Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • इस्लाम और ब्लड डोनेशन।

    इस्लाम और ब्लड डोनेशन।

    जवाब:- इस्लाम में ब्लड डोनेशन जाइज़ है। बल्कि इसके ज़रिये अगर किसी की जान बचती है यह बहुत अज्र और सवाब (पुण्य) का काम भी है।

    जैसा फ़रमाया क़ुरआन में :-
    “..जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव में, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यों को…”
    (क़ुरआन 5:32)

    यानी कि इस्लाम में किसी की जान बचाना की इतनी अहमियत और अज्र है जैसे उसने तमाम मनुष्यों की जान बचाई हो।

    इस्लाम सभी मामलों में स्पष्ट मार्गदर्शन करता है ऐसे ही ब्लड डोनेशन के बारे में भी यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह इतनी मात्रा या स्थिति में नहीं हो कि ख़ुद रक्त दान करने वाली की जान ही मुसीबत में पड़ जाए।

    जैसे फ़रमाया क़ुरआन में –

    “..अपने ही हाथों से अपने-आपको तबाही में न डालो..”
    (क़ुरआन 2:195)

    “..और आत्म हत्या न करो, वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे लिए अति दयावान् है।..”
    (क़ुरआन 4:29)

    साथ ही खून, अल्लाह की दी हुए नेअमत है इसे दान करने की तो इजाज़त है लेकिन बेचने की नहीं ।

    लिहाज़ा मालूम हुआ कि इस्लाम में किसी की जान बचाने या अहम ज़रुरत के लिए ब्लड डोनेट करना जिससे ब्लड देने वाले कि भी जान पर ख़तरा ना हो बिल्कुल जाइज़ है, बल्कि बहुत अज्र और सवाब का काम भी है।

    यही कारण है कि विश्वभर में हर जगह मुस्लिम ब्लड डोनेट करते हैं फिर चाहे वह सीधे तौर पर जान पहचान वाले के लिए हो या ब्लड बैंक में किसी अनजान के लिए जिस के ज़रिए किसी (मुस्लिम, गैर मुस्लिम) का भी लाभ हो।

    अतः अगर कोई यह कह रहा है कि मुस्लिम ब्लड डोनेट नहीं करते या इस्लाम में ब्लड डोनेट करना मना है तो या तो उसे ग़लत जानकारी है या वह जानबूझकर झूठ फैला रहा है।

  • पती की सम्पत्ती।

    जवाब:- इस्लाम में पति की मृत्यु हो जाने पर औरत को उसके पति की सम्पत्ति में से हर हाल में हिस्सा मिलेगा। फिर चाहे उसका 1 बच्चा हो या अधिक हो या एक भी नहीं हो इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

    पति ही नहीं बल्कि इस्लाम तो औरतों को उनके पिता एवं भाई की मृत्यु हो जाने पर उनकी सम्पत्ति में से भी हिस्से का हक़ देता है। जिसका विस्तार में उल्लेख जानने के लिए औरतों का सम्पत्ति में अधिकार नामक पोस्ट पढ़ें।

  • इस्लाम पर बैन?

    जवाब:-  यह पोस्ट ब्रेन वाशिंग कर नफरत फैलाने वाले  उन लेखों की केटेगरी में आता है जिसमें पढ़ने वाले को सामग्री की मात्रा से ही भ्रमित कर दिया जाता है। जहाँ पर कई इधर उधर की दर्जनों बातों को झूठ के साथ मिश्रित कर लेख अत्यधिक लम्बा किया जाता है कि ताकि जवाब ना दिया जा सके और पढ़ने वाले का मैसेज पढ़ते पढ़ते ही दिमाग काम करने की स्थिति में ना बचे और वह आंख बंद कर इनके प्रोपेगंडे का शिकार हो जाये।

    और इस लेख की असल मंशा और षड्यंत्र को समझ ना सके।

    ऐसे ही जब आप इस पोस्ट को जांचेंगे तो जानेंगे कि यह पोस्ट फेक और झूठ का जमावड़ा है ।

    जैसे अंकोला में इस्लाम पर प्रतिबंध लगाना हो या जापान में इस्लाम का प्रचार कानून अपराध होना हो या फ्रांस में एक दिन में 210 मस्जिदों का गिरा देना। यह सब झूठ के सिवा कुछ भी नहीं है।

    जबकि इसके उलट सच्चाई तो यह है कि इनमें से अधिकांश देशों में इस्लाम ही सबसे तेजी से कबूल किया जा रहा है ।

    जैसे:-

    जापान-  यहाँ इस्लाम 11 सदी से फैलना शुरू हुआ। आज दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम है, अभी हाल में ही कई news portal पर खबर भी आई थी, कि जापान में सबसे तेजी से इस्लाम फैल रहा है ।

    ब्रिटेन-  यहाँ भी दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम है, और यहाँ भी तेजी से बड़ रहा है। ब्रिटन में कई प्रमुख पदों पर मुस्लिम पदस्थ हैं और मुसलिम कम्युनिटी बहुत सम्पन्न स्थिति में है। अतः उक्त पोस्ट में बताया गया तथ्य हास्यपद है।

    फ़्रांस-  यहाँ भी दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम है, और यहाँ भी तेजी से बड़ रहा है।

    अमेरिका और इजराइल  इन देशों में भी इस्लाम तेजी से बड़ रहा है, अमेरिका में 16 सदी में इस्लाम आ चूका था और 9/11 के बाद सबसे तेजी से बढ़ रहा है। जबकि इजराइल में 17 सांसद मुस्लिम है।

    चीन-  यहाँ भी इस्लाम 6 सदी में आ चूका था। चीन में 80 मिलियन के लगभग मुस्लिम रहते है। ये सच है, कि वहाँ धार्मिक आज़ादी नहीं है, लेकिन वह सिर्फ इस्लाम ही नहीं बल्कि सभी धर्मो के ऊपर लागू होती है।

    इसके आगे पोस्ट की एक और अतार्किकता और विशेषता यह कि जिन जगहों पर मुस्लिमो पर अत्याचार हो रहा है या वे परेशान है उन जगहों का उल्लेख भी इस तरह से कर दिया गया की उसके पीछे भी मुस्लिम ही जिम्मेदार हो।

    इसके आगे हम पोस्ट में देखते है कि झूठ की भरमार है जैसे मनमर्ज़ी के आरोप लगाना और उन्हें फिर खुद सिद्ध भी कर देना जैसे मुस्लिम भारत माता का अपमान करते हैं वगैरह वगैरह। ऐसी ही दर्जनों अनर्गल बातें और फिर यह कहना कि मुस्लिम भारत में असुरक्षित महसूस करते हैं।

    इस बारे में अगर हम गौर करें तो पाएंगे की USCIRF जो कि एक स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग है, के अनुसार भारत में अल्पसंख्यको पर हमले को देखते हुए CPC (Country of Particular Concern) यानी विशेष चिंता वाले 14 देशों में से 4 स्थान पर रखा है। इसी तरह *(world religious intolerance)* का विश्लेषण करने वाली वैश्विक संस्था *Pew research center analysis report* में 2017 की रिपोर्ट में विश्व के 198 देशों में भारत को 4 थे नम्बर पर रखा था। इसकी माने तो विश्व में अल्पसंख्यको पर धर्म के कारण हो रहे अत्याचार में भारत 4 थे नम्बर पर है यानी उस आयोग के अनुसार भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं है। इसका कारण माब्लिंचिंग, दंगे, नेताओं के भड़काउ बयान जिसमें किसी समाज कि महिलाओं को बलात्कार कि धमकी, पुरे परिवार को 6 साल के बच्चे सहित जिन्दा जलाना और इन सबके आरोपी का संसद में पहुँचना रहा।

    इन सब के बावजूद देश के मुस्लिमों ने तो कभी ऐसा नहीं कहा कि वे भारत में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। लेकिन देश के हर एक नागरिक की क्या यह जिम्मेदारी नहीं बनती की वह इस ओर ध्यान दे कि यह क्या हो रहा है ? और इसके खिलाफ आवाज़ उठाए। वैसे बताने की ज़रूरत नहीं की इन सब के पीछे इस तरह के नफरत फैलानी वाली पोस्टे ही वजह बनती हैं जिनके शिकार हमारे बहुसंख्यक हो जाते हैं ।

    जैसा शुरू में कहा गया कि कई इधर उधर की बात जोड़ कर अंत में मैसेज वंदे मातरम करके ख़त्म किया जाता है ।

    एक समझदार व्यक्ति को इशारा ही काफी होता है और वह इसी से यह समझ जाता है कि इस प्रोपेगंडे कि असल मंशा बस यह साबित करना है कि मुस्लिम हर हाल में ग़लत है और मुस्लिम विरोध ही राष्ट्र प्रेम है और इसी में उन्हें उलझाए रखने के प्रयास किये जा रहे हैं ।

    जो कि अब लोगो को धीरे धीरे समझ आने लगा है।

  • मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    मदरसों को सरकार से आर्थिक मदद मिलती है मगर किसी हिन्दू संस्थान को नहीं?

    जवाब:- यह कहना बिल्कुल ही निराधार और झूठ है कि किसी भी हिन्दू संस्थान को सरकार से पैसा नहीं मिलता। ऐसे सैकड़ों हिंदू संस्थान है जिन्हें सरकार से पैसा और अनुदान मिलता है। सिर्फ़ पिछले साल ही ऐसे 736 संस्थान सरकारी मदद (पैसो) के लिये रजिस्टर किये गए जिन्होने ख़ुद को संघ की विचारधारा से प्रेरित बताया। ऐसे सभी संस्थाओं की लिस्ट भारत सरकार की नीति आयोग की अधिकृत वेबसाइट पर जाकर देखी जा सकती है।

    इन संस्थाओं के अलावा बात करें तो कुंभ, सिंहस्थ व अन्य धार्मिक मेलों के आयोजन एवं अमरनाथ, वैष्णो देवी आदि यात्रा के प्रबंध व स्टाफ आदि में हज़ारों करोड़ रुपये सरकार ही ख़र्च करती है। इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है क्योंकि सरकार का काम ही जनकल्याण होता है। लेकिन इन सभी तथ्यों को छुपा कर मात्र मुसलमानो के खिलाफ जो प्रोपेगेंडा किया जाता है वह ग़लत है।

    अब बात करें मदरसों की तो आज हम देखे की किस तरह शब्दो की हेराफेरी कर झूठ फैलाया जाता है। जहाँ क्षेत्रीय भाषा के सरकारी स्कूलों को उनकी भाषा के नाम से जाना जाता है जैसे मराठी, संस्कृत, गुजराती स्कूल आदि वहीं उर्दू भाषा वाले सरकारी स्कूलों को उर्दू स्कूल की जगह जानबूझ कर मदरसा कह दिया जाता है। इसी तरह उर्दू बोर्ड को मदरसा बोर्ड कह दिया जाता है और ऐसा बताया जाता है कि सरकार मदरसों को पैसे दे रही है या मदरसा-शिक्षको को तनख्वाह दे रही है। जबकि इन स्कूलों में कई शिक्षक तो हिन्दू या दूसरे धर्म के होते हैं जैसे अन्य दूसरे सरकारी स्कूलों में होते है।

     

    जबकि मदरसे जिनसे धार्मिक शिक्षा स्थानों का मतलब लिया जाता है वह सभी स्वायत्तशासी (Autonomous) ही होते हैं और समाज के ज़कात औऱ सदकों से चलते हैं। जिनमें ज़्यादातर ग़रीब-बच्चे पढ़ते हैं जिनके रहने खाने की व्यवस्था भी ख़ुद मदरसे वाले करते हैं और ऐसा कर वह सरकार का सहयोग ही करते हैं क्योंकि हर गरीब बच्चे की शिक्षा और पोषण की ज़िम्मेदारी सरकार की भी होती है।

    धार्मिक शिक्षा के अलावा कई मदरसों में स्कूली और प्राथमिक (Primary) शिक्षा भी दी जाती है। जिसके ख़र्च भी अधिकांशतः मदरसे ख़ुद ही उठाते हैं और आम शिक्षा के लिए सरकार से दी जा रही मदद को भी नहीं लेते। जैसे दारुल उलूम देवबंद से जुड़े 3000 मदरसों ने प्राइमरी शिक्षा के लिए भी सरकार से किसी तरह की मदद लेने से इनकार कर दिया। ऐसा ही अधिकांश मदरसों ने किया।

    अतः मालूम हुआ कि मदरसे न केवल ख़ुद मुस्लिमो के ख़र्च से चलते हैं बल्कि गरीब बच्चो की आम शिक्षा के लिए जो सरकार प्रावधान करती है उसे भी छोड़ कर देश हित में योगदान करते हैं।

    अब अंत में वक्फ बोर्ड और उस से जुड़े कर्मचारियों की तनख्वाह के बारे में जानते हैं। यह जानना तो खुद मुस्लिमो के लिए बड़ा रोचक है कि पूरे भारत में रेलवे के बाद अगर किसी संस्था के पास ज़मीन है तो वह *वक्फ* के पास है यानी मुसलिम कौम की ज़मीन है। आज देश में ज़मीन सबसे महंगा सरमाया है और वह भी इतनी बड़ी मात्रा में होने के बावजूद मुस्लिमो की आर्थिक हालात देश में सबसे खराब है।

    बड़े ताज्जुब की बात है कि देश भर के प्राइम लोकेशन पर ज़मीनों की मालिक कौम के लोगों के पास ही रहने के लिए घर नहीं है ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि इस ज़मीन से मुसलिम समाज को कोई फायदा ही नहीं मिल रहा। बल्कि अक्सर लोगों को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं है। देश भर की प्राइम लोकेशन वाली वक्फ की जमीनों पर ज़्यादातर कब्ज़ा हो चुका है। यह ज़मीन आपसी रज़ामन्दी से सरकारी बिल्डिंगे बन चुकी हैं और रजामंदी किसकी? यह इन्हीं कुछ लोगों की जिन्हें ख़ुद सरकार ने वक्फ की ज़मीन की देखभाल के नाम पर नियुक्त (Appoint) कर रखा है।

     

    ऐसे ही जहाँ भी किसी समाज की ज़मीन है और उस के संचालन के लिए सरकार ने कुछ लोगों को नियुक्त कर उन्हें तनख्वाह देती है दरअसल इससे समाज का नहीं बल्कि नेताओ और सरकारों का ही भला होता है।

     

    जबकि कुछ लोगों को नियुक्त कर तनख्वाह देने की बजाय अगर पारदर्शिता से इस वक्फ की ज़मीन का सही उपयोग किया जाए तो वह सही मायनों में मुस्लिम समाज की मदद एवं न्याय होगा।

  • क्या कुरआन की आयतें दूसरे धर्म वालों से हिंसा प्रेरित करती हैं?

    क्या कुरआन की आयतें दूसरे धर्म वालों से हिंसा प्रेरित करती हैं?

    जवाब:- क़ुरआन के बारे में दुष्प्रचार फैलाने का यह तरीक़ा बहुत ही पुराना है कि क़ुरआन की जिन आयतों में जंग के मैदान में अत्याचारियों के प्रति युद्ध का जिक़्र (उल्लेख) है उन आयतों को अलग-अलग सूरतों (अध्यायों / पाठों) में से और अलग-अलग जगह से सन्दर्भ के बाहर (Out of context) निकाल कर ऐसा दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन हिंसा के लिए प्रेरित करता है।

     

    जबकि जब आप इन आयतों को इनके सन्दर्भो के साथ पढ़ेंगे या आगे पीछे की आयत ही पढ़ लेंगे तो आप जान लेंगे की यह दावा कितना झूठा है।

     

    जैसे उदाहरण के तौर पर क़ुरआन 9:5 का हवाला देकर यह कहा जाता है कि क़ुरआन गैर मुस्लिमों को मारने का हुक्म देता है। जबकि इसकी अगली और पिछली आयात यानी 9: 4 और 9: 6 ही पढ़ लेने से इसका सन्दर्भ पता चल जाता है कि यह युद्ध के मैदान की आयत है और उसमें भी अल्लाह का हुक्म यह है अगर इस (युद्ध के) दौरान भी अगर कोई मुस्लिमों से पनाह (शरण) मांगे तो उसे पनाह दी जाए।

     

    दरअसल सिर्फ़ क़ुरआन ही नहीं बल्कि विश्व के हर प्रमुख धर्म ग्रन्थ में इस तरह की बातें, यानी की युद्ध के मैदान, अत्याचार और अत्याचारियों के विरुद्ध मौजूद हैं। लेकिन अगर इसी तरह इन ग्रन्थों से इन श्लोकों / आयतों / वर्सेज को सन्दर्भ के विपरीत (Out of context) अलग-अलग निकाल कर एक जगह इकट्ठा कर दिखाया जाए। तो *विश्व का हर धर्म ग्रन्थ हिंसा को बढ़ावा देता दिखाई देगा।

    और ऐसे ही क़ुरआन की इन 24 आयतों के बारे में किया जाता रहा है। हालाँकि यह स्वाभाविक है कि इस तरह तो प्रथम दृष्टया (Prima facie) कोई भी इन्हें पढ़कर ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाएगा। लेकिन अगर वह क़ुरआन और मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी का अध्ययन करेगा तो वह ज़रूर सच जान लेगा।

    उदाहरण के तौर पर: ऐसे ही 1950 के दौरान फैलाए जा रहे इसी कुप्रचार का शिकार होकर स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य ने इस्लाम को हिंसा और आतंकवाद से जोड़ते हुए इस्लाम के ख़िलाफ लिखी जिसका आधार यही 24 आयतों के प्रति कुप्रचार रहा लेकिन जब उन्हें बाद में सत्य का ज्ञान हुआ तो उन्होंने ख़ुद अपनी लिखी किताब पर खेद व्यक्त करते हुए उसे शून्य घोषित किया और ईश्वर से माफी मांगते हुए किताब लिखी “इस्लाम आतंक या आदर्श?”

    उसकी प्रस्तावना में उन्होंने लिखा (उन्हीं के शब्दों में)

    मैंने कई साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज मधोक का लेख “दंगे क्यों होते हैं?’’ पढ़ा था। इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण क़ुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फरमान बताए गए थे। लेख में क़ुरआन मजीद की वे आयते भी दी गई थी।

     

    *इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट (पर्चा) ‘क़ुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलंबियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं’ किसी व्यक्ति ने मुझे दिया। इसे पढ़ने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि मैं क़ुरआन पढूं। इस्लामी पुस्तकों की दुकान से क़ुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला।*

     

    क़ुरआन मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिली, जो पैम्फलेट (पर्चे) में लिखी थी। इससे मेरे मन में यह ग़लत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम हैं। दिमाग़ भ्रमित हो चुका था, इसलिए हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी।

    इस्लाम, इतिहास और आज की घटनाओं को जोड़ते हुए मैने एक पुस्तक लिख डाली ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास’ जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद “The History Of Islamic Terrorism” के नाम से सुदर्शन प्रकाशन, सीता कुंज, लिबर्टी गार्डेन, रोड नम्बर-3, मलाड (पश्चिम), मुंबई -400064 से प्रकाशित हुआ।

    हाल ही में मैने इस्लाम धर्म के विद्वानों (उलेमा) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस्लाम प्रेम,सद्भावना व भाईचारे का धर्म है। किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम धर्म के विरूद्ध हैं। आतंकवाद के ख़िलाफ फतवा (धर्मादेश) भी जारी हुआ।

    इसके बाद मैंने क़ुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से सम्पर्क किया, जिन्होने मुझे बताया कि क़ुरआन मजीद की आयत भिन्न-भिन्न तत्कालीन परिस्थितियों में उतरी।

    इसलिए क़ुरआन मजीद का केवल अनुवाद ही न देखकर यह भी देखा जाना ज़रूरी हैं कि कौन-सी आयत किस परिस्थिति में उतरी, तभी उसका सही मतलब और मकसद पता चल पाएगा।

    साथ ही ध्यान देने योग्य हैं कि क़ुरआन इस्लाम के पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) पर उतारा गया था। अत: क़ुरआन को सही मायने में जानने के लिए पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी हैं। विद्वानों ने मुझसे कहा, ‘‘आपने क़ुरआन मजीद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब से लिया हैं, वे आयतें उन अत्याचारी काफ़िर और मुशरिक लोगों के लिए उतारी गई जो अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) से लड़ाई करते और मुल्क में फसाद करने के लिए दौड़ते फिरते थे। सत्य धर्म की राह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरूद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फरमान हैं।’’

    उन्होने मुझसे कहा कि इस्लाम की सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद की पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरे क़ुरआन मजीद के साथ हजरत मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी भी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते।

    मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैने सबसे पहले पैगम्बर हजरत मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नजरिए से जब मन की शुद्धता के साथ क़ुरआन मजीद शुरू से अन्त तक पढ़ा, तो मुझे क़ुरआन मजीद की आयतों का सही मतलब और मकसद समझ में आने लगा।

    सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का एहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी उक्त किताब ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास’ में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा हैं जिसका मुझे हार्दिक खेद (दुःख) हैं और इसलिये मैं अपने भुल एवं दुःख व्यक्त करते हुए फिर से एक नयी पुस्तक लिखी जिसका नाम है “इस्लाम आतंक या आदर्श?” इस पुस्तक में मैंने इस्लाम के अपने अध्ययन को बखूबी पेश किया है।

    और साथ ही मैं अल्लाह से, पैगम्बर मुहम्मद (स.अ.व.) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूँ। जनता से मेरी अपील हैं कि मेरी पहली पुस्तक ‘इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास पुस्तक में जो लिखा हैं उसे शून्य समझें और मेरी नयी पुस्तक “इस्लाम आतंक या आदर्श?” का अध्ययन करें और साथ ही अन्य लोगों तक पहुँचाए, धन्यवाद।। (स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य)

    वैसे तो हर व्यक्ति को ख़ुद क़ुरआन और मुहम्मद (स.अ.व.) की जीवनी का स्वयं अध्ययन करना चाहिए लेकिन जो इतना समय न निकाल सके और इन 24 आयतों को लेकर भ्रम की स्थिति में है उसे कम से कम स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य की लिखी इस किताब का ज़रूर अध्ययन करना चाहिए जो कि बहुत ही आसानी से हर जगह उपलब्ध है।

  • काबे की ओर सजदा क्यों?

    काबे की ओर सजदा क्यों?

    जवाब:- बेशक अल्लाह तो हर दिशा का मालिक है। 

    और पूरब व पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह) है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है।

    (क़ुरआन 2:115)

    लेकिन अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम और आसानी करते हुए उनके लिए एक क़िबला (Direction) मुकर्रर कर दिया ताकि वे जब भी, जहाँ कहीं भी हों, नमाज़ अदा करें तो सभी 1 ही Direction में अदा करें। ताकि किसी तरह के इख्तिलाफ (मतभेद) या Confusion की गुंजाइश ना रहे।

    (हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो। तथा (हे मुसलमानों!) तुम जहाँ भी रहो, उसी की ओर मुख किया करो…

    (क़ुरआन 2:144)

    इस्लाम एकता और अनुशासन (Discipline) का प्रतीक है। मुस्लिम दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करते हैं जो कि सामूहिक रूप से अदा करना श्रेष्ठ है। यदि कोई क़िबला मुकर्रर नहीं किया गया होता तो कोई किधर चेहरा कर के नमाज़ अदा करता तो कोई किसी दूसरी ओर। जिस से जमाअत से नमाज़ पढ़ना मुमकिन नहीं हो पाता और हर वक्त मतभेद और Confusion की स्थिति बनी रहती। इसलिये अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम करते हुए उनके लिए एक क़िबला मुकर्रर किया और उसी ओर चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया। अतः अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए विश्व भर में जहाँ कहीं भी नमाज़ अदा करते हैं तो काबे की दिशा में करते हैं।

    ➡️ इसी संबंध में ग़लतफ़हमी और अज्ञानता के चलते कुछ गैर मुस्लिम यह समझ लेते हैं कि काबे कि इबादत (पूजा/उपासना) की जाती है। जबकि मुस्लिम काबे कि इबादत नहीं करते हैं ना ही उसे पूजनीय समझते हैं।

    ▪️काबा के मुकाम पर स्थित *“हजरे-अस्वद” (काले पत्थर)* से संबंधित दूसरे इस्लामी शासक हज़रत उमर (रज़ि.) से एक कथन उल्लिखित है। हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक “सहीह बुख़ारी” भाग-दो, अध्याय-हज, पाठ-56, हदीस न. 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया–

    “मुझे मालूम है कि (हजरे-अस्वद) तुम एक पत्थर हो। न तुम किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हो और न नुक़सान और मैंने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुम्हें छूते (और चूमते) न देखा होता तो मैं न तो कभी तुम्हें छूता (और न ही चूमता)।”

    ▪️इसके अलावा लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे:-

    अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में तो लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे। यह बात इतिहास से सिद्ध है। अब जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुसलमान काबा की उपासना (इबादत) करते हैं उनसे पूछना चाहिए कि भला बताइए तो सही कि कौन मूर्तिपूजक मूर्ति पर चढ़कर खड़ा होता है।

    ▪️इस बात में किसी प्रकार का संदेह बाकी ना रहे इसीलिए मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन काल में ही अल्लाह ने तहविले क़िबला (क़िबले का बदलना) कर यह बात ख़ुद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा से प्रैक्टिल कर सबके सामने स्पष्ट कर दी गई, की जब आप मक्का में थे तब अल्लाह का आदेश बैतूल मुकद्दस की तरफ़ चेहरा कर नमाज़ पढ़ने का था। आप मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना तशरीफ़ ले जाने के एक साल बाद तक इस हुक्म पर अमल होता रहा। फिर अल्लाह ने क़िब्ले को बदलने का हुक्म दिया जिसे  तहविले क़िबला कहा जाता है और फिर मुसलमानो ने काबे की तरफ चेहरा कर नमाज़ पढ़ना शुरू की।

    जिस से साबित हो गया कि मुसलमान ना काबे को पूजनीय समझते हैं ना पूजते हैं यह तो सिर्फ़ अल्लाह का आदेश है उसने जिधर रुख करने का कहा उस तरफ़ रुख कर नमाज़ की जाती है।

    और अंत में इस सम्बन्ध में कुर’आन की यह आयत ही पर्याप्त है: –

    नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुँह मशरिक या मग़रिब की तरफ़ कर लो, मगर नेकी यह है जो ईमान लाए अल्लाह पर और यौमे आखिरत पर और फरिश्तों और किताबों पर और नबियों पर, और उस (अल्लाह) की मुहब्बत पर माल दे रिश्तेदारों को और यतीमों और मिस्कीनो को और मुसाफिरों को और सवाल करने वालों को और गर्दनों के आज़ाद कराने में, और नमाज़ काईम करें और ज़कात अदा करें, और जब वह अहद करें तो उसे पूरा करें, और सब्र करने वाले सख्ती में और तकलीफ में और जंग के वक़्त, यही लोग सच्चे हैं, और यही लोग परहेज़गार हैं।

    (क़ुरआन-2:177)

     

  • इस्लाम का थॉट प्रोसेस क्या है ?

    इस्लाम का थॉट प्रोसेस क्या है ?

    जवाब: यहाँ शब्दो की हेराफेरी कर लोगों को गुमराह करने का एक कुप्रयास किया गया है लेकिन झूठ का पर्दाफाश होना निश्चित है।

    क्या इस्लाम और क़ुरआन, मनुष्य को अपना दिमाग लगाने, विचार करने, विवेक का इस्तेमाल करने के लिए आमन्त्रित करता है?

    निश्चित ही क़ुरआन और इस्लाम में इस बात पर जितना ज़ोर दिया गया है किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिया गया।

    और वे कहेंगे, “यदि हम सुनते या बुद्धि से काम लेते तो हम दहकती आग में पड़ने वालों में सम्मिलित न होते।”

    (क़ुरआन 67:10)

    इसके साथ ही सूरहः अन-नहल 16:12, सूरहः अल-बकरह: 2:164, सूरहः अल-अम्बिया 21:30, सूरहः अल-मा’ईदा 5:58, सूरहः अल-बकरह: 2:44 आदि एवं हदीसों में बार बार मनुष्य को बुद्धि से काम लेने और तर्क करने का कहा गया है।

    अतः यह कहना कि इस्लाम में सोचने की मनाही है, एक तथ्यहीन बात है।

    ▪️ अब बात करते हैं बिदअत की, तो बिदअत का मतलब दिमाग लगाना नहीं होता बल्कि अपनी मर्ज़ी से बिना किसी आधार के धर्म में कोई बात जोड़ देना और ऐसा समझना कि यह ईश्वर की तरफ़ से है या धर्म का हिस्सा है, उसे बिदअत कहते हैं।और यही अंधविश्वास धर्म ग्रंथो में मिलावट का कारण, और अन्य कुरीतियों का कारण होता है जिससे तमाम दूसरे धर्म आज जूझ रहे है और उन्हे ये मानना पढ़ता है कि हमारे धर्म ग्रँथों में एवं धार्मिक मान्यताओ में मिलावट हो चुकी है।

    अतः बिदअत को समझना एवं इससे बचना ही विवेकशीलता और बुद्धि का प्रयोग है।

    पुनः ईमान वाला निर्णय कैसे लेता है, इस के बारे में घूमते-घुमाते यह बताने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इस्लाम में कोई थॉट प्रोसेस (सोचने कि शक्ति/प्रक्रिया) ही नहीं है बल्कि थॉट की जगह ही नहीं है जबकि कमाल की बात यह है कि इनके ख़ुद के पूरे विवरण से ही समझ आ जाता है कि इस्लाम में कितना विस्तार में थॉट प्रोसेस दिया गया है।

    इस्लाम तो सभी के लिए तार्किक, सर्वमान्य एवं सटीक थॉट प्रोसेस देता है जो कि सिर्फ़ मुस्लिम के लिए ही नहीं बल्कि विश्व में किसी भी धर्म में विश्वास करने वाले को सोचने, समझने और सही आचरण करने के लिए प्रेरित करता है।

     

    1. इंसान अंधविश्वास में बाप दादा से चली आ रही प्रथाओं पर ही आँख बंद कर ना चलता रहे। सबसे पहले अपने बुध्दि एवं विवेक का इस्तेमाल करें एवं धर्म ग्रन्थ को पढ़े, उसे परखे और जाने क्या यह सही है?? क्या वाकई में यह ईश्वर के द्वारा है अथवा नहीं है?

    यदि ना, तो उसे छोड़े और सत्य की खोज जारी रखे और यदि हाँ, और उसे विश्वास हो कि यही ईश्वर की वाणी है तो फिर उस धर्म को स्वीकार कर उसका पालन करें।

     

    1. अपनी बुद्धि एवं विवेक से मान ले कि यह ईश्वरीय धर्म है तो फिर पता करें की ईश्वर ने उसे क्या आदेश दिए हैं और उनका पालन करें ना कि किसी कथित धर्म गुरु की बात पर आँख बंद कर अमल करता रहे की यह ईश्वर का आदेश है।

     

    1. यह पता करने के लिए वह ख़ुद ईश्वर की किताब देखे की, उसमें क्या आदेश है?

     

    1. यहाँ आवश्यक है कि वह अपनी बुद्धि एवं विवेक से यह ज्ञात करें की कहीं उस किताब ही में तो मिलावट नहीं हो गई है जो मूल रूप से ईश्वर ने भेजी थी?? मिलावट प्रायः बिदअत के द्वारा ही होता है जो इस्लाम में पूर्ण निषेध है। क्योंकि अगर किताब में ही मिलावट है तो फिर ना तो वह ईश्वर की वाणी हो सकती है ना उस पर आधारित वह धर्म, ईश्वरीय धर्म हो सकता है।

     

    1. अतिरिक्त मार्गदर्शन के लिये वह यह भी ज्ञात करें कि ईश्वर ने जिस सन्देष्टा के द्वारा यह किताब और सन्देश भेजे, उन्होने लोगों को किस तरह इसका पालन कर के दिखाया था। अतः सही बात मालूम हो सके ना कि लोगों के कथन/विवरण से की जिस की जो मर्ज़ी हो उसकी वह व्याख्या कर दी और फिर उस पर ही रीत चल पड़ी।

     

    और यह सब पता करना इस्लाम में सम्भव है कि इस्लाम में किताब, नबी की शिक्षा, सारे रिकॉर्ड और अमल पूरी तरह संग्रहीत एवं सुरक्षित हैं।

     

    दरअसल यही बुध्दि एवं विवेक की पराकाष्ठा है कि इस्लाम में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है बल्कि सभी को इस बात का निमन्त्रण है कि विवेक का इस्तेमाल करें और ख़ुद जाने और सत्य को स्वीकार करने का साहस करें। इस्लाम में सोच की प्रक्रिया एकदम स्पष्ट है।

    लेकिन सोचना तो आपको चाहिए कि यदि आप किसी धर्म का पालन करते हैं और फिर भी सभी निर्णय अपने मन से लेते हैं और इस बात को ज़रूरी ही नहीं समझते की वह यह पता करें कि ईश्वर का इस बारे में क्या मार्गदर्शन है?

    तब या तो

    1. आप जिस धर्म को मानते हैं उस धर्म में ईश्वर ने आपको कोई मार्गदर्शन ही नहीं किया है। ईश्वर आपको धरती पर भेजे और कोई मार्गदर्शन ही ना करें ऐसा हो ही नहीं सकता।

    या फिर

    1. आपके धर्म ग्रँथ में मार्गदर्शन तो मौजूद है लेकिन आप उसे पालन करने योग्य नहीं समझते। अतः जब वह मार्गदर्शन ही पालन योग्य नहीं है तब वह ईश्वर की तरफ़ से कैसे हो सकता है?? यानी सम्भवतः यह मिलावट है।

     

    आरोप प्रत्यारोप तो चलते रहेंगे, आप विवेक का उपयोग करें। अगर आप आस्तिक हैं तो आपके लिए आवश्यक है कि ईश्वर के सत्य की खोज कर अपने मरणोपरांत जीवन के बारे में चिंता करें और इस बारे में सोचें ज़रूर “क्योंकि मृत्यु सभी की निश्चिंत है”, और बुध्दि का प्रयोग यही बताता है कि सबसे अहम यह सोच विचार करना है कि जीवन में आने का उद्देश्य क्या था? और मरने के बाद क्या होना है?

     

    क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नहीं किया? अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है। किन्तु बहुत-से लोग अपने प्रभु के मिलन का इनकार करते है।

    (क़ुरआन 30:8)

     

  • औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    औरत को इद्दत में क्यों रहना पड़ता है?

    जवाब:- सबसे पहले हम यह जानते हैं कि इद्दत क्या है और कब लागू होती है?

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर इद्दत का मतलब उस अवधि / मुद्दत / समय से है जिसमे औरत को दूसरी शादी करने से पहले अपने घर में कुछ समय गुज़ारना होता है। उसके बाद ही वह दूसरी शादी कर सकती है। आधुनिक सोच के अनुसार ये बात समझ में नहीं आती है कि सिर्फ़ औरत को ही इद्दत में क्यों रहना होता है? लेकिन जब हम सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं तो पता चलता है कि ईद्दत का समय कितना महत्वपूर्ण है और औरत के लिए यह हर तरह से फायदेमंद एवं ज़रुरी है।

     

    ❇️ *पवित्र क़ुरआन के अनुसार*

     

    “ऐ नबी! जब तुम लोग स्त्रियों को तलाक़ दो तो उन्हें तलाक़ उनकी इद्दत के हिसाब से दो और इद्दत की गणना करो और अल्लाह का डर रखो, जो तुम्हारा रब है। उन्हें उनके घरों से न निकालो और न वे स्वयं निकलें, सिवाय इसके कि वे कोई स्पष्ट अशोभनीय कर्म कर बैठें। ये अल्लाह की नियत की हुई सीमाएँ हैं और जो अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो उसने स्वयं अपने आप पर ज़ुल्म किया। तुम नहीं जानते, कदाचित इस (तलाक़) के पश्चात अल्लाह कोई सूरत पैदा कर दे”

    (क़ुरआन सूरह 65:01)

     

    ➡️ औरत को इद्दत दो कारणों से गुज़ारनी होती है।

     

    1) पति की मृत्यु के कारण:-

    और तुममें से जो लोग बीवियाँ छोड़ के मर जाएँ तो ये औरतें चार महीने दस रोज़ अपने को रोके (और दूसरा निकाह न करें) फिर जब (इद्दत की मुद्दत) पूरी कर ले तो शरीयत के मुताबिक़ जो कुछ अपने हक़ में करें इस बारे में तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है और जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा उस से ख़बरदार है।

    (क़ुरआन सूरह 2:234 )

     

    2) तलाक़ या खुलअ (औरत ख़ुद तलाक़ ले) के कारण:-

    तलाक़ / खुलअ पर 3 हैज / महावारी / Monthly cycles तक ईद्दत होगी।

    “और जिन औरतों को तलाक़ दी गयी है वह अपने आपको तलाक़ के बाद तीन हैज़ के ख़त्म हो जाने तक निकाह सानी से रोके और….”

    (क़ुरआन सूरह 02: 228)

     

    पति की मृत्यु / तलाक़ पर अगर औरत गर्भवती है तो बच्चे के पैदा होने के समय तक अधिकतम 9 महीने।

     

    ▪ और तुम्हारी स्त्रियों में से जो हैज से निराश हो चुकी हों, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी इद्दत तीन मास है और इसी प्रकार उनकी भी जो अभी हैज से नहीं हुई और जो हामेला (गर्भवती) हो उनकी इद्दत बच्चे के पैदा होने तक है। जो कोई अल्लाह का डर रखेगा उसके मामले में वह आसानी पैदा कर देगा।”

    (क़ुरआन सूरह 65:04)

     

    ▪️ *शादी हुई लेकिन शारीरिक संबंध नहीं बने और इससे पहले ही तलाक / खुलअ या पति की मृत्यु हो गई तो कोई इद्दत नहीं।

    (क़ुरआन सूरह 33:49)

     

    ✔️ इद्दत के सामाजिक और वैज्ञानिक कारण

     

    1) औरत अगर गर्भ से हो तो उसके गर्भ का पता चल जाये। ताकि बच्चे के पिता पर गर्भावस्था और उससे सम्बन्धित सभी खर्च, ज़िम्मेदारी आदि लागू हो। अगर इद्दत ना हो तो ऐसा हो सकता है कि तलाक के कुछ माह बाद गर्भ उजागर हो और फिर उसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई ना हो ।

     

    2) पहले शौहर से बच्चा हो तो बच्चे की वंशावली की पहचान हो। साथ ही होनेवाले बच्चे को अपने पिता की सम्पत्ति में से हिस्सा मिले फिर चाहे उसकी माँ से तलाक ही क्यों ना हो गया हो।

     

    3) औरतो में भावनात्मक पहलू अधिक प्रबल होते है, तलाक़ या पति की मृत्यु के बाद उसकी मानसिक अवस्था को दुरुस्त होना ज़रूरी है। ताकि वह अपने नए परिवार में एडजस्ट (Adjust) हो सके।

     

    4) अगर 3-मंथली साइकल नहीं गुज़ारती है और इसके पूर्व ही अगर शादी कर दूसरे मर्द से सम्बन्ध बनते हैं तो यौन रोग (Sexually transmitted disease) हो सकते है।

     

    5) इद्दत का समय गुज़रने के बाद औरत के गर्भाशय और यौनांगों में पूर्व के पति के शुक्राणु, DNA के कोई अंश नहीं रहते जिससे होने वाले बच्चे का वंशावली (Lineage) स्पष्ट होता है और साथ ही औरत और मर्द दोनों ऐड्स और ऐसी अन्य दूसरी बीमारी से पूर्ण रूप से सुरक्षित हो जाते हैं।

     

    इस तरह इस्लाम इस दुनिया के इंसानो का पथप्रदर्शन / रहबरी तब से कर रहा है, जब आधुनिक विज्ञान का वजूद ही नहीं था और आज साइन्सी दृष्टिकोण विकसित हो जाने के बाद उसके कई फायदे और सार्थकताएँ उजागर हो रही है। जो की इस्लाम के सच्चे और उसके ईश्वरीय धर्म होनी की बड़ी दलील है।

  • आंदोलन में औरतें नमाज़ कैसे पढ़ सकती हैं?

    आंदोलन में औरतें नमाज़ कैसे पढ़ सकती हैं?

    जवाब*:-सर्वप्रथम तो यह गलतफहमी दूर करें कि प्रैक्टिकल इस्लाम अलग और थियोरेटिकल अलग है। इस्लाम पूरा का पूरा प्रैक्टिकल मज़हब है। आमतौर से इस तरह के तुलना का मकसद यह होता है कि जो चीज थियोरेटिकल हो उस पर अमल करना असंभव होता है। लेकिन इस्लाम के किसी एक हुक्म को भी अंकित नहीं किया जा सकता जिस पर किसी भी परिस्थिति में अमल करना असम्भव हो जाये।

     

    बल्कि इस्लाम की ईश्वरीय धर्म होने की यह भी विशेषता है कि इंसान को बनानें वाले ईश्वर को इंसान के सामने आने वाले सभी परिस्थितियों का निश्चय ही ज्ञान है और इसलिये उसने अपने आदेशों के पालन में लचीलेपन (flexibility) की वुसअत रखी ताकि किसी परिस्थिति में उनका पालन करना असंभव ना हो जाये।

     

    जैसे नमाज़ पढ़ना हर बालिग मुसलमान के लिए हर हाल में फ़र्ज़ (अनिवार्य) है जो कि खड़े होकर पढ़ी जाती है। लेकिन यदि कोई बीमारी के कारण खड़ा नहीं हो सकता तो फिर उसके लिए यह आसानी है कि वह बैठ कर पढ़े। यदि बैठ कर भी पढ़ने की स्थिति नहीं तो फिर लेट कर पढ़े।

     

    नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया : (खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, यदि तुम इसमें सक्षम न हो तो बैठकर नमाज़ पढ़ो और यदि इसमें भी सक्षम न हो तो पहलू पर (लेटकर) नमाज़ पढ़ो।”

    (सहीह बुखारी:1066, सुनन इब्ने माजा:1224)

     

    दूसरी बात यह कि इस्लाम में औरतों को मस्जिदों में प्रवेश की मनाही नहीं है। लेकिन पर्दे का एहतेमाम और मर्दो और औरतों का पृथक होना अनिवार्य है। हर मस्जिद और अन्य जगहों में इसकी व्यवस्था होना सम्भव नहीं इसीलिए औरतों का घर में नमाज़ पढ़ना अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) और बेहतर है।

     

    जैसा कि

    नबी पाक सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम फरमाते हैं:-औरत के लिए सेहन में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के अंदर नमाज पढ़ना है और घर में नमाज पढ़ने से बेहतर घर के सबसे अंदरूनी कमरे में नमाज पढ़ना है।

    (अबू दाऊद: 570)

     

    लेकिन इस्लाम सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने का ही हुक्म नहीं देता बल्कि ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ खड़ा होना और उसके ख़िलाफ मुहिम में मैदान में डटे रहने का भी हुक्म देता है।

     

    अब जब लोग ज़ुल्म के ख़िलाफ मैदान में डटते हैं तो ना तो वहाँ घर होता है ना ही मस्जिद तो ऐसे में ज़ाहिर-सी बात है कि वे घर या मस्जिद में जाकर तो नमाज़ अदा नहीं कर सकते। अतः ऐसी स्थिति में बिलकुल वही हुक्म है कि जैसे मजबूरी वश इंसान यदि खड़े होकर नमाज़ नहीं पढ़ सकता तो वह बैठ कर पढ़े उसी तरह अगर वह मैदान में किसी अन्याय या अत्याचार के लिए डटा है तो उसके लिए हुक्म यह है कि वह वहीं कहीं जहाँ मुनासिब हो वहाँ नमाज़ अदा कर ले।

     

    और ऐसा ही मुस्लिम महिलाओं ने कई जगह अन्याय के विरूद्ध आंदोलन में नमाज़ अदा कर किया। ऐसा कर उन्होने इस्लाम के दोनों आदेशों का निर्वाह किया। नमाज़ भी अदा की और अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध अपना विरोध भी दर्ज किया। इसमें कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं हुई।

     

    लेकिन यह देखकर नफ़रत फैलाने वालों को जो तकलीफ हुई थी वह अभी तक दूर नहीं हो पा रही है कि जिन मुस्लिम महिलाओं को वह दबा, कमज़ोर समझ रहे थे उन्होंने कैसे मैदान में निकलकर ना केवल अपना विरोध दर्ज किया साथ ही नमाज़ अदा कर अपने धर्म के पालन में कोई कोताही भी नहीं की।

     

  • इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम में औरतों कि वह इज़्ज़त और एहतराम है जिसका और कहीं तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं किया जा सकता इस्लाम ने जहाँ औरतों का मकाम बहुत बुलन्द किया है वहीं कुछ मामलों में उन्हें पुरूषों से भी ज़्यादा तरजीह दी है। यही वज़ह है कि आज सबसे मॉडर्न तरीन समझें जाने वाले यूरोप और अमेरिका में इस्लाम कबूल करने वालों में मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतें हैं। इनमें कई जानीमानी हस्तियाँ भी हैं। अगर इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ कमतर होते तो क्या यह सम्भव था?

     

    इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ और ऊँचे दर्जे की इतनी बातें हैं कि उन सभी का उल्लेख किसी एक पोस्ट में किया जाना असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जा रहा है।

     

    शुरुआत करते हैं आर्थिक पहलू से अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम औरतों को कमाने और काम काज करने का अधिकार नहीं देता और इसी के ज़रिये सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है।

     

    तो सबसे पहले तो यह जान लें कि इस्लाम में औरतों को कमाने की मनाही नहीं है बल्कि इस्लाम में औरतों को कमाने की ज़रूरत ही नहीं है।

     

    इस्लाम औरतों को यह विशेषाधिकार (Privilege) देता है कि उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी हर हाल में पुरुषों (पिता / पति / भाई) के ज़िम्मे है। यह उनका अधिकार है।

     

    इसके बावजूद अगर वे कमाना चाहें तो इस्लाम के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कोई भी जाइज़ कार्य कर सकती है बिल्कुल जैसे मर्द कर सकता है और उनकी उस कमाई में उनका पूर्ण अधिकार है, उसे वे जैसे चाहें ख़र्च करें । जबकि इसके उलट पुरुष अपनी कमाई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य है।

     

    दरअसल बच्चों का 9 महीने अपने गर्भ में रखना और उन्हें जन्म देना एक महान कार्य है जो सिर्फ़ महिलाएँ ही करती हैं और इस्लाम में इसे पूर्ण महत्त्व दिया गया है।

     

    *…उसकी माँ ने दुःख पर दुःख सहकर पेट में रखा (इसके अलावा) दो बरस में (जाकर) उसकी दूध बढ़ाई की (अपने और) उसके माँ बाप के बारे में ताक़ीद की कि मेरा भी शुक्रिया अदा करो और अपने वालदैन का….*

    (सुरः लुक़मान: 14)

     

    इसलिए शादी के मौके पर आदमी को महेर (तोहफे के तौर पर पैसे या कुछ और) भी चुकानी होती है साथ ही उसका व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है। महेर की रक़म औरत की इच्छा पर होती है वह कितनी भी माँग कर सकती है। अतः सीधे तौर पर आर्थिक मामलों में औरतों को मर्दो पर फ़ज़ीलत है।

     

    यह इतना अहम पहलू है कि इसी के इर्दगिर्द ही औरतों की पूरी सामाजिक स्थिति घूमती है। देखते हैं कैसे?

    स्वयं को औरतों की आज़ादी का पैरोकार कहने वाले मर्द प्रधान समाज ने पहले तो औरतों के इस विशेष योगदान को भुला ही दिया और आज़ादी और काम करने के नाम पर उसके ऊपर आर्थिक बोझ भी डाल कर उसे आदमियों के बीच घुमाने और शोषण करने के लिए उपलब्ध करा दिया।

     

    और यह तथ्य सभी के सामने है सभी इसे जानते हैं और जान बूझ कर अनदेखा कर देते हैं ज़्यादा पुरानी बात नहीं है  #Metoo “मी टू “आंदोलन में दुनियाँ भर में छोटे से लेकर बड़े से बड़े स्तर पर हर जगह काम करने वाली औरतों ने कार्यस्थल पर अपने साथ हुए पुरुषों द्वारा ग़लत कृत्यों का खुला बयान किया था। कईयों ने यहाँ तक कहा कि आर्थिक स्थिति के बोझ में दबे होने पर जीवन भर हम शोषण सहते रहे पर कुछ कर ना सके क्योंकि ना कोई सुनने वाला था ना कोई सज़ा देने वाला।

     

    कुछ ही दिनों में पुरुष प्रधान शोषण केन्द्रित व्यवस्था ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल कर भुला भी दिया। लेकिन सच्चाई और इस पश्चिमी कार्य संस्कृति (Western work culture) आधारित व्यवस्था की हक़ीक़त सभी के सामने है। यह औरतों की आज़ादी की व्यवस्था नहीं बल्कि शोषण की सुविधा और व्यवस्था है।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि कोई इसे समझ नहीं पा रहा। ऊपर बताए तथ्य की यूरोप और अमेरिका जैसे मॉडर्न मुल्कों में औरतों के तेज़ी से इस्लाम कबुल करने का यह भी एक अहम कारण है कि वे इस बात को समझ रहे हैं कि इस्लाम में औरतों को पैसों की तरह मर्दो के हाथों में घूमने जैसा नहीं बल्कि उसे तिजोरी में रखे कीमती हीरे की तरह बनाया है।

     

    ऐसे ही हर मामले में इस्लाम उच्च अधिकार देता है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं –

     

    ❇ वंशानुक्रम (विरासत) का अधिकार:-

     

    कुछ धर्मों के अनुसार, एक महिला को विरासत में कोई अधिकार नहीं है। लेकिन इन धर्मों और समाजों के विपरीत, इस्लाम में महिलाओं को विरासत में हिस्से का अधिकार है।

     

    ❇ अपनी पसंद के मुताबिक शादी का अधिकार:-

     

    पति की पसंद:- इस्लाम ने अपने पति को चुनने में महिलाओं को बहुत स्वतंत्रता दी है। शादी के सम्बंध में लड़कियों की इच्छा और उनकी अनुमति सभी मामलों में आवश्यक घोषित की गई है।

     

    ❇ तलाक का अधिकार:-

    इस्लाम ने औरत को खुलअ का हक़ दिया है कि अगर उसके पास ज़ालिम और अक्षम पति है तो पत्नी निकाह को ख़त्म करने का ऐलान कर सकती है और ये अधिकार अदालत के ज़रिए लागू होते हैं।

     

    ❇ अभिव्यक्ति और अपनी राय रखने का अधिकार:-

    एक अवसर पर, हज़रत उमर (रजि॰) ने कहा: “तुम लोगों को चेतावनी दी जाती है औरतों की महेर ज़्यादा ना रखो।….

    हजरत उमर (रजि॰) को इस तकरीर पर एक औरत ने भरी मजलिस में टोका और कहा कि आप यह कैसे कह सकते हो? हालांकि अल्लाह तआला का इरशाद है

     

    और तुम औरतों को ढेर सारा माल (महेर) दो तो उससे कुछ भी वापस ना लो।

    (सुरः निसा: 20)

     

    जब अल्लाह तआला ने जाईज़ रखा है कि शौहर महेर में ढेर सारा माल दे सकता है तो तुम उसको मना करने वाले कौन होते हो? हजरत उमर (रजि॰) ने यह सुनकर फरमाया :”तुम में से हर एक उमर से ज़्यादा जानकार है”। उस औरत की बात का सम्मान किया गया। हालांकि हजरत उमर (रजि॰) उस वक़्त के खलीफा और बादशाह थे।

     

    इससे पता चलता है कि महिलाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लाम में कितना अधिकार है।

     

    इसके अलावा भी कई अधिकार हैं जैसे सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार एवं बहुत से।

    यही नहीं औरतों को और भी कई तरह से इस्लाम में मुकद्दस मकाम दिया गया है। जैसे कई धर्म और मान्यताओं के अनुसार औरतों से दूरी बनाना, औऱ कुँवारा रहना ईश्वर के पास उच्च दर्जा प्राप्त करने का ज़रिया समझा जाता है। जबकि इस्लाम में इस तरह की भावना को कोई जगह नहीं दी गई और विवाह के लिए प्रेरित किया गया।

    इस सम्बंध में, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :

     

    शादी मेरी सुन्नत है। जो मेरी सुन्नत से भटकता है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।

    (इब्ने माजा 1919)

     

    और सिर्फ़ शादी ही नहीं बल्कि इससे आगे बीवियों से अच्छे व्यवहार को अनिवार्य किया गया:- आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:

     

    आप में से सबसे अच्छा वही है जो अपनी पत्नियों के लिए सबसे अच्छा है और मैं अपने घर वालों के लिए सबसे बेहतर हूँ।

    (तिर्मिज़ी 3895)

     

    इसके अलावा भी औरतों से अच्छे सुलूक की कई आदेश दिए गए यहाँ तक कि क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया

     

    *और औरतों के साथ भलाई से ज़िदगी बसर करो। अगर वह तुमको पसंद ना हो तो हो सकता है तुम एक चीज पसंद ना करते हो और अल्लाह तआला उसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दे।

    (सुरः निसा)

     

    और यह सब हुक़ूक़ भी इस्लाम ने आज नहीं बल्कि 1400 साल पहले ही दे दिए गए जब औरतों को तो जीने तक का अधिकार नहीं दिया जाता था और ज़िंदा दफ़न तक कर दिया जाता था (आज भी महिला भ्रूण हत्या कई जगह की जाती है)। जिसे इस्लाम ने सख्त तरीन अपराध बताया और ऐसा करने वालों को क़यामत के दिन सख्त सज़ा से आगाह किया।

     

    “और जब ज़िन्दा दफ़न की हुई लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस गुनाह की वज़ह से क़त्ल की गई।”

    (सूरः तकवीर 81:8,9)

     

    उस दौर में ही इस्लाम ने औरतों को ना केवल ऐसे हालात से निकाला बल्कि ता क़यामत तक के लिए उनके मर्तबे को उच्च कर दिया।

     

    जहाँ माँ के कदमो के नीचे जन्नत बताया गया तो वहीं बेटियों को मर्तबा इतना अहम बताया गया उनकी परवरिश पर जन्नत की बशारत दी गई।

     

    मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है-

     

    जिसके 3 लड़कियाँ हो फिर तंगदस्ती, ग़रीबी, मुहताजी और खुशहाली व बदहाली में इन्तेहाई सब्र और बर्दाश्त के साथ उनका लालन पालन और देखरेख करें तो अल्लाह उसको सिर्फ़ इसलिए जन्नत में दाखिल फरमाएगा कि उसने उनके साथ रहमों करम का मामला किया है। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! जिसके दो बेटियाँ हों? आप ने फरमाया- जिसके दो बेटियाँ हों वह भी। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि जिसके एक बेटी हों? आपने फरमाया- और एक बेटी वाला भी।”

    (मुसनद अहमद 8425)

     

    जैसा कि पहले कहा गया कि इतनी बातें हैं कि एक पोस्ट में कही ही नहीं जा सकती, चुनाव करना तक मुश्किल है। अतः इस से यह अंदाज़ तो हो ही जाता है कि इस्लाम में औरतों को क्या मुकाम है और इस्लाम पर औरतों के बारे में झूठे आक्षेप लगाने वालों की सच्चाई पता चलती है।