कि इस तरह के सारे पलायनो के ज़िम्मेदार ये ज़हर फैलाने वाले लोग ही हैं जिनकी मंशा वोट की ध्रुवीकरण करने की है। नहीं तो सदियों से साथ रह रहे लोगों को आज क्या हो गया जो डर और असुरक्षा की वज़ह से पलायन करना पड़ रहा है?

    इसी संदर्भ के दौरान पुष्पेंद्र जी की यह बात बड़ी हास्यास्पद है कि वे पूरे देशभर की जगहों की गिनती कराते हुए कहने लगते हैं कि सभी को मालूम है यहाँ ये हो रहा है वहाँ वह हो रहा है।

    अगर सबको मालूम है कि ऐसा हो रहा है, तो फिर आपकी चहेती सरकार कुछ कर क्यों नहीं रही? *क्या अब आप यह मानने पर मजबूर नहीं है कि या तो आपकी प्रिय सरकार अक्षम है, या आप झूठ बोल रहे हैं? या न आप झूठ कह रहे है ना सरकार अक्षम है बल्कि वह तो ख़ुद यह होने दे रही है ताकि आप ऐसे ज़हर फैलाते रहे और उन्हें लाभ मिलता रहे??*

    और अंत में ~सेना के खिलाफ सोशल मीडिया पर कमेंट~

    पुलवामा हमले पर बहुत ही गंभीर सवाल उठे थे जिन पर से ध्यान हटाने के लिए हर बार की तरह पुष्पेंद्र जी के पास एक ही तरीक़ा है वह है मुस्लिम और इस्लाम।

    ज़रा वे यह बताने का कष्ट करेंगे कि जब कफील खान देश की एकता पर भाषण देते हैं तो उसे देश विरोधी बता कर महीनों जेल में रखा जा सकता है NSA जैसे एक्ट लगा दिये जा सकते हैं। तब पुष्पेंद्र जी और उनकी चहेती सरकार उस कॉमेंट जिस का वे ज़िक्र कर रहे हैं पर तो बड़ी से बड़ी कार्यवाही कर सकती थी और ऐसे सभी लोगों पर तो UAPA, POTA लगाया जा सकता था? मगर ऐसा नहीं किया गया तो क्या वे सब IT सेल वाले थे जो मुसलमानों की फ़र्ज़ी id बना कर कमेंट कर गए?? ताकि ध्यान मुख्य मुद्दे से ध्यान हटा कर साम्प्रदायिकीकरण किया जा सके?

    असल बात तो यह है कि किसे नहीं मालूम के पुलवामा से सबसे ज़्यादा लाभ किसे हुआ..?? इंटेलिजेंस की सूचना देने के बाद भी इतना बड़ा हमला क्यों रोका नहीं जा सका.?? सैनिकों को एयरलिफ्ट करने की मांग की जगह बसों से ही क्यों भेजा गया..??

    अब चाहे पुष्पेंद्र जी मुसलमानों को दोष देते रहें, सोशल मीडिया की फ़र्ज़ी कमेंट की बात करते रहे चाहे जो करें आज नहीं तो कल वे ज़्यादा दिन तक अपना प्रोपेगेंडा नहीं चला पाएंगे जनता अब इतनी भी मूर्ख नहीं रही। उन्हें इन सवालों के जवाब देना पड़ेंगे। हर चीज़ में मुस्लिम एंगल लाकर ध्यान बटा कर राज करते रहना अब ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं। झूठ और डर की यह दूकान जल्द बन्द होगी।

     

  • क्या सड़कों पर नमाज़ लोगों को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    क्या सड़कों पर नमाज़ लोगों को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    जवाब:-  झूठे हवाले देने में माहिर और अपने आप को इस्लाम का महा ज्ञाता बताने वाले इन महाशय से ज़रा ये पुछिये की क्या वे इस बात का कोई झूठा ही सही मगर कोई हवाला दे सकते हैं कि ऐसा कहाँ लिखा है कि नमाज़ गैर मुस्लिम को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    यह दरअसल पुष्पेंद्र के उस एजेंडे का ही हिस्सा है कि मुस्लिमों के हर कृत्य को ऐसा दिखाओ की मानो वह ऐसा गैर मुस्लिमों को तकलीफ़ देने के लिए या डराने के लिए ही कर रहे हैं। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

    मुस्लिम नमाज़ अल्लाह की रज़ा और ख़ुशनूदी के लिए पढ़ते हैं। नमाज़ पढ़ते हुए कई ग़ैर मुस्लिमों ने अपने मुस्लिम दोस्तो को देखा होगा। नमाज़ बिल्कुल शांति से अदा की जाती है, ना इसमें कोई मूर्ति स्थापित की जाती है, न कोई रंग-रोगन या कोई आग वगैरह लगाई जाती है ना ही ऐसा कुछ और किया जाता है। पूरी नमाज़ में कोई एक भी ऐसा कृत्य नहीं होता जिस से डरना तो दूर किसी दूसरे व्यक्ति को एतराज़ भी हो।

    जिनको शांति से अदा की जा रही नमाज़ ऐसे लग रही है जैसे वह दूसरे धर्म के लोगों को डराने के लिए किया जा रहा है तो फिर वे चौराहों पर होली के दौरान होली दहन, सड़को पर मूर्ति स्थापना, विसर्जन यात्रा, शस्त्र-पूजन और फिर अन्य यात्रा के बारे में क्या कहेंगे?

    अतः यह बेवजह का प्रोपेगेंडा दरअसल धार्मिक नफ़रत और हिंसा भड़काने के मिशन पर लगे यह महाशय कर रहे हैं ।

    दूसरी बात यह कि यह बिल्कुल सत्य है कि किसी को कोई तकलीफ देना इस्लाम में बिल्कुल मना है और आम हालात में कोई भी मस्जिद में जगह होने पर बेवजह सड़क पर नमाज़ नहीं पढ़ता है। ऐसा सिर्फ़ ख़ास अवसरों पर ही भीड़ अधिक हो जाने पर होता है, ठीक वैसे ही जैसे विशेष अवसरों पर मंदिरों के बाहर, या गुरुद्वारों के बाहर हो जाता है।

    इसके अलावा अगर मजबूरी में कही मस्जिद आसपास नहीं हो और कहीं और नमाज़ पढ़ना भी पढ़े तो ऐसी जगह पढ़े जहाँ किसी को तकलीफ़ ना हो। लेकिन अगर कोई बेवजह ही एतराज़ (objection) ले रहा हो तो उसका कोई मतलब नहीं। ऐसे ही झूठे हवाले देने में माहिर श्रीमान कह रहे हैं कि फ़रमाया “कि कहीं भी अगर किसी को डॉट (.) बराबर भी ऑब्जेक्शन हो तो मैं नमाज़ कबूल करूँगा ही नहीं? “तो यह महाशय बताएँ की इसका संदर्भ (रेफरेंस) कहाँ है? कहाँ ऐसा लिखा है? ऐसे तो पुष्पेंद्र जैसे लोगों को तो मस्जिद या घरों में नमाज़ पढ़ रहे लोगों से भी एतराज़ (Objection) होगा तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि कही नमाज़ पढ़े ही नहीं?

    और अंत में पुष्पेंद्र जी ख़ुद इस बात से वाकिफ़ तो होंगे ही की इस देश में मुस्लिमों के वक़्फ़ बोर्ड की कितनी ज़मीन है और उस पर किसका कितना कब्ज़ा किया हुआ है और उनकी प्रिय पार्टी से जुड़े व्यक्ति जिसको वक्फ बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया था उसके ऊपर वक्फ बोर्ड की कितनी ज़मीनो को हड़पने और बेचने का केस चल रहा है?

    अगर वक़्फ़ की यह ज़मीन सही मायनों में मुस्लिमों को प्राप्त हो जाये तो सभी मस्जिदों की इतनी गुंज़ाइश (Capacity) हो जाएगी कि विशेष अवसरों पर भी अधिक भीड़ होने पर भी किसी को बाहर नमाज़ पढ़ने की ज़रूरत नहीं होगी।

  • मुसलमान दाढ़ी क्यों रखते हैं ?

    मुसलमान दाढ़ी क्यों रखते हैं ?

    जवाब:–

    पैगम्बर ऐ इस्लाम / अंतिम संदेष्टा नबी ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दाढ़ी मुबारक बहुत घनी थी।
    (मुसनद अहमद)

    दाढ़ी रखना हमारे नबी ए पाक पैगम्बर ऐ इस्लाम / अंतिम संदेष्टा (स.अ.व.) का सुन्नत (तरीका) है।

    जो शख़्स जिससे मुहब्बत करता है उसी के तरीकों को इख्तियार (अनुसरण) करता है।

    आज ज़्यादातर नौजवान बॉलीवुड एक्टरों से मुहब्बत करते हैं उनको अपना आइडियल और रोल मॉडल मान कर उनके तरीके को फॉलो करते हैं उनके जैसे बाल रखते हैं कपड़े पहनते हैं बल्कि फैशन के नाम पर अजीब-अजीब हरकत इख्तियार कर लेते हैं।

    जबकि हम मुसलमान तो, किरदार में सबसे आला हर इंसानी अखलाक और खूबी में सबसे बेहतरीन हस्ती हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) को अपना आइडियल मानते है।

    जिनकी श्रेष्ठता सिर्फ़ मुस्लिम ही नहीं बल्कि गैर मुस्लिम भी मानते हैं और उन्हें मानव इतिहास के 100 सबसे अधिक प्रभावी हस्तियों की फ़ेहरिस्त में नंबर 1 पर रखा जाता है।👇                            https://www.biographyonline.net/people/100-most-influential.html 

    जानिए इसका कारण, माइकल एच. हार्ट, एक ईसाई अमेरिकी, ने पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) को 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्वों में शीर्ष पर क्यों रखा?👇   https://www.alsiraj.net/English/opinion/html/page02.html

    किसी ने नंबर 2 पर रखने के बावजूद उन्हें नंबर 1 होने के योग्य माना।👇                                    https://t.co/yPbcB0rLc7

     

    हम मुहम्मद (स.अ.व.) ही से सबसे ज़्यादा मुहब्बत करते हैं और उन्ही को फॉलो करते हैं और उन्ही के जैसा बनना चाहते हैं। इसलिए हम दाड़ी रखते हैं।

    जहाँ दुनियावी फैशन और तरीके अक्ल और फायदे से खाली होते हैं वहीँ पैगम्बर ऐ इस्लाम हुज़ूर पाक (स.अ.व.) के तरीके में अनगिनत फायदे और हिकमत (उत्तम युक्ति) होती हैं जिनको साइंस और हर अक्लमंद व्यक्ति कुबूल करता है।

    उनमें से कुछ बताता चलता हूँ ।

    हमारे नबी ने हमें दिन प्रतिदिन करने वाले सभी काम कैसे करना है वह भी सिखाये हैं जैसे कैसे खाना चाहिए? कैसे पानी पीना चाहिए? कैसे सोना चाहिए? इन सब पर जब विशेषज्ञों ने रिसर्च किये तो कई लाभ सामने आए ।

    जैसे: पानी बैठ कर पीने से किडनी और पैरो में होने वाली बीमारियों से बचा जाता है।

    जैसे: सीधी तरफ़ करवट करके सोने के कई फायदे सामने आऐ है। आदि

    वैसे ही दाढ़ी रखने के बारे में भी विशेषज्ञो के शोध से कई फायदे मालूम हुए हैं जैसे :-

    • 1. त्वचा के कैंसर से बचाव-                                  सदर्न क्वीन्सलैंड के शोध की मानें तो दाढ़ी रखने से सूर्य की अल्ट्रावॉयलेट किरणों से 95 प्रतिशत तक बचाव होता है जिससे त्वचा के कैंसर का रिस्क नहीं रहता है।
    • 2. दमकती और तंदुरुस्त त्वचा-
      ओहियो स्टेट वेक्सनर मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं का मानना है कि दाढ़ी रखने से त्वचा पर बैक्टीरियाई संक्रमण से दाढ़ी बचाती है जिससे मुंहासे, दाग या रैशेज नहीं होते हैं। इससे त्वचा, शेविंग की गई त्वचा की अपेक्षा अधिक स्वस्थ और दमकदार रहती है।
    • 3. एलर्जी से बचाव-
      एलर्जी एंड अस्थमा सेंटर ऑफ न्यूयॉर्क मेडिकल सेंटर के विशेषज्ञों का मानना है कि दाढ़ी चेहरे पर प्रदूषण के कणों को प्रवेश करने से रोकती है इसलिए इसे रोज़ अच्छे से साफ़ करें।
    • 4. सबसे कीमती वक्त-
      अमेरिका की बॉस्टन यूनिवर्सिटी के त्वचाविज्ञानी डॉक्टर हर्बर्ट मेस्कॉन ने बताया था कि एक औसत व्यक्ति अपने जीवनकाल में करीब 3,350 घंटे शेविंग करने में ख़र्च करता है। मतलब अपने जीवन के लगभग 5 महीने।।
    • 5. पहचान
      किसी भी अनजान मुल्क या जगह में अकेला और मुसीबत में पड़ने पर अनजान लोगों की भीड़ में दाढ़ी के ज़रिए अपने मुस्लिम भाई को पहचान सकता है, भरोसा कर सकता है मदद मांग सकता है।

    इसके अलावा मर्दाना रौब, चेहरे पर नर्मी, शेविंग की फिजूलखर्ची से बचाव, दाड़ी औरत और मर्द में फर्क भी करती है, दाड़ी सिर्फ मर्दों कि होती है औरतो की नहीं। इसके अलावा और भी कई बेशुमार फायदे हैं।

    आख़िर में आप कहते हैं कि “अभी जवान हो अभी कटवा लो बाद में रख लेना”?

    तो इसका जवाब है कि इस्लाम बुढ़ापे का मज़हब नहीं है कि ज़िदगी भर जी चाहे वह करो और धर्म-कर्म बुढ़ापे के लिए है।

    नहीं! बल्कि यह तो प्राकृतिक जीवन शैली (Natural way of life) है और पूरी ज़िंदगी पालन के योग्य है साथ ही मुहब्बत का भी यह तक़ाज़ा नहीं कि बुढ़ापे में जाकर इस तरीक़े को अपनाया जाए बल्कि असली अमल तो जवानी में है।

    और वैसे भी जब दाढ़ी रखने के इतने सारे फायदे हैं तो मैं उन्हें हासिल करने के लिए बुढ़ापे का और बिमारियों में पड़ने का इंतज़ार क्यों करूँ ? और अभी जवानी ही में दाढ़ी क्यों ना रखूँ?

  • क्या क़ुरआन के अनुसार सूरज पानी मे डूबता है ?

    क्या क़ुरआन के अनुसार सूरज पानी मे डूबता है ?

    जवाब:- अल्लाह तआला क़ुरआन में फरमाता है

    यहाँ तक कि जब (चलते-चलते) आफताब के ग़ुरूब होने की जगह पहुँचा तो आफताब उनको ऐसा दिखाई दिया कि (गोया) वह काली-कीचड़ के चश्में में डूब रहा है और उसी चश्में के क़रीब एक क़ौम को भी आबाद पाया हमने कहा ऐ जुल करनैन (तुमको एख्तियार है) ख्वाह इनके कुफ्र की वज़ह से इनकी सज़ा करो (कि ईमान लाए) या इनके साथ हुस्ने सुलूक का शेवा एख्तियार करो।
    (क़ुरआन 18:86)

    अक्सर इस आयत को या तो आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट पेश किया जाता है या इसके कुछ हिस्से को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है, जबकि इस सूरह को पूरा पढ़ लें या इस आयत को ही पूरा समझ लें तो कोई सवाल ही नहीं रहेगा।

    जब पैगंबर हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) से लोगों ने जुल करनैन (जो कि गुज़रे ज़माने के एक शासक थे) के बारे में सवाल किया तो अल्लाह का जो संदेश आया उसी का वर्णन क़ुरआन की इन आयतो में है।

    क़ुरआन ने जुल करनैन का किस्सा इस ढंग से पेश किया कि उस में से लोग उपदेश ले सकें। जुल करनैन एक महान शासक की हैसियत से अपने लोगों के साथ जो चाहे कर सकता था। लेकिन वह एक न्यायी शासक था। उसने किसी पर अत्याचार नहीं किया। उसने आम घोषणा की कि हम केवल उसके साथ कठोरता करेंगे जो बुराई करता हुआ पाया जाए। जो व्यक्ति शांति से रहेंगे उन पर कोई अत्याचार नहीं होगा।

    क़ुरआन ने इससे यह शिक्षा दी कि एक शासक कैसा होना चाहिए और उसके न्याय के लिए जुल करनैन को सदा के लिए क़ुरआन में अमर कर दिया।

    इसके अलावा क़ुरआन में सूरज और कीचड़ का ज़िक्र इसलिए करा है ताकि आने वाले इंसान उस जगह को पहचान ले कि किस जगह के बारे में बताया गया है और इसमें भविष्य और गुज़रे ज़माने कि कुछ निशानियां भी बताई गई है जो New World Order/ End of Time पर नज़र रखने वाले ही समझ सकते है।

    सूरह कहफ की आयात 85, 90 और 93 में जुल करनैन की पश्चिम, पूरब और उत्तर के अभियानों का वर्णन किया। इसी संदर्भ में आयत 86 उसके पश्चिमी अभियान की अंतिम सीमा पर पहुँचने का वर्णन कलात्मक तरीके से करते हुए कहता है, “यहाँ तक कि जब (चलते-चलते) आफताब के ग़ुरूब होने की जगह पहुँचा तो आफताब उनको ऐसा दिखाई दिया कि (गोया) वह काली-कीचड़ के चश्में में डूब रहा है (क़ुरआन 18:86)

    सबसे पहले तो यह वर्णन/ ज़िक्र जुल करनैन की दृष्टि से है कि उसे ऐसा दिखायी दिया कि सूरज मटमैले पानी में डूब रहा है ना कि यह कहा गया है कि सूरज पानी में डूबता है।

    क़ुरआन के अरबी में यहाँ शब्द ‘वजद’ का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ क़ुरआन के शब्दकोश ‘मुफ़्रदात अल्क़ुरआन’ (रचयिता: इमाम रागिब इस्फ़हानी) में इस प्रकार है, अर्थात पांच इंद्रियों में किसी एक से किसी चीज़ का अनुभव करना।

    तो बात स्पष्ट है कि इस आयत में जुल करनैन की दृष्टि से बात व्यक्त की जा रही है कि वह जब अपने अभियान की पश्चिमी सीमा को पहुँचा और वह सूर्यास्त का समय था तो उस सूर्य का काले पानी में जाते हुए दर्शन किया। यह एक आम वर्णन जो बोलचाल में इसी तरह प्रयुक्त होता है और जिस काले पानी की बात हो रही है उसे हम काला सागर (Black Sea) के नाम से जानते हैं। यहाँ पर कोई विज्ञान विरुद्ध बात नहीं है। मुस्लिम विद्वानों ने कभी इस आयत का अर्थ यह नहीं लिया है कि सूर्य वास्तव में किसी काले पानी में डूबता है।

    हम रोज़ अपनी आँखों से समुद्र के किनारों पर यह देखते हैं कि मानो सूर्य समुद्र में जा रहा है या ऊपर आ रहा है। तभी तो हमारी भाषा में सूर्योदय और सूर्यास्त के शब्द बोले जाते हैं। जबकि हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि सूर्य न अस्त होता है और न उदय।

    तभी तो आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यही शब्दावली सर्वप्रचलित और सर्वमान्य है। आज भी स्कूलों में दिशा के बारे यही पढ़ाया जाता है कि Sun rises in the ईast and Sunsets in the West.

    तो इसका मतलब तो यह कदापि नहीं की झूठ पढ़ाया और बोला जा रहा है बल्कि यह तो बोलचाल का कलात्मक वर्णन है और इसी तरह प्रयोग किया जाता है। फिर चाहे वह अखबारों, कैलेंडरों और जन्तरियो में सूर्यास्त और सूर्योदय का समय हो या फिर सूर्य अस्त की दिशा में यात्रा करने का दिशा वर्णन, या फिर जगहों का नामकरण जैसे “जापान” जिसका अर्थ होता है सूर्योदय की धरती या “अरुणाचल” यानी के उगते सूर्य का पर्वत। इसी तरह से यह बातें बोली और समझी जाती हैं।

    जो फिर भी इसे नहीं समझ पा रहा वह निश्चित ही भाषा की समझ और वास्तविकता का ज्ञान नहीं रखता।

    इसके अलावा भी क़ुरआन की आयतों में सूर्य और चंद्रमा की चाल, दिन और रात के होने के चक्र के बारे में विस्मयकारी विवरण हैं जिसे जान और समझ कर आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक अभिभूत और आश्चर्यचकित होते हैं और क़ुरआन की सत्यता को प्रमाणित करते हैं।

    वही दूसरी तरफ़ कुछ ना समझ सिर्फ़ अपनी ईर्ष्या के कारण निरर्थक बातों के आधार पर आक्षेप लगाने का प्रयास करते रहते हैं।

  • इस्लाम औरतों को विरासत में हिस्सा नहीं देता ?

    इस्लाम औरतों को विरासत में हिस्सा नहीं देता ?

    जवाब:- “हिटलर का एक जुमला मशहूर है कि एक झूठ को इतनी बार बोलो कि लोग उसे ही सच समझने लगे यही हाल आज इस्लाम से नफ़रत करने वालों का है, उन्होंने इस्लाम के बारे में इतना झूठ फैलाया है कि आज लोग अपनी आँखों के सामने की हकीक़त को नहीं देख पाते और हर झूठ को सही समझ लेते हैं।”

    इस्लाम ने औरतों को मीरास (जायदाद / सम्पत्ति) में हिस्से का हक़ आज नहीं बल्कि उस दौर में ही दिया जिस दौर में औरतों को मीरास (जायदाद / सम्पत्ति) में हिस्सा देना तो बहुत दूर की बात थी बल्कि उन्हें ख़ुद मीरास / सम्पत्ति समझ कर उन पर कब्ज़ा कर लिया जाता था।

    जिसे सबसे पहले क़ुरआन में प्रतिबंधित किया गया-

    ऐ ईमान वालों तुम्हारे लिए औरतों को ज़बरदस्ती मीरास में लेने का हक़ नहीं है।
    (क़ुरआन 4:19)

    इसके बाद इस्लाम ने औरतों के लिए मीरास का अधिकार ना सिर्फ़ पत्नी और बेटी के रिश्ते में तय किया बल्कि बहन, माँ और दूसरे रिश्तों के ज़रिये भी औरतों को मीरास का हिस्सेदार बनाया है। जिसका प्रावधान तो आज भी कई व्यवस्थाओं में नहीं है।

    दरअसल इस्लाम मज़हब में इंसान के माँ के पेट में आने से लेकर मरने के बाद तक यानी जिंदगी के हर मोड़ पर स्पष्ट मार्गदर्शन किया है, ऐसे ही इस्लाम ने जहाँ पुरी ज़िन्दगी का तरीक़ा बताया है वहीं मौत के बाद के मसाइल का भी हल पेश किया है, इंसान की मौत के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल उसके माल और जायदाद के बंटवारे का होता है, जिसका इस्लाम में मीरास (सम्पत्ति के हक़) के अंतर्गत पूर्ण रूप से विवरण है जैसे किस तरह बंटवारा होगा? अगर मरने वाले के ज़िम्मे किसी का कर्ज़ था तो उसकी अदायगी, वसीयत आदि। उस सम्पूर्ण विवरण में से हम इस सवाल के सम्बंध में सिर्फ़ औरतों से जुड़े अधिकार के बारे में देखते हैं।

    जैसे ऊपर उल्लेख किया गया कि इस्लाम में औरतों का विभिन्न रूपों (पत्नी, बेटी, बहन, माँ आदि) में मीरास / विरासत में हिस्सा रखा गया है और सिर्फ़ हिस्सा रखने तक ही नहीं बल्कि यह हिस्सा देना लोगों पर अनिवार्य किया और जो लोग औरतों का हिस्सा हड़प जाते हैं, तो ऐसे लोगों के लिए अल्लाह ने क़यामत में सख्त अजाब से आगाह किया है।

    ▪️ मीरास में औरतों का हक़ क़ुरआन में:

    माँ बाप और रिश्तेदारों के माल में चाहे थोड़ा हो या ज़्यादा मर्द और औरत दोनों का हिस्सा है।
    (क़ुरआन 4:7)

    मर्दों का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।
    (क़ुरआन 4:11)

    ▪️ इसके अलावा क़ुरआन ने शौहर के माल में बीवी का हक़ खुले लफ़्ज़ों / शब्दों में बताया है, अल्लाह त’आला का इरशाद है:

    ..जबकि (पत्नियों) के लिए उसका चौथाई है, जो (माल आदि) तुमने छोड़ा हो, यदि तुम्हारे कोई संतान न हों। फिर यदि तुम्हारे कोई संतान हों, तो उनके लिए उसका आठवाँ.. 
    (क़ुरआन 4:12)

    विरासत के अधिकार में पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाएँ हैं:-
    जहाँ चार पुरुष >> “पिता, दादा, सह-भाई, पति” को हिस्सा दिया जाता है, तो वहीँ आठ महिलाएँ >> “पत्नी, बेटी, पोती, बहन, माँ-सह-बहन, पिता-सह-बहन, माँ, दादी या नानी को” हिस्सा दिया गया है।

    विशेष ध्यान देने की बात यह है कि मीरास में मर्दो और औरतों दोनों का हिस्सा है। प्राप्त हिस्से में से मर्द पर सम्पूर्ण परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारी है, उसके बच्चे, बीवी, बहन, माँ आदि का ख़र्च उठाना उस पर अनिवार्य है औरत को प्राप्त हिस्से पर पूरा अधिकार प्राप्त है उसे किसी पर ख़र्च करने या किसी का व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी नहीं है।

    औरत का सम्पूर्ण आर्थिक दायित्व मर्दो के ज़िम्मे है। अगर शादी-शुदा हो तो पति पर, यदि पति मर जाये तो उसके बाद उस का दायित्व उसके बाप को बाप नहीं तो भाई, फिर चाचा अगर कोई भी नहीं है, तो फिर उस औरत का दायित्व मुस्लिम समाज पर है कि वह उसकी शादी करवाये या उसके लालन पालन का इंतज़ाम करें।

    जबकि औरतों पर स्वयं या किसी और का दायित्व नहीं है, वह अपने हिस्से को जैसे चाहे ख़र्च करे। अतः पुरुषों का हिस्सा मीरास में अधिक रखा गया ताकि न्याय बना रहे।

    और अंत में यदि कोई इन सब का पालन नहीं करता और औरतों को मीरास में से हिस्सा नहीं देता तो, इस्लामी हुकूमत होने पर उसे दुनियाँ में भी सज़ा का प्रावधान है और हुकूमत हस्तक्षेप करके औरत को उसका हक़ दिलाने के लिए बाध्य है। यदि इस्लामी हुकूमत नहीं है तब भी और हो तब भी दोनों सूरतों में आख़िरत के अज़ाब से तो आगाह किया ही गया है। –

    जैसा कि हुज़ूर पाक सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम ने फ़रमाया।

    “जो शख्स अपने माल में से अल्लाह की तय कि हुई मीरास को खत्म करेगा अल्लाह जन्नत से उस की मीरास ख़तम कर देंगे”
    (सुनन सईद बिन मन्सूर,हदीस नंबर 285)

  • अज़ान देने से क्या फायदा ?

    अज़ान देने से क्या फायदा ?

    जवाब:- यह सवाल की मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ईशदूत होने की गवाही देने से अल्लाह, मुहम्मद (स.अ.व.) और गवाह में से किसका लाभ होता है और किसकी हानि होती है?, इस बारे में सर्वप्रथम तो यह जान लें की अल्लाह तआला तो हर चीज़ से बेनियाज़ है। तमाम कायनात उसकी मोहताज है सभी अल्लाह (ईश्वर) पर निर्भर हैं जबकि अल्लाह तआला किसी पर निर्भर नहीं है। अतः गवाही देना, इबादत करना यहाँ तक की पूरी क़ायनात में कोई भी अपने कृत्यों द्वारा किसी भी तरह से ना तो अल्लाह को कोई लाभ पहुँचा सकता है ना ही कोई हानि।

    अल्लाह तआला इरशाद फरमाते है:-” मेरे बंदों! तुम कभी मुझे नुकसान पहुँचाने की ताकत नहीं रखोगे कि मुझे नुकसान पहुँचा सको, ना कभी मुझे फायदा पहुँचाने के काबिल होगे के मुझे फायदा पहुँचा सको,

    मेरे बंदों! अगर तुम्हारे पहले वाले और तुम्हारे बाद वाले (यानी अब तक जो जन्म ले चुके और जो जन्म लेने वाले हैं) और तुम्हारे इंसान व जिन्न सब मिलकर तुम में से एक निहायत ही मुत्तकी (फरमाबरदार, धर्मपरायण, नेक) इंसान के दिल के मुताबिक हो जाएं तो इससे मेरी बादशाहत में कोई इज़ाफ़ा नहीं हो सकता,

    मेरे बंदों! अगर तुम्हारे पहले वाले और तुम्हारे बाद वाले और तुम्हारे इंसान व जिन्न सब मिलकर तुम में से एक फाजिर (दुष्ट, विधर्मी, बुरे काम करने वाले) इंसान के दिल के मुताबिक हो जाएं तो इससे मेरी बादशाहत में कोई कमी नहीं होगी
    (हदीस सही मुस्लिम 6572)

    *..अगर और (तुम्हारे साथ) जितने रुए ज़मीन पर हैं सब के सब (मिलकर भी ख़ुदा की) नाशुक्री करो तो ख़ुदा (को ज़रा भी परवाह नहीं क्योंकि वह तो बिल्कुल) बे नियाज़ है*
    (क़ुरआन 14:8)

    इसी तरह मोहम्मद (स.अ.व.) भी इस बात से बेनियाज़ हैं कि कोई उनके ईशदूत होने की गवाही दे। कोई इस बात की गवाही देकर या ना देकर, ना तो मुहम्मद (स.अ.व.) को किसी तरह लाभ पहुँचा सकता है ना ही हानि। वे तो हर हाल में ईशदूत हैं चाहे कोई गवाही दे या ना दे।

    अपितु इस बात की गवाही देने, इबादत करने या भलाई का कोई और दूसरा काम इंसान स्वंय अपने फायदे के लिए ही करता है और इससे उसी का लाभ होता है।

    यदि तुम भला करोगे, तो अपने लिए और यदि बुरा करोगे, तो अपने लिए।
    (क़ुरआन 17:7)

    ❇️ लाभ किस तरह होता है?                                       जब बन्दा मुहम्मद (स.अ.व.) की ईश्दूत होने की गवाही देता है तो उसे कई तरह से फायदा होता है। जिसमें प्रमुख यह है कि जब अज़ान में यह कहा जाता है तो सुनने वाले और बोलने वालों को इस कि याद दहानी होती है की मुहम्मद (स.अ.व.) ईश्दूत हैं, तो उनका सन्देश हम याद करें कि यह जीवन तो सिर्फ़ एक परीक्षा की जगह है यहाँ हमें ईश्वर के आदेशों का पालन करते रहना है ताकि हम मौत के बाद कि हमेशा रहने वाली ज़िंदगी में कामयाब हो सकें।
    (देखें क़ुरआन 67:2)

    अतः अगर हम सांसारिक (दुनियाँवी) मामलों में उलझ कर और कुछ फायदे के लिए कुछ ग़लत काम कर रहे हो तो उसे ईश्वर की याद कर तुरन्त छोड़ दें। या फिर दुनियाँ में ही उलझ कर यदि आख़िरत (परलोक) के जीवन से बेख़बर हो गए हैं और उस के बारे में कोई तैयारी ही नहीं कर रहे हों। तो हम इन कामो से कुछ रुक कर इबादत और ईश्वर को याद करें और अपने मरणोपरांत जीवन की तैयारी करें जिससे हमारा ही लाभ (फायदा) होगा।

    ➡️ अज़ान में काफिरों की मुहम्मद (स.अ.व.) के ईश्दूत होने की गवाही ना देने से किस की क्या हानि होती है?

    इस बारे में हम सर्वप्रथम तो यह जाने की एक मंशा के तहत इस्लाम, मुस्लिमों औऱ काफ़िर (गैर मुस्लिम) में एक गैर ज़रूरी विरोध उत्पन्न करने की कोशिश की जाती है। जिस के द्वारा मुस्लिमों के हर कृत्य को ऐसा दिखाने का प्रयास किया जाता है कि यह सब गैर मुस्लिम को दुःख या तकलीफ देने के लिये कर रहे हों। जबकि जब आप क़ुरआन का अध्ययन करेंगे तो जानेंगे कि यह कितना ग़लत है। क्योंकि अल्लाह तो सभी का ईश्वर है, मुहम्मद (स.अ.व.) तो तमाम दुनियाँ वालों के लिए भेजे गए हैं। ऐसा नहीं है कि अल्लाह सिर्फ़ मुस्लिमों का ईश्वर है, गैर मुस्लिमों का नहीं है। बल्कि वो तो सभी का ईश्वर है उसका सन्देश सभी के लिए है और सभी की भलाई के लिए है।

    अतः यह सोचना बिल्कुल निराधार है की अज़ान में ईश्दूत की गवाही देने से गैर मुस्लिमों के नुकसान की मंशा होती है या उनका इससे कोई नुकसान होता है। हाँ यह अवश्य है कि जो भी व्यक्ति अपने जीवन काल में मुहम्मद (स.अ.व.) के ईशदूत होने की गवाही नहीं देता अर्थात उन्हें ईश दूत ना मानकर अल्लाह के बताए आदेशों को झुठलाता है तो उसे फ़िर मरने के बाद इसका नुकसान होगा कि वह जीवन रूपी परीक्षा में सफल नहीं हो पायेगा और मरने के बाद के जीवन में अल्लाह (ईश्वर) का कृपापात्र नहीं बन सकेगा। यह इस्लाम का खुला पैगाम है जो सभी के लिए समान रूप से स्पष्ट है। फिर चाहे वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम।

    [साथ ही:- यह सवाल दरअसल अज़ान के बारे में है। इसका और इस ही तरह के दूसरे सवालों का कारण अज़ान के मुत्तालिक फैलाई जा रही ग़लतफ़हमियों भरी पोस्ट और कुप्रचार होता है। जिसके बारे में विस्तार में पहले जवाब दिया जा चुका है (देखें पोस्ट:- क्या सेक्युलर देश भारत में अज़ान दूसरे धर्मों की भावना आहत करती है?)]

  • क़ुरआन में अल्लाह से डरने को क्यों कहा गया है?

    क़ुरआन में अल्लाह से डरने को क्यों कहा गया है?

    जवाब:-  क़ुरआन हमें सिर्फ़ अल्लाह से डरना नहीं सिखाता बल्कि उस से मोहब्बत करना और उसकी रहमत की उम्मीद रखना भी सिखाता है।

    ❇️ प्रेम
    (हे नबी!) कह दोः यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो, तो मेरा (रसूल का) अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम करेगा तथा तुम्हारे गुनाह माफ़ कर देगा और अल्लाह बहुत माफ़ करने वाला और (रहीम) दयावान् है।
    (क़ुरआन 3:31)

    हे ईमान वालों! तुममें से जो अपने धर्म से फिर जायेगा, तो अल्लाह (उसके स्थान पर) ऐसे लोगों को पैदा कर देगा, जिनसे वह प्रेम करेगा और वे उससे प्रेम करेंगे।…. 
    (कुरआन 5:54)

    लेकिन अक्सर लोग सिर्फ़ प्रेम के भ्रम में बेपरवाह हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि ईश्वर हम से प्रेम करता है अतः अब हम कुछ भी करें अंत में ईश्वर हमें माफ कर ही देगा।

    ❇️इसीलिए प्रेम ही काफ़ी नहीं है, प्रेम के अतिरिक्त डर भी ज़रूरी है जिसके कुछ एक कारण तो यह हैं:-

    1. जो भी व्यक्ति किसी से प्रेम करता है या उसके बुलन्द मर्तबे की वज़ह से उसका अदब करता है वह उस से डरता ज़रूर है। इस बात से की कहीं वह उसे नाराज़ ना कर दे या उनकी बात ना मान कर नुक़सान ना उठा ले। जैसे एक बच्चा अपने माँ-बाप से इसलिये नहीं डरता की वे कोई डरावनी चीज़ हैं। बल्कि उनको नाराज़ ना करने और अदब की वज़ह से डरता है।

    2. दूसरा यह कि आप जिस भी देश में रहते हैं आपको उसके कानून को मानना होता है और आप इस बात से डरते हैं कि यदि आप उनको तोड़ेंगे तो सज़ा के भागीदार होते हैं।

    अतः ईश्वर से इसलिए भी डरना चाहिए क्योंकि वह पूरी दुनियाँ का मालिक है और उसने दुनियाँ व्यर्थ ही नहीं बनाई है बल्कि इसमें आपके किये कर्मो का हिसाब होना है और फिर वह आपको स्वर्ग या नर्क प्रदान करेगा। अगर इंसान उसके बताये आदेशों का पालन नहीं करेगा और दुष्टता करेगा तो ईश्वर उसे सख्त सज़ा देने कि ताक़त रखता है।

    दुनियाँ के कानून से तो एक बार बचा जा सकता है। लेकिन ईश्वर से ना छुपा जा सकता है ना बचा जा सकता है।

    हे मनुष्यो! अपने पालनहार से डरो, वास्तव में, क़यामत (प्रलय) का भूकम्प बड़ा ही भयानक है।
    (क़ुरआन 22:1)

    और तुम कदापि अल्लाह को, असावधान (ग़ाफ़िल) न समझो, जो अत्याचारी कर रहे हैं! वह तो उन्हें उस दिन के लिए टाल रहा है, जिस दिन आँखें खुली रह जायेँगी।                                                      (क़ुरआन 14:42)

    तो जिसने एक कण के बराबर भी अच्छा किया होगा, उसे देख लेगा और जिसने एक कण के बराबर भी बुरा किया होगा, उसे देख लेगा।
    (क़ुरआन:99 7-8)

    3. अक्सर इंसान दुनियाँ में किसी ताकतवर व्यक्ति से डरने के कारण अन्याय का साथ देता है या सत्य का साथ नहीं देता। इस पर भी ईश्वर (अल्लाह) ने मनुष्य जाति को अपने डर के ज़रिए प्रेरणा दी है कि उसे सत्य का साथ देने में किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है।

    ….तो उनसे न डरो तथा मुझ ही से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।
    (क़ुरआन 3:175)

    …तुम भी लोगों से न डरो, मुझ ही से डरो..
    (क़ुरआन 5:44)

    4. इसके अतिरिक्त इस सम्बंध में अरबी का लफ्ज़ “तक़वा” सबसे सटीक व्याख्या करता है जो इन सभी अर्थों को लिए हुए है जैसे “शील, धर्मपरायणता, पुण्यशीलता, धार्मिकता, ईश्वर भक्ति” आदि अतः ऐसा डर जो तक़वे एवं तमाम अच्छे कर्मों के लिए प्रेरित करता है।

    हे ईमान वालों! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ देने वाले रहो तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इसपर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थातः सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निःसंदेह तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति जानता है।
    (क़ुरआन 5:8)

    हे ईमान वालों! अल्लाह से डरो तथा सही और सीधी बात बोलो। 
    (क़ुरआन 33:70)

    ❇️ अल्लाह की रहमत से उम्मीद-

    यानी क़ुरआन हमें सिखाता है कि बन्दा अपने ईश्वर से प्रेम करें उसकी नाफरमानी करने से डरता रहे और यदि फिर उस से कोई कोताही / गलती होती है तो क़ुरआन हमें अपने ईश्वर से रहमत की उम्मीद रखना सिखाता है।

    (ऐ रसूल) तुम कह दो कि ऐ मेरे बन्दों जिन्होने (गुनाह करके) अपनी जानों पर ज्यादतियाँ की हैं तुम लोग ख़ुदा की रहमत से नाउम्मीद न होना बेशक ख़ुदा (तुम्हारे) कुल गुनाहों को बख्श देगा वह बेशक बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है।
    ( क़ुरआन 39:53)

    अतः क़ुरआन में हमें बिल्कुल स्पष्ट और सही ढंग से सीखा दिया गया कि एक बन्दे का अपने ईश्वर के प्रति कैसा ताल्लुक होना चाहिए।

    जिसके अभाव में इंसान या तो सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम तो कभी सिर्फ़ डर ही डर के सिद्धान्त में पड़कर ग़ुमराह होता है।

     

  • कुरआन किसने लिखा ?

    कुरआन किसने लिखा ?

    जवाब:-  चूंकि अधिकांश धर्मग्रंथ इंसानों द्वारा लिखे गए हैं जैसे गॉस्पेल ऑफ जॉन, गॉस्पेल ऑफ मार्क, श्रीरामचरितमानस आदि को क्रमशः जॉन, मार्क, तुलसीदास ने लिखा था। वैसे ही क़ुरआन के बारे में समझ लिया जाता है कि क़ुरआन को मुहम्मद (स.अ.व.) ने लिखा है जबकि ऐसा नहीं हैं।

    आप (स.अ.व.) तो उम्मी थे यानी की पढ़-लिख नहीं सकते थे जैसा की क़ुरआन में लिखा है :-

    और (ऐ रसूल) क़ुरआन से पहले न तो तुम कोई किताब ही पढ़ते थे और न अपने हाथ से तुम लिखा करते थे ऐसा होता तो ये झूठे ज़रुर (तुम्हारी नबुवत में) शक करते।
    (क़ुरआन 29:48)

    अतः क़ुरआन मुहम्मद (स.अ.व.) ने नहीं लिखा बल्कि यह उनपर नाज़िल (अवतरित) हुआ है।

    जैसा कि अल्लाह त’आला ने क़ुरआन में बताया –
    “(ऐ रसूल) तुम (साफ) कह दो कि इस (क़ुरआन) को तो रुहलकुदूस (जिब्रिल) अपने रब की तरफ़ से लेकर आते थे।”
    (सुरः नहल : 102)

    यानी कि अल्लाह ने क़ुरआन, जिब्रिल (जो कि अल्लाह के 1 फ़रिश्ते हैं) अलैहिस्सलाम के ज़रिए मुहम्मद (स.अ.व.) पर नाज़िल किया है। जब भी अल्लाह का हुक्म होता था जिब्रिल क़ुरआन की आयतें लेकर मुहम्मद (स.अ.व.) के पास आते और उन्हें उसका ज्ञान करवा देते थे। पूरा क़ुरआन एक बार में नहीं बल्कि थोड़ा-थोड़ा 23 वर्ष के अंतराल में अवतरित हुआ।

    क़ुरआन का जमा करवा देना, पढ़वा देना और उसकी मुश्किलात को समझा देना भी अल्लाह ने अपने ज़िम्मे ही लिया था।
    (क़ुरआन 75:16-19)

    जो कि मुहम्मद (स.अ.व.) के जरिये मुकम्मल (सम्पन्न) कर दिया गया।

  • इस्लाम और अंगदान।

    इस्लाम और अंगदान।

    जवाब:-  यह आई टी सेल (IT Cell) की फेक न्यूज (Fake News) फैक्ट्री से निकली कई झूठी पोस्टो में से 1 है। इसके साथ ही ये झूठा प्रचार (Fake Propaganda) भी किया जाता है कि मुस्लिमों को रक्त दान करना मना है। जबकि मुस्लिम युवाओं द्वारा रक्त दान की न्यूज हर अख़बार में आसानी से मिल जाती है साथ ही कई ख़बरे अंतर्धार्मिक अंग दान की भी मिल जाती हैं। पिछले दिनो ही हिन्दू-मुस्लिम दंपत्तियों द्वारा आपस में किडनी दान की ख़बर ख़ूब चर्चित रही थी।

    दूसरी बात यह कि एम्स #AIIMS ने इस तरह का कोई भी आंकड़ा कभी जारी नहीं किया है और ना ही धार्मिक / जातीय आंकड़े जारी होंगे।

    तीसरी बात यह कि देह दान / ऑर्गन दान करने और ना करने के पीछे धार्मिक / सामाजिक कारण नहीं होते है, बल्कि जागरूकता होती है।

    जैसे-जैसे जागरूकता बड़ रही है वैसे-वैसे ही देह दान / ऑर्गन दान (Body / Organ donation) में वृद्धि हो रही है। आजकल देह दान सिर्फ़ बड़े शहरों में ही हो रहा है, क्योंकि वहाँ जागरूकता है। छोटे शहरों में देह दान / ऑर्गन दान नहीं हो रहे। (पढ़ने वाले अपने परिवार या आसपास में देख ले कि कितने अंग दान हुए हैं)

    चौथी बात यह कि इस्लाम में अंग दान करने की मनाही नहीं है और विश्वभर में मुस्लिम विद्वान एवं प्रमुख संस्थानों ने इस पर विस्तार में फतवे दिए हैं और लोगों को इसके लिए प्रेरित भी किया जा रहा है। यदि अंग दान करने से किसी की जान बचती है या प्रमुख जीवन रक्षक फायदा होता है तो यह एक बहुत सवाब (पुण्य) का काम भी है।

    जैसा क़ुरआन 05:32 में स्पष्ट कहा गया है “जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव में, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यों को..”

    यह अवश्य है कि शरीर अल्लाह की दी हुए नेअमत है अतः अंग दान करने की तो इजाज़त है लेकिन बेचने की नहीं।

    पांचवा पॉइंट, सामान्य बुद्धि से सोचने का है की जितने भी मुस्लिम देश है, वहाँ भी रिसर्च के लिए मृत शरीर और अंग (Organ) की ज़रूरत तो होती ही होगी। तो क्या वहाँ मृत शरीर (Dead body) दूसरे देशों से आयत होती होगी..? सम्भव ही नहीं है। अतः स्पष्ट है की इसके लिए उस देश के जागरूक लोग ही अपना अंग दान करते हैं।

    वैसे इस तरह की झूठे मैसेज भेजने का मकसद अंग दान (Organ Donation) के प्रति जागरूकता पैदा करना नहीं बल्कि मुस्लिमों के प्रति नफ़रत फैलाना होता है।

    जैसा इसमें लिखा है की बुरा मुसलमान आतंकी बनता है और अच्छा उसका समर्थक। अब जबकि “आतंकी यानी मुस्लिम” इस झूठ की पोल पूरी तरह खुल चुकी है।

    देश में ही कई मुस्लिम नौजवान जिन्हें आतंकी गतिविधियों के नाम पर पकड़ा था, उनमें से कई बाइज्ज़त बरी हो चुके है और कई होने वाले है। यही कहानी वैश्विक स्तर पर भी है। गौरतलब है की मुस्लिम युवकों पर थोक में आतंकी धारा लगा दी जाती है। जबकि बड़े-बड़े देश विरोधी और आतंकी घटनाओ को अंजाम देने वाले दूसरे धर्म के लोगों पर यह टैग कभी लगाया नहीं जाता।

    ▪️ उक्त पोस्ट में ये भी इलज़ाम है कि “क़ुरआन में देना लिखना भूल गए और लेना लिखा है” नऊजूबिल्लाह।

    इस तरह की बकवास सिर्फ़ अज्ञानता का ही द्योतक है। क्योंकि क़ुरआन में 33 मर्तबा ज़कात का ज़िक्र है इसके अलावा फ़ितरा, सदका यानी अन्य तरह के दान के लिए तो दर्जनों बार आदेश है।

    अभी कोरोना लॉकडाउन में ही पूरे देश ने देखा किस तरह महामारी के दौर में जहाँ सबको अपनी जान की फ़िक्र थी वहीं मुस्लिम युवाओं ने मज़दूरों, बेसहारा और ज़रूरत मन्दो की दिल खोल कर हर तरह से मदद की।

    अतः ज्ञात हुआ की यह झूठा मैसेज सिर्फ़ मुस्लिमों की छवि को खराब कर लोगों को इस्लाम के ख़िलाफ भड़काने के लिए लिखा गया एक प्रचार (प्रोपेगेंडा) मात्र है।

     

     

     

  • हज के बारे में झूठ का जवाब।

    जवाब:- एक पोस्ट “हज में ऊँटनी प्रेम कथा” के नाम पर हज के समय ऊँटनी के साथ सहवास का निराधार आरोप लगाया जा रहा है।

    इस तरह की पोस्ट पर वैसे तो कुछ भी लिखने कि कोई ज़रूरत नहीं होती है। क्योंकि एक समझदार इंसान इसको पढ़ कर ख़ुद ही समझ लेगा कि ये झूठ है। जिसका हक़ीक़त से कोई वास्ता नहीं है।

    इतना बुद्धिहीन फेक मैसेज होने के बावजूद गलतफहमी निवारण ग्रुप इसका जवाब उन लोगों के लिए लिख रहा है, जिनका दिमाग़ इस तरह कि कई नफरती फेक मैसेज के आधार पर इतना कुंद हो चूका है कि वे सच और झूठ में अंतर ही नहीं कर पाते है।

    दूसरा मकसद इस जवाब का इस और ध्यान दिलाना है कि इस्लाम में पाकीज़गी, शील, शिष्टता एवं लज्जा के कितने उच्च पैमाने हैं। जिसमें किसी तरह की निर्लज्जता की कोई जगह नहीं है। इन उच्च आदर्शों को छुपाने के लिए इस्लाम से नफ़रत रखने वाले इस पर घिनौने मनगढ़ंत आक्षेप करते हैं ताकि लोगों का इस तरह ध्यान ना जाए और वे इस्लाम से आकर्षित होने की बजाए दूर रहें।

    आइए संक्षिप्त में देखते हैं :-

    इस्लाम में पवित्र समाज और चरित्र के निर्माण के लिए औरतों और मर्दो दोनों के लिये हिजाब का हुक्म है। यहाँ तक कि बदनज़री और अपनी आंखों तक कि हिफाज़त करने का आदेश दिया गया है ताकि किसी भी तरह की बेपर्दगी और बेहयाई के दर्शक तक ना बनें।

    फ़रमाया क़ुरआन में –

    आप ईमान वालों से कह दीजिए कि वह अपनी निगाहों को नीचा रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाजत करें। यह उनके लिए ज़्यादा पाक़ीज़ा बात है। बेशक अल्लाह तआला को पूरी ख़बर है उन कामों की जो वह करते हैं।
    (सूरह नूर: 30)

    और फ़रमाया

    और तुम ज़िना (नाजायज सम्बन्ध, व्यभिचार) के करीब भी न जाओ। वह बेहयाई का काम और बुरा तरीक़ा है।
    (सुरह बनी इसराईल: 32)

    यानी की नाजायज़ सम्बन्द्ध बनाने तो बहुत दूर, ऐसे किसी भी कृत्य जो आपको इस ओर लेकर जाए उससे दूरी तक बनाने का हुक्म दिया गया है। (..करीब भी ना जाओ)

    इस्लाम में यह बातें सिर्फ़ आदेशों तक ही सीमित नहीं रखी गई बल्कि इन को अमल में लाने के पूरे प्रावधान हैं। जैसे जहाँ पर्दे के हुक्म हैं वही इन आदेशों को ना मानने वालों और व्यभिचार करने वालों को सख्त सज़ा, जिसमें कोड़े लगाने से लेकर मृत्युदण्ड तक देने का भी प्रावधान है।
    देखें (सुरः नूर आयत 2)

    सामान्य बुद्धि की बात है कि जिस धर्म में औरत-आदमी के बीच ही अनैतिक सम्बन्धों की सख्त मनाही हो और उस पर सख्त सज़ा का प्रावधान हो वहाँ अप्राकृतिक यौन सम्बन्द्ध (समलैंगिकता, पशु सम्बंध, आदि अन्य किसी भी प्रकार के) कितना बड़ा अपराध होगा ? लेकिन फिर भी यह लोग अपना यह घटिया निराधार आरोप सिद्ध करने के लिए कुछ भी झूठे और मनगढ़ंत हवाले लिख देते हैं जिनकी सत्यता कुछ नहीं होती है।

    जबकि यदि आप ख़ुद इस्लाम का अध्ययन करेंगे तो आप पाएंगे कि इस्लाम में हर तरह के अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध के हराम (मना / वर्जित) होने के अनेक हवाले मौजूद है साथ ही यह और भी बड़ी श्रेणी का अपराध है। जैसे:-

    *और लूत को भी हम ही ने फ़हमे सलीम और नबूवत अता की और हम ही ने उस बस्ती से जहाँ के लोग बदकारियाँ करते थे नजात दी इसमें शक नहीं कि वह लोग बड़े बदकार आदमी थे।*
    (क़ुरआन 21 :74)

    (कौम-ए-लूत के लोग अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध बनाते थे और उन्होंने ही इसकी शुरुआत की इसलिए इस कृत्य को कौम-ए-लूत के कृत्य के नाम से जाना जाता है।)

    इब्ने अब्बास से रिवायत है कि फ़रमाया सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने… लानत है उन लोगों पर जो जानवरों के साथ यौन सम्बन्ध बनाये, लानत है उन लोगों पर जो कौम-ए-लूत का कृत्य करें…
    (सहीह अल जामी 5891)

    और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से रिवायत हदीस सुन्न अबु दाऊद नम्बर 38 : 4447 में इस कृत्य (अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों) की सज़ा को मृत्युदण्ड बताया गया है।

    इस तरह हमने जाना कि एक घटिया कृत्य जो इस्लाम में पूर्ण रूप से वर्जित है उसे ही इस्लाम के अहम अरकान हज से जोड़ कर इस्लाम जैसे पाकीज़ा (पवित्र) धर्म की ग़लत छवि बनाने का कुप्रयास किया गया।
    ताकि लोग सत्य से दूर रहे हैं और नफ़रत में ही जीते रहें।