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  • क़ुरान और हदिस में क्या फर्क?

    क़ुरान और हदिस में क्या फर्क?

    क़ुरआन क्या है?

    क़ुरआन अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है जो उसके आख़िरी पैगम्बर हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) पर नाज़िल (अवतरित) हुई। इसमे कुल 114 सुरः (पाठ) हैं, दूसरे धर्म ग्रँथों से अलग क़ुरआन की विशेषता यह है कि इसमें विशुद्ध अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है। इसके अलावा इसमें ना किसी और के वचन हैं ना किसी और की कोई शिक्षा है ना किसी और की कोई व्याख्या, ना ही कोई विरोधाभास और ना ही कोई मिलावट।

     

    हदीस क्या है?

    पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने जो लोगों को क़ुरआन के बारे में सिखाया जैसे क़ुरआन में दिए आदेशों का किस तरह पालन करना है, विधि विधान और दूसरी शिक्षा दी वे अलग किताबों में संग्रहित है जिन्हें हदीस कहा जाता है।

     

    जिसके बारे में अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया:-

    अल्लाह ने ईमान वालों पर उपकार किया है कि स्वयं उन्हीं में से एक रसूल भेजा, जो उनके सामने (अल्लाह) की आयात पढ़ता है, उन्हें शुद्ध करता है तथा उन्हें पुस्तक (क़ुरआन) और हिक़मत  (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है, यद्यपि “वे” इससे पहले खुले कुपथ में थे।              (क़ुरआन 3:164)

    अल्लाह (ईश्वर) की हम पर महान कृपा हुई कि उसने ना केवल हमारे मार्गदर्शन के लिए क़ुरआन भेजा, पर साथ ही क़ुरआन की शिक्षा देने के लिए, उसमें दिए आदेशों का किस तरह अमल (व्यवहारिक पालन) हो उसके लिए ख़ुद हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) को आदर्श (रोल मॉडल) बना कर भेजा। ख़ुद आप मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम 22 वर्ष के लम्बे अंतराल तक लोगों के बीच रहकर क़ुरआन पर अमल करते रहे और लोगों को सिखाते रहे ।

     

    जैसा कि क़ुरआन में फ़रमाया:-

    तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम आदर्श है, उसके लिए, जो आशा रखता हो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) की तथा याद करो अल्लाह को अत्यधिक।(क़ुरआन 33:21)

     

    और हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) की इन्हीं शिक्षा के उल्लेख को हदीस कहा जाता है। जिसका पालन करने के लिये ख़ुद क़ुरआन आदेश देता है ।

    तो क़ुरआन किस तरह मुकम्मल किताब है और क्या इन्सान की निजात के लिए अल्लाह ने सिर्फ हमे क़ुरआन दिया है?

     

    क़ुरआन अपनी जगह मुकम्मल (सम्पूर्ण) है, एक मात्र है। जब कि दूसरे धर्म ग्रँथों की बात करें तो उनमें कई ग्रन्थ मिल जाएंगे। हिन्दू धर्म में श्रुति और स्मृति और उसमे भी कई पुस्तकें है जैसे 4 वेद, 18 पुराण, 108 उपनिषद और उसके बाद स्मृति है। बाइबल के तो कई अलग-अलग संस्करण (Versions) हैं, बौद्ध धर्म में त्रिपट्टिका हैं आदि।

     

    अतः कई बार बुनियादी अक़ीदों (मूल सिद्धांत) में ही विरोधाभास हो जाता है या मूल सिद्धांत और अन्य बातों को समझने के लिए ही अलग-अलग स्त्रोतों पर निर्भर होना पड़ता है और उसमें भी अलग-अलग मत और उल्लेख होते है।

     

    जब कि क़ुरआन में ऐसा नहीं है वह सिर्फ़ एक मात्र है, मुकम्मल है जिस का मूल सिद्धांत सम्पूर्ण है, मरणोपरांत जीवन, परलोक आदि और अंत सभी सिद्धान्त मुकम्मल रुप से स्पष्ट है इसमे कोई विरोधाभास नहीं है और इसके लिए आपको और किसी अन्य ग्रन्थ पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं।

     

    जहाँ तक हदीस की बात है तो वह सिर्फ़ क़ुरआन को लागू करने की तरह है, जिसका क़ुरआन से कभी टकराव नहीं हो सकता ।

     

    जैसे उदाहरण के तौर पर अल्लाह ने लोगों को क़ुरआन में नमाज़ पड़ने का हुक्म दिया। अब नमाज़ पढ़ना कैसे है उसके लिये ख़ुद हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) को लोगों के बीच भेजा, उन्होने ख़ुद नमाज़ पढ़ी लोगों को उसकी विधि सिखाई वह हदीसों में संग्रहित है। अतः क़ुरआन में आदेश है, तो हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) की सुन्नत (तरीक़े) से उस आदेश को कैसे पूरा करना है वह पता चलता है और उस तरीके (सुन्नत) का उल्लेख हदीस कहलाता है।

     

    🍁 अंत में अति महत्वपूर्ण बात यह कि कुछ लोगों को इस्लाम के बुनियादी सिद्धांत ही पता नहीं होते और वे अपने अनुसार ही व्याख्या कर लेते हैं। जैसे यहाँ सवाल करने वाले को आभास है कि इस्लाम में मनुष्य की निजात के लिए अल्लाह ने सिर्फ़ क़ुरआन भेजा और सिर्फ़ वह ही पर्याप्त होना चाहिये। जबकि  उसे नहीं पता कि अल्लाह ने सिर्फ़ क़ुरआन ही नहीं भेजा बल्कि साथ ही रसूल (स.अ.व.) भी भेजे हैं और इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा ही क़ुरआन और सुन्नत [ रसूल (स.अ.व.) की शिक्षा ] दोनों पर अमल है दोनों को मिला कर ही इंसान का दीन (धर्म / मज़हब) मुकम्मल होता है।

     

    जैसा कि फ़रमाया क़ुरआन में –

    “हे ईमान वालो! अल्लाह की आज्ञा का अनु पालन करो और रसूल की आज्ञा का अनु पालन करो।                       (क़ुरआन 4:59)

     

    …जिस चीज का नबी तुम्हें आदेश दे उसको ले लो और जिस चीज से रोके उससे रुक जाओ।…                            (क़ुरआन 59:7)

     

    अतः हदीस (आप की शिक्षाओं का उल्लेख) का पालन दरअसल क़ुरआन के आदेश का पालन करना ही है और दोनों मिलकर ही दीन मुकम्मल करते है।

     

    इसलिए आपको चाहिए कि आप पहले इस्लाम की बुनियादी अक़ीदे का अध्ययन करे और इसके बगैर आप सिर्फ़ अपनी कल्पना के आधार पर कोई आक्षेप करते रहेंगे तो वह इतने ही निराधार साबित होंगे जितना की यह आक्षेप हुआ।

  • काबे की ओर सजदा क्यों?

    काबे की ओर सजदा क्यों?

    जवाब:- बेशक अल्लाह तो हर दिशा का मालिक है। 

    और पूरब व पश्चिम सब अल्लाह ही का है तो तुम जिधर मुंह करो उधर वज्हुल्लाह (ख़ुदा की रहमत तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जेह) है बेशक अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है।

    (क़ुरआन 2:115)

    लेकिन अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम और आसानी करते हुए उनके लिए एक क़िबला (Direction) मुकर्रर कर दिया ताकि वे जब भी, जहाँ कहीं भी हों, नमाज़ अदा करें तो सभी 1 ही Direction में अदा करें। ताकि किसी तरह के इख्तिलाफ (मतभेद) या Confusion की गुंजाइश ना रहे।

    (हे नबी!) हम आपके मुख को बार-बार आकाश की ओर फिरते देख रहे हैं। तो हम अवश्य आपको उस क़िबले (काबा) की ओर फेर देंगे, जिससे आप प्रसन्न हो जायें। तो (अब) अपना मुख मस्जिदे ह़राम की ओर फेर लो। तथा (हे मुसलमानों!) तुम जहाँ भी रहो, उसी की ओर मुख किया करो…

    (क़ुरआन 2:144)

    इस्लाम एकता और अनुशासन (Discipline) का प्रतीक है। मुस्लिम दिन में पाँच बार नमाज़ अदा करते हैं जो कि सामूहिक रूप से अदा करना श्रेष्ठ है। यदि कोई क़िबला मुकर्रर नहीं किया गया होता तो कोई किधर चेहरा कर के नमाज़ अदा करता तो कोई किसी दूसरी ओर। जिस से जमाअत से नमाज़ पढ़ना मुमकिन नहीं हो पाता और हर वक्त मतभेद और Confusion की स्थिति बनी रहती। इसलिये अल्लाह ने अपने बन्दों पर करम करते हुए उनके लिए एक क़िबला मुकर्रर किया और उसी ओर चेहरा कर नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया। अतः अल्लाह के हुक्म का पालन करते हुए विश्व भर में जहाँ कहीं भी नमाज़ अदा करते हैं तो काबे की दिशा में करते हैं।

    ➡️ इसी संबंध में ग़लतफ़हमी और अज्ञानता के चलते कुछ गैर मुस्लिम यह समझ लेते हैं कि काबे कि इबादत (पूजा/उपासना) की जाती है। जबकि मुस्लिम काबे कि इबादत नहीं करते हैं ना ही उसे पूजनीय समझते हैं।

    ▪️काबा के मुकाम पर स्थित *“हजरे-अस्वद” (काले पत्थर)* से संबंधित दूसरे इस्लामी शासक हज़रत उमर (रज़ि.) से एक कथन उल्लिखित है। हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक “सहीह बुख़ारी” भाग-दो, अध्याय-हज, पाठ-56, हदीस न. 675 के अनुसार हज़रत उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया–

    “मुझे मालूम है कि (हजरे-अस्वद) तुम एक पत्थर हो। न तुम किसी को फ़ायदा पहुँचा सकते हो और न नुक़सान और मैंने अल्लाह के पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तुम्हें छूते (और चूमते) न देखा होता तो मैं न तो कभी तुम्हें छूता (और न ही चूमता)।”

    ▪️इसके अलावा लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे:-

    अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में तो लोग काबा पर चढ़कर अज़ान देते थे। यह बात इतिहास से सिद्ध है। अब जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि मुसलमान काबा की उपासना (इबादत) करते हैं उनसे पूछना चाहिए कि भला बताइए तो सही कि कौन मूर्तिपूजक मूर्ति पर चढ़कर खड़ा होता है।

    ▪️इस बात में किसी प्रकार का संदेह बाकी ना रहे इसीलिए मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवन काल में ही अल्लाह ने तहविले क़िबला (क़िबले का बदलना) कर यह बात ख़ुद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा से प्रैक्टिल कर सबके सामने स्पष्ट कर दी गई, की जब आप मक्का में थे तब अल्लाह का आदेश बैतूल मुकद्दस की तरफ़ चेहरा कर नमाज़ पढ़ने का था। आप मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना तशरीफ़ ले जाने के एक साल बाद तक इस हुक्म पर अमल होता रहा। फिर अल्लाह ने क़िब्ले को बदलने का हुक्म दिया जिसे  तहविले क़िबला कहा जाता है और फिर मुसलमानो ने काबे की तरफ चेहरा कर नमाज़ पढ़ना शुरू की।

    जिस से साबित हो गया कि मुसलमान ना काबे को पूजनीय समझते हैं ना पूजते हैं यह तो सिर्फ़ अल्लाह का आदेश है उसने जिधर रुख करने का कहा उस तरफ़ रुख कर नमाज़ की जाती है।

    और अंत में इस सम्बन्ध में कुर’आन की यह आयत ही पर्याप्त है: –

    नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुँह मशरिक या मग़रिब की तरफ़ कर लो, मगर नेकी यह है जो ईमान लाए अल्लाह पर और यौमे आखिरत पर और फरिश्तों और किताबों पर और नबियों पर, और उस (अल्लाह) की मुहब्बत पर माल दे रिश्तेदारों को और यतीमों और मिस्कीनो को और मुसाफिरों को और सवाल करने वालों को और गर्दनों के आज़ाद कराने में, और नमाज़ काईम करें और ज़कात अदा करें, और जब वह अहद करें तो उसे पूरा करें, और सब्र करने वाले सख्ती में और तकलीफ में और जंग के वक़्त, यही लोग सच्चे हैं, और यही लोग परहेज़गार हैं।

    (क़ुरआन-2:177)

     

  • क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    क्या कुरआन बाइबल से नकल किया गया है?

    जवाब:इस तरह का दुष्प्रचार उन गैर मुस्लिम भाईयों के सवाल पर किया जाता है, जो क़ुरआन को समझने पर जिज्ञासावश क़ुरआन के बारे में अपने स्कॉलर से पूछते है। जिसका वे जवाब नहीं देना चाहते है।

     

    इस तरह के सवाल करने वालों से पहला सवाल ये है कि क़ुरआन कौनसी बाइबल से और कब नक़ल (Copy) हुआ?

    क्योंकि रोमन कैथोलिक के अनुसार बाइबल कि कुल 73 (46 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें हैं तथा प्रोटेस्टेंट के अनुसार बाइबल में केवल 66 (39 ओल्ड टेस्टामेंट और 27 न्यू टेस्टामेंट) किताबें ही हैं। इन सभी किताबों में आपस में विरोधाभास / टकराव भी है। यहाँ तक कुछ ईसाईयों के मुताबिक जो किताबें बाइबल में शुमार हैं वह कुछ दूसरे ईसाईयों की नज़र में बाइबल ही नहीं है। दूसरी बात *पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम* उम्मी थे और क़ुरआन अरबी में है। जबकि बाइबल सबसे पहले 867ई में यानी 250 साल बाद अरबी में अनुवाद हुई है। बाइबल कि तरह क़ुरआन के कोई संस्करण (version) नहीं है। यानी पैग़म्बर ऐ इंसानियत पर जो आयत जिस रूप में पहले नाजिल हुई थी वह उसी रूप में आज भी है। यानी क़ुरआन पूरी दुनियाँ में कहीं भी पढ़ लो एक जैसा ही मिलेगा। ये चमत्कार सिर्फ़ क़ुरआन के साथ ही है। बाक़ी जितने भी ग्रन्थ है, सबमें मिलावट हो गई है। फिर सवाल ये उठता है कि बाइबल और क़ुरआन में समानता क्यों है..❓

     

    दरअसल यह सवाल ख़ुद में एक निशानी की तरह है और इस्लाम के बुनियादी पैगाम को समझने में मदद करता है।

     

    जैसा कि हम जानते हैं क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई आखरी किताब है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के आखिरी पैगम्बर और रसूल हैं। उनसे पहले भी अल्लाह ने दुनियाँ में कई पैग़म्बर और किताबें भेजी जैसे मूसा अलैहिस्सलाम को तौरात (Old Testament) दी, ईसा अलैहिस्सलाम को इंजील (New Testament) दी। यानी कि क़ुरआन से पहले भी कई ग्रन्थ अल्लाह ने भेजे हैं।

     

    (ऐ रसूल) उसी ने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की जो (आसमानी किताबें पहले से) उसके सामने मौजूद हैं उनकी तसदीक़ करती है और उसी ने उससे पहले लोगों की हिदायत के वास्ते तौरेत व इन्जील नाज़िल की।

    (क़ुरआन 3:3)

     

    ऐसे ही विश्व की हर उम्मत के प्रति अल्लाह ने अपने पैगाम को भेजा और कोई उम्मत ऐसी नहीं गुज़री है जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला (सन्देष्टा /नबी /रसूल / ईश दूत) न आया हो।

    (क़ुरआन 35:24)

     

    क़ुरआन से पहले जितने भी ग्रन्थ आये है, चाहे आज वह अपने मूल रूप में मौजूद ना हो, लेकिन उनमें किसी दर्जे में कुछ मूल बाते मौजूद है। यही वज़ह है कि दुनियाँ के सभी प्रमुख ग्रँथों में इस्लाम के मूल सिद्धांत यानी कि एकेश्वरवाद की बात मिलती ही हैं। जो कि न केवल एक महत्वपूर्ण निशानी है बल्कि इस्लाम इसी की और निमंत्रित करता है ।

     

    (हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी हैं।

    (क़ुरआन 3:64)

     

    यानी क़ुरआन तो पुरानी किताबों की तस्दीक करते हुए आया है और इसका तो यह पैगाम है कि सभी उस बात की तरफ़ आये जो सभी पुरानी किताबों में भी मौजूद है।

     

    लेकिन क़ुरआन के अलावा आप दूसरे ग्रँथों में देखें तो आप पाएंगे कि इन मूल-सन्देश के अलावा भी विरोधाभास हैं जैसे बाइबल के पहले धर्मादेश (Commandment) में ही कहा गया कि “ईश्वर सिर्फ़ एक है”। लेकिन दूसरी जगह फिर कुछ और बातें हैं। ऐसा कई विषयों में है।

     

    अब अगर क़ुरआन किसी ग्रन्थ से कॉपी किया गया होता तो जो विरोधाभास बाइबल या दूसरे ग्रन्थों में है, वह विरोधाभास क़ुरआन में भी होना चाहिए थे।

     

    “क्या वे क़ुरआन में सोच–विचार नहीं करते? यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता, तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सा विरोधाभास / बदलाव पाते”।

    (सूरह निसा 4, आयत 82)

     

    इसके अलावा अगर हम साइंस की रोशनी में देखें तो क़ुरआन में कई विस्मयकारी जानकारी हमें मिलती हैं जिससे क़ुरआन का ईश्वरीय ग्रन्थ होना साबित होता है। कुछ जानकारियाँ ऐसी भी है जो बाइबल में भी मौजूद हैं तो कई ऐसी हैं जो सिर्फ़ क़ुरआन में ही हैं ।

     

    अब अगर क़ुरआन बाइबल से कॉपी किया गया होता तो इसमें विस्मयकारी निशानियाँ कहाँ से आई जो बाइबल में मौजूद नहीं है ? और इसमें वह गलतियाँ और साइंस विरुद्ध बातें क्यो नहीं है जो बाइबल में मौजूद है ?

     

    इससे ये साबित होता है कि क़ुरआन असली अंतिम ईश्वरीय ग्रन्थ है।

  • क्या कुरआन अल्लाह की किताब है?

    क्या कुरआन अल्लाह की किताब है?

    जवाब:- इस बात की 1 नहीं बल्कि अनगिनत दलीलें है कि यह कलाम किसी इंसान का हो ही नहीं सकता बल्कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त जो इस कायनात को बनानेवाला का ही है औऱ कोई भी इंसान क़ुरआन को सच्चे मन से पढ़ कर यह बात जान सकता है।

    सभी दलीलों का ज़िक्र करना तो किसी के बस की बात नहीं, इसलिए यहाँ चन्द बातें बताई जा रही हैं :-

     

    🍁1. ख़ुद क़ुरआन का अंदाज़ यह है कि यह अंधविश्वास की बात नहीं करता बल्कि कई जगहों पर पढ़ने वाले को आमंत्रित करता है कि वह ख़ुद बुद्धि का प्रयोग करें और ख़ुद जांच कर ले कि क्या यह रब का कलाम है?

     

    तो क्या ये लोग क़ुरआन में भी ग़ौर नहीं करते और (ये नहीं ख़्याल करते कि) अगर ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से (आया) होता तो ज़रूर उसमें बड़ा इख्तेलाफ़ पाते।

    (सुरः निसा: 82)

     

    क़ुरआन में किसी तरह का विरोधाभास नहीं है कि कहीं कोई बात कह दी तो कहीं उसके उलट बात कह दी, कहीं यह उल्लेख हो कि ईश्वर 1 है तो कहीं यह कह दिया कि 1 नहीं बहुत है। जो कि मानवी त्रुटि होती है या तब होता है जब 1 कि बजाय कई लेखक हों।

     

    🍁2. आप हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) का उम्मी होना।

     

    पूरा क़ुरआन विस्मयकारी और आश्चर्यचकित कर देने वाली निशानियों से भरा हुआ है, इसमें दुनियाँ के कई Field कि जानकारी कि निशानियाँ मौजूद हैं फिर चाहे वह Archaeology, Astronomy, Embryology, Geology हो या Cosmology (कॉस्मोलॉजी) हो क़ुरआन में 1400 साल पहले ऐसी चीज़ों का ज़िक्र कर दिया गया जिसको इंसान ने वर्तमान में ही जाना है। जैसे सूरज का अपने दायरे में चक्कर लगाना, बिग बैंग, बच्चे का पेट में प्रारम्भिक विकास और भी बहुत कुछ।

     

    किसी भी व्यक्ति के लिए यह कैसे सम्भव है कि वह अपने समय से आगे और पीछे दोनों की इतनी विस्मयकारी जानकारी दे-दे जब कि वह ख़ुद पढ़-लिख नहीं सकता हो?

    यहाँ तक कि Encyclopedia Britannica भी इस बात की गवाही देता है कि जितने भी तारीखी हवाले मिलते हैं सब से यही साबित होता है कि आप पैगम्बर पढ़ना लिखना नहीं जानते थे।

     

    🍁3.ख़ुद क़ुरआन करीम का चैलेंज-

    क़ुरआन करीम ऐसे ज़माने में उतरा है जब अरबी ज़बान में ख़ूब महारत हासिल कि जाती थी। अरबी ज़बान में फसाहत (वाक्पटुता) व बलाग़त / Eloquent and Atticism पर अरब लोग एक दूसरे को चैलेंज करते थे, क़ुरआन भी फसाहत व बलाग़त / Eloquent and Atticism से भरा हुआ था, मक्का के मुशरेकीन / बहुदेववादी ने क़ुरआन को जब नबी की गढ़ी हुई किताब कहा और कहा के ऐसी फसाहत व बलाग़त / Eloquent and Atticism के साथ तो हम भी एक किताब गढ़ लेंगे तो क़ुरआन में अल्लाह ने मुशरेकीन को चैलेंज किया कि अगर तुमको अपनी फसाहत व बलाग़त / Eloquent and Atticism पर इतना फख्र ओर गर्व है तो सब आपस में मिलकर क़ुरआन के समान कोई दूसरी किताब बना लाओ:

     

    आप कह दें: यदि सब मनुष्य तथा जिन्न इस पर एकत्र हो जायें कि इस क़ुरआन के समान ले आयेंगे, तो इसके समान नहीं ला सकेंगे, चाहे वे एक-दूसरे के मददगार (सहायक) ही क्यों न हो जायें!

    (सूरह बनी इसराइल: 88)

     

    जब कोई आगे ना आया तो क़ुरआन ने उन लोगों के लिए इसे और आसान करते हुए सिर्फ़ दस सुर: बनाने का चैलेंज किया।

     

    क्या वह कहते हैं कि उसने (मुहम्मद ने) इस (क़ुरआन) को स्वयं बना लिया है? आप कह दें कि इसी के समान दस सूरतें बना लाओ और अल्लाह के सिवा, जिसे हो सके, बुला हो, यदि तुम लोग सच्चे हो।

    (सुरः हुद: 13)

     

    जब यह भी ना हो सका तो अल्लाह ने इसे इतना आसान करते हुए कहा कि अगर तुम अपने दावे में सच्चे हो तो इस जैसी कोई 1 ही सुरः बना लाओ।

     

    और अगर तुम लोग इस कलाम से जो हमने अपने बन्दे (मोहम्मद) पर नाज़िल किया है शक में पड़े हो पस अगर तुम सच्चे हो तो तुम (भी) एक सूरा बना लाओ और खुदा के सिवा जो भी तुम्हारे मददगार हों उनको भी बुला लो।

    (सुरः अल बकरह: 23)

     

    इतनी आसानी देने के बावजूद उस ज़माने से लेकर आज तक कोई इस चैलेंज को पूरा नहीं कर पाया है।

     

    और इसी बारे में अल्लाह ने फ़रमाया क़ुरआन में-

     

    फिर यदि वे उत्तर न दें, तो विश्वास कर लो कि उसे (क़ुरआन को) अल्लाह के ज्ञान के साथ ही उतारा गया है और ये कि कोई वंदनीय (पूज्य) नहीं है, परन्तु वही। तो क्या तुम मुस्लिम होते हो?

    (सुरः हुद: 14)

     

    🍁4. क़ुरआन करीम अपनी निशानियों पर ग़ौर करने की दावत देता है, बेशुमार साइंटिस्ट, बुद्धिजीवी और अक्लमंद इन निशानियों पर ग़ौर कर मुस्लिम हुए और यह मानने पर मजबूर हुए की कोई शक नहीं कि यह किताब अल्लाह का कलाम है।

     

    🍁5. इतिहास में तमाम इल्ज़ाम लगाने वाले आज तक इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं दे पाए कि अगर क़ुरआन अल्लाह का कलाम नहीं है तो इसमें कही गई बातें किसने कही है।

    इसी संदर्भ में इस्लाम से दुश्मनी के लिए जाने जानी वाली कैथोलिक चर्च ने भी नया केथॉलीक इनसाइक्लोपीडिया / New Catholic encyclopedia में क़ुरआन पर बहस करते हुए यह माना कि:

     

    गुज़रे ज़माने में अलग-अलग ज़माने में क़ुरआन करीम के मसदर व मंबा (कहाँ से इस में बातें ली गई हैं) के मुताल्लिक़ बहुत से नज़रिए और थ्योरी पेश की गई, लेकिन आज किसी सही अक्ल रखने वाले इन्सान के लिए उन पुराने नजरियों में से किसी भी नजरिए को मान लेना मुमकिन नहीं है।

     

    यानी कैथोलिक चर्च को भी यह मानने पर मजबूर होना पड़ा कि क़ुरआन को इंसानी दिमाग़ की पैदावार बताने के लिए किसी के पास कोई आधार नहीं है और इस दावे में पेश किए जाने वाला कोई भी नज़रिया काबिल ए कबुल नहीं है।

     

    इस तरह क़ुरआन अपने ईश्वरीय ग्रन्थ होने कि प्रमाणिकता के साथ आज 1400 साल बाद भी चैलेंज करता है।

  • क्या क़ुरआन संग्रहित है ?

    क्या क़ुरआन संग्रहित है ?

    जवाब:- हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दौर में ही क़ुरआन की तरतीब (सुरः का क्रम) और संग्रहण (जमा) पूरा हो चुका था वह दो ज़रियो से हुआ:-

    1. हिफ़्ज़ के ज़रिए
    2. लेखनी के ज़रिए

     

    जब भी क़ुरआन नाज़िल होता था उसे हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) अपने सहाबा (साथी) को सिखाते थे। जिसे कई सहाबा हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर अपने सीनों में महफ़ूज़ कर लेते थे और यही हिफ़्ज़ का सिलसिला नस्ल ब नस्ल हर दौर में जारी रहा और आज भी आप को हर मुल्क में हर उम्र के हाफिज़ मिल जाएंगे जिन्हें पूरा क़ुरआन शब्दश: याद है। क़ुरआन की हिफाज़त का यह तरीक़ा इतना विशेष ही कि इस तरह दुनियाँ के किसी दूसरे धर्म ग्रन्थ के बारे में इसका दावा करना तो दूर कभी कोई कल्पना भी नहीं की गई।

     

    दूसरी तरह लेखनी के ज़रिए महफूज़ करने वाले सहाबा, जो आयात हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) सिखाते वे उसे पत्थर, पत्तों, खाल आदि पर लिख लिया करते थे और फिर उसे हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के सामने दोहरा कर चेक करवाया करते थे। पूरे क़ुरआन को इन तरह लेखनी में (अलग अलग जगह) महफूज़ भी हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दौर में कर लिया गया था।

     

    हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) के दुनियाँ से रुखसत के बाद पहले ख़लीफा अबूबक्र रज़ि॰ ने हज़रत ज़ैद बिन साबित रज़ि॰ (जो कि हाफिज़ थे और जिनके बारे में हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰व॰) ने लोगों को कहा था कि जिसे क़ुरआन सीखना है वह ज़ैद से सीखें) के प्रतिनिधित्व में इन सभी (क़ुरआन के लेखों) को 1 जगह जमा किया और 1 किताब की शक्ल दी।

     

    जब इस्लाम अरब से बाहर चीन, भारत, ईरान आदि जगह फैला तब तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान रज़ि॰ के दौर में उस संकलित क़ुरआन कि 7 प्रतिलिपि (Copy) बनाई गई और एक-एक प्रतिलिपि अलग-अलग देशों में सील लगवाकर भिजवाया गया। इस संकलन में क़ुरआन में मात्राएँ (ज़ेर / ज़बर) नहीं थे।

     

    हज्जाज़ बिन यूसुफ जो कि इराक के गवर्नर थे ने जब यह देखा कि गैर अरबी क़ुरआन को पढ़ने में गलती कर रहे है, तो उसमें उन्होंने जानकारों (हाफिज़, विशेषज्ञों) से ज़ेर-ज़बर लगवाये, ताकि पढ़ने वालों को आसानी हो सके और बिलकुल उसी तरह से पढ़ा जाए जैसा मूल अरबी भाषा में पढ़ा जाता रहा है।

     

    अतः जिस तरतीब और शक्ल में मोहम्मद (स॰अ॰व॰) क़ुरआन अपनी उम्मत को देकर गए बिल्कुल वही आज उम्मत के पास मौजूद है और ता क़यामत तक महफूज़ रहेगा जैसा कि अल्लाह का वादा है:-

    वास्तव में, हमने ही ये शिक्षा (क़ुरआन) उतारी है और हम ही इसके रक्षक हैं।

    (क़ुरआन 15:9)

     

    भारत में आज भी UP के रामपुर में रज़ा लायब्रेरी में हज़रत अलि रज़िअल्लाहू अन्हु कि हस्त लिखित क़ुरआन मौजूद है।

     

  • क़ुरआन क्या है?

    क़ुरआन क्या है?

    जवाब:-क़ुरआन अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है। जो उसके आख़िरी पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.व.) पर नाज़िल (अवतरित) हुई। इसमें कुल 114 सुरः (पाठ) हैं, दूसरे धर्म ग्रँथों से अलग क़ुरआन की विशेषता यह है कि इसमें विशुद्ध अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है। इसके अलावा इसमें ना किसी और के वचन हैं ना किसी और कि कोई शिक्षा है।

     

    मुहम्मद (स.अ.व.) ने जो लोगों को क़ुरआन के बारे में सिखाया और दूसरी शिक्षाएँ दी वे अलग किताबों में संग्रहित है जिन्हें हदीस कहा जाता है।

     

    क़ुरआन अल्लाह की तरफ़ से तमाम इंसानियत के लिए खुला मार्गदर्शन और पैग़ाम है।

    रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए और मार्गदर्शन, सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ।

    (क़ुरआन 2:185)

     

    हे लोगों! तुम्हारे पास, तुम्हारे पालनहार की ओर से, शिक्षा (क़ुरआन) आ गयी है, जो अंतरात्मा के सब रोगों का उपचार (स्वस्थ कर), मार्गदर्शन और दया है, उनके लिए, जो विश्वास रखते हों।

    (क़ुरआन 10:57)

     

  • क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    क्या कुरआन काफ़िर को कत्ल करने का हुक्म देता है?

    जवाब:- नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष काफ़िर (गैर मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता।

     

    क़ुरआन 5:32 में इसका खुला आदेश है:-

    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया..”

     

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर मुस्लिम (काफिर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता।

    यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

     

    क़ुरआन की जिन आयात में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है। और इन्हीं आयात को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी काफिरो को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।