Tag: ईस्लाम

  • क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    क्या फ्रांस को दारुल हर्ब घोषित कर देना चाहिए?

    जवाब:- दारुल हर्ब की आप ने मनगढ़ंत ही कोई व्याख्या कर रखी है जिसकी बुनियाद पर आप कुछ भी निष्कर्ष निकालते रहते हैं। तो पहले तो यह जान लें कि इस तरह की व्याख्याओं और प्रावधान का ही कोई आधार नहीं है।

    दूसरी बात यह भी समझ लें कि इस्लाम कोई ऐसा धर्म नहीं है जो किसी एक मात्र देश या नस्ल का हो। जिन्हें अगर दूसरे देशों में कोई समस्या आ रही हो तो उन्हें लौट कर अपने देश आ जाना चाहिए।

    तीसरी बात यह की कुछ ओछी मानसिकता वाले जिस तरह से भारत के हर मुस्लिम को हर दूसरी बात पर पाकिस्तान चले जाओ कहते रहते हैं उन्होंने ही अब अपने इस कथन का विस्तार और वैश्वीकरण कर लिया है। अब कहीं भी मुस्लिम अपने पर हो रहे अत्याचार के विरोध में आवाज़ उठाते हैं तो “यही” लोग कहने लगते हैं कि उस देश को छोड़ के चले जाओ। तो आप यह समझ लें कि ना तो आप इस दुनिया के मालिक हैं और ना ही यह कोई तर्क संगत बात है कि अन्याय का विरोध मत करो अपनी समस्या भी मत बताओ और देश छोड़ के चले जाओ। अतः अपनी सोच थोड़ी खुली रखें और थोड़ी परिपक्वता का परिचय दें।

    अंत में यह बात सभी को समझना चाहिए कि भारत देश मैं हिन्दू-मुस्लिमों का साथ सदियों पुराना है। मुस्लिमों का इस देश की प्रगति और हर क्षेत्र में योगदान रहा है फिर चाहे वह रक्षा हो विज्ञान हो चिकित्सा हो कला हो या खेल कूद हो। बेवजह पिछले कुछ वर्षों में अपने ही देश की एक बड़ी आबादी को दुश्मन की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है और बेवजह ही उन्हें शक की नज़र से देखा जा रहा। राजनीतिक मुद्दे से शुरू हुआ यह ज़हर अब बहुत आगे निकल चुका है। इसलिये आप से अनुरोध है कि इसे और हवा देने के प्रयास ना करे जिसके परिणाम देश हित में बिल्कुल भी नहीं होंगे।

  • फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    जवाब:-  चलिए इस बहाने ही सही आपने यह तो माना कि मुसलमानों का क़त्ले आम हो रहा है उन पर अत्याचार हो रहा है। क्या यह आतंकवाद नहीं है? आप फ्रांस में किसी एक शख़्स की मौत हो जाने पर तो अपना पूरा समर्थन दे देते हैं उसके लिए प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देते हैं। उसे रोकने के लिए सभी साथ आ जाते हैं। लेकिन ख़ुद आपके अनुसार “मुसलमानों का जो कत्ले आम” हो रहा है उसके खिलाफ कभी एक शब्द नहीं कहते? ना उसका कभी इस तरह का विरोध करते हैं?

    क्या सिर्फ़ इसलिए कि यहाँ मरने वाले मुसलमान हैं? क्या यह ख़ुद आपकी ही ज़ुबान से आपका दोहरा चरित्र उजागर नहीं कर देता?? सवाल तो बनता है।

    अगर हमारी बात करें तो हम ना सिर्फ़ चीन बल्कि म्यांन्मार, फिलिस्तीन, सीरिया तमाम दुनियाभर में मुसलमानों पर आतंकवाद के आरोप की आड़ में हो रहे अत्याचार बल्कि आतंकी हमलों के खिलाफ बोलते भी हैं और उसका विरोध भी करते हैं। लेकिन आप जैसे लोग ही यह बात कभी स्वीकार ही नहीं करते और उन पर हो रहे ज़ुल्म पर आँख बंद कर लेते हैं और दोहरे मापदंड (Double standards) का प्रदर्शन करते हैं।

    रही बात की यह विरोध उस स्तर का क्यों नहीं जिस तरह मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर के मामले में है तो यह बात जग जाहिर है कि एक मुसलमान के लिए उसकी ख़ुद की जान से भी प्रिय मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की शान है। ख़ुद पर हो रहे अत्याचार को एक बार वह ज़रूर सहन कर लेगा या कम आवाज़ उठाएगा लेकिन अपने पैगम्बर के मामले में वह अपने सामर्थ्य से अधिक करने का प्रयास करेगा।

  • फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    जवाब:- बड़े ही अफ़सोस और विडंबना की बात है कि एक संकीर्ण और षड्यंत्रकारी सोच के द्वारा आज देश के मुसलमानों की हर गति विधि, हर काम, उनकी हर समस्या और उनके किसी द्वारा किए गए किसी वैध विरोध को देश विरोधी कार्यवाही बताया जाता है और कुतर्कों के द्वारा सभी को देश विरोधी साबित कर मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाई जाती है। ऐसा ही प्रयास इस बार फ्रांस के कुकृत्य के विरोध के मामले में हो रहा है। जिसे बेवजह ग़लत रूप देकर इसे देश के खिलाफ बताने की कोशिश की जा रही है।

    जहाँ अक्सर लोगों को मालूम ही नहीं है कि मामला क्या है और वे इस तरह के षड्यंत्र में आकर बेवजह ही इसे ग़लत नज़र से देख रहे है और सवाल कर रहे हैं। इसलिए इन सवालों के जवाब देने से पहले आप यह जाने की यह मामला है क्या? और विरोध क्यों हो रहा है? और क्यों आपको भी इस विरोध में शामिल होना चाहिए।

     

    फ्रांस का विरोध क्यों? और क्यों सिर्फ़ मुसलमानों को ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों को इस विरोध में शामिल होना चाहिए?

     

    जो एक बहुत ही असभ्य, गैर ज़िम्मेदाराना और घटिया बात है। इसी के अंतर्गत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर पर दुनिया भर के मुसलमान, फ्रांस के इस घटिया कृत्य का विरोध कर रहे हैं और कुछ लोग सिर्फ़ मुस्लिमों से नफ़रत में इतने अंधे हो चुके हैं कि वह बिना कुछ जाने ही फ्रांस का इस बात पर समर्थन कर रहे हैं। वह यह अच्छी तरह से समझ लें कि फ्रांस का यह विधान “बोलने की स्वतंत्रता” सिर्फ़ मुसलमानों और इस्लाम के लिये नहीं है। यह तो हर धर्म के भगवान, महा पुरुषों का अपमान और अश्लील चित्रण द्वारा धार्मिक भावनाओं को आहत करने की छूट देता है। आज इस्लाम धर्म के पैग़ंबर का अपमान किया गया है कल हिन्दू, सिख व अन्य किसी दूसरे धर्मों के बारे में भी यही बात हो सकती है। इसीलिए फ्रांस के इस घटिया विधान का सभी को विरोध करना चाहिये।

     

    और यदि आप ऐसा नहीं कर रहे या फ्रांस का इस बात में समर्थन कर रहे हैं तो इसका मतलब यह होगा की आपको इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि कोई आपके धर्म, आस्था, चिन्हों आदि का कैसा भी अपमान करे। आप को इस पर कोई आपत्ति नहीं है और आप इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि सभी को यह करने की छूट होना चाहिए।

     

    अतः अब आप ख़ुद तय कर लें कि आपको इस बारे में फ्रांस का समर्थन करना चाहिए या उसका विरोध?

  • ISIS के झण्डे पर कलमा लिखा होता है मुस्लिम इसका विरोध क्यों नही करते ?

    ISIS के झण्डे पर कलमा लिखा होता है मुस्लिम इसका विरोध क्यों नही करते ?

    जवाब:-  पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी के हर वीडियो की तरह यह विडियो भी झूठ के द्वारा डर और हिंसा भड़का कर समाज में ध्रुवीकरण कर राजनीतिक फायदा उठाने के चतुर प्रयास का उदाहरण है।

    आइए सिर्फ़ सुने नहीं बल्कि ध्यान देकर शब्दों के पीछे के षड्यंत्र और कुतर्कों को समझें और इनकी हक़ीक़त सामने लाएँ।

    सबसे पहले कुलश्रेष्ठ जी ISIS के झंडे पर “पहला कलमा” लिखा है से शुरू करते हैं और बड़ी ही चालाकी से कुछ सेकंड के अंदर ही ISIS के आतंकी शब्द की जगह सीधे “मुसलमान कलमा लिखा झंडा लेकर आतंक कर रहे है” कहने लग जाते हैं और अगले सेकंड में ही उन मुसलमान (जो कि वास्तव में मुस्लिम नहीं है सिर्फ़ हुलिया बना रखा है) को हिंदुस्तान का मुसलमान बना डालते हैं। कमाल है कुछ फ़र्क़ ही नहीं रहा।

    खैर आगे वे कहते हैं चूंकि इस्लामिक नारे का इस्तेमाल हो रहा है और मुसलमान इसका विरोध नहीं कर रहे हैं इसलिए हिंदुस्तान के मुसलमान मक्कार और मुनाफिक है।

    सर्वप्रथम यहाँ पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी ख़ुद को ही अपने ही शब्दों में मक्कार साबित कर रहे हैं क्योंकि यह वह अच्छे से जानते हैं कि ख़ुद हमारे देश में जय श्री राम का नारा लगाने को मजबूर करते हुए लोगों की भीड़ कई निर्दोषो को बाँधकर मौत के घाट उतार देती है उन वीडियो में कई सारे धार्मिक झंडे भी नज़र आते हैं कई सारे लोग धार्मिक नारे लगा रहे होते हैं और ऐसे एक नहीं बल्कि कई सारे मॉब लिंचिंग और दंगों के केस इस देश में हो रहे है तो क्या श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ को शर्म नहीं आ रही?? ख़ुद के आस पास और धर्म से जुड़े मामलों की बात छोड़कर हजारों किलोमीटर दूर किसी घटना का ज़िक्र करके अपने ही देश वालों को आतंकी घोषित कर रहे हैं।

    तो ऐसा करते ही वह ख़ुद अपने ही शब्दों के अनुसार मक्कार निर्लज्ज और झूठे साबित नहीं हो जाते?

    अब आते हैं उनके इस आरोप पर की मुसलमान पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहि व सल्लम के अपमान पर जिस स्तर का विरोध करते हैं वैसे ही ISIS आदि के लिए क्यों नहीं करते?

    पुष्पेंद्र जी तो यह बात भली भांति जानते हैं कि दोनों ही बातों में एक मूल फ़र्क़ है जिसे जानते ही इस प्रोपेगंडे की पोल खुल जाती है लेकिन वह बड़ी चालाकी से इसे लोगों के सामने छुपा जाते हैं। जिसे हमें जानना चाहिए।

    वह यह है कि हज़रत मोहम्मद सलल्लाहो अलैहि व सल्लम के अपमान के मामले में मुस्लिमों ने ही शांति पूर्वक यह अपील की कि आप ऐसा कर हमारी धार्मिक भावना आहत ना करें लेकिन इस अपील पर ना ही वे रुके ना किसी देश / सरकार ने इसे रोकने का प्रयास किया अतः विरोध प्रदर्शन हुए।

    जबकि ISIS के मामले में तो देश / दुनिया की बड़ी-बड़ी मिलिट्री आर्मी उन्हें ख़त्म करने में लगी हुई हैं। उन्हें ख़त्म करने में दुनिया के तमाम संसाधन और ताकत लगा रखी है। अगर इसी तरह का या इससे 100 गुना छोटा प्रयास भी अगर दुनिया ने हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) के अपमान को रोकने में लगाया होता तो मुस्लिमो को किसी तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं करना पड़ता।

    बल्कि इसमें तो बड़े आश्चर्य की बात है कि अमेरिका, रूस जैसे देश इतने सारे मिलिट्री संसाधन लगाने के बावजूद ISIS का खात्मा क्यों नहीं हो पा रहा??

    ISIS मुस्लिम है भी या जैसे बुर्का, टोपी पहनकर गैर-मुस्लिम ग़लत काम करते है उस तरह से कोई अन्य है ताकि मुस्लिमो के खिलाफ नफ़रत का प्रोपेगेंडा चलाया जा सके जो अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रयास है?

    क्योंकि बहुत-सी बातें है जो इस और इशारा करती हैं कि ISIS मुस्लिम संगठन नहीं है। बल्कि मोसाद और CIA के द्वारा खड़ा किया गया लगता है??

    • 1. जैसे ISIS के हमले प्रमुख रूप से मुस्लिम राष्ट्रों पर ही हो रहे हैं जिनमे शिया सुन्नी दोनों मुस्लिम तरह के राष्ट्र शामिल हैं।
    • 2. ISIS के नाम से प्रचारित की गई वीडियो का झूठा (fake) साबित होना जैसा कि अमेरिका के द्वारा 2 लाख $ डॉलर की लागत से फ़िल्माया जाना साबित हुआ।
    • 3. ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह दावा करना कि ISIS को खड़ा करने के पीछे पूर्व राष्ट्रपति ओबामा का हाथ है।

    ऐसे और भी कई तथ्य हैं जो ISIS को मुस्लिम नहीं बल्कि भाड़े के क़ातिल का गुट कह सकते है। इसके बावजूद विश्व भर में मुस्लिमो ने ISIS और इस तरह के सभी आतंकी संस्थाओं का पुरज़ोर विरोध किया है जो श्री पुष्पेंद्र को नहीं दिखता।👇

    विश्व का सबसे बड़ा मदरसा (दारुल उलूम देवबंद) ने फतवा जारी किया👇

    1) https://m.timesofindia.com/india/deoband-first-a-fatwa-against-terror/articleshow/3089161.cms

    2)https://www.hindustantimes.com/delhi/coming-fatwa-against-terrorism/story-EZRGI5IPyMv2e5b8bZ1EUP.htm

    3)https://www.thehindu.com/news/national/darul-uloom-deoband-condemns-alqaeda-move/article6384559.ece

    4)https://www.indiatvnews.com/news/india/madrasasjoin-hands-to-create-awareness-against-isis-55989.html

    • मुस्लिम कार्यकर्ता ने की पेरिस आतंकी हमले की निंदा👇

    • शहर भर के मुस्लिम संगठनों ने घोषणा की कि मुस्लिम कब्रिस्तानों में मारे गए आतंकवादी के लिए कोई जगह नहीं है👇

    https://edition.cnn.com/2009/WORLD/asiapcf/04/17/mumbai.bodies/

    हाँ यह अवश्य है कि पुष्पेंद्र कभी राम और भगवा के नाम पर हो रहे ग़लत कामो के खिलाफ बोलते नहीं दिखे। तो उन्ही के शब्दों में वे क्या हैं यह अब दोहराने की ज़रूरत नहीं।

    उनका नजरिया बिल्कुल यही है।👇

     

    हर धर्म से जुड़े उग्रवादी संगठन अपने नामो में उस धर्म के प्रतीक और चिन्हों का प्रयोग करते हैं जैसे फलाँ सेना ,फलाँ दल आदि तो क्या पुष्पेंद्र हथियार लेकर उन्हें ख़त्म करने चले जाते है?? नहीं ना यह काम तो सेना और सुरक्षा बल का होता है। तो क्या वे यह चाहते हैं कि हिंदुस्तान का मुसलमान हथियार लेकर ISIS आदि का खात्मा करने चले जाएँ? इस तरह की बचकाना बाते और मूर्खतापूर्वक तर्क गंभीर चेहरा बना कर कहने से लोग भड़क जाएंगे और मूर्ख बन जाएंगे ऐसा अब श्रीमान को सोचना छोड़ देना चाहिए।

    क्या नमाज़ डर का प्रतीक है इससे पलायन होता है?

    जिसने भी जीवन में किसी को नमाज़ पड़ते देखा है वह जानता है कि पुष्पेंद्र जी यहाँ कितना बड़ा झूठ रच रहे हैं। नमाज़ कोई उग्र और हिंसक प्रदर्शन नहीं है। अगर पलायन की बात करें तो यातनाओं से दुखी होकर देशभर में जिन जगहों से मुस्लिमो को पलायन करना पड़ा है उसकी लिस्ट इतनी लंबी है कि उल्लेख ही नहीं किया जा सकता। कुछ एक की बात करे तो यू.पी. के श्यामली, तापराना, सम्भल राजस्थान के डाँटल आदि के बारे में पुष्पेंद्र जी का क्या कहना है?? जहाँ से सैकड़ो की संख्या में मुसलमानों ने प्रताड़ना की वज़ह से पलायन किया है।

    फिर भी यहाँ हम बहुसंख्यक को दोष नहीं देंगे। बल्कि इस तरह के सारे पलायनो के ज़िम्मेदार ये ज़हर फैलाने वाले लोग ही हैं जिनकी मंशा वोट की ध्रुवीकरण करने की है। नहीं तो सदियों से साथ रह रहे लोगों को आज क्या हो गया जो डर और असुरक्षा की वज़ह से पलायन करना पड़ रहा है?

    इसी संदर्भ के दौरान पुष्पेंद्र जी की यह बात बड़ी हास्यास्पद है कि वे पूरे देशभर की जगहों की गिनती कराते हुए कहने लगते हैं कि सभी को मालूम है यहाँ ये हो रहा है वहाँ वह हो रहा है।

    अगर सबको मालूम है कि ऐसा हो रहा है, तो फिर आपकी चहेती सरकार कुछ कर क्यों नहीं रही? *क्या अब आप यह मानने पर मजबूर नहीं है कि या तो आपकी प्रिय सरकार अक्षम है, या आप झूठ बोल रहे हैं? या न आप झूठ कह रहे है ना सरकार अक्षम है बल्कि वह तो ख़ुद यह होने दे रही है ताकि आप ऐसे ज़हर फैलाते रहे और उन्हें लाभ मिलता रहे??*

    और अंत में ~सेना के खिलाफ सोशल मीडिया पर कमेंट~

    पुलवामा हमले पर बहुत ही गंभीर सवाल उठे थे जिन पर से ध्यान हटाने के लिए हर बार की तरह पुष्पेंद्र जी के पास एक ही तरीक़ा है वह है मुस्लिम और इस्लाम।

    ज़रा वे यह बताने का कष्ट करेंगे कि जब कफील खान देश की एकता पर भाषण देते हैं तो उसे देश विरोधी बता कर महीनों जेल में रखा जा सकता है NSA जैसे एक्ट लगा दिये जा सकते हैं। तब पुष्पेंद्र जी और उनकी चहेती सरकार उस कॉमेंट जिस का वे ज़िक्र कर रहे हैं पर तो बड़ी से बड़ी कार्यवाही कर सकती थी और ऐसे सभी लोगों पर तो UAPA, POTA लगाया जा सकता था? मगर ऐसा नहीं किया गया तो क्या वे सब IT सेल वाले थे जो मुसलमानों की फ़र्ज़ी id बना कर कमेंट कर गए?? ताकि ध्यान मुख्य मुद्दे से ध्यान हटा कर साम्प्रदायिकीकरण किया जा सके?

    असल बात तो यह है कि किसे नहीं मालूम के पुलवामा से सबसे ज़्यादा लाभ किसे हुआ..?? इंटेलिजेंस की सूचना देने के बाद भी इतना बड़ा हमला क्यों रोका नहीं जा सका.?? सैनिकों को एयरलिफ्ट करने की मांग की जगह बसों से ही क्यों भेजा गया..??

    अब चाहे पुष्पेंद्र जी मुसलमानों को दोष देते रहें, सोशल मीडिया की फ़र्ज़ी कमेंट की बात करते रहे चाहे जो करें आज नहीं तो कल वे ज़्यादा दिन तक अपना प्रोपेगेंडा नहीं चला पाएंगे जनता अब इतनी भी मूर्ख नहीं रही। उन्हें इन सवालों के जवाब देना पड़ेंगे। हर चीज़ में मुस्लिम एंगल लाकर ध्यान बटा कर राज करते रहना अब ज़्यादा दिन चलने वाला नहीं। झूठ और डर की यह दूकान जल्द बन्द होगी।

     

  • क्या सड़कों पर नमाज़ लोगों को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    क्या सड़कों पर नमाज़ लोगों को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    जवाब:-  झूठे हवाले देने में माहिर और अपने आप को इस्लाम का महा ज्ञाता बताने वाले इन महाशय से ज़रा ये पुछिये की क्या वे इस बात का कोई झूठा ही सही मगर कोई हवाला दे सकते हैं कि ऐसा कहाँ लिखा है कि नमाज़ गैर मुस्लिम को डराने के लिए पढ़ी जाती है?

    यह दरअसल पुष्पेंद्र के उस एजेंडे का ही हिस्सा है कि मुस्लिमों के हर कृत्य को ऐसा दिखाओ की मानो वह ऐसा गैर मुस्लिमों को तकलीफ़ देने के लिए या डराने के लिए ही कर रहे हैं। जबकि ऐसा कुछ नहीं है।

    मुस्लिम नमाज़ अल्लाह की रज़ा और ख़ुशनूदी के लिए पढ़ते हैं। नमाज़ पढ़ते हुए कई ग़ैर मुस्लिमों ने अपने मुस्लिम दोस्तो को देखा होगा। नमाज़ बिल्कुल शांति से अदा की जाती है, ना इसमें कोई मूर्ति स्थापित की जाती है, न कोई रंग-रोगन या कोई आग वगैरह लगाई जाती है ना ही ऐसा कुछ और किया जाता है। पूरी नमाज़ में कोई एक भी ऐसा कृत्य नहीं होता जिस से डरना तो दूर किसी दूसरे व्यक्ति को एतराज़ भी हो।

    जिनको शांति से अदा की जा रही नमाज़ ऐसे लग रही है जैसे वह दूसरे धर्म के लोगों को डराने के लिए किया जा रहा है तो फिर वे चौराहों पर होली के दौरान होली दहन, सड़को पर मूर्ति स्थापना, विसर्जन यात्रा, शस्त्र-पूजन और फिर अन्य यात्रा के बारे में क्या कहेंगे?

    अतः यह बेवजह का प्रोपेगेंडा दरअसल धार्मिक नफ़रत और हिंसा भड़काने के मिशन पर लगे यह महाशय कर रहे हैं ।

    दूसरी बात यह कि यह बिल्कुल सत्य है कि किसी को कोई तकलीफ देना इस्लाम में बिल्कुल मना है और आम हालात में कोई भी मस्जिद में जगह होने पर बेवजह सड़क पर नमाज़ नहीं पढ़ता है। ऐसा सिर्फ़ ख़ास अवसरों पर ही भीड़ अधिक हो जाने पर होता है, ठीक वैसे ही जैसे विशेष अवसरों पर मंदिरों के बाहर, या गुरुद्वारों के बाहर हो जाता है।

    इसके अलावा अगर मजबूरी में कही मस्जिद आसपास नहीं हो और कहीं और नमाज़ पढ़ना भी पढ़े तो ऐसी जगह पढ़े जहाँ किसी को तकलीफ़ ना हो। लेकिन अगर कोई बेवजह ही एतराज़ (objection) ले रहा हो तो उसका कोई मतलब नहीं। ऐसे ही झूठे हवाले देने में माहिर श्रीमान कह रहे हैं कि फ़रमाया “कि कहीं भी अगर किसी को डॉट (.) बराबर भी ऑब्जेक्शन हो तो मैं नमाज़ कबूल करूँगा ही नहीं? “तो यह महाशय बताएँ की इसका संदर्भ (रेफरेंस) कहाँ है? कहाँ ऐसा लिखा है? ऐसे तो पुष्पेंद्र जैसे लोगों को तो मस्जिद या घरों में नमाज़ पढ़ रहे लोगों से भी एतराज़ (Objection) होगा तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि कही नमाज़ पढ़े ही नहीं?

    और अंत में पुष्पेंद्र जी ख़ुद इस बात से वाकिफ़ तो होंगे ही की इस देश में मुस्लिमों के वक़्फ़ बोर्ड की कितनी ज़मीन है और उस पर किसका कितना कब्ज़ा किया हुआ है और उनकी प्रिय पार्टी से जुड़े व्यक्ति जिसको वक्फ बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया था उसके ऊपर वक्फ बोर्ड की कितनी ज़मीनो को हड़पने और बेचने का केस चल रहा है?

    अगर वक़्फ़ की यह ज़मीन सही मायनों में मुस्लिमों को प्राप्त हो जाये तो सभी मस्जिदों की इतनी गुंज़ाइश (Capacity) हो जाएगी कि विशेष अवसरों पर भी अधिक भीड़ होने पर भी किसी को बाहर नमाज़ पढ़ने की ज़रूरत नहीं होगी।

  • पुष्पेंद्र के मस्जिद, हज और नमाज़ के बारे में सवाल का जवाब दें?

    पुष्पेंद्र के मस्जिद, हज और नमाज़ के बारे में सवाल का जवाब दें?

    जवाब:-

    पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के हर वीडियो की तरह यह वीडियो भी ब्रेनवॉशिंग का बेहतरीन नमूना है, जिसमे झूठ और जज़्बातों (emotions) का घालमेल कर लोगों को मुस्लिमो से नफ़रत करने और इस्लाम का दुष्प्रचार करने की कोशिश की गई है। किसी समझदार व्यक्ति को यह बताने की ज़रूरत ही नहीं कि इसके पीछे कारण राजनीतिक लाभ है और इससे ही इनकी आजीविका जुड़ी हुई है।

    लेकिन ईश्वर की कृपा से ऐसी तमाम कोशिशों से इस्लाम को तो कुछ नुक़सान नहीं होता बल्कि फ़ायदा ही होता है। क्योंकि इस तरह के झूठ से लोगों की इस्लाम को जानने की जिज्ञासा ही बढ़ती है और कई लोगों ने इसके बाद इस्लाम का अध्ययन कर इस्लाम कबूल किया और ऐसा आज से नहीं बल्कि पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के समय से ही होता आ रहा है और आज भी विश्व में सबसे तेजी से क़बूल किया जाने वाला धर्म इस्लाम ही है।

    अब आइए इस वीडियो में उठाए गए सवालों और कहे गए झूठ की तरफ़ बढ़ते हैं।

    सबसे पहले यह समझें कि इस प्रोपेगंडे से पुष्पेंद्र यहाँ कौन-सा मकसद साधना चाहते हैं?

    थोड़ा ग़ौर करने पर ही आपको समझ में आ जायेगा कि यहाँ उनका मकसद लोगों की नज़र में मस्जिदों की अहमियत कम करके और उन्हें तोड़े जाने को एक सामान्य कार्य सिद्ध करना है ताकि वह लोगों को मस्जिद हटाकर मंदिर बनवाने की राजनीति में ही अगली कुछ सदियों तक फँसा रखे।

    • सवाल 1:- वे कहते हैं “इस्लाम में मस्ज़िद का कोई धार्मिक महत्व नहीं है क्योंकि इसमें अल्लाह की मूर्ति नहीं है। जिस तरह होटल में खाना खाया जाता है। उसी तरह मस्ज़िद में नमाज़ पड़ी जाती है। जैसे होटल को तोड़ कर दूसरी जगह बनाया जा सकता है, उसी तरह मस्ज़िद को तोड़ कर दूसरी जगह बनाया जा सकता है। इसकी दलील है, लोगों का सड़को पर नमाज़ पड़ना।

    जवाब:-

    1. सामान्य बुद्धि (Common sense) से:-

    इस्लाम में मूर्ति पूजा नहीं है, अल्लाह का ना कोई अक्स (आकार) है ना कोई मूर्ति। यह बात तो बिल्कुल ही बुनियादी (Basic) बात है और इसे सभी जानते हैं।

    अब अगर कोई यूँ कहे कि मस्जिद में अल्लाह की कोई मूर्ति नहीं होती इसलिये इस्लाम में मस्जिद की कोई अहमियत नहीं है। तो उसे तो बड़ा ही कम-अक्ल कहा जाएगा।

    और यही काम यहाँ पुष्पेंद्र जी कर रहे हैं। या तो उन्हें इतना भी नहीं पता की इस्लाम में मूर्ति का तसव्वुर ही नहीं है, या वह सामने बैठी जनता को महामूर्ख समझते हैं। यहाँ वे गम्भीर शक्ल बना कर यही बात कह रहे हैं कि “इस्लाम में मस्जिद की अहमियत नहीं है ऐसा इसलिए “क्योंकि वहाँ अल्लाह की मूर्ति नहीं है।”

    भाई, भले ही आप गम्भीर शक्ल बना लें और बड़ी-गम्भीर, बुद्धि-वाली बात कहने की एक्टिंग कर ले, लेकिन फिर भी मूर्खतापूर्ण कही गई बात तो मूर्खतापूर्ण ही रहेगी और ऐसा ही यहाँ हुआ है।

    आपको क़ुरआन या धर्म ग्रन्थों की जानकारी होना ज़रूरी नहीं है बल्कि सिर्फ़ सामान्य बुद्धि (Common sense) का ही उपयोग कर लेने से पता चलता है कि यह व्यक्ति यहाँ जो कह रहा है वह निश्चित ही झूठ होगा क्योंकि जो यह दलील दे रहा है उसका तो कोई औचित्य ही नहीं है।

    2. तार्किकता (Logic) से:-

    पुष्पेंद्र अपनी बात यानी कि “इस्लाम में मस्जिद की कोई अहमियत नहीं है” को साबित करने के लिए दूसरी दलील यह देते है कि मुस्लिमों का सड़को पर नमाज़ पढ़ना । अब ज़रा ग़ौर करे, जब कई धार्मिक अवसरों पर मंदिरों में भीड़ अधिक हो जाती है तो लोग सड़कों तक आ जाते हैं और पूजा आदि में भाग लेते हैं। तो पुष्पेंद्र के इस तर्क (लॉजिक) से तब क्या वे यह कहेंगे कि मंदिरों की हिन्दू धर्म में कोई अहमियत नहीं है?

    अतः उनकी यह दलील ना केवल बेबुनियाद है बल्कि बड़ी ही तर्कहीन (Illogical) भी है और कोई बिना धर्म का ज्ञान रख कर ही अगर लॉजिक का ही इस्तेमाल करे तो समझ लेगा की यह व्यक्ति कैसे वेवजह लोगों का ब्रेन वाश कर रहा है।

    3. इस्लामिक दलीलों से जवाब:-

    वैसे तो पूरी दुनिया ही अल्लाह की है और इस्लाम एक वास्तविक व व्यवहारिक (प्रेक्टिकल) मज़हब है, इसलिये मुस्लिम अगर मस्जिद ना पहुँच पाए तो कहीं भी स्वच्छ जगह पर वह नमाज़ अदा कर सकता है लेकिन इससे मस्जिद की अहमियत कोई कम नहीं हो जाती।

    और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह की मस्जिदों में उसके नाम का वर्णन करने से रोके और उन्हें उजाड़ने का प्रयत्न करे? उन्हीं के लिए योग्य है कि उसमें डरते हुए प्रवेश करें, उन्हीं के लिए संसार में अपमान है और उन्हीं के लिए आख़िरत (परलोक) में घोर यातना है।
    (क़ुरआन 2:114)

    और ये कि मस्जिदें अल्लाह के लिए हैं। अतः, मत पुकारो अल्लाह के साथ किसी को।
    (क़ुरआन 72:18)

    इसके अलावा क़ुरआन की कई आयतों और कई हदीसों से साबित होता है कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का ज़रूरी हिस्सा है। इतना ही नहीं कई हदीसो से यह भी स्पष्ट है कि बिना किसी मजबूरी के अगर कोई शख़्स अपने घर में फ़र्ज़ नमाज पढ़ता है और मस्जिद नहीं जाता तो उसकी नमाज़ होती ही नहीं है।

    हुज़ूर-ए-पाक सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब मक्के से मदीना के लिए जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में सबसे पहले मस्जिद-ए-क़ुबा की स्थापना की थी। इस्लाम की ये पहली मस्जिद मानी जाती है। इसके बाद आपने मदीने में मस्जिद-ए-नबवी की स्थापना की।

    इस्लाम में मस्जिदों का बहुत अहम मर्तबा (विशेष स्थान) है। अतः यह कहना बिल्कुल ही बेबुनियाद और अज्ञानता है कि इस्लाम में मस्जिद की कोई अहमियत नहीं है।

  • इस्लाम और अंगदान।

    इस्लाम और अंगदान।

    जवाब:-  यह आई टी सेल (IT Cell) की फेक न्यूज (Fake News) फैक्ट्री से निकली कई झूठी पोस्टो में से 1 है। इसके साथ ही ये झूठा प्रचार (Fake Propaganda) भी किया जाता है कि मुस्लिमों को रक्त दान करना मना है। जबकि मुस्लिम युवाओं द्वारा रक्त दान की न्यूज हर अख़बार में आसानी से मिल जाती है साथ ही कई ख़बरे अंतर्धार्मिक अंग दान की भी मिल जाती हैं। पिछले दिनो ही हिन्दू-मुस्लिम दंपत्तियों द्वारा आपस में किडनी दान की ख़बर ख़ूब चर्चित रही थी।

    दूसरी बात यह कि एम्स #AIIMS ने इस तरह का कोई भी आंकड़ा कभी जारी नहीं किया है और ना ही धार्मिक / जातीय आंकड़े जारी होंगे।

    तीसरी बात यह कि देह दान / ऑर्गन दान करने और ना करने के पीछे धार्मिक / सामाजिक कारण नहीं होते है, बल्कि जागरूकता होती है।

    जैसे-जैसे जागरूकता बड़ रही है वैसे-वैसे ही देह दान / ऑर्गन दान (Body / Organ donation) में वृद्धि हो रही है। आजकल देह दान सिर्फ़ बड़े शहरों में ही हो रहा है, क्योंकि वहाँ जागरूकता है। छोटे शहरों में देह दान / ऑर्गन दान नहीं हो रहे। (पढ़ने वाले अपने परिवार या आसपास में देख ले कि कितने अंग दान हुए हैं)

    चौथी बात यह कि इस्लाम में अंग दान करने की मनाही नहीं है और विश्वभर में मुस्लिम विद्वान एवं प्रमुख संस्थानों ने इस पर विस्तार में फतवे दिए हैं और लोगों को इसके लिए प्रेरित भी किया जा रहा है। यदि अंग दान करने से किसी की जान बचती है या प्रमुख जीवन रक्षक फायदा होता है तो यह एक बहुत सवाब (पुण्य) का काम भी है।

    जैसा क़ुरआन 05:32 में स्पष्ट कहा गया है “जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव में, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यों को..”

    यह अवश्य है कि शरीर अल्लाह की दी हुए नेअमत है अतः अंग दान करने की तो इजाज़त है लेकिन बेचने की नहीं।

    पांचवा पॉइंट, सामान्य बुद्धि से सोचने का है की जितने भी मुस्लिम देश है, वहाँ भी रिसर्च के लिए मृत शरीर और अंग (Organ) की ज़रूरत तो होती ही होगी। तो क्या वहाँ मृत शरीर (Dead body) दूसरे देशों से आयत होती होगी..? सम्भव ही नहीं है। अतः स्पष्ट है की इसके लिए उस देश के जागरूक लोग ही अपना अंग दान करते हैं।

    वैसे इस तरह की झूठे मैसेज भेजने का मकसद अंग दान (Organ Donation) के प्रति जागरूकता पैदा करना नहीं बल्कि मुस्लिमों के प्रति नफ़रत फैलाना होता है।

    जैसा इसमें लिखा है की बुरा मुसलमान आतंकी बनता है और अच्छा उसका समर्थक। अब जबकि “आतंकी यानी मुस्लिम” इस झूठ की पोल पूरी तरह खुल चुकी है।

    देश में ही कई मुस्लिम नौजवान जिन्हें आतंकी गतिविधियों के नाम पर पकड़ा था, उनमें से कई बाइज्ज़त बरी हो चुके है और कई होने वाले है। यही कहानी वैश्विक स्तर पर भी है। गौरतलब है की मुस्लिम युवकों पर थोक में आतंकी धारा लगा दी जाती है। जबकि बड़े-बड़े देश विरोधी और आतंकी घटनाओ को अंजाम देने वाले दूसरे धर्म के लोगों पर यह टैग कभी लगाया नहीं जाता।

    ▪️ उक्त पोस्ट में ये भी इलज़ाम है कि “क़ुरआन में देना लिखना भूल गए और लेना लिखा है” नऊजूबिल्लाह।

    इस तरह की बकवास सिर्फ़ अज्ञानता का ही द्योतक है। क्योंकि क़ुरआन में 33 मर्तबा ज़कात का ज़िक्र है इसके अलावा फ़ितरा, सदका यानी अन्य तरह के दान के लिए तो दर्जनों बार आदेश है।

    अभी कोरोना लॉकडाउन में ही पूरे देश ने देखा किस तरह महामारी के दौर में जहाँ सबको अपनी जान की फ़िक्र थी वहीं मुस्लिम युवाओं ने मज़दूरों, बेसहारा और ज़रूरत मन्दो की दिल खोल कर हर तरह से मदद की।

    अतः ज्ञात हुआ की यह झूठा मैसेज सिर्फ़ मुस्लिमों की छवि को खराब कर लोगों को इस्लाम के ख़िलाफ भड़काने के लिए लिखा गया एक प्रचार (प्रोपेगेंडा) मात्र है।

     

     

     

  • इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम नारी को समाज में पूर्ण दर्जा नहीं देता है.?

    इस्लाम में औरतों कि वह इज़्ज़त और एहतराम है जिसका और कहीं तसव्वुर (कल्पना) भी नहीं किया जा सकता इस्लाम ने जहाँ औरतों का मकाम बहुत बुलन्द किया है वहीं कुछ मामलों में उन्हें पुरूषों से भी ज़्यादा तरजीह दी है। यही वज़ह है कि आज सबसे मॉडर्न तरीन समझें जाने वाले यूरोप और अमेरिका में इस्लाम कबूल करने वालों में मर्दों से कहीं ज़्यादा औरतें हैं। इनमें कई जानीमानी हस्तियाँ भी हैं। अगर इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ कमतर होते तो क्या यह सम्भव था?

     

    इस्लाम में औरतों के हुक़ूक़ और ऊँचे दर्जे की इतनी बातें हैं कि उन सभी का उल्लेख किसी एक पोस्ट में किया जाना असम्भव है इसलिए उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जा रहा है।

     

    शुरुआत करते हैं आर्थिक पहलू से अक्सर कहा जाता है कि इस्लाम औरतों को कमाने और काम काज करने का अधिकार नहीं देता और इसी के ज़रिये सबसे ज़्यादा ग़लतफ़हमी फैलाई जाती है।

     

    तो सबसे पहले तो यह जान लें कि इस्लाम में औरतों को कमाने की मनाही नहीं है बल्कि इस्लाम में औरतों को कमाने की ज़रूरत ही नहीं है।

     

    इस्लाम औरतों को यह विशेषाधिकार (Privilege) देता है कि उनकी आर्थिक ज़िम्मेदारी हर हाल में पुरुषों (पिता / पति / भाई) के ज़िम्मे है। यह उनका अधिकार है।

     

    इसके बावजूद अगर वे कमाना चाहें तो इस्लाम के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कोई भी जाइज़ कार्य कर सकती है बिल्कुल जैसे मर्द कर सकता है और उनकी उस कमाई में उनका पूर्ण अधिकार है, उसे वे जैसे चाहें ख़र्च करें । जबकि इसके उलट पुरुष अपनी कमाई से अपने परिवार का भरण-पोषण करने को बाध्य है।

     

    दरअसल बच्चों का 9 महीने अपने गर्भ में रखना और उन्हें जन्म देना एक महान कार्य है जो सिर्फ़ महिलाएँ ही करती हैं और इस्लाम में इसे पूर्ण महत्त्व दिया गया है।

     

    *…उसकी माँ ने दुःख पर दुःख सहकर पेट में रखा (इसके अलावा) दो बरस में (जाकर) उसकी दूध बढ़ाई की (अपने और) उसके माँ बाप के बारे में ताक़ीद की कि मेरा भी शुक्रिया अदा करो और अपने वालदैन का….*

    (सुरः लुक़मान: 14)

     

    इसलिए शादी के मौके पर आदमी को महेर (तोहफे के तौर पर पैसे या कुछ और) भी चुकानी होती है साथ ही उसका व्यय उठाने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है। महेर की रक़म औरत की इच्छा पर होती है वह कितनी भी माँग कर सकती है। अतः सीधे तौर पर आर्थिक मामलों में औरतों को मर्दो पर फ़ज़ीलत है।

     

    यह इतना अहम पहलू है कि इसी के इर्दगिर्द ही औरतों की पूरी सामाजिक स्थिति घूमती है। देखते हैं कैसे?

    स्वयं को औरतों की आज़ादी का पैरोकार कहने वाले मर्द प्रधान समाज ने पहले तो औरतों के इस विशेष योगदान को भुला ही दिया और आज़ादी और काम करने के नाम पर उसके ऊपर आर्थिक बोझ भी डाल कर उसे आदमियों के बीच घुमाने और शोषण करने के लिए उपलब्ध करा दिया।

     

    और यह तथ्य सभी के सामने है सभी इसे जानते हैं और जान बूझ कर अनदेखा कर देते हैं ज़्यादा पुरानी बात नहीं है  #Metoo “मी टू “आंदोलन में दुनियाँ भर में छोटे से लेकर बड़े से बड़े स्तर पर हर जगह काम करने वाली औरतों ने कार्यस्थल पर अपने साथ हुए पुरुषों द्वारा ग़लत कृत्यों का खुला बयान किया था। कईयों ने यहाँ तक कहा कि आर्थिक स्थिति के बोझ में दबे होने पर जीवन भर हम शोषण सहते रहे पर कुछ कर ना सके क्योंकि ना कोई सुनने वाला था ना कोई सज़ा देने वाला।

     

    कुछ ही दिनों में पुरुष प्रधान शोषण केन्द्रित व्यवस्था ने इस आंदोलन को ठंडे बस्ते में डाल कर भुला भी दिया। लेकिन सच्चाई और इस पश्चिमी कार्य संस्कृति (Western work culture) आधारित व्यवस्था की हक़ीक़त सभी के सामने है। यह औरतों की आज़ादी की व्यवस्था नहीं बल्कि शोषण की सुविधा और व्यवस्था है।

     

    और ऐसा भी नहीं है कि कोई इसे समझ नहीं पा रहा। ऊपर बताए तथ्य की यूरोप और अमेरिका जैसे मॉडर्न मुल्कों में औरतों के तेज़ी से इस्लाम कबुल करने का यह भी एक अहम कारण है कि वे इस बात को समझ रहे हैं कि इस्लाम में औरतों को पैसों की तरह मर्दो के हाथों में घूमने जैसा नहीं बल्कि उसे तिजोरी में रखे कीमती हीरे की तरह बनाया है।

     

    ऐसे ही हर मामले में इस्लाम उच्च अधिकार देता है जिनमें से कुछ का संक्षिप्त में उल्लेख करते हैं –

     

    ❇ वंशानुक्रम (विरासत) का अधिकार:-

     

    कुछ धर्मों के अनुसार, एक महिला को विरासत में कोई अधिकार नहीं है। लेकिन इन धर्मों और समाजों के विपरीत, इस्लाम में महिलाओं को विरासत में हिस्से का अधिकार है।

     

    ❇ अपनी पसंद के मुताबिक शादी का अधिकार:-

     

    पति की पसंद:- इस्लाम ने अपने पति को चुनने में महिलाओं को बहुत स्वतंत्रता दी है। शादी के सम्बंध में लड़कियों की इच्छा और उनकी अनुमति सभी मामलों में आवश्यक घोषित की गई है।

     

    ❇ तलाक का अधिकार:-

    इस्लाम ने औरत को खुलअ का हक़ दिया है कि अगर उसके पास ज़ालिम और अक्षम पति है तो पत्नी निकाह को ख़त्म करने का ऐलान कर सकती है और ये अधिकार अदालत के ज़रिए लागू होते हैं।

     

    ❇ अभिव्यक्ति और अपनी राय रखने का अधिकार:-

    एक अवसर पर, हज़रत उमर (रजि॰) ने कहा: “तुम लोगों को चेतावनी दी जाती है औरतों की महेर ज़्यादा ना रखो।….

    हजरत उमर (रजि॰) को इस तकरीर पर एक औरत ने भरी मजलिस में टोका और कहा कि आप यह कैसे कह सकते हो? हालांकि अल्लाह तआला का इरशाद है

     

    और तुम औरतों को ढेर सारा माल (महेर) दो तो उससे कुछ भी वापस ना लो।

    (सुरः निसा: 20)

     

    जब अल्लाह तआला ने जाईज़ रखा है कि शौहर महेर में ढेर सारा माल दे सकता है तो तुम उसको मना करने वाले कौन होते हो? हजरत उमर (रजि॰) ने यह सुनकर फरमाया :”तुम में से हर एक उमर से ज़्यादा जानकार है”। उस औरत की बात का सम्मान किया गया। हालांकि हजरत उमर (रजि॰) उस वक़्त के खलीफा और बादशाह थे।

     

    इससे पता चलता है कि महिलाओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्लाम में कितना अधिकार है।

     

    इसके अलावा भी कई अधिकार हैं जैसे सम्पत्ति रखने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार एवं बहुत से।

    यही नहीं औरतों को और भी कई तरह से इस्लाम में मुकद्दस मकाम दिया गया है। जैसे कई धर्म और मान्यताओं के अनुसार औरतों से दूरी बनाना, औऱ कुँवारा रहना ईश्वर के पास उच्च दर्जा प्राप्त करने का ज़रिया समझा जाता है। जबकि इस्लाम में इस तरह की भावना को कोई जगह नहीं दी गई और विवाह के लिए प्रेरित किया गया।

    इस सम्बंध में, आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया :

     

    शादी मेरी सुन्नत है। जो मेरी सुन्नत से भटकता है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है।

    (इब्ने माजा 1919)

     

    और सिर्फ़ शादी ही नहीं बल्कि इससे आगे बीवियों से अच्छे व्यवहार को अनिवार्य किया गया:- आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया:

     

    आप में से सबसे अच्छा वही है जो अपनी पत्नियों के लिए सबसे अच्छा है और मैं अपने घर वालों के लिए सबसे बेहतर हूँ।

    (तिर्मिज़ी 3895)

     

    इसके अलावा भी औरतों से अच्छे सुलूक की कई आदेश दिए गए यहाँ तक कि क़ुरआन में अल्लाह ने फ़रमाया

     

    *और औरतों के साथ भलाई से ज़िदगी बसर करो। अगर वह तुमको पसंद ना हो तो हो सकता है तुम एक चीज पसंद ना करते हो और अल्लाह तआला उसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दे।

    (सुरः निसा)

     

    और यह सब हुक़ूक़ भी इस्लाम ने आज नहीं बल्कि 1400 साल पहले ही दे दिए गए जब औरतों को तो जीने तक का अधिकार नहीं दिया जाता था और ज़िंदा दफ़न तक कर दिया जाता था (आज भी महिला भ्रूण हत्या कई जगह की जाती है)। जिसे इस्लाम ने सख्त तरीन अपराध बताया और ऐसा करने वालों को क़यामत के दिन सख्त सज़ा से आगाह किया।

     

    “और जब ज़िन्दा दफ़न की हुई लड़की से पूछा जाएगा कि वह किस गुनाह की वज़ह से क़त्ल की गई।”

    (सूरः तकवीर 81:8,9)

     

    उस दौर में ही इस्लाम ने औरतों को ना केवल ऐसे हालात से निकाला बल्कि ता क़यामत तक के लिए उनके मर्तबे को उच्च कर दिया।

     

    जहाँ माँ के कदमो के नीचे जन्नत बताया गया तो वहीं बेटियों को मर्तबा इतना अहम बताया गया उनकी परवरिश पर जन्नत की बशारत दी गई।

     

    मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फरमान है-

     

    जिसके 3 लड़कियाँ हो फिर तंगदस्ती, ग़रीबी, मुहताजी और खुशहाली व बदहाली में इन्तेहाई सब्र और बर्दाश्त के साथ उनका लालन पालन और देखरेख करें तो अल्लाह उसको सिर्फ़ इसलिए जन्नत में दाखिल फरमाएगा कि उसने उनके साथ रहमों करम का मामला किया है। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! जिसके दो बेटियाँ हों? आप ने फरमाया- जिसके दो बेटियाँ हों वह भी। एक आदमी ने अर्ज़ किया कि जिसके एक बेटी हों? आपने फरमाया- और एक बेटी वाला भी।”

    (मुसनद अहमद 8425)

     

    जैसा कि पहले कहा गया कि इतनी बातें हैं कि एक पोस्ट में कही ही नहीं जा सकती, चुनाव करना तक मुश्किल है। अतः इस से यह अंदाज़ तो हो ही जाता है कि इस्लाम में औरतों को क्या मुकाम है और इस्लाम पर औरतों के बारे में झूठे आक्षेप लगाने वालों की सच्चाई पता चलती है।

     

  • औरतों को परदा क्यों? मर्दो को क्यों नहीं?

    औरतों को परदा क्यों? मर्दो को क्यों नहीं?

    जवाब:-इस्लाम की विशेषता यह है कि यह ना केवल महिला सुरक्षा-मुक्त, व्यभिचार-मुक्त, अश्लीलता-मुक्त, बलात्कार-मुक्त समाज बनाने की बात करता है बल्कि वह कैसे बनेगा उसकी पूरी दिशा निर्देश (Guideline) देता है।

     

    इसी गाइडलाइन के अंतर्गत जहाँ एक तरफ़ सख्त कानूनी सज़ा का प्रावधान हैं तो इसकी रोकथाम के लिए दूसरी तरफ़ विवरण आता है हिजाब का। जिसके अंतर्गत ना केवल पहनावा आता है बल्कि व्यवहार और आचरण की पूरी व्याख्या मौजूद है।

     

    यह एक भ्रम पूर्ण एवं असत्य है कि इस्लाम हिजाब हेतु सिर्फ़ महिलाओं को ही आदेश देता है। जबकि क़ुरआन में पुरूषों को भी हिजाब का आदेश और पूर्ण दिशा निर्देश है।

    इस संदर्भ में क़ुरआन में जब बात कही गई, तो हम पाते है कि पहले पुरुषों को निर्देश दिया गया है और फिर औरतों को।

    अल्लाह तआला ने क़ुरआन में फरमाया:-

    (ऐ रसूल) ईमानदारों से कह दो कि अपनी नज़रों को नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करें यही उनके वास्ते ज़्यादा सफ़ाई की बात है ये लोग जो कुछ करते हैं ख़ुदा उससे यक़ीनन ख़ूब वाक़िफ है।

    (क़ुरआन: 24:30)

     

    अतः इस्लामी शिक्षा में प्रत्येक मुसलमान को यह निर्देश दिया गया है कि जब वह किसी स्त्री को देखे और सम्भवतः उसके मन में कोई बुरा विचार आ जाए अतः उसे चाहिए कि वह तुरंत अपनी नज़रे नीची कर ले।

    इसके बाद फिर अगली आयत में क़ुरआन में महिलाओं को दिए निर्देश का ज़िक्र किया है।

    अक्सर काले वस्त्र को हिजाब समझा जाता है या काले बुर्के को महिलाओं पर अनिवार्य समझा जाता है। जबकि हिजाब यही नहीं हैं, हिजाब में वस्त्रों के अंतर्गत किस तरह के वस्त्र पहनना चाहिए उसकी गाइडलाइन दी गयी है और जो कपड़े उन गाइडलाइन पर पूरे उतरते हैं उन्हें हिजाब कहा जाता है। फिर चाहे वे कैसे भी हों।

    स्पष्ट हो कि यह गाइडलाइन भी सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पुरषों के लिए भी समान रूप से है।

    प्रमुख रूप से कपड़े के 6 मापदंड है जिन्हें हिजाब की कसौटी कहा जाता है। अगर कोई वस्र इन 6 कसौटियों पर पूरा उतरता है तो उसे हिजाब कहा जायेगा ।

     

    वह 6 कसौटी हैं :-

    1. शरीर का उतना भाग पूरा ढकना जितना कि हुक्म है।
    2. कपड़े इतने तंग (Tight) ना हो कि उनसे अंग प्रदर्शन हो।
    3. वस्त्र पारदर्शी ना हों।
    4. वस्त्र इतने चटक या भड़काऊ ना हो जो विपरित लिंग को उत्तेजित करे।
    5. पुरुष और स्त्रियों के लिबास भिन्न प्रकार के हों।
    6. वस्त्र ऐसे ना हो जिसमें दूसरे धर्मो के चिन्ह वगैरह बने हो या दूसरे धर्मो की विशेष पहचान जुड़ी हो।

    विचार करने योग्य बात है कि पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए यह 6 कसौटी एक जैसी ही है और दोनों को समान रूप से अनुपालन (Compliance) करना होता है।

     

    सिर्फ़ पहली शर्त की व्याख्या में भिन्नता यह है कि जहाँ पुरुषों का सतर (शरीर का वह अनिवार्य हिस्सा जिसे ढकना आवश्यक होता है) वह नाभी से लेकर घुटनों तक है।

     

    जबकि महिलाओं का सतर अधिकांश पूर्ण काया है।

    अतः यह स्पष्ट हुआ कि इस्लाम में हिजाब सिर्फ़ महिलाओं के लिये ही नहीं बल्कि महिला-पुरुष दोनों के लिए है और आदर्श समाज बनाना दोनों की ज़िम्मेदारी है।

    अब यह सवाल ज़रुर उठ सकता है कि इस्लाम में हिजाब दोनों के लिए तो है परन्तु पुरुषों और महिलाओं का सतर अलग-अलग क्यों है?

    तो स्वभाविक-सी बात है कि पुरूष और महिलाओं की शारीरिक बनावट भिन्न है, दोनों के अंग भिन्न-भिन्न है, दोनों के शरीर की आकर्षण क्षमता अलग है।

    और दोनों की मनोविज्ञान (Psychology) और एक दूसरे के शरीर के प्रति आकर्षण-कारक (Attraction factor) अलग-अलग हैं।

    इसीलिए दोनों का सतर अलग होना भी तार्किक (लॉजिकल) और न्यायपूर्ण है।

     

    इसके प्रमाण स्वरूप एक नहीं बल्कि सैकड़ों शोध, सर्वे और तथ्य, देश और दुनियाँ दोनों स्तर पर मौजूद हैं। ज़रा-सा सर्च करने पर आपको यह जानकारी मिल जाएगी। यह बात तो वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध हो चुकी है ।

     

    यदि आप इन शोध और तथ्यों को ढूँढने में असमर्थ हैं तो हमें सूचित करें आप को उपलब्ध करा दिए जाएंगे।

     

  • इस्लाम एक से ज़्यादा पति रखने की अनुमति क्यों नहीं देता ?

    इस्लाम एक से ज़्यादा पति रखने की अनुमति क्यों नहीं देता ?

    जवाब : कुरआन  एक से ज़्यादा पती रखने कि इजाज़त (Permission) नहीं देता है और इस तरह कि इजाज़त (Permission) नहीं होना ही कितना उचित है वह आज उजागर हो चुका है, जो कि इस्लाम की सत्यता का प्रमाण है। इस्लाम एक प्राकृतिक जीवन शैली (Natural Way of Life) है और शादी एक सभ्य समाज के ताने बाने का नाम है। ना कि हवस को पूरा करने का। क़ुरान ने शादी के बारे में सुर:4 आयत 23,24,25 में विस्तृत में जानकारी दी है।

    हम सोचे अगर एक औरत एक से ज़्यादा शादी करती है। तो उसके साथ क्या समस्या पैदा हो सकती है?

     

    वैज्ञानिक समस्याएँ (Scientific Problems):-

    1 . एक औरत कई मर्दों से यौन (Sex) सम्बन्ध बनाती है, तो दोनों को एड्स की संभावना है, दूसरी गुप्त बीमारियाँ हो सकती है, बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास रुक सकता है। बच्चे पागलपन का शिकार हो सकते है। बच्चों में वंशानुगत समस्या भी हो सकती है।

     

    1. एक मर्द औरत के मुकाबले में ज़्यादा बहुविवाही (Polygamous) होता है। प्राकृतिक रूप से सामान्य अवस्था में उसके यौन चक्र (Sexual cycle) में कोई ब्रेक नहीं होता इसलिये वह एक से ज़्यादा बीवी का बिना किसी समस्या के निर्वाहन कर सकता है। जबकि प्राकृतिक रूप से यौन चक्र (Sexual cycle) में मासिक धर्म और गर्भ काल आदि ब्रेक होने के कारण बिना किसी समस्या के एक से अधिक पति रखना सम्भव नहीं।

     

    1. विश्व भर में औरतों की संख्या पुरुषों से ज़्यादा होना।

     

    1. सामाजिक समस्याएँ (Social problem):-
    2. i) बच्चों का असली बाप कौन?
    3. ii) बच्चे किस बाप कि वसीयत / जायदाद में हिस्से माँगेगे?

    iii) पतियों कि सामाजिक स्थिति / हैसियत कम ज़्यादा होने पर बच्चे अपना बाप किसे बोलेंगे?

    1. iv) ज़ायदाद का बँटवारा कैसे होगा?

     

    5) जिस्मानी / शारीरिक ज़रूरत (Sex) के लिए किस तरह से सभी पतियों के पास जा सकती है, बीमारी, डिलीवरी, मासिक परेशानी पर कौन-सा पति अपने नम्बर का मौका छोड़ेगा?

     

    6) मर्द प्राकृतिक / फ़ितरी तौर पर अधिक हिंसक होता है, उपर्युक्त बातों की वज़ह से अत्यधिक झगड़े और हिंसा हो सकती है।

     

    7) पति पत्नी में झगड़े / नोक झोंक होना आम बात है और बच्चे को डाँटने डपटने पर पतियों में आपस में झगड़े सम्भव है जिसमे हत्या होना भी बड़ी बात नहीं है और भी बहुत कुछ ।

     

    अतः उपर्युक्त बातों से पता चलता है कि एक से अधिक पति रखना हर तरीके से नुकसानदेह और विनाशकारी है।