क्या टीपू सुल्तान हिन्दू विरोधी थे और हिंदुओं पर अत्याचार के दोषी थे ?
*जवाब:-* मैसूर के पूर्व शासक टीपू सुल्तान को एक बहादुर और देशप्रेमी शासक ही नहीं धार्मिक सहिष्णुता के दूत के रूप में भी याद किया जाता है।
टीपू एक ऐसे भारतीय शासक थे जिनकी मौत मैदान-ए-जंग में अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते हुई थी। साल 2014 की गणतंत्र दिवस परेड में टीपू सुल्तान को एक अदम्य साहस वाला महान योद्धा बताया गया था। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को आधुनिक जगत का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था। जब वे 1960 में NASA की यात्रा पर गए तब उन्होंने नासा के एक सेंटर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिग देखी थी। इस बारे में कलाम ने अपनी पुस्तक विंग्स ऑफ फायर में लिखा *”मुझे ये लगा कि धरती के दूसरे सिरे पर युद्ध में सबसे पहले इस्तेमाल हुए रॉकेट और उनका इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का जश्न मनाया जा रहा था. वहीं हमारे देश में लोग ये बात या तो जानते नहीं या उसको तवज्जो नहीं देते।”*
लेकिन ऐसे महान योद्धा और विवेकशील शासक जिसने विश्व मे भारत का नाम रोशन किया। उसे कुछ समय से राजनीतिक लाभ के लिए नफ़रत फैलाने वाले लोग ‘हिंदुओं के दुश्मन’ मुस्लिम सुल्तान के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन इतिहास का अध्ययन करने और उनसे जुड़े दस्तावेजो को पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि *”टीपू के सांप्रदायिक होने की कहानी गढ़ी गई है और पूर्ण झूठ है।”*
*वरिष्ठ इतिहासकार टीसी गौड़ा* कहते हैं कि टीपू सुल्तान के बारे में यह सभी कहानियाँ गढ़ी हुई है बल्कि सत्य तो यह है कि *”इसके उलट टीपू ने श्रृंगेरी, मेलकोटे, नांजनगुंड, श्रीरंगपट्टनम, कोलूर, मोकंबिका के मंदिरों को ज़ेवरात दिए और सुरक्षा मुहैया करवाई थी। ये सभी कुछ सरकारी दस्तावेज़ों में मौजूद हैं।”*
ऐसे ही झूठे इतिहास की बुनियाद पर टीपू सुल्तान को बदनाम करने की साज़िश की पड़ताल करते हुए *उड़ीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के सदस्य और इतिहासकार प्रो. विशम्भरनाथ पांडेय* ने अपनी किताब *इतिहास के साथ यह अन्याय!* में विस्तृत विवरण दिया है
उन्हीं के शब्दों में:-
*इतिहास के साथ यह अन्याय!*
“अब मैं कुछ ऐसे उदाहरण पेश करता हूँ, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है।
जब में इलाहाबाद में 1928 ई. में टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कॉलेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और अपने ‘हिस्ट्री-एसोसिएशन’ का उदघाटन करने के लिए मुझ को आमंत्रित किया। ये लोग कॉलेज से सीधे मेरे पास आए थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैंने टीपू सुल्तान से सम्बंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज़्यादा आश्चर्य में डाल दिया, वह यह थाः
“तीन हज़ार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।”
इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। मैंने तुरन्त डॉ. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में उपर्युक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कई पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ (Mysore Gazetteer) से उद्धृत की है। मैसूर गज़ेटियर न तो इलाहाबाद में और न तो इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता (कोलकाता) में प्राप्त हो सका। तब मैंने मैसूर विश्व विद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर ब्रजेंद्रनाथ सील को लिखा कि डॉ. शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफ़ेसर श्री कंटइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गज़ेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे।
प्रोफ़ेसर श्री कंटइया ने मुझे लिखा कि तीन हज़ार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना ‘मैसूर गज़ेटियर’ में कहीं भी नहीं है और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यक़ीन है कि इस प्रकार की कोई घटना घटी ही नहीं है। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी ब्राह्मण कृष्णराव थे। उन्होंने मुझ को ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान के तीस पत्रों की फ़ोटो कापियाँ भी भेजी जो उन्होंने श्रृंगेरी मठ के जगद्गुरू शंकाराचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने के पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रीरंगापट्नम के क़िले में था। प्रोफ़ेसर श्री कंटइया के विचार में डॉ. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ मैसूर’ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब को ‘टीपू सुल्तान का इतिहास’ एक प्राचीन फ़ारसी पांडुलिपि से अनूदित किया है, जो महारानी विक्टोरिया के निजी लाइब्रेरी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोई पांडुलिपि थी ही नहीं और कर्नल माइल्स की किताब की बहुत-सी बातें बिल्कुल ग़लत एवं मनगढ़ंत हैं।
डॉ. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठ्यक्रम के लिए स्वीकृत थी। मैंने कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर आशुतोष चैधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहारों की नक़्लें भेजी और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठ्य-पुस्तक में टीपू सुल्तान से सम्बन्धित जो ग़लत और भ्रामक वाक्य आए हैं, उनके विरुद्ध समुचित कार्यवाई की जाए। सर आशुतोष चैधरी का शीध्र ही यह जवाब आ गया कि डॉ. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया है। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 ई. में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हाई स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठ्यक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ में 23 जनवरी, 1930 ई. के अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि-
“मैसूर के फ़तह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा है कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। … मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग (Archaeology Department) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 ई. में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलाई, कल्याण और ख़ुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आएँ, क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से वर्षा होती है फ़सल अच्छी होती है और ख़ुशहाली आती है।” यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य है। ‘यंग इण्डिया’ में आगे कहा गया है-
“टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्रीनिवास और श्रीरंगनाथ मन्दिरों को ज़मीनों एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के परिसर में थे यह उसके खुले ज़ेहन, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आज़ादी की राह का हक़ीक़ी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज़ से कोई परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आज़ादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फ़ौजियों की लाशों में पाई गई तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी। वह तलवार जो आज़ादी हासिल करने का ज़रिया थी। उसके ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य है: ‘शेर की एक दिन की ज़िदगी लोमड़ी के सौ सालों की ज़िदगी से बेहतर है।’ उसकी शान में कही गई एक कविता की वे पंक्तियाँ भी याद रखे जाने योग्य हैं, जिनमें कहा गया है कि “ख़ुदाया, जंग के ख़ून बरसाते बादलों के नीचे मर जाना, लज्जा और बदनामी की ज़िदगी जीने से बेहतर है।”