Category: आम ग़लतफ़हमियों के जवाब

  • फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    फ़्राँस सेे ‌नफरत और चिन से मुहब्बत क्यों?

    जवाब:-  चलिए इस बहाने ही सही आपने यह तो माना कि मुसलमानों का क़त्ले आम हो रहा है उन पर अत्याचार हो रहा है। क्या यह आतंकवाद नहीं है? आप फ्रांस में किसी एक शख़्स की मौत हो जाने पर तो अपना पूरा समर्थन दे देते हैं उसके लिए प्रेस विज्ञप्ति जारी कर देते हैं। उसे रोकने के लिए सभी साथ आ जाते हैं। लेकिन ख़ुद आपके अनुसार “मुसलमानों का जो कत्ले आम” हो रहा है उसके खिलाफ कभी एक शब्द नहीं कहते? ना उसका कभी इस तरह का विरोध करते हैं?

    क्या सिर्फ़ इसलिए कि यहाँ मरने वाले मुसलमान हैं? क्या यह ख़ुद आपकी ही ज़ुबान से आपका दोहरा चरित्र उजागर नहीं कर देता?? सवाल तो बनता है।

    अगर हमारी बात करें तो हम ना सिर्फ़ चीन बल्कि म्यांन्मार, फिलिस्तीन, सीरिया तमाम दुनियाभर में मुसलमानों पर आतंकवाद के आरोप की आड़ में हो रहे अत्याचार बल्कि आतंकी हमलों के खिलाफ बोलते भी हैं और उसका विरोध भी करते हैं। लेकिन आप जैसे लोग ही यह बात कभी स्वीकार ही नहीं करते और उन पर हो रहे ज़ुल्म पर आँख बंद कर लेते हैं और दोहरे मापदंड (Double standards) का प्रदर्शन करते हैं।

    रही बात की यह विरोध उस स्तर का क्यों नहीं जिस तरह मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर के मामले में है तो यह बात जग जाहिर है कि एक मुसलमान के लिए उसकी ख़ुद की जान से भी प्रिय मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की शान है। ख़ुद पर हो रहे अत्याचार को एक बार वह ज़रूर सहन कर लेगा या कम आवाज़ उठाएगा लेकिन अपने पैगम्बर के मामले में वह अपने सामर्थ्य से अधिक करने का प्रयास करेगा।

  • फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    फ्रांस विरोधी प्रदर्शन।

    जवाब:- बड़े ही अफ़सोस और विडंबना की बात है कि एक संकीर्ण और षड्यंत्रकारी सोच के द्वारा आज देश के मुसलमानों की हर गति विधि, हर काम, उनकी हर समस्या और उनके किसी द्वारा किए गए किसी वैध विरोध को देश विरोधी कार्यवाही बताया जाता है और कुतर्कों के द्वारा सभी को देश विरोधी साबित कर मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैलाई जाती है। ऐसा ही प्रयास इस बार फ्रांस के कुकृत्य के विरोध के मामले में हो रहा है। जिसे बेवजह ग़लत रूप देकर इसे देश के खिलाफ बताने की कोशिश की जा रही है।

    जहाँ अक्सर लोगों को मालूम ही नहीं है कि मामला क्या है और वे इस तरह के षड्यंत्र में आकर बेवजह ही इसे ग़लत नज़र से देख रहे है और सवाल कर रहे हैं। इसलिए इन सवालों के जवाब देने से पहले आप यह जाने की यह मामला है क्या? और विरोध क्यों हो रहा है? और क्यों आपको भी इस विरोध में शामिल होना चाहिए।

     

    फ्रांस का विरोध क्यों? और क्यों सिर्फ़ मुसलमानों को ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों को इस विरोध में शामिल होना चाहिए?

     

    जो एक बहुत ही असभ्य, गैर ज़िम्मेदाराना और घटिया बात है। इसी के अंतर्गत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम के अनादर पर दुनिया भर के मुसलमान, फ्रांस के इस घटिया कृत्य का विरोध कर रहे हैं और कुछ लोग सिर्फ़ मुस्लिमों से नफ़रत में इतने अंधे हो चुके हैं कि वह बिना कुछ जाने ही फ्रांस का इस बात पर समर्थन कर रहे हैं। वह यह अच्छी तरह से समझ लें कि फ्रांस का यह विधान “बोलने की स्वतंत्रता” सिर्फ़ मुसलमानों और इस्लाम के लिये नहीं है। यह तो हर धर्म के भगवान, महा पुरुषों का अपमान और अश्लील चित्रण द्वारा धार्मिक भावनाओं को आहत करने की छूट देता है। आज इस्लाम धर्म के पैग़ंबर का अपमान किया गया है कल हिन्दू, सिख व अन्य किसी दूसरे धर्मों के बारे में भी यही बात हो सकती है। इसीलिए फ्रांस के इस घटिया विधान का सभी को विरोध करना चाहिये।

     

    और यदि आप ऐसा नहीं कर रहे या फ्रांस का इस बात में समर्थन कर रहे हैं तो इसका मतलब यह होगा की आपको इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि कोई आपके धर्म, आस्था, चिन्हों आदि का कैसा भी अपमान करे। आप को इस पर कोई आपत्ति नहीं है और आप इस बात का समर्थन कर रहे हैं कि सभी को यह करने की छूट होना चाहिए।

     

    अतः अब आप ख़ुद तय कर लें कि आपको इस बारे में फ्रांस का समर्थन करना चाहिए या उसका विरोध?

  • क़ुरान और हदिस में क्या फर्क?

    क़ुरान और हदिस में क्या फर्क?

    क़ुरआन क्या है?

    क़ुरआन अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है जो उसके आख़िरी पैगम्बर हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.) पर नाज़िल (अवतरित) हुई। इसमे कुल 114 सुरः (पाठ) हैं, दूसरे धर्म ग्रँथों से अलग क़ुरआन की विशेषता यह है कि इसमें विशुद्ध अल्लाह का कलाम (ईश वाणी) है। इसके अलावा इसमें ना किसी और के वचन हैं ना किसी और की कोई शिक्षा है ना किसी और की कोई व्याख्या, ना ही कोई विरोधाभास और ना ही कोई मिलावट।

     

    हदीस क्या है?

    पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम ने जो लोगों को क़ुरआन के बारे में सिखाया जैसे क़ुरआन में दिए आदेशों का किस तरह पालन करना है, विधि विधान और दूसरी शिक्षा दी वे अलग किताबों में संग्रहित है जिन्हें हदीस कहा जाता है।

     

    जिसके बारे में अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया:-

    अल्लाह ने ईमान वालों पर उपकार किया है कि स्वयं उन्हीं में से एक रसूल भेजा, जो उनके सामने (अल्लाह) की आयात पढ़ता है, उन्हें शुद्ध करता है तथा उन्हें पुस्तक (क़ुरआन) और हिक़मत  (तत्वदर्शिता) की शिक्षा देता है, यद्यपि “वे” इससे पहले खुले कुपथ में थे।              (क़ुरआन 3:164)

    अल्लाह (ईश्वर) की हम पर महान कृपा हुई कि उसने ना केवल हमारे मार्गदर्शन के लिए क़ुरआन भेजा, पर साथ ही क़ुरआन की शिक्षा देने के लिए, उसमें दिए आदेशों का किस तरह अमल (व्यवहारिक पालन) हो उसके लिए ख़ुद हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) को आदर्श (रोल मॉडल) बना कर भेजा। ख़ुद आप मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम 22 वर्ष के लम्बे अंतराल तक लोगों के बीच रहकर क़ुरआन पर अमल करते रहे और लोगों को सिखाते रहे ।

     

    जैसा कि क़ुरआन में फ़रमाया:-

    तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में उत्तम आदर्श है, उसके लिए, जो आशा रखता हो अल्लाह और अन्तिम दिन (प्रलय) की तथा याद करो अल्लाह को अत्यधिक।(क़ुरआन 33:21)

     

    और हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) की इन्हीं शिक्षा के उल्लेख को हदीस कहा जाता है। जिसका पालन करने के लिये ख़ुद क़ुरआन आदेश देता है ।

    तो क़ुरआन किस तरह मुकम्मल किताब है और क्या इन्सान की निजात के लिए अल्लाह ने सिर्फ हमे क़ुरआन दिया है?

     

    क़ुरआन अपनी जगह मुकम्मल (सम्पूर्ण) है, एक मात्र है। जब कि दूसरे धर्म ग्रँथों की बात करें तो उनमें कई ग्रन्थ मिल जाएंगे। हिन्दू धर्म में श्रुति और स्मृति और उसमे भी कई पुस्तकें है जैसे 4 वेद, 18 पुराण, 108 उपनिषद और उसके बाद स्मृति है। बाइबल के तो कई अलग-अलग संस्करण (Versions) हैं, बौद्ध धर्म में त्रिपट्टिका हैं आदि।

     

    अतः कई बार बुनियादी अक़ीदों (मूल सिद्धांत) में ही विरोधाभास हो जाता है या मूल सिद्धांत और अन्य बातों को समझने के लिए ही अलग-अलग स्त्रोतों पर निर्भर होना पड़ता है और उसमें भी अलग-अलग मत और उल्लेख होते है।

     

    जब कि क़ुरआन में ऐसा नहीं है वह सिर्फ़ एक मात्र है, मुकम्मल है जिस का मूल सिद्धांत सम्पूर्ण है, मरणोपरांत जीवन, परलोक आदि और अंत सभी सिद्धान्त मुकम्मल रुप से स्पष्ट है इसमे कोई विरोधाभास नहीं है और इसके लिए आपको और किसी अन्य ग्रन्थ पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं।

     

    जहाँ तक हदीस की बात है तो वह सिर्फ़ क़ुरआन को लागू करने की तरह है, जिसका क़ुरआन से कभी टकराव नहीं हो सकता ।

     

    जैसे उदाहरण के तौर पर अल्लाह ने लोगों को क़ुरआन में नमाज़ पड़ने का हुक्म दिया। अब नमाज़ पढ़ना कैसे है उसके लिये ख़ुद हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) को लोगों के बीच भेजा, उन्होने ख़ुद नमाज़ पढ़ी लोगों को उसकी विधि सिखाई वह हदीसों में संग्रहित है। अतः क़ुरआन में आदेश है, तो हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.) की सुन्नत (तरीक़े) से उस आदेश को कैसे पूरा करना है वह पता चलता है और उस तरीके (सुन्नत) का उल्लेख हदीस कहलाता है।

     

    🍁 अंत में अति महत्वपूर्ण बात यह कि कुछ लोगों को इस्लाम के बुनियादी सिद्धांत ही पता नहीं होते और वे अपने अनुसार ही व्याख्या कर लेते हैं। जैसे यहाँ सवाल करने वाले को आभास है कि इस्लाम में मनुष्य की निजात के लिए अल्लाह ने सिर्फ़ क़ुरआन भेजा और सिर्फ़ वह ही पर्याप्त होना चाहिये। जबकि  उसे नहीं पता कि अल्लाह ने सिर्फ़ क़ुरआन ही नहीं भेजा बल्कि साथ ही रसूल (स.अ.व.) भी भेजे हैं और इस्लाम का बुनियादी अक़ीदा ही क़ुरआन और सुन्नत [ रसूल (स.अ.व.) की शिक्षा ] दोनों पर अमल है दोनों को मिला कर ही इंसान का दीन (धर्म / मज़हब) मुकम्मल होता है।

     

    जैसा कि फ़रमाया क़ुरआन में –

    “हे ईमान वालो! अल्लाह की आज्ञा का अनु पालन करो और रसूल की आज्ञा का अनु पालन करो।                       (क़ुरआन 4:59)

     

    …जिस चीज का नबी तुम्हें आदेश दे उसको ले लो और जिस चीज से रोके उससे रुक जाओ।…                            (क़ुरआन 59:7)

     

    अतः हदीस (आप की शिक्षाओं का उल्लेख) का पालन दरअसल क़ुरआन के आदेश का पालन करना ही है और दोनों मिलकर ही दीन मुकम्मल करते है।

     

    इसलिए आपको चाहिए कि आप पहले इस्लाम की बुनियादी अक़ीदे का अध्ययन करे और इसके बगैर आप सिर्फ़ अपनी कल्पना के आधार पर कोई आक्षेप करते रहेंगे तो वह इतने ही निराधार साबित होंगे जितना की यह आक्षेप हुआ।

  • क्या इस्लाम लव जिहाद का हुक्म देता है?

    क्या इस्लाम लव जिहाद का हुक्म देता है?

    जवाब:-  उक्त कृत्य इस्लाम की नज़र में जघन्य अपराध है और इसकी सज़ा, सज़ा-ए-मौत है। जिन-जिन जगहों पर इस्लामी कानून लागू है वहाँ इस अपराध की यही सज़ा दी जाएगी।

    लव जिहाद का तो इस्लाम में कोई विचार ही नहीं हो सकता जब इस्लाम में किसी भी तरह के विवाह पूर्व या पर-स्त्री से सम्बन्ध, अंतरंगता ही पूर्ण रूप से वर्जित है। यही कारण है कि इस्लाम में लव अफेयर, लव मैरिज, शादी से पहले लड़का लड़की का मिलना यहाँ तक कि देखना तक हराम (वर्जित) है। उल्लेख 👉 (क़ुरआन 24:30-31)

    लेकिन अगर कोई दुराचारी फिर भी ना माने और ज़बरदस्ती, बलात्कार, हत्या जैसा कृत्य करे तो उसके लिए इस्लाम में सख़्त सजा, सज़ा-ए-मौत का प्रावधान है और आज भी सऊदी अरब जैसे मुल्क इसका जीता जागता उदाहरण है।

    अतः उक्त आरोप सिद्ध होने पर इस्लाम को आरोपी से कोई दया प्राप्त नहीं है बल्कि ख़ुद इस्लाम उसे सख़्त सज़ा की पैरवी करता है।

    साथ ही जैसा कि अपराधी हिरासत में है और तमाम एजेंसी को खुली छूट प्राप्त है। एवं वे पूर्ण रूप से सक्षम भी हैं तो इस बात का अवश्य पता लगाना चाहिए कि इस आरोप को लव जिहाद से प्रेरित किस आधार पर कहा जा रहा है?

    जब क़ुरआन और हदीस में इस तरह की कोई चीज़ नहीं है, बल्कि इसकी सख़्त सज़ा का उल्लेख है तो फिर आरोपी को इस बात के लिए प्रेरणा कहाँ से मिली?

    या कौन-सा धर्म गुरु या जमाअत इसके पीछे है और वे किस आधार पर यह चीज़ सीखा रहे हैं जिसका सिरे से कोई आधार ही नहीं? उन लोगों को भी सामने लाना चाहिए और सभी को सख़्त सज़ा देना चाहिए ।

    इस संदर्भ में यह बहुत ही अधिक ज़रूरी है और अगर ऐसा कुछ नहीं होता और लव जिहाद एक बार फिर सिर्फ़ एक आरोप बन कर ही रह जाता है।

    तो फिर यही मानने पर मजबूर होना पड़ेगा कि यह एक-तरफा प्रेम और अपराध का मामला था। चूंकि आरोपी मुस्लिम था इसलिए इसको “लव जिहाद” नाम दे दिया गया और यदि वह और किसी धर्म का होता तो सिर्फ़ अपराध कहलाता जिस तरह से एसिड अटैक, बलात्कार या फिर हत्या आदि के अनगिनत केस हर दिन दुर्भाग्य पूर्ण होते रहते हैं और इन्हें रोकने के लिए कुछ ठोस नहीं किया जाता और धार्मिक, जाति वादी आदि एंगल निकाल कर अपराध और समस्या को ख़त्म करने की बजाए उस को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

    जब सरकार से RTI द्वारा लव जिहाद पर सबूत मांगा गया तो सच्चाई बाहर आगई👇

    https://timesofindia.indiatimes.com/india/love-jihad-not-defined-under-laws-no-case-reported-government/articleshow/73946437.cms

    केंद्रीय गृह मंत्रालय का कहना है कि हिंदू धर्म को खतरा ‘काल्पनिक’ है।👇https://www.humsamvet.com/national/hindu-dharma-not-in-danger-says-union-home-ministry-15977

     

  • रोज़ा रखने से खुदा मिलता है?

    रोज़ा रखने से खुदा मिलता है?

    जवाब:-  सबसे पहले इस सम्बंध में इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे (मूल सिद्धांत) को समझना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि अक्सर लोग इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे को समझे बिना ही इसे दूसरे धर्मो की तरह मानकर सवाल करने लगते हैं।

    जैसा कि दूसरे धर्मो का अक़ीदा (विश्वास) होता है कि यह दुनिया ही सब कुछ है आदमी को पुनर्जन्म लेकर बार-बार यहीं आना है। अच्छे कर्मों का फल अगले जीवन में अच्छा बदला और बुरे कर्मों का फल अगले जीवन में दरिद्रता / ग़रीबी दुःख आदि है, यानी कि इस दुनिया की परिस्थिति और सफलता ही सब कुछ है।

    ऐसा इस्लाम में नहीं है बल्कि इस्लाम में यह दुनिया तो मात्र परीक्षा का स्थान है और बहुत थोड़े समय के किये है। जबकि असल जीवन तो आख़िरत / परलोक का है जो हमेशा रहने वाला है। अतः असली कामयाबी तो आख़िरत / परलोक की कामयाबी है।

    जैसा कि अल्लाह ने क़ुरआन में फरमाया-  उसने मौत और जिंदगी को इसलिए पैदा किया ताकि वह तुम्हें आजमाए कि तुम में से कौन अच्छे अमल करता है, वह सर्व शक्तिमान और बहुत माफ़ करने वाला है।
    (क़ुरआन 67:2)

    यानी कि इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इंसान इस दुनिया में गरीबी, अमीरी, सुख, दुःख, बीमारी, सेहत, जवानी, बुढ़ापा, औलाद, माता, पिता यह सारी चीज़ें और परिस्थिति इंसान की परीक्षा के लिए बनाई गई है। जिस तरह से परीक्षा में अलग-अलग तरह के टेस्ट पेपर सेट (Test paper set) होते हैं और अंत में यह मायने नहीं रखता की किस को कौन-सा सेट मिला था बल्कि यह मायने रखता है कि किस ने अपने सेट को सही तरीके से हल किया अतः कौन-कौन पास हुआ और कौन नहीं । वैसे ही इस जीवन में अलग-अलग लोगों की परिस्थिति और ईश्वर के आदेश का पालन कर आख़िरत में कामयाबी के बारे में है ।

    अब आते हैं आपके सवालों पर।

    • 1)  आपने पहला सवाल यह किया है कि आपने रमज़ान के 30-रोजे रखे तो क्या अल्लाह आपको मिला?

    जी बिल्कुल मिला! क्योंकि रोजे का बुनियादी उद्देश्य तक़वा हासिल करना है। क़ुरआन में है:  ऐ इमान वालों: तुम पर रोजे़ फर्ज़ किए गए जैसे कि तुम से पहली उम्मतो पर फर्ज़ किए गए थे, ताकि तुम तक़वा हासिल करो।
    (क़ुरआन 2:183)

    तक़वा यानी हर बुरे काम से बचना है और जो भी बुरे कामों से बचता है और नेक अमल / कर्म करता है वह अल्लाह के करीब होता जाता है। हदीस में है: अल्लाह तआला फरमाते हैं:  बंदा रोजा सिर्फ़ मेरे लिए रखता है और मैं ही उसका बदला दूँगा। 
    (बुखारी vol 2 page 226)

    रोजे की और भी बहुत-सी फजीलत है। बल्कि अगर आप एक महीने रोजा रख कर देख ले तो आपको ख़ुद ही अंदाजा हो जाएगा कि आप अल्लाह के कितने करीब होते हैं और शैतान (बुरे कर्म) से कितने दूर। आज दुनिया में हजारों की तादाद में ऐसे लोग मौजूद हैं जो ख़ुद मुसलमान नहीं है लेकिन आत्मिक शांति और वैज्ञानिक कारणों से रमज़ान के पूरे रोजे रखते हैं ।

    अब बात रही अल्लाह को भौतिक रूप से प्राप्त करने की और उसका दर्शन करने की। तो वह कोई ऐसी चीज़ नहीं जो आपको यूँ ही प्राप्त हो जाये। इसके बारे में स्पष्ट संदेश है कि आख़िरत में अल्लाह के उन बंदों को अल्लाह का दर्शन प्राप्त होगा जिन्होंने इस जीवन में उसके आदेशों का पालन कर अपने आपको इसका हक़दार बनाया है। जो आप भी कर सकते हैं बल्कि हर मुस्लिम इसके लिए जीवन भर प्रयासरत रहता है।

    • 2)  दूसरा सवाल है कि अगर अल्लाह होता तो दुनिया में गरीब और फ़क़ीर ना होते।

    इसका पूरा जवाब तो इस्लाम के बुनियादी अक़ीदे (मूल श्रद्धा) को समझने से ही पता चल गया होगा। फिर भी इसका थोड़ा और खुलासा कर देते हैं।

    सर्वप्रथम तो इस बात से आपके आख़िरत के जीवन में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप अमीर हैं या गरीब। दरअसल दुनिया में संतुलन बनाये रखने के लिए भी कुछ लोगों को अमीर और कुछ को गरीब होना ज़रूरी है। अगर सभी अमीर बन जाते तो यह संतुलन ही नहीं रहता और दुनिया का निजाम / व्यवस्था तहस नहस हो जाता। लेकिन जैसा ऊपर उल्लेख किया गया कि दुनिया में गरीब और अमीर दोनों परीक्षा / आजमाइश में है। अमीर की आजमाइश इसमें है कि वह अपने ईश्वर की आदेशों का पालन करते हुए गरीबों का ख़्याल रखे। इसीलिए इस्लाम में अमीरों पर ज़कात फ़र्ज है। ज़कात का मतलब हर साल अपने माल में से 2.5% गरीबों को देना। इसी तरह ज़कात के अलावा भी अपने माल को दान करने के बहुत सारे फजाइल / फायदे क़ुरआन और हदीस में बताये गए हैं। जैसे एक हदीस में है : वह शख़्स मुसलमान नहीं हो सकता जो ख़ुद तो पेट भर कर खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे।
    (तबरानी)

    नबी सल्लल्लाहो अलैही व सल्लम की पूरी जिंदगी यह तालीम देते हुए गुजरी कि पहले दूसरों का पेट भरो फिर ख़ुद खाओ। अब अमीर लोगों की गलती है कि वह गरीबों का हक़ खा जाते हैं। अगर अमीर सही तौर से गरीबों का ख़्याल रखें तो दुनिया से भीख मांगने वाले ख़त्म हो जाए और कोई भी भूखा ना सोएगा।‌ ऐसे लोगों को दुनिया में भी सख्त सजा मिलती है और आखिरत का अज़ाब तो बहुत दर्दनाक है।

    ऐसे ही जो लोग गरीब पैदा हुए हैं अगर वह सब्र से काम ले और अल्लाह के थोड़े दिए हुए माल पर खुश रहें तो अल्लाह तआला क़यामत में उनको इसका बेहतरीन बदला देंगे और दुनिया में भी उन्हें अमीरों से ज़्यादा खुशहाली नसीब होगी। क्योंकि खुशहाली सिर्फ़ माल की वज़ह से हासिल नहीं होती। आप बहुत से गरीब लोगों को देख सकते हैं जिनके चेहरे अमीरों से ज़्यादा चमकते और मुस्कुराते हैं।

    • 3) तीसरा सवाल है कि जब घर से नहा कर जाते हैं तो मस्जिद में दोबारा जाकर वुज़ू क्यों करते हैं?

    इस्लाम में स्वच्छता की बहुत अधिक अहमियत है, बावुज़ू होना नमाज़ अदा करने के लिए ज़रूरी है। हमारे वह अंग जो खुले रहते हैं और उन पर गंदगी लग जाती है उन्हें नमाज़ से पहले धोया जाता है। ताकि इंसान अल्लाह तआला के सामने मस्जिद में बिल्कुल पाक साफ़ होकर खड़ा हो। अगर आदमी अभी-अभी नहाया है और उसने लैट्रिन पेशाब वगैरह नहीं किया है तो उसका वुज़ू बाक़ी है और उसे दोबारा वुज़ू करने की ज़रूरत नहीं। ‌

    इस्लाम में स्वच्छता तो अहम है लेकिन पानी की फ़िज़ूलखर्ची (दुरुपयोग) बिल्कुल मना है। वुज़ू करने में इस्लाम इस बात की तालीम देता है कि उसमें पानी कम से कम ख़र्च किया जाये और उसका पूरा सदुपयोग हो।‌ एक हदीस में है:  एक बार नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम अपने एक साथी हजरत स‌अद (रजि.) के पास से गुजरे, वह उस वक़्त वुज़ू कर रहे थे (और पानी ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग में आ रहा था)। नबी सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ए स‌अद ! पानी की यह फ़िज़ूलखर्ची क्यों? उन्होंने कहा, क्या वुज़ू करते वक़्त भी पानी की फ़िज़ूलखर्ची होती है? आप सल्लल्लाहो अलैहि व सल्लम ने फरमाया: हाँ ! चाहे तुम किसी नहर पर ही वुज़ू कर रहे हो।
    (मुसनदे अहमद 6768, इब्ने माज़ा 419)

    यानी वुज़ू करने में पानी को व्यर्थ नहीं बहाना है फिर चाहे आप नदी / नहर से ही वुज़ू क्यों ना कर रहे हो (अर्थात पानी बहुतायत मात्रा में उपलब्ध हो तब भी)

    इसी तरह अगर आप इस्लाम की बुनियादी बातों को जानकर अगर आप बुनियादी तस्वीर ( मूल अवधारणा / बेसिक कॉन्सेप्ट) को समझ लेंगे तो आपको आपके सवालों के जवाब ख़ुद ही मिल जाएंगे।

  • बच्चा अपने परिवार का धर्म अपनाता है?

    बच्चा अपने परिवार का धर्म अपनाता है?

    जवाब:- इस तरह के सवाल करने वाले सराहना के पात्र होते हैं । क्योंकि यकीनन अधिकांश लोग अपने माता पिता के धर्म को ही सही मान कर जीवन गुज़ार देते हैं और कभी इस बारे में विचार ही नहीं करते ।

    और बस जो बाप-दादाओं को करते पाया उसे ही सत्य मान लेते हैं जबकि वे (पूर्वज / बाप-दादा) भी तो हमारी तरह इंसान ही थे, उनसे भी ग़लती हो सकती है! हो सकता है उन्होंने भी कभी इस बारे में सोचा ही नहीं हो और वे भी बस जो पिछलों को करते पाया उसे ही बिना कुछ जाने करते रहे हों।

    इसी बात का क़ुरआन में बार-बार ज़िक्र है :-👇

    और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह (ईश्वर) ने अवतरित की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, “हमारे लिए तो वही काफ़ी है, जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।” क्या यद्यपि उनके बाप-दादा कुछ भी न जानते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हो?
    (क़ुरआन 5: 104)

    और भी कई जगह इस बात का ज़िक्र है। बहरहाल जो इस बात को समझे कि किसी धर्म में जन्म लेने का यह मतलब नहीं कि वही धर्म सही हो गया वह निश्चित ही सराहना का पात्र है।

    अब जब वह इतना सोच पा रहा है तो उसे इसके आगे विचार करना चाहिए कि फिर वह कैसे पता करे की सत्य मार्ग क्या है या कुछ है भी या नहीं ?

    जब हम इसमें  सबसे पहले यह विचार करते हैं कि क्या इस संसार को बनाने वाला कोई है भी या नहीं ? या यह दुनिया अपने आप बन गई ?

    जब हम इस सवाल पर ग़ौर करते हैं तो इस बात को मानना पड़ता है कि ज़रूर इस कायनात (संसार) को बनाने और चलाने वाला कोई है।

    इसकी छोटी-सी और बहूत परफेक्ट मिसाल यह है कि इंसान एक अन्वेषक (Innovator) तो है लेकिन सृजक (Creator) नहीं। आज तक इतिहास में चाहे इंसान ने जितनी तरक्क़ी कर ली हो । लेकिन आज तक वह ख़ुद से एक कण भी नहीं बना पाया है। इंसान ने जो कुछ भी बनाया या ईजाद किया वह तो पहले से ही मौजूद किसी ना किसी चीज़ का इस्तेमाल कर बनाया है।

    जैसे आज भले इंसान ने राकेट बना लिया हो लेकिन उसके निर्माण में इस्तेमाल चीज़ों का वह जनक नहीं। फिर चाहे वह धातु हो, ईंधन हो या कुछ और आधारभूत तत्व (Basic element) उसने ख़ुद ने नहीं सृजन (Create) कर लिए बस उनका इस्तेमाल कर कुछ का कुछ किया है।

    ऐसे ही राकेट का हवा में जाना या अपने लक्ष्य पर जाना। कायनात में कार्य कर रहे कानून (Laws) के इस्तेमाल से ही सम्भव होता है। यह बात साइंस का इल्म रखने वाले जानते हैं। कि इसके पीछे भौतिकी के नियम (Laws of physics), वायुगतिकी (Aerodynamics) और दूसरी अन्य लॉ काम करते हैं। जो कायनात में पहले से मौजूद हैं और काम कर रहे हैं।

    अतः हमें मानना पड़ता है कि आज तक जब हम एक कण ख़ुद से ना बना सके तो यह पूरी सृष्टि बनाने वाला कोई तो है और इस्लाम हमें किसी और कि तरफ़ नहीं बल्कि उसी सृजक (Creator), सृष्टिकर्ता जिसने हम सब को बनाया की तरफ़ बुलाता है :-

    अल्लाह हर चीज़ का स्रष्टा है और वही हर चीज़ का ज़िम्मा लेता है।
    (क़ुरआन 39:62)

    वही अल्लाह तुम्हारा रब; उसके सिवा कोई पूज्य नहीं; हर चीज़ का स्रष्टा है; अतः तुम उसी की बन्दगी करो। वही हर चीज़ का ज़िम्मेदार है।
    (क़ुरआन 6:102)

    जैसा हमने देखा कि यह बिल्कुल स्पष्ट और सीधी-सी स्वाभाविक बात है कि इस संसार को बनाने वाले कि हम इबादत करें और सिर्फ़ उसी की और जो मार्ग जाता है वही सत्य मार्ग है।
    लेकिन आज अगर विश्व भर में हमें यदि देखना हो कि कौन-सा धर्म है जो बिना किसी विरोधाभास (Contradiction) के सख्ती से (Strictly) उसी एक ईश्वर की इबादत करने और उसके आदेशों का पालन करने की बात करता है तो जवाब इस्लाम ही है।

    वैसे सिर्फ़ ईश्वर का एक होना और उसी की इबादत करना न सिर्फ़ इंसान की बुद्धि में निहित है बल्कि हर प्रमुख धर्म ग्रन्थ में कहीं ना कहीं यह बात मौजूद भी है इसीलिए क़ुरआन में फ़रमान है :-

    (हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के) आज्ञाकारी हैं।
    (क़ुरआन 3:64)

    बड़े ही दुःख की बात है कि इतना खुला और स्वाभाविक सन्देश होने के बावजूद हमेशा ही लोगों ने सिर्फ़ अल्लाह की इबादत (एकेश्वरवाद) का निमंत्रण देने वालों को और इसे अपनाने वालों को हमेशा बुरा-भला ही कहा है और हर सम्भव तकलीफ़ दी है।

    ऐसा ही वाकया क़ुरआन में सुरः यासीन में बयान हुआ है :-

    जब ईश्वर ने एक कौम की तरफ़ पैग़म्बर (सन्देष्टा) भेजें जो उन्हें एक ईश्वर की तरफ़ बुला रहे थे, तो वे लोग उन्हें बुरा-भला कहने लगे और उन्हें संगसार (पत्थर मार कर हत्या) की धमकी देने लगे इसी दौरान एक बुद्धि से काम लेने वाला शख़्स दौड़ा आया-

    और शहर के उस सिरे से एक शख़्स दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि ऐ मेरी क़ौम (इन) पैग़म्बरों का कहना मानो
    (क़ुरआन 36:20)

    ऐसे लोगों का (ज़रूर) कहना मानो जो तुमसे कुछ मज़दूरी नहीं माँगते और वह लोग हिदायत याफ्ता भी हैं।
    (क़ुरआन 36:21)

    तथा मुझे क्या हुआ है कि मैं उसकी इबादत (वंदना) न करूँ, जिसने मुझे पैदा किया है? और तुम सब उसी की ओर फेरे जाओगे।
    (क़ुरआन 36:22)

    मैं तो तुम्हारे परवरदिगार पर ईमान ला चुका हूँ मेरी बात सुनो और मानो; मगर उन लोगों ने उसे संगसार कर डाला।
    (क़ुरआन 36:25-26)

    बेशक ऐसे ही लोगों के लिए कामयाबी है। सोच विचार करने वाले एकेश्वरवाद की तरफ़ आएँ और क़ुरआन जो कि उस ईश्वर की तरफ़ से भेजी गई वाणी है उसका अध्ययन कर ख़ुद तय करें कि क्या ईश्वर का उनके लिए सन्देश क्या है? इसमें ईश्वर ने हर तरह से सत्य की खोज करने वालों के लिए निशानियाँ बयान कर दी हैं।

    और यह तुम्हारे रब का रास्ता है, बिल्कुल सीधा। हमने निशानियाँ, ध्यान देनेवालों के लिए खोल-खोलकर बयान कर दी है।
    (क़ुरआन 6:126)

     

  • क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    क़ाफ़िरो को क़त्ल करने का हुक्म?

    जवाब:-  नहीं, क़ुरआन किसी निर्दोष क़ाफ़िर (गैर-मुस्लिम) को मारने का हुक्म नहीं देता है।

    क़ुरआन [5:32] में इसका खुला आदेश है। 👇
    “जो शख़्स किसी को क़त्ल करे बग़ैर इसके कि उसने किसी को क़त्ल किया हो या ज़मीन में फ़साद बरपा किया हो तो गोया उसने सारे इंसानों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक शख़्स को बचाया तो गोया उसने सारे इंसानों को बचा लिया”

    इस्लाम निर्दोष मुसलमान और निर्दोष गैर-मुस्लिम (क़ाफ़िर) की जानों में कोई अंतर नहीं करता। यानी जिस तरह एक निर्दोष मुस्लिम का क़त्ल करना हराम / वर्जित है वैसे ही एक निर्दोष गैर-मुस्लिम की हत्या करना भी हराम / वर्जित है और दोनों के क़त्ल की सज़ा बराबर, यानी सज़ा-ए-मौत है।

    क़ुरआन की जिन आयातः में क़त्ल का ज़िक्र है वह या तो जंग के मैदान के सम्बंध में है या फिर किसी जघन्य अपराध की सज़ा के रूप में है और इन्हीं आयातः को बता कर यह दिखाने का कुप्रयास किया जाता है कि क़ुरआन सभी क़ाफ़िर को मारने का हुक्म देता है। जो कि पूर्णतः ग़लत और झूठ है।

     

    कुरआन सूरह 2:191 का हवाला देकर अकसर यह कहा जाता है कि इसमे लिखा है “जहाँ तुम बहुसंख्यक हो जाओ वहाँ गैर मुस्लिमों को क़त्ल करो।” बिलकुल झूठ है। ऐसा इस आयत तो क्या पूरे कुरआन में कहीं भी नहीं लिखा है।

    झूठा प्रोपेगेंडा कर नफ़रत फैलाने वालो लोगों को चैलेंज है कि सूरह 2:191 तो क्या पूरे कुरआन में कहीं कोई आयात बता दे जिसमे यह बात लिखी हो। जो कि वे नहीं बता पाएंगे अतः इनसे निवेदन है कि झूठ की बुनियाद पर नफ़रतें फ़ैलाना बन्द कर दें।

    अब हम कुरआन सूरह 2:191 के बारे में बात करें तो इसका सन्दर्भ क्या है और उसमे क्या लिखा है यह सिर्फ़ उसकी पहले की आयत यानी की 2:190 पढ़ लेने से ही स्पष्ट हो जाता है।

    और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़े, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता।
    (कुरआन 2:190)

    यानी कि यह स्पष्ट है कि यहाँ युद्ध के हालात के बारे में ज़िक्र है और अंततः अल्लाह ने उन लोगों से लड़ने की अनुमति दी है जो ख़ुद तुमसे लड़ते हैं और तुम्हें क़त्ल करने के लिए आते हैं और अल्लाह की रहमत देखिए कि इसमें भी यह स्पष्ट कर दिया की जो तुमसे लड़े उन्ही से लड़ने की अनुमति है और इसके अलावा किसी तरह की ज़्यादती की अनुमति नहीं है।

    दरअसल जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का में लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने लगे तो मक्का के सारे लोग आपके दुश्मन बन गए। जो कोई भी इस्लाम स्वीकार करता उसको तरह-तरह की तकलीफ दी जाती थी। उन पर इतने भयानक अत्याचार किए गए कि उसको सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

    इस्लाम स्वीकार करने वालो पर मक्का के लोगों की तरफ़ से यह अत्याचार 13 वर्षों तक चलते रहे इन लोगों का कसूर सिर्फ़ इतना था कि इन्होंने इस बात को स्वीकारा था कि सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत की जाए, उसके साथ किसी को शरीक ना किया जाए उसके बताए आदेशों का पालन किया जाए, गरीब और यतीमो पर अत्याचार ना करें, हराम का माल ना खाएँ, ब्याज के ज़रिए गरीबों पर ज़ुल्म ना किया जाए, झूठ ना बोलें, रिश्वत ना लें, लड़कियों को ज़िंदा दफन ना करें, शराब और किसी भी तरह का नशा ना करें।

    लेकिन मक्का के सरदारों को यह बात कबूल ना थी और उन्होंने मुस्लिमो पर 13 साल तक कठोर अत्याचार किये और जब वे इस्लाम को बढ़ने से ना रोक पाए तो हथियार और ताकत के दम पर मुस्लिमो को ख़त्म कर देने की ठानी यहाँ तक मुस्लिमो को इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया कि उन्हें अपने जीवन भर की कमाई, घर-बार और अपना वतन छोड़ कर मदीना में जाना पड़ा।

    गौरतलब रहे कि इस पूरे अरसे (13 वर्षो) तक अल्लाह ने मुस्लिमो को अपने ऊपर अत्याचार करने वालो को किसी तरह का जवाब देने की अनुमति नहीं दी यहाँ तक अपने बचाव / आत्मरक्षा (Self defense) में भी हाथ उठाने की अनुमति नहीं थी। कई मुस्लिमो ने इस बात की इजाज़त माँगी लेकिन उन्हें सिर्फ़ सब्र करने का ही कहा गया और इजाज़त नहीं दी गई। यहाँ तक कि कितने ही मुस्लिम इन अत्याचारों को सहते हुए स्वर्ग सिधार गए।

    अंततः जब 13 वर्षों के अंतराल के बाद मुस्लिम अपने घरों से निकाल दिए गए और मदीना में जाकर शरण लेने को मजबूर हुए इसके बाद भी मक्का के काफिरों को चैन नहीं मिला और वे मुस्लिमो को ख़त्म करने में लगे रहे कभी पूरा लश्कर लेकर हमला करने आते तो कभी कुछ कभी कुछ और। 14-15 साल का अंतराल गुज़र जाने के बाद अल्लाह ने मुस्लिमो को ऐसे ज़ालिमों को जवाब देने और जो जंग करने आए उनसे युद्ध करने की इजाज़त दी। ऐसा ही ज़िक्र कुरआन सूरह 2:190 में है,

    इसके आगे फिर आयात 2:191 आती है👇

    और जहाँ कहीं उन पर क़ाबू पाओ, क़त्ल करो और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना (उत्पीड़न) क़त्ल से भी बढ़कर गम्भीर है। लेकिन मस्जिदे हराम (काबा) के निकट तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे स्वयं तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अतः यदि वे तुमसे युद्ध करें तो उन्हें क़त्ल करो-ऐसे इनकारियों का ऐसा ही बदला है।
    (कुरआन 2:191)

    ज़ाहिर है जंग के मैदान में जब अंततः लड़ने की अनुमति दी गई तो यही कहा जायेगा कि जब वे तुमसे लड़ने आएँ तो उन्हें जहाँ पाओ वहाँ क़त्ल करो, यह तो नहीं कहा जायेगा कि जब वे लड़ने आएँ तो पीठ फेर कर भाग जाना या खुद ही क़त्ल हो जाना। इस आयत के ही शब्दों से यह भी साफ़ हो जाता है कि उन्हें उस जगह से निकालने के लिए कहा जा रहा है जहाँ से इन्होंने ख़ुद मुसलमानो को बाहर निकाला था और उस पर अब कब्ज़ा किये हुए बैठे हैं। फिर इस आयत में एक बार फिर खबरदार कर दिया गया की तुम उनसे ना लड़ो जब तक कि वे तुमसे ना लड़े।

    अतः इस आयत का सन्दर्भ स्पष्ट हुआ, तथा यह भी मालूम चला कि इस आयत का हवाला देकर जो बताया गया था वह झूठ था और यह भी मालूम हुआ कि कुरआन में जो लड़ने की आयतें हैं वे अत्याचार और अत्याचारियों के विरुद्ध ही है। ना कि आम हालात में और आम लोगों के बारे में।

    जिन्हें नफ़रत फैलाने वाले अपने प्रोपेगेंडा के लिए तोड़ मरोड़ के इस्तेमाल करते हैं।

     

    इसी विषय को विस्तार में जाने के लिए वीडियो देखें।👇https://www.facebook.com/Aimimyakuthpura.hyd/videos/1669457576569984/

  • गैर मुस्लिमो के साथ गलत व्यवहार?

    गैर मुस्लिमो के साथ गलत व्यवहार?

    जवाब:-  इस विडियो में इस्तेमाल की गई 2 विडियो कटिंग की पूरी विडियो आप ख़ुद देखें और इसकी सत्यता की जाँच स्वयं करें 👇

    https://youtu.be/8t28RtIEayA (0:38 से 3:25 तक)

    https://youtu.be/M0PF2NCLcW4 (0:10 से 3:00 तक)

    जिस तरह से क़ुरआन की आयातः को काट-छाँट कर ग़लत तरीके से पेश किया जाता रहा है, ठीक वैसा ही अब कई विडियो को काट-छाँट कर कुछ का कुछ बता कर पेश किया जाने लगा है। जैसे इस विडियो में पता नहीं कहाँ-कहाँ की विडियो को इस्तेमाल करते हुए किया गया और उपर्युक्त विडियो को पूरा देखने पर आपको इस चालबाज़ी का स्वयं अनुभव हो गया होगा।

    दरअसल इस्लाम में इंसान के जीवन के हर पहलू के बारे में मार्गदर्शन मौजूद है चाहे वह कोई भी पहलू क्यों ना हो। ऐसे ही अत्याचार और अन्याय के बारे में भी है। इस्लाम ना केवल अत्याचार करने से रोकता है बल्कि इंसान को अत्याचार के खिलाफ लड़ने और ख़त्म करने का भी हुक्म देता है ना कि अत्याचार और अन्याय सहने का।

    ऐसे ही अगर कोई मुस्लिमों पर ज़ुल्म करे, उन्हें यातनाएँ दें उनकी जान और महिलाओं की इज़्ज़त का हनन करे, उन्हें उनके घरों से निकाल दे, सिर्फ़ मुस्लिम होने की वज़ह से उनका बॉयकॉट कर अत्याचार करे। तो निश्चय ही क़ुरआन ऐसे गैर-मुस्लिमों से अत्याचार के खिलाफ लड़ने और अत्याचार ख़त्म करने का हुक्म देता है, जिसका ज़िक्र इन आयातः में है।

    जिन्हें संदर्भ से हटा कर आम हालात में प्रस्तुत करने का कुप्रयास किया जाता है।

    जबकि स्पष्ट रूप से इस्लाम आम हालात में उपर्युक्त बताए अत्याचारी गैर मुस्लिमों के अलावा आम गैर-मुस्लिमों (काफ़िरों) से अच्छा व्यवहार और परोपकार करने का हुक्म देता है और इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं:-👇

    • ★ [60:8] अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हें तुम्हारे अपने घर से निकाला निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है।
    • ★ [60:9] अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं।
    • ★ [04:36] और अल्लाह की इबादत करो और किसी चीज़ को उसका शरीक न बनाओ और माँ-बाप के साथ अच्छा सलूक करो और रिश्तेदारों के साथ और यतीमों और मुहताजों और रिश्तेदार पड़ोसी और अजनबी पड़ोसी और साथ उठने बैठने वाले और मुसाफ़िर के साथ और जिनके तुम मालिक हो (यानी नौकरों के साथ), बेशक अल्लाह पसंद नहीं करता इतराने वाले, बड़ाई जताने वाले को।
    • ★ ‘वह मोमिन नहीं जो ख़ुद पेट भर खाकर सोए और उसकी बगल में उसका पड़ोसी भूखा रहे।’
      (अल फिरदौस लिद्देल्मी 5/20 मुस्तदरक हाकिम 4/167)
      {पड़ोसी चाहे किसी भी धर्म का हो, आप मोहम्मद (स.अ.व.) के अनुसार आस-पास, आगे-पीछे के 40-घरों तक को पड़ोसी की श्रेणी में रखा गया है}
    • ★ अगर कोई मुसलमान ऐसा नहीं करता है… और गैर मुस्लिम पर ज़ुल्म / ज़्यादती करता है…तो फिर वह मुसलमान नहीं हो सकता और क़ुरआन उस मुस्लिम के बारे में सज़ा का हुक़्म देता है..!
    • ★ अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) ने 3-बार अल्लाह की क़सम खाते हुए फ़रमाया के “अल्लाह की क़सम वह शख़्स मुसलमान नहीं जिसका पड़ोसी उसकी बुराई से महफूज़ नहीं।”
      (बुखारी 6016)
    • ★ अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) ने फ़रमाया “जो कोई अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है वह अपने पड़ोसी को तकलीफ ना पहुँचाए”।
      (बुखारी 6018)
    • ★ [5:32] …..”जिसने कोई जान क़त्ल की, बग़ैर जान के बदले या ज़मीन में फसाद किया तो गोया उसने सब लोगों का क़त्ल किया और जिसने एक जान को बचा लिया तो गोया उसने सब लोगों को बचा लिया”…..।

    अतः ज्ञात हुआ कि दिखाई गई विडियो इस्लाम के प्रति नफ़रत फैलाने का एक छल मात्र है और इस्लाम आम गैर-मुस्लिमों (काफ़िरों) से सदव्यवहार और परोपकार करने की शिक्षा देता है।

  • मक्का में गैर मुस्लिमों के प्रवेश पर प्रतिबंध क्यों?

    मक्का में गैर मुस्लिमों के प्रवेश पर प्रतिबंध क्यों?

    जवाब:-  सर्वप्रथम तो कोई भी मुस्लिम मंदिरों में प्रवेश के प्रतिबन्ध पर विरोध का प्रदर्शन नहीं कर रहा है। बल्कि विरोध तो अबोध बालक की निर्मम पिटाई का हो रहा है।

    औऱ इस अमानवीय घटना का तो ख़ुद हिन्दू भाई ही विरोध कर रहे हैं। क्योंकि बेशक इस बात की शिक्षा कोई धर्म नहीं देता। बल्कि इस तरह की हरक़त कर कुछ लोग अपने ही धर्म को शर्मसार करते हैं।

    दरअसल इसके असली ज़िम्मेदार भी यह लोग ख़ुद नहीं होते बल्कि इनके पीछे वे असामाजिक और नफ़रत फैलाने वाले भड़काऊ लोग होते हैं जो निरंतर इनके दिमागों में ज़हर घोलते रहते हैं और ऐसा काम करने के लिए उन्हें निरन्तर प्रेरित करते हैं।

    और यही नहीं, जब इसके फलस्वरूप लोग कुछ ग़लत कर बैठते हैं तो यही नफ़रत और हिंसा का पाठ पढ़ाने वाले लोग उसके बाद भी (यह सोच करके कहीं सभी के विरोध पर) इन्हें आत्मग्लानि ना हो जाये इसलिए ब्रेनवॉश जारी रखते हैं और कुतर्को से उनकी पीठ थपथपाते रहते हैं और उन्हें बताते रहते हैं कि तुमने कुछ ग़लत नहीं किया बल्कि बहुत अच्छा किया है।

    बिल्कुल ऐसे ही यह ब्रेनवॉश नफरती गैंग, यहाँ पानी पीने गए बच्चे की पिटाई को डिफेंड कर सही साबित करने में लगे हैं। पहले कहे गए कई झूठ कि वह बच्चा यह करने आया था या वह करने आया था जब किसी झूठ से बात नहीं बनी तो एक और कुतर्क, मक्का में प्रवेश का देने लगे।

    जैसा की सबको पता है कि मंदिर का पर्याय मस्जिद होती हैं। जबकि मक्का तो एक तीर्थ और विशेष स्थान है जिसका पर्याय दुर्गम तीर्थ स्थान और विशेष स्थान हो सकते हैं और ऐसे तो कई हिन्दू स्थान, गर्भगृह, कपाट आदि हैं जहाँ मुस्लिम तो दूर की बात आम हिंदुओं का प्रवेश भी वर्जित होता है।

    ऐसे स्थान विशेष ही होते हैं और आम शहर रास्तों में तो होते नहीं कि जहाँ कोई ग़लती से प्रवेश कर जाए या पानी पीने के लिये ही पहुँचे।

    जबकि ऐसा मंदिर, मस्जिदों में हो सकता है और इस्लाम की किसी मस्जिद में हिंदुओं को पानी पीने के लिए नहीं रोका जाता बल्कि इस्लाम में तो प्यासों को पानी पिलाना बड़ा पुण्य का काम है। साथ ही जैसा कई हिन्दू भाइयों, पंडितों ने हमे बताया कि हिन्दू धर्म और मंदिरों में भी ऐसा ही है।

    अतः इस्लाम के मुताबिक और हिन्दू धर्म के हमारे ज्ञान के मुताबिक तो यह ठीक नहीं फिर भी अगर कोई मंदिर या मस्जिद कमेटी भी गैर धर्म वालो को पानी पीने के लिए प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना चाहे तो इसका प्रबंधन अवश्य कर ले कि अनजाने या गलती से प्रवेश की गुंजाइश ना रहे।

    जैसे कहीं लिख दिया गया प्रवेश वर्जित है और बेचारा अनपढ़ अनजाने में अंदर चला गया तो फिर उसे इस बुरी तरह पीटा जाए की वह अधमरा-सा हो जाए या मर ही जाए।

    क्योंकि यह तो किसी भी स्थिति में सही नहीं होगा और जो भी ऐसा करेगा वह अपने धर्म और उसकी शिक्षा का ही ग़लत प्रदर्शन कर उसे शर्मसार करेगा और नफ़रत फैला कर लोगों को लड़ाने वाले लोग तो चाहते भी ही यही हैं। अतः हमें सोचना चाहिए कि वाकई में हमे ख़तरा किन लोगों से है? दूसरे धर्म वालो से या हमारे धर्म के लोगों का ही ब्रेनवॉश करने वालों से?

  • मुस्लिम को इस्लाम की अच्छी बातें क्यों नहीं सिखाई जाती ?

    मुस्लिम को इस्लाम की अच्छी बातें क्यों नहीं सिखाई जाती ?

    जवाब:-  यह कहना ग़लत होगा कि मुसलमानों को क्यो नहीं समझाया जाता।

    क्योंकि इस्लाम के सभी अरकान और ख़ुद क़ुरान में बार-बार इसकी सीख मिलती है। इसके अलावा हर जुमआ, ईद के मौके और अन्य कई मौकों पर ख़ुत्बे सिर्फ़ मुलसमानों की समझाइश और प्रेरणा के लिए ही होते हैं। कई जमाअते हैं जो मुसलसल यही काम करती हैं। जैसे क़ुरआन की आयत में खुला निर्देश है :

    तथा तुममें एक समुदाय ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो भली बातों की ओर बुलाये, भलाई का आदेश देता रहे, बुराई से रोकता रहे और वही सफल होंगे।*
    (क़ुरआन 3:104)

    इसके बाद भी अगर कोई बाज़ नहीं आता सही अमल नहीं करता तो वह सज़ा का भागी होगा। क्योंकि इस्लाम का यह कहना नहीं कि सिर्फ़ मुसलमान हो जाओ और उसके बाद जो मर्ज़ी चाहे करो। बल्कि अगर इंसान आख़िरत (परलोक) की कामयाबी चाहता है तो उसे ज़िंदगी भर अल्लाह के आदेश पर अमल करना होगा।

    अल्लाह तआला सिर्फ़ मुसलमानों का ईश्वर नहीं है बल्कि वह तमाम इंसानो और संसारो का रब है।👇

    सब प्रशंसायें अल्लाह के लिए हैं, जो सारे संसारों का पालनहार है।
    (क़ुरआन 1:1)

    और उसका पैगाम भी सभी इंसानो के लिए समान रूप से स्पष्ट है :-👇

    ये अल्लाह की (निर्धारित) सीमाएं हैं और जो अल्लाह तथा उसके रसूल का आज्ञाकारी रहेगा, तो वह उसे ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी। उनमें वे सदावासी होंगे तथा यही बड़ी सफलता है और जो अल्लाह तथा उसके रसूल की अवज्ञा तथा उसकी सीमाओं का उल्लंघन करेगा, उसे नरक में प्रवेश देगा। जिसमें वह सदावासी होगा और उसी के लिए अपमानकारी यातना है।
    (क़ुरआन 4:13-14)

    साथ ही हमारी यह जिम्मेदारी है कि अल्लाह के हुक्म को सभी तक पहुँचा दे। लेकिन उसके बाद भी अगर वे अनुसरण नहीं करते तो यह उनकी मर्ज़ी है इस पर हमारा कोई ज़ोर नहीं है।

    फिर यदि वे विमुख हों, तो आप पर बस प्रत्यक्ष (खुला) उपदेश पहुँचा देना है।
    (क़ुरआन 16:82)

    अतः हमारा कार्य तो सभी को बता देना है। ना तो यह हमारे लिये सम्भव है ना ही इसकी जिम्मेदारी ईश्वर ने हम पर डाली है कि सभी को सही और सुधार कर दें।

    बल्कि यह तो व्यक्ति विशेष पर है कि वह अल्लाह के आदेशों पर कितना अमल करता है फिर चाहे वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम हो सभी को अपना हिसाब देना है सभी के सामने अल्लाह का आदेश है। सभी को अपनी फ़िक्र करना चाहिए, इसमें कोई समझदारी नहीं की पहले वह सही काम करे फिर मैं करूंगा या वह जब मुस्लिम होकर ईश्वर के बताए हुक्म पर अमल नहीं कर रहा तो मैं क्यों करूं? उसकी सज़ा वह भुगतेगा आप अपने बारे में फ़िक्र करें।

    क्योंकि यह दुनिया तो सिर्फ़ परीक्षा की जगह है असल ज़िदगी तो आख़िरत (मरणोपरांत परलोक) की ही है।